गुरुवार, 29 नवंबर 2012

बिरादरी संगठन: दशा एवं दिशा

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के जातीय संगठनों के बनने बिगड़ने का इतिहास भी काफी लंबा है और आजादी के पहले से शुरू होता है फिर भी मुख्य गतिविधियाँ आजादी के बाद होती हैं। मुझे वैसे बहुत अधिक जानकारी नहीं है फिर भी पुष्ट/अपुष्ट स्रोतों के अनुसार निम्नलिखित संगठनों-संस्थाओं की जानकारी मिलती है।
नाम                                           समय लगभग                             मुख्य स्थान-कार्यक्षेत्र
शाकद्वीपीय ब्राह्मण बंधु ट्रस्ट                   1925- अभी तक                   राजस्थान, पश्चिमी भारत
सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासभा    1970-1988                         उत्तर प्रदेश, बिहार
निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ      1920 के पूर्व का दावा
                                                           अभी तक सक्रिय        मूलतः राजस्थान फुटकर रूप से पूरी हिंदीपट्टी
अखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा             पता नहीं                     पता नहीं
अरूणोदय                                              पता नहीं            बिहार झारखंड के कुछ स्थान
संज्ञा समिति                1975                 मगध क्षेत्र, बिहार
राजस्थान शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा
इनके अतिरिक्त स्थानीय स्तर के भी अनेक संगठन होंगे ही जिनका नाम मुझे मालूम न होने से यहाँ नहीं हैं। उनकी गतिविधियों की जानकारी मिलती रही है। कई स्थानों पर भास्कर समिति, भास्कर समाज आदि नाम से संगठन बने, चले, सुस्त पड़ गए। उपर्युक्त संगठनों में तीन-चार तरह के प्रयास हुए हैं।
1.    जमींदार एवं अंगरेज परस्त लोगों के नेतृत्व में शुरू किया गया अभियान
अंगरेजों ने 1923 के बाद जमींदारों को ऐसे संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि मुख्य धारा के कांग्रेसी, साम्यवादी या समाजवादी विचार के लोगों को उनकी हीं जाति में समर्थन न मिले और जातीय नेतृत्व अंग्रेज भक्त जमींदारों पास रहे। ऐसे लोगों ने अनेक सम्मेलन किए और आजादी के बाद भी कुछ दिनों तक सक्रिय रहे। शाकद्वीपियों में भी कई बडे़ जमींदार बिहार एवं उतर प्रदेश में थे। उन्होंने ऐसे सम्मेलन गया, अयोध्या एवं बनारस में बुलाए। राजस्थान की मुझे जानकारी नहीं है।
इनके मन में न तो जातीय कल्याण की भावना थी, न इनका कोई उल्लेखनीय योगदान रहा। कुछ तो सजातीय गरीब लोगों के साथ-खाना पीना भी पसंद नहीं करते थे। लोगों को गुलाम एवं प्रजा की तरह देखते थे।
2.    भारतीय संविधान, सुधारवादी आंदोलनों एवं जातीय ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में उपजा आंदोलन
भारतीय समाज के पिछड़ने के लिए अनेक लोगों ने सनातन धर्म, ब्राह्मण जाति एवं उनकी रोजी-रोटी से जुड़ी सभी विद्याओं को अंग्रेजो के बहकाने पर जिम्मेदार घोषित करना शुरू किया। सनातन समाज को आपस में लड़ाने के लिए एक ओर राजनीतिक धाराओं को धर्म विरोधी करार दिया गया ताकि कट्टर ब्राह्मण एवं सवर्ण समाज जमींदारों से सटे। आधुनिक     सुधारवादी संप्रदायों को पूरा समर्थन दिया गय जैसे- ब्रह्म समाज और कारपोरेट कल्चर तथा प्राइवेट बैंकिंग द्वारा धन संग्रह सिखाया गया। आर्य समाज को आर्य/अनार्य  आर्य-द्रविड की लड़ाई के लिए उकसाया गया ओर एंग्लो वैदिक संभ्यता की अवधारणा सामने आई, जिसके परिणाम स्वरूप डी.ए.वी. शिक्षण समूहों का जाल आज खड़ा है। हालाँकि अब कोई वैचाारिक मामला नहीं बचा है।
ब्राह्मणों के पास आध्यात्मिक विद्या के साथ कुछ भौतिक विद्याएं भी थीं जो लोकोपयोगी एवं अर्थकरी, पैसा देने वाली थीं। पौरोहित्य विद्या, श्रेष्ठता तथा गौरव प्रदान करती थी। अर्थकरी विद्याओं में - आर्युवेद, ज्योतिष (बिहार, उत्तर प्रदेश से पंजाब तक) वास्तु, शिल्प, भूमि सुधार, जल प्रबंधन,(कोहली एवं पालीवाल) शास्त्रीय संगीत, नाट्य (उत्तरी भारत में गौड़ एवं सारस्वतों के पास) दक्षिण में व्यापक रूप से, तंत्र (सभी के पास, फिर भी मूल विद्या मग, सारस्वत एवं तैलंगों के पास, शेष के पास तकनीकी ज्ञान थे।)
