बुधवार, 28 दिसंबर 2011

श्री श्यामनंदन मिश्र
अघ्यक्ष, गरीब ब्राह्मण महासंघ, मगध प्रमंडल
प्रवक्ता, शाकद्वीपी ब्राह्मण समिति, बिहार

पत्रांक दिनांक 28.12.2011


प्रेस विज्ञप्ति

सेवा में
ब्यूरो चीफ/सवाददाता

माननीय श्री ताराकांत झा, माननीय श्री अश्विनी कुमार चौबे एवं अन्य अनेक राजनीतिज्ञ अचानक गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण देने के विरुद्ध बोल रहे हैं। यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। वर्तमान सरकार के हम तो आभारी हैं कि गरीब सवर्णों की ओर भी सरकार का ध्यान गया है और गरीब सवर्णों के लिये भी आयोग का गठन हो गया है। ऐसी स्थिति में केवल गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण नहीं दिये जाने का क्या औचित्य है? उससे भी गंभीर बात यह है कि जो स्वयं क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते हैं वे पिछड़े एवं गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण दिये जाने का विरोध केवल चापलूसी की दृष्टि से कर रहे हैं। क्या अन्य सवर्ण जातियों ने आरक्षण न लेने की मांग की है? फिर केवल ब्राह्मण ही क्यों?
हम सभी पिछड़े एवं गरीब ब्राह्मण माननीय मुख्य मंत्री के निर्णय का स्वागत करते हुए स्पष्ट करना चाहते हैं कि ऐसे लोग जो किसी भी पद पर क्यों नहीं आसीन हों वस्तुतः न तो गरीबों के शुभ चिंतक हैं न ही ये हमारा प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः श्रीमान इनकी बातों पर ध्यान न देते हुए पिछड़े एवं गरीब सवर्णों के लिये बने आयोग को आगे बढ़ायें और गरीब ब्राह्मणों को उन्हें आरक्षण पाने के हक से वंचित न करें।
धन्यवाद

श्यामनंदन मिश्र
ग्राम एवं पोस्ट पीरू, हसपुरा, औरंगाबाद,बिहार

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

गरीब ब्रह्मणों को सरकार के द्वारा आरक्षण दिया जाना ठीक नहीं लग रहा है

बिहार के बड़े बड़े नेताओं को गरीब ब्रह्मणों को सरकार के द्वारा आरक्षण दिया जाना ठीक नहीं लग रहा है। मुख्य मंत्री की चापलूसी में उन्हों ने ब्रहृम् णें को आरक्षण देना और ब्राहृमणें द्वारा आरक्षण मांगा जना अनुचित बताया हैं दरसल ये सभी लोग संपन्न एवं क्रीमी लेयर वाले हैं। गरीब ह्राहृमण संघ आदि ने इसकी निंदा की है।
Shri Shyam nandan Mishra, Pravakta, Shakdweepiya brahman Samiti, Bihar

रविवार, 25 दिसंबर 2011

गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए आयोग का गठन

मित्रों,
बिहार सरकार ने गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए आयोग का गठन कर दिया है और विभिन्न प्रमंडलों में सूचना विचार संग्रह करने हेतु आयुक्त/पदाधिकारियों की नियुक्ति भी कर दी है।
कृपया अपने स्तर से समाज के आर्थिक पिछड़ेपन से संबंधित सूचना संकलित कर अपने पंमंडल में नियुक्त आयुक्त को उपलब्ध कराने का कष्ट करें।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

