शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

परंपरागत परिचय है क्या?

परंपरागत परिचय है क्या?

आज अनेक लोग परंपरागत परिचय के संदर्भों को ही नहीं समझ पाते। स्थान परिवर्तन, किसी तथ्य को सामाजिक/पारिवारिक कारण से छुपाने, विस्मृति या किसी उद्देश्य से बदल देने के कारण परिचय में जो अंतर आए हैं, वे उसे क्या समझेंगे?
अतः इस बार परिचय के संदर्भों पर ही यथासंभव प्रकाश डाला जा रहा है। इस आलेख में उन बातों को नहीं शामिल किया गया है, जो पूर्ववर्ती दो आलेखों (संदेशों) में ब्लाग पर उपलब्ध हैं। अतः दोनों को मिलाकर पढ़ें।
ऋषि एवं गोत्र
गोत्र पर लिखा जा चुका है। राजस्थान में मूलग्राम (जिसकी पहचान वह समूह स्मृति में रखे हुए है) को ही लोग गोत्र मानने लगे हैं। विवाह आदि में उसी आधार पर निर्णय करते हैं। बिहार उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ में पुर एवं गोत्र दोनों की स्मृति है और पूछा भी जाता है। राजस्थान की अलग व्यवस्था है। श्री नंदकिशोर शर्मा जी ने इा पर विस्तार से लिखा है। उनके आलेख टंकित हो रहे हैं। उनकी सहमति संशोधन के बाद यथाशीघ्र उपलब्ध कराये जायेंगे।
ऋषि - किसी भी साधना एवं उसके लिए आवश्यक मंत्र एवं विधियों के आदि प्रवर्तक को ऋषि कहा जाता है। साधना एवं मंत्र की अनेकता के कारण ऋषियों की अनेकता है। कुछ ऋषि केवल वैदिक मंत्रों के ऋषि होते हैं, कुछ वैदिक, तांत्रिक दोनों मंत्रों एवं साधना विधियों के। बाद में बीज मंत्रों एवं वर्णमाला रूपी मंत्रों के भी ऋषियों की मान्यता आई है। उन्हें उस वर्णसंबंधी साधना का आदि प्रवर्तक तो माना जा सकता है वर्ण का नहीं क्योंकि वर्ण और अक्षर अनादि हैं।
वशिष्ठ ऋषि वैदिक, तांत्रिक, वामाचार-दक्षिणाचार सभी प्रकार की विधियों एवं साधना परंपराओं में स्वीकृत हैं। तारा जैसी देवी को सनातनी परंपरा में लाने का श्रेय वशिष्ठ को दिया या है। सामान्य कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर यह बात अटपटी लगेगी, किंतु भारतीय काल दृष्टि ही भिन्न है। यहाँ वर्तमान, भूत भविष्य तीनों कालों में साधना के द्वारा हस्तक्षेप की संभावना मानी जाती है। इस विषय पर काल दृष्टि वाले आगामी आलेख में पढ़ने को मिलेगा।
रेखीय दृष्टि से अर्थात् अतीत-वर्तमान-और भविष्य, जिसकी पुनरावृत्ति संभव नहीं है (जैसा ईशाई और मुसलमान मानते हैं) वशिष्ठ, व्यास एवं अन्य ऋषि-मुनियों के नाम पर कुल परंपरा चलती है और नई विधियांे/गं्रथों को उनके नाम पर ही समर्पित कर स्वीकार किया जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में समझें कि आपके कुल गोत्र की साधना परंपरा मुख्यतः किस ऋषि की परंपरा में हैं।
प्रवर - ऋषियों के आपसी संगठन, निकटता एवं भाईचारे के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। पहले कुछ भारतीय ब्राह्मण एक प्रवर के भीतर भी विवाह नहीं करते थे।
आस्पद/उपाधि मिश्र, पाठक, पाण्डेय आदि कई बातों पर आधारित हैं, जैसे - साधना, अध्ययन की परंपरा, उसकी शैली राजा द्वारा दी गई उपाधि आदि। ये बदलती रहती हैं।
मंत्र - साधना के लिए जपे जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समूह वाक्यांश या वाक्यों को मंत्र कहते हैं। मंत्र मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - वैदिक वाक्य रूपी एवं तांत्रिक-ध्वनि रूपी बीज मंत्र। बाद में पौराणिक श्लोकों, स्तोत्रों आदि का भी प्रयोग मंत्र रूप में होने लगा।
वेद - पहले तीन वेद होते थे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, एवं सामवेद, बाद में चौथा अथर्ववेद भी जुड़ा इस प्रकार चार वेद हुए। हर ब्राह्मण की जिम्मेवारी होती थी कि वह कम से कम किसी एक वेद के किसी एक भाग या शैली विशेष को कंठस्थ रखे।
शिखा - (शिर की चोटी)
वेद को कंटस्थ कर पाठ करने की अपनी शैली होती थी और उसके अनुरूप शिर के बाल की चोटी बनानी पड़ती थी। जैसे आज माथे पर संप्रदाय विशेष के अनुरूप तिलक लगाया जाता है उसी तरह पहले चोटी भी रखी जाती थी। इसी आधार पर बांई तरफ या दाहिनी तरफ की (झुकाव के अनुसार) चोटी बनानी पड़ती थी।