इन सभी विद्याओं में से ज्योतिष एवं तंत्र  को एक ओर निषिद्ध एवं पाखंडयुक्त बताया गया और ब्राह्मणेतर जातियों ने उनका ज्ञान प्राप्त कर अपने को बराबर फिर श्रेष्ठ बताना शुरू किया। सबने अपनी-अपनी दुकानें खोल लीं। आयुर्वेद को    विधिवत ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराने एवं अपने सांगठनिक कार्यकर्ताओं के आय का श्रोत बनाने का उपाय किया गया। अति उत्साही, उदारवादी हिन्दी एवं बंगला भाषी ब्राह्मण इस चंगुल में फँसकर आयुर्वेद को नष्ट करने पर तुल गए।
आर्य समाजी एवं ब्रह्मसमाजी शाकद्विपियों तथा दासगुप्ता परिवारों ने पहले तो आधुनिकता समझी फिर हाथ डाल दिया। गुरुकुल कांगड़ी औषधालय के नेतृत्व में आयुर्वेद के आधुनिकीकरण एवं बाजारवाद का दौर शुरू हुआ तो बंगाली कविराज महोदय ने संस्कृत में मार्डन एनाटोमी की किताब लिखी ........। बंगाल एवं बिहार से ही से जी.ए.एम.एस. और फिर बी.ए.एम.एस. बनने शुरू हुए। ये आज एक कानूनी क्वैक की हालत में हैं, जिनमें से अनेक को आयुर्वेद की कोई समझ नहीं होती। दवा बनाना कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया और रोजगार उठ कर आर्य समाज और उसके बाद अनेक बाबाओं की कंपनियों के पास चला गया। इसका नेतृत्व मुस्तफाबाद के शर्मा परिवार ने की पीढ़ियांे तक किया।
आयुर्वेद के गुरुकुल की तरह बिहार में दो परिवार थे - मुस्तफाबाद का शर्मा (पुराने संभवतः मिश्र) एवं मुजफ्फरपुर का ओझा परिवार। ओझा परिवार पारंपरिक रहा, शर्मा परिवार आर्य समाजी हो गया। हालांकि रक्त संबंध का बंधन तोड़ने की हिम्मत नहीं हुई। हमलोगों की भी रिश्तेदारी रही और मैं ने तो प्रियव्रत शर्मा जी जो रिश्ते में मेरे मौसा थे से काफी सत्संग किया। बाद में जमींदारों के समानांतर शर्मा परिवार ने विद्या-प्रधान ब्राह्मणों का संगठन भी बनाया तथा राजस्थान के लोगों के साथ एकता का प्रयास भी शुरू किया। इनके आंदोलन को बिहार के जीतीय समाज में आजतक स्वीकृति नहीं मिली।
1984 के बाद पारंपरिक आयुर्वेदिक शिक्षा बिहार में प्रतिबंधित हो गई। वैद्यों के नेतृत्व में किए गए जातीय संगठनात्मक प्रयासों में निजी फॉर्मेसियों की दवा की बिक्री आंतरिक कलह का कारण होती थी, जिसका केन्द्र वाराणसी रहता था। मैं ने अपनी पुस्तक आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न, प्रकाशक प््रकाशन विभाग सूचना ओर प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार में इन बातों का पूरा विवरण दिया है।
आजादी के बाद न केवल चुनाव जातीय आधार पर लड़े गए बल्कि सरकारी नौकरी आदि के अवसर पर भी भ्रष्टाचार पूर्वक खूब भेद-भाव हुआ। नए सुधार वादी लोगों ने ज्योतिष, कर्मकांड, आयुर्वेद के परंपरागत व्यवसाय पर भी अधिकार जमाना शुरू किया तो उपेक्षा एवं रोजगार का संकट भी आने लगा। जन्मना श्रेष्ठता के अहंकार को तो सीधा एवं तगड़ा झटका लगा। इन सबों की पतिक्रिया में भी संगठन बने। इन संगठनों का नेतृत्व नव धनाठ्य पर मध्य वर्ग के लोगों ने किया। कुछ प्रयासों के बाद भी बिहार उत्तर-प्रदेश में यह आपसी कहल के घाट बेमौत मर गया।
3.    संज्ञा समिति
जमींदारी उन्मूलन के बाद बिहार में सरकारी अफसरों ने छद्म रूप से जातीय धु्रवीकरण की राजनीति शुरू की। प्रज्ञा समिति (कान्यकुब्ज) चेतना (मैथिल$भूमिहार) की तर्ज पर संज्ञा समिति (शाकद्वीपीय) का गठन हुआ। संज्ञा समिति आज भी एक चैरिटेबुल समिति है, जो 1860 के अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत है। यह समिति भी अब कुछेक लोगों के निजी मनोरंजन तक सीमित हो गई है।
4.    राजस्थान के लोग एवं मगध के लोगों की पीड़ा में आसमान जमीन अंतर रहा है। मग मगध में परंपरा से सर्वमान्य ब्राह्मण रहे हैं आज भी परंपरागत समस्या नहीं है। पहले शिक्षा तथा संपत्ति से भी भरपूर थे। राजस्थान का नेतृत्व वहाँ के मध्यवर्ग लोगों के हाथ रहा और आपसी भेदभाव तथा झगड़ों के साथ रचनात्मक प्रतिस्पर्धा भी खूब रही और आज भी कायम है।
5.    एकीकरण के प्रयास:
पश्चिम एवं पूर्वी भारत के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए भी काफी प्रयास हुए। कलकत्ता मुबंई एवं अन्य स्थानों पर सम्मेलन भी हुए। निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ नाम से एक संगठन भी बना, जो आज रचनात्मक प्रतिस्पर्धा की जगह गुटबाजी का शिकार है। दो पत्रिकाएं ऐसा समाचार छापती रहती हैं।