जनेऊ का उपयोग

जनेऊ का उपयोग
वैसे तो मैं ने यह पत्र अपने पुत्र को लिखा है फिर भी जो नहीं जानते हों वे इससे लाभ उठा सकते हैं।
आयुष्मान विष्णु ,
स्वस्थ सानंद रहो।
आज के समय मे जनेऊ पहनने की बात का केवल जाति, वर्ण या समाजिक कारणों से कोई खाश मायने नहीं है। कुछ लोग पुराने सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, या वैश्य) समूह (वर्ण) का होने के कारण परंपरानुसार जनेऊ पहनते है, बिना समझे बूझे कि जनेऊ है क्या और इसका आज की तारीख में क्या उपयोग है ? एक धार्मिक विश्वास, अनजाना भय समाजिक टिप्पणी का डर, अपने को जनेऊ पहनने वालों से श्रेष्ठ समझने की मूर्खता, लोग ये सब कारण तो हैं पर इनका तुम्हारे लिए आज की तारीख में कोई मूल्य नहीं है। जीवन का परिस्कार साधना से होता है, ढांेग से नहीं। साधनाहीन जनेऊ पहनने से न पहचाना ही अच्छा।
ठीक इसके विपरीत कुछ लोग सुधारवादी या नव गौरववादी दृष्टि से जनेऊ पहनते है, जैसे आर्य समाजी एवं अन्य आंदोलनों से प्रभावित लोग, जिन्हे पहले जनेऊ पहनने का समाजिक/धार्मिक अधिकार नहीं था। इस दृष्टि से भी तुम्हे कुछ हासिल नहीं होना है। अब जनेऊ को गंभीरता से लेता ही कौन है?
जनेऊ है क्या ?
यज्ञ + उपवीत= यज्ञोपतीत
यज्ञ के समय पहना जानेवाला
यज्ञ एवं उसके छोटे भाग, जिसे याग कहा जाता है, को संपन्न करने/कराने का अधिकार केवल ‘द्विज’
को था, जिसका दुबारा जन्म हुआ हो।
मतलब
दुबारा जन्म का मतलब है अपनी पुरानी समझ एवं विश्वास से भिन्न एक नई समझ, विश्वास एवं नई पहचान के साथ जीने की शुरुआत। अतः इस पुनर्जन्म क लिए पुरानी पहचान, संपर्क, विश्वास, समझ सबों को तोड़ने का भी उपाय होता है और नई बनाने की तैयारी भी। यह प्रक्रिया शारीरिक और भावनात्मक दोनो ही दृष्टियों से बहुत ही कठोर होती थी।
आज चूँकि केवल खानापूर्ति या भोंढ़ी नकल होती है इसलिए सरलता आ गई है। ऐसी प्रक्रिया अन्य धार्मिक परंपराओं में भी होती है। मुसलमानों में भी हेाता है। मुसलमानों मंे सुन्नतः (लिंग की चमड़ी को काट देना) ईशाईयोें में बपस्तिमा का अनुष्ठान होता है। तांत्रिक स्त्री प्रधान साधना पद्धतियों में गर्भ के आकार के दुर्गम मुख (प्रवेश मार्ग) वाले मंदिरों/कंदराओं में गहन अंधकार में कुछ समय (जितने में वह व्याकुल होकर पुनः शांत हो जाय) तक कम से कम हवा में सांस ले कर जीते की अनुभूति कराई जाती थी, मानो वह गर्भ हो । उदाहरण के लिये अगर किसी को मंगला गौरी मंदिर के भीतर बंद दरवाजे में 24 घंटे रहना हो। इस अवसर पर पुरानी पहचान छूटने की पीड़ा, नए का उत्साह, उत्सुक्ता, संयम का अभ्यास करना पड़ता था, कुछ कुछ स्कूल छोड़कर नए शहर में कॉलेज जाने की तरह।
वैदिक गुरूकुल मंे जाकर विद्या ग्रहण का अवसर ऐसा ही सौभाग्य का अवसर होता था और वापसी में सफलता की खुशी भी उतनी ही गौरवशाली थी। अतः इस अवसर पर उत्सव तो बनता ही था। इसलिए ब्राह्मणों के लिए विवाह से अधिक महत्वपूर्ण जनेऊ का उत्सव था जनेऊ एक बार विवाह कई बार।
अब विद्या का मतलब
गुरूकुल तो रहे नहीं तो अब विद्या का मतलब? तुम्हे स्मरण होगा कि जनेऊ के समय दो बार भिक्षा माँगने का कार्यक्रम हुआ था। एक बार ब्राह्मण गुरू के लिए पुरोहित जी के लिए, दुबारा सोना-चाँदी, जेबरात जो माँ के हिस्से गए थे और वस्त्र, मिठाई आदि तुम्हारे लिए, एक स्नातक को उपहार।