उपवेद (रोजी-रोटी संबंधी अन्य उपयोगी विधाएं) चार वेदों के आधार पर विद्या कई शाखाएँ विकसित हुईं, उन्हें उपवेद कहा गया। मगों में प्रचलित उपवेद हैं - आयुर्वेद - ये ग्रंथ वैदिक संस्कृत भाषा में नहीं हैं। उसके बाद की सामान्य संस्कृत (लौकिक संस्कृत) में है। इसी तरह गंधर्वर्वेद - संगीत की विभिन्न विधाओं को कहा जाता है। धनुर्वेद - युद्ध कला संबंधी विधा है।
ये विधाएँ रोजी-रोटी के अन्य साधनों के रूप स्वीकृत हुईं, परंतु यज्ञ एवं वेद की शिक्षा तक सीमित ब्राह्मण इसे नीचा मानते थे। फिर भी राज्याश्रय के कारण उपर्युक्तों तीनों विधाओं के साथ वेदांग, ज्योतिष, लक्षण विद्या एवं वास्तु विद्या को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली।
छन्द - छन्द किसी पद्य/वाक्यांश को गाने के तौर-तरीके एवं उसकी सजावट को निर्धारित करता है। वर्णों की संख्या, स्वर की मात्रा, आरोह-अवरोह, यति, विराम, आदि बातों का समावेश छंद में होता हैं। मंत्रों के छन्द भी निर्धारित रहते हैं।
आम्नाय:- पुर के संदर्भ में यह मगों का आंतरिक वर्गीकरण बतानेवाला तकनीकी शब्द है। वार, आर और अर्क ये तीनों शब्दांश स्थानवाची पहले शब्द के साथ जुड़ते हैं, जैसे - ‘उरवार’। ‘उरवार‘ में उर-गाँव का नाम है, वार एक विशेष वर्गीकरण का द्योतक है। इसका अर्थ हुआ वार ग्रुप का सदस्य जो उर ग्राम का मूल वासी है। इसी प्रकार ‘आर’ प्रत्यय भी रहने वाला अर्थ को व्यक्त करता है। ‘अर्क’ का शाब्दिक अर्थ होता है- सूर्य। पुण्यार्क का मतलब हुआ सूर्य की एक विशेष प्रतिमा की पूजा करने वाला जिसका नाम पुण्यार्क है। साथ ही इसका अर्थ यह भी हुआ कि पुण्यार्क सूर्य के मंदिर के नाम पर बसे गाँव पुण्यार्क का रहने वाला। इसी अर्थ के कारण ‘अर्क’ आम्नाय वालों का पुर नाम के साथ सार्थकता है।
कुलदेवी देवता -
इस विषय पर विस्तार से मैं ने इसी ब्लॉग में लिखा हैं। संक्षेप में यह समझें कि मग ब्राह्मण कई बार विष्णु या सूर्य के किसी प्रसिद्ध मंदिर के पुजारी तो होते थे किंतु घरेलू साधना में शिव या शक्ति के किसी अन्य रूप की आराधना करते थे। कई बार मंदिर के देवता एवं कुल देवता एक होते थे।
पुरों की संख्या में वृद्धि -
आरंभ में 72 पुर माने गए। बाद में विभिन्न पुरों की मान्यता भी हुई। बाद वाले पुरों में कुछ के गाँव/स्थान का तो पता चलता है, कुछ का पता नहीं चलता। इनकी संख्या 105 के आसपाल हो गई। यह सब क कैसे हुआ, इस पर मैं अभी कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, संभावनाएँ अनेक हैं। अधिकांश गाँव तो दक्षिण बिहार (मगध क्षेत्र) में हैं किंतु कुछ पुरों का मूल स्थान उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में भी पाया जाता है। गाजीपुर, बलिया, सीवान में भी कुछ ऐसे पुर वाले मूल ग्रामों का उल्लेख पुरवाली सूचियों में हैं।
दुखद यह है कि मगध के लोगों ने ऐसी सूची बनाई ही नहीं। उन्हें लगता होगा कि हमलोग तो जानते ही हैं, सूची क्यों बनाएँ? पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं में प्रचलित सूचियाँ उत्तर प्रदेश की सूचियों की नकल हैं। कुछ लोगों ने स्रोत का जिक्र किया है। संज्ञा समिति जैसे स्थानीय संगठन ने जो सूची छापी है, वह भी बनारस से प्राप्त है।
पता नहीं उसे राजस्थान की परंपरा से कैसे जोड़ दिया है क्योंकि जैसलमेर के पंडित नंद किशोर शर्मा जैसे प्रख्यात विद्धान और शोधकर्ता ने जो तथ्य परक जानकारी अपने पुस्तकों में दी है, उसका इस सूची से कोई मेले नहीं है। यह सूची तो पुराना बिहार, उत्तर-प्रदेश एवं मध्यप्रदेश के लिए है।
ये सूचियाँ प्रायः स्मृति पंरपरा पर आधारित हैं। इसलिए गाँव के नाम कुछ बदले-बदले से लगते हैं। मैं उन्हें संभावित क्षेत्र में जा कर एवं वहाँ के लोगों से पूछ कर ठीक करने का प्रयास कर रहा हूँ। इसमें आप लोगों की मदद की जरूरत है। विभिन्न स्थानों की सूची में मिलान कर रहा हूँ। अगर आप इनके बारे में या किसी एकाध के बारे में भी जानते हों, तो सूचित करें। चित्र, वीडियो, आदि भेजें। इस सूचना को आपकी जिम्मेवारी पर आपके नाम के साथ प्रस्तुत किया जाएगा।
विश्वजित मिश्र ने सूचियों की तुलना कर उसे अद्यतन करने की जिम्मेवारी ली है। जिन मामलों में जानकारी पक्की हो जायेगी उसे प्रकाशित कर दिया जायेगा।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