पुराने बिहार, उत्तरप्रदेश एवं मध्य प्रदेश के लोग जो अपने मूल ग्राम की पहचान पुर के रूप में करते हैं परंपरा से आपस में विवाह करते हैं। उड़ीसा के लोग भी इनकी शाखा है। जगन्नाथ मंदिर समिति की विधिवत जांच की और इसी आधार पर यज्ञ में भाग लेने के लिये अधिकृत किया। इस विषय पर एक पुस्तक भी मुझे उपलब्ध हुई थी जो कहीं गुम हो गई है। बंगाल में पहचान बदल गई है और विवाह बंद हो गया है। वहां शाकद्वीपी संभवतः गणक नाम से वैश्य वर्ग में माने जाते हैं।
राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात की लगभग एक पहचान है और वे आपस में विवाह करते हैं। इनकी व्यवस्था अलग प्रकार की है। और उपाधियाँ भी अलग है। आपस में रक्त संबंध बनाने का आग्रह होने पर भी परंपरा तोड़नेवाले बहुत कम हैं। मैं सबको असली मान रहा हूँ। मैं कौन होता हूँ किसी को असली या नकली कहने वाला।
रचनात्मक प्रतिस्पर्धी संगठन - राजस्थान के लोग धर्मशाला बनवाने, सामूहिक रूप से यज्ञोपवीत, मुंडन, विवाह आदि कराने में अग्रणी हैं और आधुनिक युगानुरूप अपने निकटस्थ सेठों से विद्या सीख कर व्यवसाय तथा सरकारी नौकरी दोनों में तीव्र विकास कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार के लोगों के बीच उस तरह की संगठन भावना नहीं है और एक बड़ा तबका निकम्मेपन ,ऋणग्रस्तता, आलस्य और इनसे उत्पन्न संकटों को झेल रहा है। पारंपरिक आजीविका समाप्त प्रायः है। जो मुख्य धारा में आगे बढ़ रहे हैं वे खुशहाल है।
6.    वोट बैंक की राजनीति - इधर जैसे-जैसे जाति की पहचान वोट बैंक रूप में होने लगी वैसे राजनेता बनाने की कोशिश शुरू हुई, जो किसी राजनीतिक दल से सौदेबाजी कर सके। ऐसे प्रयास पूर्णतः विफल रहे क्योंकि न तो इस जाति के पास सघन एवं निर्णायक मतसंख्या है, न संगठन, न भरोसे मंद नेता और दल। कुछेक लोग संयोगवश जनप्रतिनिधि बने भी तो अपनी प्रतिभा या दल के समर्थन से और लगभग जाति से कतराते रहे। उनकी मजबूरी भी सहज है।
दुखद पक्ष -   
असली पुरोहितों/आचार्यों/समाजसेवियों की अस्वीकृति
समाज में जातीय संगठनों की संकीर्ण गतिविधियों के कारण समाज के लिए प्रेमभाव पूर्वक एवं कई बार तो गुप्त रूप से मदद करने वाले वैसे लोगों को जातीय समाज ने आदर नहीं दिया, जिन्हें समकालीन समाज ने आदर दिया। इनमें से कुछ ही लोग अपवाद स्वरूप ऐसे थे, जिन्होंने अंतरजातीय विवाह किया था या किया है। इन्हें छोड़ भी दें, हालांकि जातीय संगठनों में अनेक अंतरजातीय विवाह वाले भी प्रमुख पदों पर आसीन रहे, बशर्ते कि वे धनी हों या समय देते हों। राजनीतिक-सामाजिक धारा के अग्रपुरूष पहले भी थे और आज भी हैं, जैसे- किसान नेता यदुनन्दन शर्मा, भवानी मिश्र, स्वामी विज्ञानानंद, गिरीन्द्र मोहन मिश्र, पं0 विंध्येश्वरी प्रसाद पाठक, श्री चक्रधर मिश्र उर्फ ‘राधा बाबा’, आदि। मुझे भी इनके नामों की पूरी जानकारी नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से बिरादरी के सामान्य लोगों की समझ जनसंघ की अनुवर्ति भाजपा की ओर है, फिर भी अनेक लोग कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और यहाँ तक कि नक्सली संगठनों के बड़े कमांडर हैं।
बिरादरी संगठनों के छुटभैया नेता इनके व्यक्तित्व से डरते हैं और ये बड़े महानुभव इनकी हरकतों से कि करें तो क्या करें? मुझे अनेक धाराओं के बीच गांवों जीने की मजबूरी के कारण उनसे हार्दिक संवाद का अवसर प्राप्त होता रहता है।
यहाँ तक कि संक्षिप्त चर्चा तो इतिहास एवं समय-सामयिक सांगठनिक प्रवृतियों की है।
पहचान की पीड़ा -
शाकद्वीपीय समाज पहचान की पीड़ा से कमोबेश ग्रस्त रहा है। इसका मुख्य कारण अपनी पुरानी पहचान के प्रति लगाव एवं नई पहचान बनाने का द्वन्द है। उदाहरण के लिए - शाकद्वीपीय भी हैं और जंबूद्वीपीय भी, आखिर कैसे ? मग भी हैं और भोजक, देवलक और सेवग याचक भी, तो कैसे ?
बाहरी हैं या क्षेत्रीय, चक्कर क्या है ?
धनी जमींदार है, या गरीब ब्राह्मण ?
शुद्ध शाकाहारी, वैष्णव या मांसाहारी शाक्त ?
इन दोनों में रहने पर सूर्योपासक सौर कैसे ?
मगध मूल स्थान है या राजस्थान ?
दोनो के गोत्र, एवं पुर की व्यवस्था अजीबोगरीब है ?