स्नातक मतलब आज का ग्रेजुएट
स्नातक अर्थात जिसने स्नान किया हो। यह स्नान विशेष स्नान है पुनः घर वापसी का स्नान, युवा विवाह योग्य होने की सामाजिक धोषणा का स्नान, लगभग 24 वर्ष पूरा किए जाने के बाद का स्नान, जो विद्या गुरूजी न सिखा सके हों और जो घर-गृहस्थी दांपत्य जीवन जीने के लिए जरूरी हो उसे शीघ्र विभिन्न उपायों से (उपदेश एवं विशेष अनुष्ठान) माँ के नेतृत्व मंे घर स्त्री पुरूषों द्वारा सिखाए जाने के अवसर पर किया गया स्नान। ऐसे स्नातक को उपहार एवं दक्षिणा क्यों न दी जाय? पिछले 4-5 सौ वर्षो में सब गडमड हो गया और सबसे भारी गड़बड़ी यह हो गई कि लोगों ने असली विद्या छोड़ दी और फिर शिक्षा एवं शिक्षक स्वतः समाप्त।
सौभाग्य से हम ऐसे परिवार से आते हैं जहाँ सबों ने न सही लकिन अनेक लोगों ने असली विद्या को सीखने और परम्परा को अपनी समझ एवं सामर्थ से आगे बढ़ाने का काम किया। आपके दादाजी तक संध्या-गायत्री का अनुष्ठान चला और उस माहौल में भी जहाँ अमानवीय कुरीतियों, रूढ़ियों के खिलाफ सुधारवादी आंनदोलन भी चल रहे थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि आज की तारीख में जनेऊ से जुड़ी विद्या प्रमुख है न कि जनेऊ धारण करने की परम्परा। विद्याहीन विद्यालय हो या परम्परा उनकी समाप्ति तय है अतः वास्तविक विद्या और उसे सीखने में जनेऊ की सार्थकता सबसे पहले सीखनी होगी।
पहले संक्षेप में बताई गई बात को पुनः स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ -
जनेऊ है क्या
जनेऊ एक स्केल है, अपने व्यक्तित्व का, अपनी समझ और जिम्मेदारियों का, समझ का, याददायत का और कई अन्य बातों का।
जनेऊ प्रतीक है - इस संसार की बनावट का, और उस संसार से जनेऊ धारण करनेवाले के संबंधों का। चूँकि यह शरीर से चिपका रहता है, और हर महत्वपूर्ण क्रिया में इसका उपयोग करना है अतः यह नजर पडते ही, हाथ लगते ही धारण कर्ता को उसके संदर्भ और व्यक्तित्व को याद दिलाता है।
आज जैसे टाई का अर्थ समझने से अधिक टाई की नॉट-गाँठ का ज्ञान महत्त्वपूर्ण हो गया है उसी प्रकार पिछले सौ-दो सौ वर्षो में यज्ञोपवीत की समझ समाप्त हो गई।
यज्ञोपवीत से जुड़ी सारी बातें एक साथ समझना संभव नही है अतः किश्त दर किश्त बातें स्पष्ट की जाएँगी। ध्यान यह रखना है कि उतना अभ्यास भी होता रहे।
जनेऊ की बनावट और खास बातें
जनेऊ को व्यक्ति, सृष्टि एवं समाज के संबंधों का प्रतीक माना गया है। अतः इसके हर भाग के कई अर्थ एक साथ रहेंगे।
जनेऊ के तीन धागे -
मोटे तौर पर देखने में जनेऊ में तीन धागे होते हैं, उनमें गाँठ होती है। इन तीनों धागों के भीतर भी कई धागे होते हैं। बजारू जनेऊ में धागे की भीतर भी तीन धागे होते है। ये धागे समानांतर एक दूसरे से लिपटे हुए एवं ऐंठे रहते हैं।
परंपरागत जनेऊ ऐसा नहीं होता। दूसरे का जनेऊ दूसरा नहीं बनाता।
परंपरागत जनेऊ का स्वरूप:-
धागा स्वयं तैयार किया गया हो, सूत काटकर उसे स्वयं ऐंठा गया हो और ऐंठने के पहले उसे स्वयं सजाया गया हो। परंपरागत जनेऊ के हर धागे के अंदर फंदा बनाया जाता था और तब उसे ऐंठा जाता था। ऐसे बँटे-ऐंठे धागे से जनेऊ तैयार होता था। हर आदमी के जनेऊ की लंबाई अलग होनी चाहिए और यह तभी संभव है जब वह अपने हाथ की चार ऊगलियों की चौड़ाई में लिपटी एक गिनती भाप (चवा) से 28 या 32 चवे का जनेऊ पहने।