बी.एन. मिश्र जी ने तंत्र एवं मग संस्कृति के प्रयोगिक बातों को नई पीढ़ी को सिखाने का आग्रह रखा है। मग लोग तंत्र साधना के लिये जाने जाते हैं। अतः उनका कर्तब्य बनता है कि कम से कम लोकोपयोगी एवं समाज में स्वीकृत प्रायोगिक विधियों को स्पष्ट करें और पुनः पहलं अपने लोगों को सिखाएं। गूढ़ एवं रहस्यमय पक्षेंा की बात बाद में करे। इससे तंत्र सीखने में भय या लोक निंदा की दुविधा भी नहीं रहेगी और स्वतः लोगों की अभिरुचि बढ़ेगी। अंगरेजी पढ़े और इंटरनेट पर बैठने वाले भी अपनी परंपरा के लिये न तो विदेशियों के चंगुल में फंसेंगे न अघ्यात्मविराधियों या धूर्तों के शिकार होंगे। अभी भी परंपरा पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है। महिलाओं की कृपा एवं अंगरेजभक्त संस्कृत पंडितों की अरुचि के करण बच गई हैं। अब इनका बचना मुश्किल है क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्राप्त महिलाएं पुरुषों से कम अहंकारिणी नहीं हैं।
इसलिये मैं ने चुनचुन कर लोक पंरपरा में प्रचलित अनुष्ठानों एवं व्रतों की जानकारी रखना शुरू किया है ताकि अगर किसी को जानने सीखने में रुचि हो तो उसकी मदद की जा सके या जानकार लोग भी झेंप छोड़ कर इन अनुष्ठानों को अपन घर में पूरा करायंे, इसे फालतू न समझें
पंच कोश परिचय
पंचकोश परिचय के बिना सच पूछिए तो सनातन धर्मीय जीवन शैली संभव ही नहीं है। बौद्ध एवं जैन पद्धति से जीने के लिए भी नामांतर से ही सही कुछ न कुछ सीखना जरूरी है।
पंच कोश का यहाँ तात्पर्य है - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश की अपने व्यक्तित्व में पहचान एवं उसकी कार्यप्रणाली की समझ तथा उसके अनुसार जीवन में सफल होना। यह व्यावहारिक ज्ञान किसी सिद्ध-संत के लिए उपयोगी हो, ऐसी बात नहीं है। यह तो सभी गृहस्थों के दैनिक जीवन के लिए उपयोगी है।
उत्तर भारत में इसे अनिवार्य माना गया। कम से कम तीन कोश अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय की कार्य प्रणाली जो नहीं समझे, उसे विवाह का अधिकार ही नहीं है। यहां तक तो समाज के द्वारा निर्धारित अनिवार्य एवं व्यावहारिक/प्रायोगिक शिक्षा थी, और औरत-मर्द दोनों के लिए जरूरी थी। इसलियेे इसके प्रशिक्षण की जिम्मेवारी मुख्यतः औरतों को दी गयी। सभी मर्द भी उनके नेतृत्व में खुलकर ही क्या बढ़-चढ़ कर इस प्रक्रिया में सीखने-सिखाने में भाग लेते थे। आज भी प्रशिक्षण देने वाले अनुष्ठानों की खाना पूर्ति तो होती है पर वास्तविक शिक्षा जरा सी गलती सी चूक जा रही है।
इस अनुष्ठान को सवर्णों में जनेऊ एवं विवाह दोनों समय एवं असवर्णो में केवल विवाह के समय अवश्य किया जाता है। यह है, हल्दी एवं बार-बार चुमावन का अनुष्ठान। तांत्रिक दृष्टि से चुमावन संपूर्णता देने वाला अक्षताभिषेक है, जो सभी अभिषेकों का अंत एवं श्रेष्ठतम माना जाता है। समाज में यह सर्वमान्य गैर ब्रांडेड अर्थात संप्रदाय के प्रभाव से मुक्त रूप से स्वीकृत है। इसलिये संस्कृत के मूर्ख पंडित एवं कर्मकांडी इससे चिढते हैं।
इस अनुष्ठान के पूरा होते ही वर या वधू या वटुक जो भी हो योग साधना में वर्णित धारणा, प्रत्याहार एवं तंत्र में वर्णित न्यास तथा कवच को समझने एवं उसका वास्तविक अभ्यास की पात्रता अर्जित कर लेता है। सामाजिक स्वीकृति तथा बड़ों के संरक्षण में किये जाने के कारण इसका कोई भी दुष्परिणाम नहीं होता। इसे सीखने की न्यूनतम उम्र 9 साल है।
आज तो हर प्रक्रिया का समापन मंदिर में देवता के दर्शन एवं पाठ से पूरा कर लिया जाता है। न्यास, कवच, अर्गला, सभी मंत्रों का केवल शाब्दिक उच्चारण मात्र से क्या होगा? यह तो कक्षा एक नहीं, नर्ससी की पढ़ाई हुई।
स्नायु तंतुओं की संवेदना, संरचना को महसूस करना, मन में पड़ने वाले प्रभाव को स्वीकार करना, फिर तटस्थ होना, फिर उसे नियंत्रित करना, असली शिक्षा तो यह है। एकांत, अकेली साधना में जिस अनुभव को प्राप्त करने में कई वर्षों का समय लगता, उसे परिवार के लोग अपने संरक्षण में मात्र हफ्ते-दस दिन में जबरन सिखा देते थे।
ऐसे अनेक अनुष्ठान हैं, जिन्हंे सामाजिक स्वीकृति है। तंत्र के नाम पर अंधानुकरण या ठगी से बेहतर है कि पहले समाज में स्वीकृत अनुष्ठानों में जीवन फँूकने का काम किया जाये। विस्तार भय से अब लिखना बंद कर रहा हूँ। शिक्षण-प्रशिक्षण के अभिक्रम या चुनौती के लिए तैयार हूँ। आरंभ में मात्र 10-15 विवाहित जोड़ों की जरूरत है, जो अगली पीढ़ी को सिखा सकें, फिर तो बाबा रामदेव की कपाल भाँति से भी दु्रतगति से यह प्रक्रिया समाज में बढ़ेगी। देहात में आज भी घर-घर में होती ही है। मुश्किल यह है कि देहात के लोग शहर के लोगों की नकल करते हैं, अशिक्षित शिक्षित की और असवर्ण सवर्णों की। इसलिये शिक्षित तथा अभिभावक की उम्रवाले ब्राह्मणों को इस काम के लिये आगे आकर समूह बना कर पारिवारिक एवं संस्थागत स्तर पर प्रशिक्षण देना चाहिए। औरतों में भी शिक्षा के प्रसार के कारण अब उनका भी खुला सहयोग मिलेगा। चंूकि इस प्रशिक्षण में घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों का नेतृत्व मान्य होगा अतः स्पष्ट है कि उनकी अभिरुचि अधिक रहेगी। यह तो पहली कड़ी है, आगे भी ऐसी जानकारियां उपलब्ध होती रहेंगी।
ये सभी जानकारियां इस ब्लाग के स्वतंत्र पृष्ठ - सीखने लायक पर क्रमशः उपलब्ध होंगी।