राजस्थानी लोगों की गोत्र व्यवस्था तो ऋषि आधारित है ही नहीं और मग लोगों की पुर व्यवस्था कर्मनाशा से किउल नदी के बीच में ही लगभग सीमित है ?
नई उलझनें, आगे क्या करें ?
1.    जाति, नाम, उपाधि छुपाएं नहीं छुपाएं, क्या करें ?
2.    मिश्र/पाण्डेय पाठक आदि की जगह क्यों न शर्मा बन जाएं ? शर्मा बनने पर भी राहत नहीं है, दूसरी जातियां भी  शर्मा दौड़ में हैं तो यह तो चौबे गए छब्बे बनने वाली बात हुई।
3.    नए रोजगार के बाद पुरोहित वाला पैर धुलाने का सुख कैसे मिले ?
4.    आयुर्वेद, ज्योतिष का दावा तो करें, पर सीखें कहाँ से ? सिखाने वाले कहाँ हैं ? हैं भी तो गरीब और मनस्वी लोग,         जिनका संपन्न निरादर करते रहे ? अब क्या करें?
5.    तप, साधना करने वालों को मूर्ख कहते रहे, अब उनके पास किस मुँह से जाएं? ठगविद्या वालों की यह पीड़ा है।
6.    नई पीढ़ी तंग आकर नए शिरे से सोचने लगी है लेकिन इन बेचारों को तो परंपरा की जानकारी ही नहीं है।
निबंध के अगले भाग अगली कड़ी में प्रस्तावित समाधान की चर्चा होगी।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

मग ब्राह्मणों की जातीय समस्याएं


मग ब्राह्मणों की जातीय समस्याएं- बिहार, झारखंड एवं पूर्वांचल ऊत्तर प्रदेश
क्या कुछ लोग अपने-अपने संगठन की श्रेष्ठता की चिंता छोड़ कर निम्नांकित मुद्दों पर अपना सुझाव देने की कृपा करेंगे?
हम पहले भी अंदरूनी एवं बाहरी दोनों प्रकार की जातीय समस्याओं से जूझते रहे हैं और अनेक प्रकार के सुखद-दुखद अनुभव से गुजरे हैं। इस समय हमलोग सक्रिय रूप से बिरादरी के साथ संवाद कर रहे हैं। उस क्रम में जो जानकारी आ रही है, उस पर आप भी विचार कर समस्याओं के समाधान का उपाय सुझाएं और जिन बातों की हमें जानकारी नहीं है, कृपया उनसे हमें भी अवगत करायें।
समस्याएं तो सबकी होती हैं। अपने समाज के कुछ लोग विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए अपनी प्रतिभा के बल पर सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ रहे हैं किंतु काफी संख्या में अभी भी बुरी हालात में हैं और दिनानुदिन उनकी सामाजिक, आर्थिक हालात बिगड़ती जा रही है।
फिलहाल यहां केवल मग ब्राह्मणों की जातीय समस्याओं की एक सूची प्रबुद्ध एवं संवेदनशील लोगों के विचारार्थ प्रस्तुत की जा रही है। निम्नलिखित सूची में मग ब्राह्मण जाति की अंदरूनी समस्याओं के साथ बाहरी समाज द्वारा पैदा की जा रही समस्याओं को भी सम्मिलित किया गया है। इन्हंे तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है-
क- पूर्णतः अंदरूनी, ख- बदलते परिवेश के साथ सामंजस्य संबंधी, ग- बाह्य दबाव/अत्याचार सबंधी

क- पूर्णतः अंदरूनी
1          अयोग्य, अकर्मण्य बने रहने की इच्छा, भीख मांगने तक पर उतारू।
2          केवल जन्म आधारित श्रेष्ठता के छिनते जाने एवं पुराना सम्मान आदर न मिलने की पीड़ा
3          खेती का मंहगा होना एवं जोत अर्थात् खेती की जमीन के बंटवारे से उत्पन्न गरीबी
4          पुरोहिती से होने वाली आमदनी में कमी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा
5          गरीबी एवं झूठे अहंकार से उत्पन्न आपसी कलह एवं ईर्ष्या की अधिकता
6          योग, तंत्र, ज्योतिष जैसे विषयों के वास्तविक ज्ञान की जगह केवल पाखंड की बुरी आदत में बृद्धि
9          किसी भी गुरुकुल, संस्कृतिक केन्द्र के अभाव में धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक नेतृत्व का अभाव, जबकि अन्य जातियों के पास सक्रिय सामाजिक संगठन हैं।
10        कार्यक्रम विहीन जातीय संगठन एवं उनके कुछ पदाधिकारियों का स्पष्ट जाति विरोधी आचरण, इनसे तो मुझे कई बार मुकाबला तक करना पड़ गया है
11        जो लोग सरकारी या गैर सरकारी नौकरी में नहीं गये उनके बीच बढ़ती गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, पुरानी अचल संपत्ति की बेतहाशा बिक्री और अंततः भिखमंगी या अन्य अवांछित कामों में लगना।
12        शारीरिक श्रम एवं अन्य जिम्मेवारी के कामों से भागना
13        केवल ईर्ष्यावश और अहंकारवश स्वजातीय योग्य लोगों का अपमान एवं उनसे लाभ न लेना।