मुख्य तीन धागे प्रतीक हैं -
इस ब्रह्मांड के मुख्य घटक कंपोनंेंट सत, रज, तम रूपी तीन गुणों के।
ये गुण भी बराबर भाग में नहीं हैं अतः इनके भीतर के धागों में से किसी एक को बड़ा छोटा कर धागा बनाया जाता है। इसी तरह ये प्रतीक हैं। शरीर के मूल घटक कफ, वात पित्त के।
इसी तरह पितृ ऋण, ऋषि ऋण, एवं देव ऋण के। आज का हर मनुष्य इन नौ प्रकार की सामग्रियों/सहयोगों से विकसित हुआ है अतः उत्तरदायित्त्वों के बंधनों की सीमाओं/कर्त्तव्यों में बँधा हुआ है।
वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम Modern Science and Technology की मान्यताओं पर आधारित है जो मुलतः ईशाई है। परिणाम यह है कि भारतीय मानस संदेह एवं विरोधी विश्वासों वाला हो गया है। जैसे - क्या पता मरने के बाद पुर्नजन्म होता है या नहीं ? स्वर्ग-नरक तो सभी मानते हैं। ईशाई हो या मुसलमान वे पुर्नजन्म नही मानते।
समान्यतः लग सकता है कि इस विवाद से क्या फर्क पड़ता है? वस्तुतः मानसिक शांति पर प्रभाव पड़ता है रिश्तों पर पड़ता है। भारतीय हिन्दू के लिए दुबारा सुख-दुख भोगने की संभावना है, बचा हुआ काम अगले जन्म में हो सकता है। केवल ब्राह्मणों के लिए अनुकूल संभावनाएँ कम हैं क्योंकि अनेक अच्छी संभावनाएं तो पूरी हो गईं।
हमारे लिए संभावनाएँ हैं -
क. अपना स्तर बनाए रखकर दुबारा पैदा हों।
ख. देवी या देवताओं से भी ऊपर उठकर सीधा ब्रह्म में विलीन होना।
मतलब स्वर्ग से श्रेष्ठ हालत में तो हम हैं ही, सच्चे ब्राह्मण को तो देवता प्रणाम करते हैं। हम तो पूर्ण स्वतंत्रता के अधिकारी हैं। देवता बनाना-बदलना, शास्त्र बदलना, बनाना, बिगाड़ना ये सब हमारे खेल हैं इालिये इनका बंधन तो हमारे ऊपर है ही नहीं। हमें ब्रह्मविद्या अर्थात संपूर्ण ब्रह्माण्ड को समझने एवं उसके साथ खेलने की विद्या आनी चाहिए वह विद्या है ब्रह्मविद्या और उसे सीखने में सहायक है - जनेऊ।
जैसे-जैसे ब्रह्मविद्या की गहराई में उतरोगे वैसे-वैसे जनेऊ का संदर्भ एवं उपयोग समझ में आने लगेगा।
जनेऊ का अशुद्ध होना
इस चिंता से मुक्त हो जाओ कि क्षतिग्रस्त या बहुत पुराना होने के अतिरिक्त जनेऊ में कोई दोष होता है। दोष तो जनेऊ धारक को होता है। नियम पालन न होने से किताब या कलम या पैमाने, नाप जोख के उपकरण या प्रमाण-पत्र कैसे खराब हो जायेंगे ? इसलिए पुरानी असली परंपरा में जनेऊ बदल देना गलती या अशुद्धि का समाधान नही था। इसके लिए नया जनेऊ बनाना, उसे बनाने की प्रक्रिया के साथ जनेऊ के अवयव (Parts) के प्रतीकात्मक अथांर्, उनके आपसी संबंधों को स्मरण करना और अपनी असावधानी के लिए प्रायश्चित (पछतावा) के रूप में उपवास (भोजन त्याग) स्नान, मंत्र जप के साथ नया जनेऊ पहनने का प्रावधान है। बजारू जनेऊ से लाचारी में काम चलाने का मतलब यह नहीं कि यह सारी साधना विधियों में सहायक होगा। इस बार की यात्रा में पूरी दक्षता हासिल कर सदैव स्वयं अपने हाथ से बनाए हुए जनेऊ को ही पहनना है।
आप श्रीमान् अभी साधना के प्रथम चरण में है। आप जब तक कान की जड़ में स्थित नाडी और स्वरशास्त्र (साँस की गति संबंधी शास्त्र) का ज्ञान प्राप्त नहीं करते आपके लिये न कान पर जनेऊ डालने की कोई सार्थकता है न ही न डालने की।
फिलहाल जो कर रहे हो, उतना ही काफी है। बाकी सब पहले की तरह।
तुम्हारे पिता
रवीन्द्र