मखपा की प्रतिमाएं एवं मंदिर







मखपा की प्रतिमाएं एवं मंदिर

मखपा, टेकारी, गया, बिहार महावराह एवं वाराही की प्रतिमा एवं मंदिर के चित्र दिये जा रहे हैं।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

आदान-प्रदान: आपके सुझाव एवं जानकारियां

कुछ ब्लाग पाठकों ने पत्राचार करना एवं जानकारियां देना शुरू कर दिया है। इस आदान-प्रदान से कई सभी लाभान्वित हों इसलिये इसे एक स्वतंत्र पृष्ठ पर रखा जा रहा है।
इस बार बिलसैयां पुर पर विश्वपति मिश्र का पत्राचार दिया जा रहा है।

पूरी सामग्री आदान-प्रदान: आपके सुझाव एवं जानकारियां पृष्ठ पर देखें

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

विशेषज्ञ: इनसे भी पूछें/जानें

विशेषज्ञ: इनसे भी पूछें/जानें

मग ब्राह्मणों में विद्वान एवं विशेषज्ञ व्यक्तियों की कमी नहीं है। वे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं।मेरी जानकार की भी सीमा है। मैं ने पहले भी वादा किया है कि केवल प्रमाणिक सूचना दी जाएगी अतः मैं केवल उन्हीं लोगों का नाम दम रहा हूं जो जानकार हों भले ही वे हमें पसंद नहीं करते हों। तंत्र, आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र का व्यवसाय करने वालों लोगों के दावे की परीक्षा करना मेरा काम नहीं है। अतः उनकी सूची नहीं दी जा रही है। यहां केवल उन्हीं लागों की सूची दी जा रही है और आगे भी दी जा सकती है जिन्होंने मग जाति की समाज व्यवस्था, संस्कृति इतिहास, साधना, संगठन आदि विषयों पर चिंतन, शोध, अघ्ययन आदि का काम किया है। संभव है कि इस सूची में उल्लिखित लोग संस्कृत के विद्वान न हों या किसी दूसरे पेशे के हों। केवल संस्कृत पढ़ने से या कर्मकांडी होने से कोई संस्कृति कर जानकार नहीं होता। यह रुचि एवं लंबे अघ्ययन से संभव है।
मग संस्कृति को कौतूहलपूर्ण, रहस्यमय, बाहरी, विदेशी आदि मानकर भारतीय अभारतीय दोनो लोगों ने काफी काम किया है। कुछ लोगों ने सौम्य और कुछ लोगों ने अभद्र ढंग से भी निष्कर्ष निकाले हैं। कुछ पूर्णतः पूर्वाग्रही हैं। मैं अकेले ही सारा निष्कर्ष निकालूं तो यह सही नहीं होगा, कोई सर्वज्ञ थोड़े ही हूं।
मग संस्कृति पर कई लोगों ने अध्ययन किया है। कई लोगों ने इटरनेट पर समूह चर्चा भी की है। कुछ लोग वेबसाइट भी चलाते हैं। कुछ परंपरागत साधक एवं पंडित हैं, कुछ शोधकर्ता है। ये सभी मग जाति के लोग हैं। इनके मन में अपनी जाति के प्रति अधिक लगाव होना सहज है और गौरवशाली पक्ष का ही ये सहज रूप से समर्थन करेंगे। मेरी जानकारी में जैसे-जैसे इस तरह के विशेषज्ञ आएँगे मैं उनका पता देता जाऊँगा और सूची बढ़ती जाएगी।
कुछ लोग अन्य जातियों के हैं, उन्होंने भी शोध अध्ययन किया है। विशेषकर जो भारतीय हैं और किसी न किसी ब्राह्मण जाति-उपजाति से संबद्ध हैं उनके अध्ययन एवं निष्कर्ष पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है, भले ही वे अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हों। इनमें से एक प्रो॰ बैद्यनाथ सरस्वती के साथ काम करने/सीखने का मेरा निजी अनुभव है।
आपके मन में यदि कोई प्रश्न आता है तो आप उनसे भी पूछ सकते हैं। जो उत्तर सही लगे आप स्वीकार करें।
मग विशेषज्ञ (जन्म से)
सर्व श्री
1 नंदकिशोर शर्मा, मरु सांस्कृतिक संग्रहालय, गडसीसर, जैसलमेर, राजस्थान
2 बी॰एन॰मिश्र,
गाँव - हरदियाँ, जि-भोजपुर, बिहार, वर्तमान में-भोपाल मध्यप्रदेश
B-329 Sarvadharam Colony
Kolar Road, Bhopal (MP),India
Phone: 9827363363
E-mail: mishrabn50@gmail.com


गैर मग विशेषज्ञ (जन्म से)
1 डॉ॰ मंजु गीता राय
2 प्रो॰ बैद्यनाथ सरस्वती
एन॰के॰बोस मेमोरियल, फाउंडेशन,
शिवाला, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पुस्तक – Brahmanic Ritual Traditions यह पुस्तक E.book के रूप में भी Google पर भी उपलब्ध
पूरी जानकारी के लिये विशेषज्ञ वाला पृष्ठ देखें

यह ब्लॉग बंद क्यों न कर दिया जाय?

यह ब्लॉग बंद क्यों न कर दिया जाय?
मेरे अज्ञात, सुंदर से सुन्दर संबोधनों से अलंकरणीय, प्रशंसनीय, आदरणीय पाठकगण।
क्या आपको विश्वास नहीं है कि मैं अभी जीवित हूँ? यह ब्लॉग मेरी प्रेतात्मा ने नहीं लिखा है। अगर विश्वास है तो मेरा अपराध क्या है?
मैं एक नया ब्लाग लेखक हूँ। तो क्या हुआ, आप कौन शुकदेव की भाँति परम ज्ञानी की तरह पैदा हुए थे? अगर ऐसा ही हो तो क्षमा करेंगे और अवश्य बताएंगे।
मग संस्कृति के आलेख एक जाति विशेष के लिए हैं, तो मैं ने कब इसे छुपाया है? शीर्षक साफ है, लेकिन क्या इस विषय को कोई पूछने वाला नहीं है या आप पढ़कर चुपचाप निकल जाते हैं? मैंने तो अभी तक आपसे कोई अर्थ सहयोग नहीं माँगा तो फिर इतना लो बताइए कि यह ब्लाग कैसा लगा?
आप अगर सलाह देंगे तो शिरोधार्य होगा? निंदा करेंगे तो सुधार किया जाएगा? लेकिन इस तरह उपेक्षा करेंगे तो मुझे लगेगा कि मैं ने कोई गलत काम तो नहीं किया?
वैसे भी मैं थोड़ा अल्पबुद्धि आदमी हूँ। बचपन से ही खुद ही रूठता हूँ, खुद ही मानता हूँ। मुझे पूछता कौन है कि मनाए भला? लेकिन इस बार मामला ऐसा नहीं है। मैं भी जीवन के 51वें वसंत का रस ले रहा हूँ।
यह कौन सा न्याय है कि मैं बार-बार सामग्री डालता रहूँ, पेज सजाता रहूँ और आप हैं कि 10-20 शब्द टिप्पणी बाक्स में लिखने में शरमा रहे हैं। कोई मेल भी नहीं करते।
अपने फेस में कोई आकर्षण है नहीं कि फेसबुक पर जाऊँ, चोंच लड़ाने आया नहीं कि Twitter बनूँ। जिस खंूटे से घरवालों ने बाँध दिया उसी को उखाड़ कर घूम रहा हूँ परंतु खूँटा नहीं छोड़ा।
आपका उत्तर मेरी उर्जा होगी, सलाह दिशा निर्देशन करेगी और शिकायत से तो लगेगा कि आप मेरे असली शुमेच्छु हैं। रही किसी जानकारी की माँग तो अपना पक्का वादा है कि मैं इसमें कोई कंजूसी नहीं करूँगा जरा पूछ कर तो देखिए। आपका नजरें चुराकर निकल जाना बड़ा दर्द देता है।
एक बात और मैं एक बार फिर रूठने की हिम्मत जूटा रहा हूँ। अब जब तक आप लोग नहीं कहते और अब तक के पोस्ट इत्मीनान से पढ़ नहीं लेते मैं ही चुप हो जाता हूँ। और कितना बक-बक करूँ।
आगे आपकी जैसी मर्जी