14        नकारात्मक माहौल में आपसी एकजुटता का अभाव, हीन भावना, नशे की प्रवृत्ति में बढ़त
15        झूठ बोलने एवं तंत्र-मंत्र के नाम पर ठगने का प्रयास और अपमानित भी होना।
16        सचमुच में विदेशी होने का भय सामाजक आरोप के उत्तर का अभाव
17        आधुनिक तकनीकी उच्च शिक्षा संपन्न शहरी लोगों में पारंपरिक पहचान छुपाने का बढ़ता आकर्षण
18        नव सुधारवादी संगठनों में शामिल स्वजातीय लोगों द्वारा ही जाति निंदा
ख- बदलते परिवेश के साथ सामंजस्य संबंधी
1          जजमानी प्रथा से कोईरी आदि जातियों की बगावत, अर्जक संघ जैसे ब्राह्मण विरोधी संध द्वारा की जा रही कटु आलोचना एवं अपमान।
2          केवल श्रद्धा आधारित कर्मकांड से समाज एवं घर दोनों स्तर पर बगावत
3          जो लोग पढ़े-लिखे भी हैं उनका स्वजातीय लोगों को छोड़ कर अन्य गैर ब्राह्मण लोगों को गुरु बनाने की चलन एवं उनसे प्रताड़ना पाना जबकि अधिक योग्य लोग अपनी बिरादरी में हैं।
4          ब्राह्मण की जन्मना श्रेष्ठता की आधी-अधूरी चलन वाली धारणा से अन्य जातियों की घृणा एवं आदर    युक्त उलझा हुआ व्यवहार
5          आयुर्वेद जैसे रोजगारपरक विषय पर पूरा सरकारी नियंत्रण, घरेलू स्तर पर बिना डिग्री चिकित्सा कार्य पर पाबंदी, आयुर्वेदिक कालेज का खर्च उठाने में असमर्थता।
6          आर्थिक/औद्योगिक समझ, नेतृत्व एवं समर्थन का अभाव
10        दान लेते रहने से दान देने की प्रवृत्ति का घोर अभाव
11        झोला छाप चिकित्सक बन कर गैर कानूनी काम के कारण डरते रहना।
12        पूंजी एवं सामाजिक समर्थन के अभाव में सरकारी ठेके-पट्टे के काम में न लग पाना
14        आधुनिक तकनीकी उच्च शिक्षा संपन्न शहरी लोगों में अंतर्जातीय विवाह का बढ़ता आकर्षण
15        एक ओर आधुनिक बन कर अंतर्जातीय विवाह और दूसरी ओर जातीय संगठनों में नेता बनना
16        जाति के लोगों के प्रति ही हिंसा, व्यभिचार आदि अपराधी प्रवृत्तियों में लगे लोगों को गौरवान्वित करना, मजबूरन मुझे कई बार विरोध करने एवं उनका प्रकोप सहने का दंड भोगना पड़ा, इनके विरुद्ध जातीय संगठनों द्वारा कारवाई न करना। जातीय समाज के कड़े विरोध के बावजूद उन्हें पदाधिकारी बनाये रखना।
17        पारंपरिक उपासना को बिना जाने ढांेग कहना और विजातीय पाखंडियों का पैर पूजना
ग- बाह्य दबाव/अत्याचार सबंधी
1          गरीबी के कारण ताकतवर लोगों द्वारा अपमानपूर्ण व्यवहार एवं प्रताड़ित किया जाना
2          मुख्यतः भूमिहार एवं कहीं-कहीं यादव जाति के द्वारा अचल संपत्ति हरण करने के षडयंत्र एवं दबाव बनाकार बहुत कम कीमत में जमीन-जायदाद हड़प लेना।
3          विशेषकर आचारी संप्रदाय में सम्मिलित भूमिहारों द्वारा धन-जमीन, ईज्जत-आबरू सब कुछ नष्ट करने हड़पने का सुनियोजित एवं अति क्रूर अभियान। एक प्रकार से सर्वनाश कर देने की हद तक का प्रयास।
4          साम, दाम, दंड, भेद हर संभव उपाय से घर में घुसने का प्रयास एवं जबरन भी गुरु एवं पुरोहित बनने का प्रयास। बकुली डंडे से पीटने तक की घटनाएं। मुख्य रूप से एक भूमिहार साधु के द्वारा।
5          जबरन स्वयं को श्रेष्ठ बता कर ब्राह्मण भोजन में सम्म्मिलित होने का दबाव बनाना, अन्यथा हर प्रकार से तंग करना।
6          विभिन्न जातियों द्वारा अनेक गांवों में मतदान नहीं करने देना।
7          बी.पी.एल. कार्ड नहीं बनाया जाना।
8          कमजोर होने पर बटाईदार द्वारा फसल में हिस्सा नहीं दिया जाना।
9          गांव की दबंग जाति से अनेक मामलों में डर-डर कर जीना या बगावत कर नक्सली संगठनों की शरण में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चले जाना।
सकारात्मक प्रवृत्तियां/घटनायें
1          जजमानी छोड़ने वाले लोगों का दूसरे पेशे में जाना और आर्थिक रूप से मजबूत होना
2          अन्य कमजोर जातियों के साथ हो भूमिहारों से मुकाबले का प्रयास किंतु यादवों के मामले में विफल
3          दुकानदारी एवं अन्य रोजगारों में शामिल होना, खाश कर बाजार वाले गांवों में
4          नई पीढ़ी का संवेदनशील एवं संधर्षमुख होना।