रवीन्द्र कुमार पाठक

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संभावित अनुशासन

संभावित अनुशासन

सम्मानित/प्रिय पाठकगण,
मैं एक नया ब्लाग लेखक हूँ। मुझे बताया गया है कि ब्लाग लिखने का भी अपना एक मर्यादित अनुशासन होता है। ब्लाग एक वार्ता है। इसमें लेखक की अभिव्यक्ति पर पाठकों की प्रतिक्रिया आती है, लोग प्रश्न पूछते हैं। कोई नया या पुराना सदस्य या स्वंय ब्लाग का लेखक उत्तर देता है या सवाल पूछता है। निष्कर्ष कि ब्लाग का मकसद संवाद है, इकतरफा प्रलाप नहीं है कि जो भी मन में आए इंटरनेटी आकाश में प्रदूषण फैलाते रहें।
यह सुनकर मैं डर गया हूँ। वैसे भी मैं प्रदूषण विरोधी आदमी हूँ। केवल लाचारी वाली गंदगी पैदा करता हूँ। समय, ऊर्जा सबकी खपत होती ही है, तो सोचा कि मैं भी अनुशासन में आ जाऊँ।
’ आगे से मैं निम्न प्रकार से अनुशासित रहने का प्रयास करूँगा:-
’ भारी भरकम सामग्री मुख्य पेज पर नहंी मिलेगी। उसके लिए संबद्ध पृष्ठ देखें। वहीं पर टिप्पणी करें।
’ पाठकों से निवेदन के पुराने अंश ‘पाठकों’ से पृष्ठ पर मिलेंगे
’ मुख पृष्ठ पर संक्षिप्त सामग्री और चर्चाएँ रहेंगी।
’ प्रश्न और उसके उत्तर रहेंगे।
’ चित्र एवं वीडियो क्लिप एक स्वतंत्र पृष्ठ “दृश्य श्रव्य” पर मिलेंगे।
अगर किसी अन्य बात से या मेरे प्रयास से आपको सुविधा हो तो बताइएगा।
हाँ टिप्पणियों की कड़की में मैंने word verification हटा दिया है, अब तो पधारो हे टिप्पणीकार! प्रश्नकर्ता!
रवीन्द्र कुमार पाठक
विशेष सूचना:- अगर किसी को विभिन्न पुरों का एक साथ परिचय देनेवाले चार्ट चाहिए तो इमेल से माँगे। उनका आकार इतना लंबा-चौड़ा हो जाता है कि ब्लाग के पेज पर ठीक से उभर नहीं पाता है। ऐसे चार्ट इमेल द्वारा भेजे जाएँगें। इसी प्रकार की समस्या वीडियों के साथ है, अच्छी क्वालिटी वाली वीडियो सी॰डी॰ द्वारा डाक से भेजी जा सकती है। मेरे पास जो इंटरनेट कनेक्शन है वह बड़ी फाइल अपलोड नहीं कर पाता। कोई अन्य सरल उपाय हो तो आप ही बताएँ।
रवीन्द्र कुमार पाठक

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

उरवार आदि पुरों के लिये सिद्धेश्वरी पटल

श्री सिद्धेश्वरी-पटलः

स्वस्ति-वाचनादि कर्म करके अर्ध्य-स्थापन करें। यथा- ‘पृथिव्यै नमः, आधार-शक्तये नमः, अनन्ताय नमः, कूर्माय नमः, शेषनागाय नमः’ - इन मन्त्रों से अपने वाम-भाग में एक त्रिकोण-मण्डल बनाकर उसके मध्य मं पंचोपचारों से पृथ्वी का पूजन करंे। इसी मण्डल के ऊपर अर्ध्य-पात्र स्थापित करें। अब यथा-विधि संकल्प करें। संकल्प के अन्त में यह वाक्य जोड़ लें -
‘सर्वाभीष्ट-फलावाप्ति-कामः कलश-स्थापन, गण-पत्यादि-प´्च-देवता, सूर्यादि-नव-ग्रह- दश-दिग्पाल-देवता-पूजन-पूर्वकं श्रीसिद्धेश्वरी-पूजनमहं करिष्ये।’
तब कलश-स्थापन कर प´्च-देवताओं और नव-ग्रहादि का पूजन करें। पश्चात् विल्व-पीठ के ऊपर श्री सिद्धेश्वरी देवी के ‘पूजा-यन्त्र’ को लिखे। ‘पूजा-यन्त्र’ लिखने की विधि है कि जटामासी और रक्त-चन्दन से विल्व-काष्ठ से बने पीढ़े को लीपे। फिर रक्त-चन्दन से दाड़िम की लेखनी द्वारा उस पीढ़े के मध्य भाग में यन्त्र बनावें। यथा - 1 विन्दु, 2 त्रिकोण, 3 षट्-कोण, 4 वृत्त, 5 प्रष्ट-दल कमल और 6 वृत्त।
पीढ़े के ऊपर एक नूतन पीत वस्त्र बिछावें। कपडे़ के ऊपर शुद्ध घी से सोलह रेखायें नीचे से ऊपर की ओर खींचे। इन रेखाओं के मध्य में सिन्दूर लगावें और उनके ऊपर सोलह पान की पत्तियाँ बिछावें, सोलहों स्थानों में अक्षत और अक्षतों पर सोलह पैसे, सोलह सुपाड़ियाँ, सोलह लौंगे तथा इलाइचियां रखकर पूजन प्रारम्भ करें। पहले हाथ में फूल और अक्षत लेकर निम्न प्रकार की सिद्धेश्वरी देवी का ध्यान पढ़ें -
उद्यन्मार्तण्ड-कान्तिं विगलित-कवरीं कृष्ण-वस्त्रावृता›ं़ा, दण्डं लि›ं़. कराब्जैर्वरमथ भुवनं सन्दधतीं त्रि-नेत्राम्। नाना-रत्नैर्विभातां स्मित-मुख-कमलां सेवितां देव-सर्वै-र्माया-राज्ञीं नमोऽभूत् स-रवि-कल-तनुमाश्रये ईश्वरीं त्वाम्।।
इस प्रकार ध्यान कर हाथ में लिए फूलाक्षत को अपने सिर पर चढ़ा ले। इसके बाद ‘¬ शंखाय नमः’ इस मन्त्र से शंख-पात्र स्थापित करे। उसमें जल, अक्षत, पुष्प और सुपाड़ी (कसैली) डाले। तदनन्तर हाथ में पुष्पाक्षत लेकर भगवती का ध्यान करते हुए निम्न --------------------------संपूर्ण श्री सिद्धेश्वरी-पटलः के लिये पुर परिचय वाला पृष्ठ देखें
फौंट की समस्या का ठीक से समाधान नहीं हो पा रहा है। शुद्ध पाठ के लिये इमेल करें

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना’

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना’ मगध रहस्यविद्या की विधियों के आविष्कार की भूमि रहा है। इसने गोपनीय मानी जाने वाली विधियों को जनसुलभ बनाया है, भले ही वे काल के प्रवाह में पुनः लुप्त या गुप्त हो गई हैं। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों को समझे बिना यहाँ के मूर्ति शिल्प, अनुष्ठान एवं कई अन्य विधियों को समझ पाना संभव नहीं है। हरगौरी की पालकालीन प्रतिमाएँ हर गाँव मुहल्ले में मिलती हैं जिसमें गौरी शिव के आलिंगन मंे उनकी एक जाँघ पर बैठी हुई होती हैं। शिव का बायाँ हाथ गौरी के बाएँ स्तन पर रहता है। इतना हीं नहीं नग्न शिव का लिंग ऊपर की ओर खड़े रूप में चित्रित रहता है। दिगंबर जैन नंगे घूमते रहते हैं। मगध जैनियों एवं विशेषकर दिगंबर जैनों का क्षेत्र है। उनके यहाँ उच्च साधना में नग्नता ही दिव्यत्व है। बौद्ध परंपरा की दृष्टि से भी युगनद्ध संभोगकालीन रूप ही दिव्यतम रूप है जिसका चित्रण तिब्बती थंका में रहता है। मगध के भी कई मंदिरों में खजुराहों की भाँति आकृतियाँ बनी हुई हैं। बौद्ध तांत्रिकों ने इस साधना को विविध नामों से पुकारा है जिसके ‘वसंततिलक योग’ एवं ‘बोधिचित्त का उत्पाद’ ये दो अधिक प्रचलित नाम हैं। काम ऊर्जा को संचित-संप्रेषित करने के कुछ अनुष्ठान आज भी स्त्रियों के द्वारा अनुष्ठित --------


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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

डाकिनी एवं नाड़ी विद्या

डाकिनी एवं नाड़ी विद्या
मगों का आयुर्वेदज्ञ होना और तांत्रिक होना दोनो बातें प्रख्यात हैं। इसी तरह यह भी माना जाता है कि नाडी विद्या आयुर्वेद में मगों का मूल योगदान है। डाकिनी और डायन तो अपने ही बदनाम है। जरा सच तो जानिए कि दुकानदारी, मूर्खता और कमजोर औरतों को सताने के लिये भारत में क्या क्या उपाय किये गये। ऐसा वातावरण बनाया गया कि डर के मारे कोई अपने को योग्य व्यक्ति घोषित ही नहीं कर सके, चाहे वह औरत हो या मर्द।
सुनने में ये दोनों शब्द रहस्यात्मक लगते हैं। डाकिनी शब्द तो रहस्यात्मक है ही नाड़ी शब्द भी कम रहस्यात्मक नहीं है। योग, तंत्र आयुर्वेद सभी जगह नाड़ी शब्द का प्रयोग होता है। वहाँ भी इनका अर्थ पूर्ण स्पष्ट नहीं है। योग एवं तंत्र में सुषुम्ना आदि अति सूक्ष्म एवं केवल अनुभवात्मक हैं.....................
for detail go to the page Tantra Rahasya : Andhere se Baahar

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

मगों की तांत्रिक संस्कृति को समझने के पूर्व

मगों की तांत्रिक संस्कृति को समझने के पूर्वमग संस्कृति को समझने के पूर्व आपके दिलोदिमाग में निम्न रूप से लचीलापन का होना जरूरी है -
मग संस्कृति तांत्रिक परंपरा की वाहिका रही है। अतः जैसे तंत्र के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण दोनों रहता है वैसे ही मगों के प्रति भी आकर्षण (तंत्र का लाभ उठाने के लिए) और विकर्षण (अति रहस्यवाद एवं पाखंड में धोखा खाने एवं रहस्यविद्या के अल्पज्ञान के कारण) भी प्रबल रहा है। बंगाल, मिथिला एवं अन्य तंत्र परंपरा वाले ब्राह्मण मगों के प्रति ईर्ष्यालु रहे किंतु उड़ीसा के साथ मैत्री संबंध रहा। आज उड़ीसा में भी विरोध हो गया है।
शाकद्वीपी/मग नाम सुनते ही ज्योतिष एंव तंत्र की बात करनेवाला गैर मग व्यक्ति डर जाता है कि यह तो गूढ रहस्य वाले कुल का है क्योंकि अधिकांश अन्य लोग वास्तविक तंत्र साधना न पहले जानते थे न आज जानते हैं। जानकार लोगों के बीच मगों के प्रति आज भी प्रेम एवं आदर दोनों उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से रहस्यविद् होने की जगह तंत्र की दुकान चलाने वाले अनेक लोग ......
पूरी सामग्री पढ़ने के लिये तंत्र रहस्य वाले पेज में जायं।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

भयावह एवं गोपनीय सूचना हेतु पूरा परिचय दें



भयावह एवं गोपनीय सूचना हेतु पूरा परिचय दें
यह ब्लाग मग-भोजकों को तथ्यात्मक जानकारी देने के उद्देश्य से चलाया जा रहा है। तथ्य हमेशा शुभ एवं सुखद नहीं होते, कुछ गोपनीय भी होते हैं अतः सूचना पाने के लिए आपको प्रमाणित करना होगा कि आप मग ब्राह्मण हैं और तंत्र संबंधी जानकारी के लिए आपका बालिग तथा निर्भीक होना जरूरी है। बलि आदि के दृश्य आपको क्षुब्ध कर सकते हैं और तथ्य आप की पूर्व धारणा को तोड़ सकते हैं।
आगे बढ़ने एवं जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वयं को मेरे इमेल ravindrakumarpathak@gmail.com पर पूरा परिचय भेजें। मुझे विश्वास होने पर मैं आपको अपने पास उपलब्ध पूरी जानकारी भेज दूंगा। रवीन्द्र कुमार पाठक
निम्न जाकारियां उपलब्ध करायें
नाम पिता का नाम उपाधि
वय Age पुर, गोत्र, मूल ग्राम/शाखा, फोन/मो. नं॰, इमेल, कुल देवी-देवता का नाम
समाज में आपको किस रूप में जाना जाता है - सकलदीपी, भोजक, सेवग, याचक अन्य (नाम दें)
मांसाहारी/शाकाहारी (कितनी पीढ़ियों से ..............)
वैवाहिक स्थिति - अविवाहित/विवाहित तो कब
खानदानी व्यवसाय - क्षेत्र
आपका वर्तमान व्यवसाय
मातृकुल -
पुर- गोत्र मूल ग्राम/शाखा
कुल देवी - देवता का नाम
खानदानी व्यवसाय क्षेत्र
ससुराल का पुर, गोत्र, पता
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मग संस्कृति की दुविधाएँ/उलझनें