5          राजनैतिक चेतना में अभिवृद्धि, कुछ लोगों की उल्लेखनीय आर्थिक व्यावसायिक सफलता।
6          अगली पीढ़ी को मुख्य धारा में लाने की कोशिश
9          स्त्री शिक्षा में जोरदार विकास एवं लड़कियों का भी नौकरी पेशे में आना
10        धर्म एवं योग साधना के रहस्यों को पुनः जानने की कोशिश
11        अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट होने का प्रयास
12        सरकारी नौकरी न मिलने पर भी निजी उद्यमों में पर्याप्त संख्या में सेवारत होना
क्षमा प्रार्थना
मैं एक दो बार राजस्थान गया। शहर एवं गांव को समझने का प्रयास किया। वहां की समस्याएं थोड़ी भिन्न हैं। अभी मैं उन्हें ठीक से समझ नहीं सका हूं अतः उन पर टिप्पणी करना उचित नहीं है।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012


ज्ञानामृत
मित्रों,
            ज्ञानामृत एक कार्यक्रम का नाम है। अभी यह प्रशिक्षण शिविर के रूप में चलाया जायेगा। बाद में जैसा लोगों का विचार होगा, निर्णय लिया जायेगा। यह कार्यक्रम बहुलतावादी सनातन धर्म परंपरा के आधार पर चलेगा, किसी संप्रदाय या पथ विशेष के आधार पर नहीं।
स्वरूप - यह शिविर मूलतः आवासीय होगा। प्रशिक्षण शिविर वाले गाँव के लोगों, एवं वहां के सभी प्रतिभागियों को घर पर रहने की छूट दी जायेगी।
मुख्य विषय -
प्राथमिक स्तर - जीवनोपयोगी धार्मिक, सांस्कृतिक आचार विचार के विषय होंगे - जैसे - आसन, प्राणायाम, स्तोत्र पाठ, संध्या (आरंभिक), गायत्री, व्रत-उपवास के तौर-तरीके, पंचाग का दैनिक जीवन में उपयोग, धर्मशास्त्र की आरंभिक समझ, गृहस्थ जीवन, बच्चों की एकाग्रता, स्वास्थ्य रक्षा के सरल सूत्र।
द्वितीय स्तर - मंत्र, जप, होम, संस्कार, मुद्रा, बंध, हठयोग के उच्च अभ्यास, न्यास, संध्या संपूर्ण, योगनिद्रा, छोटे-छोटे याग/यज्ञ, पंचांग के अन्य उपयोग, धर्मशास्त्र की परंपरा एवं मगध क्षेत्र, मूर्तियों/मंदिरांे का वास्तुशिल्प, विभिन्न संप्रदाय एवं स्मार्त धर्म के साथ संबंध, चार पुरुषार्थों को गृहस्थ जीवन में प्राप्ति के मूल सूत्र, आचार भेद।
तृतीय स्तर - दो स्तरों तक प्रशिक्षण पाने वाले प्रतिभागी इतने सक्षम हो जाएंगे कि आगे के लिए वे अपनी रुचि एवं पात्रता के अनुरूप गुरु खोज सकें और उनके मार्गदर्शन में उच्च स्तरीय साधना कर सकें। इस स्तर पर मग मित्र मंडल की कोई भूमिका नहीं होगी। गुरु शिष्य के बीच सीधा संबंध होगा।
प्रतिभागी - 12 साल से ऊपर का कोई भी सनातन धर्म परंपरा वाला व्यक्ति प्रतिभागी हो सकता है। कट्टर वैष्णव, शैव, शाक्त आर्य समाजी या अन्य आधुनिक संप्रदाय या पंथ के लोगों के लिए यहाँ कलह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अतः वो नहीं आयें तो अच्छा क्योंकि हम किसी भी आधुनिक गुरु को एकमात्र प्रामाणिक व्यक्ति मात्र कर कार्यक्रम नहीं चला रहे।
लड़कियों एवं महिलाओं केा तभी सम्मिलित किया जा सकेगा जब स्त्री प्रशिक्षिका उपलब्ध होगी। सामान्य सत्रों में सबका निर्वाध प्रवेश होगा, जो मगों के साथ मैत्री भाव रखते हैं। एैसा करना सामाजिक समर्थन के लिये जरूरी है तभी आचारी एवं अर्जकों से रक्षा हो सकेगी।
हमारी मूल समस्या एवं समाधान का मार्ग
1.         सनातन धर्म विविधताओं एवं समन्वय से भरा हुआ है। अनेकता में एकता है लेकिन समन्वय एवं एकता के सूत्रों को पहचाना जरूरी है। ज्ञानामृत में उसे खोजने एवं दूसरों को बताने का प्रयास जारी रहेगा।
2.         धर्म के विभिन्न पक्ष हैं। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है अतः जो जिस विषय का जानकार है वह अगर अपने ज्ञान-भंडार से दूसरे को लाभान्वित करे तो सबका ज्ञान भंडार बढ़े। इसीलिए यह प्रयास किसी एक व्यक्ति के ज्ञान भंडार पर आधारित न हो कर पारस्परिक आदान-प्रदान पर आधारित होगा।
3.         इस प्रयास में केवल दार्शनिक तत्त्ववाद या देवी-देवताओं की कथा या लीला की चर्चा को सम्मिलित न कर जीवनपयोगी व्यावहारिक, प्रायोगिक विषयों को चुना गया है, जिनका सामूहिक आचार में अभ्यास भी कराया जा रहा है। कक्षा प्रवचन, प्रश्नोत्तर या सत्संग, शिविर के दौरान या बाद में आचरण संबंधी विषयों पर ही मान्य हैं, अन्यथा नहीं। वैसी कथा तो समाज में बहुत हो रही है।