डॉ॰ रवीन्द्र कुमार पाठक
सूर्यवंशी और सूर्यपूजक होने के बावजूद मग संस्कृति को समझना आज की तारीख में कठिन है। यह कई उलझनों, दुविधाओं एवं सामाजिक उतार-चढ़ाव के बीच विकसित हुआ है। अतः सीधे-सरल रूप में मग संस्कृति की ऐतिहासिक एवं वर्तमान संस्कृति को नहीं समझा सकता है। इसे समझने के लिए जरूरी है कि आज से आरंभ कर क्रमशः इतिहास एवं परंपरा की पिछली परतों का अवलोकन किया जाय। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि पूजा-पाठ, अनुष्ठान, संस्कार के प्रायोगिक पक्षों को भी समझा जाय और उसकी समीक्षा तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक संदर्भो में की जाय। आगे कुछ बिंदु रखे जा रहे हैं, जिससे मुख्य उलझनों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट होगा -
1. जंबूद्वीप में बसने के बाद भी शाकद्वीप की याद समेटे रखना। भारत में अनेक आर्य-अनार्य जातियाँ आई किंतु सबों ने जंबूद्वीपीय भारतीय पहचान को स्वीकार कर अपनी पुरानी पहचान समाप्त कर ली। शाकद्वीपीय ब्राह्यण अभी भी दोनो पहचान रखने की उलझन में हैं।
2. उपासना की अनेकविध शैलियाँ - सूर्य के साक्षात् वंशज मानने पर भी मग, भोजक, सेवग आदि ने अपनी कुल-देवी, कुल-देवता के रूप में सूर्य के विविध रूपों के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं को स्थान दिया और इस कारण इनका सूर्य-वंशज एवं सूर्य-पूजक होने का दावा भी उलझन में पड़ गया। शिव एवं शक्ति के विविध रूपों के अतिरिक्त इन्होनें विभिन्न यक्षों एवं याक्षीणियों की न केवल उपासना शुरू की बल्कि उन्हें अपनी कुल देवी-देवता के रूप में स्वीकार कर लिया।
सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी, तारा, चँवरी, भल्लिनी, अन्धारी आदि देवियों एवं यक्षिणियों की उपासना आज भी हो रही है। उलझन तब और बढ़ जाती है जब सूर्य आदि मंदिरों के पुजारी दूसरों को तो पूजा एवं उसके अनेक शुभ फलों का उपदेश देते हैं परंतु अपनी कुल पंरपरा में उन देवी-देवताओं की उपासना नही करते। ऐसा करना इनके लिये संभव भी नहीं है क्योंकि जब जिस देवता की आराधना की सामाजिक चलन बढ़ी इन ब्राह्मणों ने कहीं मुख्य विग्रह के साथ तो कहीं मुख्य विग्रह को हटाकर नए देवता या देवी की पूजा शुरू कर दी। ऐसा आचरण अनेक मंदिरों में मिलता है। इस अनुचित व्यवहार की न तो शास्त्रीय संगति हो सकती है न इसका गौरव गाया जा सकता है। अतः लोगों ने भक्तों एवं यजमानों को धोखा देने के उद्देश्य से अनेक झूठी कथाएं प्रचारित कीं। किसी भी मंदिर का अपना स्थापत्य एवं विग्रह ही नहीं होता उसके साथ जुड़ी पूरी साधना पद्धति होती है। मंदिर का स्थापत्य बदले बिना वह साधना पद्धति भी वस्तुतः संभव नहीं होती। बच जाता है केवल दर्शन, चढावा एवं साधना विहीन भक्ति।
भक्तिकाल में लाचारी वश केवल भक्ति से काम चलाया गया लेकिन सौर तंत्र हो या शैव-शाक्त, उसे एवं उसकी संस्कृति के साथ समाज व्यवस्था को समझे बिना परिवर्तन को भी नहीं समझा जा सकता। एक नए सामाजिक आंदोलन की उलझन से इसे समझा सकता है। तारा बौद्ध परंपरा एवं सनातनी परंपरा दोनों में ही मुख्यतः वामाचार से चक्रपूजा आदि अनुष्ठानों से पूजी जानेवाली देवी हैं। मगध के मग, कोइरी और भूमिहार जातियां परंपरा से इनके भक्त हैं। भूमिहारों में रामानुज वैष्णव संप्रदाय का जोरदार आंदोलन/प्रचलन हाल के दिनों में बढ़ा है। केसपा, टेकारी, गया के तारा मंदिर पर उन्होंने कब्जा तो जमा लिया पर तारा तो शव पर ही आरूढ़ रहेंगी तो पैर कपड़े से एक दिये, इतने से काम नहीं चला तो ऊर्ध्चपुंड रामानुज वैष्णव संप्रदाय वाला तिलक लगा लिया। आज के भूमिहार तो इस बात को जानते हैं परंतु पर कल इसकी कैसी व्याख्या होगी? यह तो स्वामी सहजानंद एवं अन्य के द्वारा प्रवर्तित भूमिहार आंदोलन के कारण ही हुआ है। इस बात को ध्यन में रखने पर सारी बातें समझ में आ जायेंगी। चाहे मजबूरी हो या लालच, इसी प्रकार का काम मग लोगों ने भी अतीत काल में खूब किया जिसे समझने के लिये तटस्थ होना जरूरी है।
मंदिर का पुजारी निुयक्त होने पर आराध्यदेव की आराधना में कंजूसी करने एवं स्वयं उनका भाग उपभोग में लाने के कारण भोजक एवं देवलक शब्द का प्रयोग ंिनंदात्मक अर्थों में होने लगा। आरंभ में भोजक शब्द प्रशंसात्मक था, जिसे लोगों ने स्वयं निंदात्मक बनाया। बिहार उत्तर प्रदेश में पहले मग एवं भोजक दोनों शब्दों का प्रयोग हेाता था। मग मंदिरों की सेवा से न जुड़कर स्वयं साधना एवं पौरोहित्य का काम करते थे। ज्योतिष एवं आयुर्वेद की साधना साथ-साथ थी। स्वाभाविक रूप से शास्त्र एवं साधना में प्रवीण होना इनकी सामाजिक स्वीकृति एवं संरक्षण के लिए अनिवार्य था क्योंकि मंदिरों की जागीर इनके पास नहीं थी। थोड़ी टीका-टिप्पणी के बावजूद आपस में रक्त संबंध होते थे क्योंकि रक्त संबंध तो मंदिर एवं जागीर के पहले से ही चल रहे थे। छोटे-छोटे रजवाड़ों एवं जंमीदारों की कलह में बिहार के मंदिरों के राज्य समाप्त हो गए और जंमीदारों ने उस संपति पर कब्जा कर लिया। राजस्थान में जैन मंदिरों के पुजारी होने के विपरीत बिहार में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जैन मंदिर में पुजारी का काम नही करते किंतु अन्य मंदिरों में पुजारी का काम करते हैं।