4.         दो चरणों में मूलभूत बातों का प्रशिक्षण दिया जायेगा। आगे की गुरु-शिष्य परंपरा के लिए सभी स्वतंत्र हैं अतः किसी एक को गुरु मानने की अनिवार्यता नहीं है। उस मामले में हमारी दखलंदाजी नहीं होगी। हाँ उसके पहले शिविर स्तर तक सभी आचार्यौ का आदर एवं श्रद्धा जरूरी है।
धर्म के कई पक्ष एवं स्तर हैं। मैंने सुविधा के लिए उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है -
स्तर भेद -
सामाजिक परंपरा का निर्वाह - अनेक लोग बिना सोचे समझे, बिना लाभ-हानि का विचार किए, जैसे-तैसे धार्मिक कृत्यों को पूरा करते हैं एवं जजमान की रुचि के अनुसार केवल औपचारिकता पूरी कराने का काम पुरोहित कराते हैं। यह मजबूरी वाला एवं ऊटपटांग काम है, अतः इसे सीखने-सिखाने की बात ही व्यर्थ है।जो लोग सामाजिक परंपरा की धर्म के अन्य स्तरों एवं पक्षों से संगति बनाकर कार्य कराते हैं, उनके आचरणीय विषयों को सीखा तथा सिखाया जायेगा।
समाज व्यवस्था संबंधी प्रावधान - धर्म की अनेक बातें समाज व्यवस्था वाली हैं। वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, रोजगार, जजमानी प्रथा आदि। इनकी चर्चा एवं सैद्धान्तिक जानकारी तो दी जाएगी, उससे अधिक नहीं क्योंकि हम न तो राज्य सत्ता वाले हैं न धर्म सत्ता वाले। यह हमारे क्षेत्राधिकार के बाहर है।
भारतीय संविधान एवं कानून ही हमारे भी कानूनी ग्रंथ हैं। किसी भी जाति विशेष का वर्चस्वकारी प्रयास उचित नहीं है। शेष, समाज को तय करना है कि क्या कालोचित है क्या कालबाह्य?
अध्यात्म (अर्थात् योग, तंत्र, साधना, उपासना संबंधी बातें) तन एवं मन तथा इन दोनों का समाज एवं प्रकृति से संबंध को जानना तथा समाज एवं प्रकृति के साथ बेहतर संबंध बनाने की अनेक विधियाँ आज स्वास्थ्य सुधार, तनाव मुक्ति के उपाय, एकाग्रता बढ़ाने के उपाय जीर्ण रोगों को दूर भगाने, बुद्धि बढ़ाने के उपाय, स्मरण शक्ति बढ़ाने से लेकर बेहतर यौन सुख एवं तृिप्त के उपाय के रूप में विभिन्न नामों से अनेक योगा’ ‘तंत्रावाली संस्थाओं द्वारा प्रयोग में लाई जा रही हैं।
ऐसी व्यवस्थाएँ योग, तंत्र, साधना के उपायों को नए समाज के अनुरूप भाषा एवं शैली में प्रस्तुत कर रही हैं। हम इन विषयों एवं विधियों के प्रशिक्षण के समर्थक हैं। इनकी आरंभिक शिक्षा एवं मूल विधि से परिचय तक का काम शिविर में कराया जा सकता है। इस स्तर के कार्यों एवं विषयों की सूची बहुत लंबी है, जैसे - व्रत, पर्व, उत्सव, संस्कार यज्ञ, देवार्चन आदि।
उक्त विषयों के प्रायोगिक अभ्यास हेतु मध्यम स्तर के ज्योतिष, संस्कार ग्रंथ, पंचांग निर्णय, यंत्र, मन्त्र शास्त्र, कर्मकांड, स्तोत्र, यंत्र, तंत्र, मंत्र उनका अर्थ निकालना एवं कागज या बेदी पर उकेरना, रंगों का प्रभाव आदि का ज्ञान होना जरूरी है। इनके साथ, ध्वनि, स्वर, मंत्रों के संकलन वाले ग्रंथ, जैसे- मंत्रमहोदधि आदि से सुपरिचित होना भी जरूरी है।
शिविरों के मूल विषय उपर्युक्त में से हीं होगें, जिनका विस्तृत विवरण शिविरों के पाठ्यक्रम में रहेगा।
अतीन्द्रिय अनुभव संबंधी - तन, मन एवं बुद्धि आधारित अनुभवों से उठकर आत्मा या परमात्मा, ईश्वर साक्षात्कार आदि विषय अत्यंत सूक्ष्म एवं गंभीर हैं। इनमें अपने मन के सारे भावों को गुरु के समक्ष खोलकर रखना पड़ता है। इसलिए इस स्तर की बातें केवल गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत ही होनी चाहिए। ध्यान, मंत्रसाधना, चक्रपूजा आदि विषय इस केाटि के अंतर्गत आते हैं। इसी प्रकार छोटी बड़ी सिद्धि या साधना वाली बातें भी हैं।
विभिन्न विद्याओं के उच्चस्तरीय ज्ञान संबंधी-  आत्म कल्याण, लोक कल्याण एवं मोक्ष सभी विद्याओं का लक्ष्य है।  मोक्ष में ही सभी सहायक हैं। अतः ज्योतिष, आयुर्वेद, तंत्र, ध्यानयोग, आदि के उच्च अभ्यास  गुरु परंपरा से तन्मयतापूर्वक सीखने की बातें हैं।
मग-मित्र मंडल
मग-मित्र मंडल - मग-मित्र मंडल ज्ञानामृत कार्यक्रम के प्रसार एवं इन शिविरों के आयोजन एवं संचालन करने वाले लोगों के संगठन का नाम है।। इनमें केवल वे लोग ही सम्मिलित होंगे, जिन्हें इन प्रायोगिक विद्याओं का व्यावहारिक ज्ञान होगा। चूँकि कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है अतः सभी के साथ लेने-देने की संभावना है। इस प्रकार प्रशिक्षक/आचार्य स्तर पर भी ज्ञान से परस्पर अभिवृद्धि की पूरी संभावना है। जो प्रशिक्षणार्थी होंगे उन्हें भी आत्मीय माहौल में अपनी परंपरा के अनुरूप ज्ञान का लाभ होगा।
आरंभ, सदस्यता एवं विस्तार - इसकी शुरुआत दो लोगों ने की है, डॉ0 रवीन्द्र कुमार पाठक एवं श्री श्यामनंदन मिश्रा दोनों की सहमति से श्री पतंजलि मिश्र एवं श्री चिंतरंजन पाण्डेय को भी सदस्य बनाया गया है। इसी प्रकार आगे भी प्रायोगिक ज्ञान एवं अभ्यास करने वाले लोगों को ही इस भित्र मंडल में सम्मिलित किया जाएगा क्योंकि इसका उद्देश्य मुख्यतः विद्या की अभिवृद्धि है।
प्रायोगिक ज्ञान के तीन स्तर हैं। इनमें से किसी एक स्तर का अनुभवात्मक ज्ञान अनिवार्य है। एक से अधिक स्तरों का ज्ञान और अच्छा है। नए सदस्य का मित्र मंडल में प्रवेश सर्वसम्मति से होगा। सर्व सहमति न बन पाने पर अतिथि आचार्य के रूप में किसी भी प्रायोगिक ज्ञान वाले व्यक्ति को सम्मिलित किया जा सकता है।
अपात्र - किसी एक संप्रदाय या गुरु परंपरा को प्रामाणिक मानने वाले या स्वयं को ही सभी मामलों में प्रामाणिक मानने और मनवाने वाले व्यक्ति इस संगठन के लिए अपात्र होंगे भले ही उनका प्रायोगिक अनुभव किसी भी स्तर एवं स्वरूप का हो।
पात्रता एवं स्तर भेद -
पहला - केवल शाब्दिक ज्ञान या शास्त्राध्ययन परंतु कोई अनुभव नहीं, जैसे - ज्योतिष, दर्शन, धर्म शास्त्र, पुराण आदि का केवल किताबी ज्ञान।
दूसरा - अनुष्ठान, पूजा-पाठ की विधियों का ज्ञान परंतु उसका परिणाम से संबंध एवं पूरी प्रक्रिया के अनुभवात्मक ज्ञान का अभाव, जैसे - संध्या तो करना परंतु तीनों नाड़ियों की गति, प्रकृति से संबंध, चेतना पर प्रभाव, संतुलन स्थापित करने के भौतिक तथा मानसिक प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होना। शाब्दिक जप से ऊपर की जप की प्रणालियों के ज्ञान का अभाव। अर्थात केेवल बाह्य आचार के जानकारी लेकिन आभ्यंतर प्रक्रिया एवं आचार से अपरिचित।  
तीसरा - बाह्य, आभ्यंतर एवं सामाजिक तीनों स्तरों पर होने वाले प्रभाव का अनुभवात्मक ज्ञान, भौतिक द्रब्यों का तन एवं मन पर प्रभाव, मंत्र की संरचना की समझ, संध्या भाषा, कूट भाषा को खोलने की क्षमता, ध्वनि, स्वर, एवं सामग्री के संयोजन का ज्ञान, मंडल, बेदी, यंत्र, कुंड, आवाहन-पूजन की समझ आदि के साथ पहले एवं दूसरे स्तर पर वर्णित बातों के साथ संगति मिलाने की क्षमता। इस स्तर की कुछ बातों का ज्ञान एवं अन्य को सीखने की विनम्रता।
तीसरे स्तर वाले दुर्लभ साधकों का सहर्ष स्वागत है। दूसरे स्तर वालों का भी स्वागत है इस अपेक्षा के साथ की वे तीसरे स्तर के लोगों से सीखंे। पहले स्तर वाले भी सम्मिलित होंगे परन्तु उनके प्रस्ताव को जबतक तीसरे एवं दूसरे स्तर वाले स्वीकार नहीं करते वह पाठ्यक्रम का भाग नहीं होगा।
स्पष्टीकरण -
1.         लोकरंजन विद्या की कीमत पर नहीं होगा। विद्या के अनुरूप हीं लोकरंजन हो सकेगा।
2.         भीड़ बढ़ाने का महत्व नहीं है। ज्ञान परंपरा बढ़े यही मुख्य बात है। तुरत प्रचार प्रसार की आशा
            दुख देगी।
3.         यह कार्यक्रम व्यावसायिक नहीं है, परन्तु इसे आर्थिक रूप से सुदृढ़ तो करना हीं है तभी लंबे समय तक चल सकेगा।
लाभार्थी -
इस विद्या के लाभार्थी वे सभी लोग होंगें जो मगों के प्रति मैत्री भाव रखते हों, चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण अथवा स्वयं विद्याधर वंश परंपरा में हों । उनसे लेने देने का रिश्ता तो चलाना ही होगा या संयुक्त कार्यक्रम भी हो सकते हैं।
मग होने पर भी जो दूसरे जाति-वर्ग के प्रति समर्पित हों या नव सुधारवादी संप्रदायों में हैं वे इस मंडल में नहीं आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त सारी बातें आपसी निर्णय से होंगी। आपसी सहमति से ही किसी एक को अध्यक्ष एवं एक को संयोजक चुना जायेगा।
कार्यकाल - कम से कम एक साल, उसके बाद मग मित्र मंडल के सदस्यों की इच्छा के अनुरूप।