पुजारी का काम करने के साथ साधना, स्वाध्याय एवं तपस्या की सुविधा थी किंतु तप, साधना, स्वाध्याय को छोड़कर इन लोगों ने विलासिता, राजकीय भोग, अकर्मण्यता, शास्त्रों से विमुखता और अंत में अनेक प्रकार के अवगुणों के प्रति रुचि बढ़ाई।
किसी भी प्रभावशाली समाज में गुण एवं अवगुण दोनों ही होते हैं। अगर कुछ लोग मेधा से प्रखर एवं परिश्रमी होते हैं, तो कुछ लोग आरामतलब एवं दूसरों के श्रम पर निर्भर होने की कोशिश करते ही हैं। शाकद्वीपीय ब्राह्मण अपनी प्रखर मेधा, विद्वत्ता, रहस्य विद्याओं-तंत्र, ज्योतिष एवं आयुर्वेद के लिए विख्यात हैं तो दूसरी तरफ आलस्य पाखंड एवं कलह के लिए भी कुख्यात हैं। शाकद्वीपीय मग संस्कृति को ठीक से समझने के लिए इस बिरादरी के दोनों पक्षों का तटस्थ विवेचन जरूरी है। इसमें पक्षपात करने से आत्मक ल्याण या लोकोपकार की सामग्र्री नहीं प्राप्त हो सकती।
मैं ने लगभग 30 साल तक इस पंरपरा को वास्तविक स्तर पर समझने का प्रयास किया तो एक से एक अद्भुत जानकारियाँ मिलीं। मगधवासी मग (पुर - उरवार- गोत्र भारद्वाज) होने के कारण मेरी जानकारी मुख्यतः दक्षिण बिहार पर आधारित है। अन्य क्षेत्रों - झारखण्ड, उतर प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में लोग यहीं से जाकर बसे हैं और आज भी बिना हिचक रिश्तेदारियाँ हो रही हैं। राजस्थान तथा उड़ीसा के कुछ स्थानों की मैं ने यात्रा की है और वहाँ से प्रकाशित साहित्य पढ़ने तथा विद्वानों से चर्चा करने का प्रयास किया है। चूँकि राजस्थान एवं गुजरात से अलग अन्य प्रदेश के मग ब्राह्यणों की पहचान एवं आजीविका मंदिर के पुजारी से अधिक पुरोहित के रूप में रही है और शास्त्र पढ़ने की लंबी परंपरा रही है अतः यहाँ की संस्कृति से सीखने लायक पुरानी बातें निकल सकती हैं। अन्य प्रदेश के लोगों में संगठन भावना आधुनिक शिक्षा व्यवसाय में आने की वृृति प्रबल है अतः उनके ये गुण अनुकरणीय हैं। अवगुण की समझ ही काफी है, ताकि उनसे बचा जा सके, उनकी चर्चा से क्या लाभ ?
इससे मग संस्कृति को समझने एवं कुछ रहस्यों को खोलने की स्थिति में मैं आ सका। अब हिम्मत कर तथ्य को सामने लाने का कार्य शेष रह गया है। हिम्मत कहने का मतलब है कि समाज में व्याप्त, पाखंड, अंधानुकरण एवं अन्य कुरीतियों के विरूद्ध बोलना साथ ही तथ्यपरक वास्तविक इतिहास, तंत्र साधना के रहस्य, लोकोपकारी प्राचीन विद्याओं को गोपनीयता के बाहर लाना क्योंकि अनावश्यक गोपनीयता पाखंड को प्रश्रय देती है। इस शृंखला में मैं ने निम्न विषयों का चुनाव किया है-
’ सौर तंत्र एवं सनातनी स्मार्त परंपरा
’ सौर तंत्र का भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष
’ सौर तंत्र का शैव-शाक्त तंत्र में समावेश/संबंध
’ सूर्य मंदिर एवं उनसे जुड़ी सामाजिक व्यवस्था
’ शिलालेखीय इतिहास
’ आयुर्वेद का उत्थान एवं पतन
’ आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न (पुस्तक रूप में प्रकाशित)
’ मगों के द्वारा आत्मसात की गई तंत्रोक्त देवी-देवता एवं उनकी उपासना शैली।
’ वाममार्गी, चीनाचार एवं कौल परंपरा का अनुकरण
’ वाममार्गी साधना के शुभाशुभ प्रभाव
’ पाखंड एवं कृतघ्नता की विवशता या चालाकी?
’ क्रांतिकारी आंदोलनों में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की भागीदारी
’ विभिन्न पुरों के कुल देवी-देवताओं की सामाजिक साधना।
’ गोपनीयता के कारण एवं पाखंड की आवश्यकता।
’ ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को ठगते-ठगते अंधकार एवं तिरस्कार के नरक की यात्रा
’ उत्थान के समकालीन प्रयास एवं जातीय संगठन
’ विभिन्न पुर के लोगों की प्राचीन शास्त्रविहित साधना परंपरा एवं वर्तमान स्थिति।
’ मग एवं बौद्ध साधना परंपरा
’ मग-भोजक एवं जैन
’ उतर भारत के अन्य ब्राह्मण एवं मग-भोजकों का संबंध
’ ग्राम एवं गोत्र व्यवस्था
’ मग-भोजकों में व्याप्त हीन भावना एवं निराकरण
’ मग-भोजकों पर प्रमुख आक्षेप एवं उत्तर
’ भारतीय संस्कृति में विलय एवं वर्चस्व के स्वीकृत तरीके
’ ब्राह्मणों की मौखिक एवं लिखित शास्त्र की परंपरा
’ मगों के यहाँ पांडुलिपियों की प्रचुरता का कारण
’ हर्षवर्धन एवं गुप्तकालीन आव्रजन-प्रव्रजन
’ शाकद्वीप एवं जंबुद्वीप की भौगोलिक स्थिति
’ महाश्वेता
’ समानांतर सूर्यवंश की स्थापना
’ मगध, कायस्थ, विश्वकर्मा, यम, यमांतक, यमांतक क्रोधराज की साधना
’ ब्रह्मा, मय एवं विश्वकर्मा
’ समाज को भ्रम में डालने के प्रयास
’ दिशाहीन एवं कुंठाग्रस्त संगठन