शनिवार, 24 अगस्त 2013

इतिहास संकलन

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का विस्तृत इतिहास संकलन
इतिहास एवं परंपरा संबंधी सूचना संकलन हेतु प्रस्ताव
            इतिहास एवं परंपरा संबंधी सूचनाओं के संकलन का प्रयास समय-समय पर लोग करते रहे हैं। इसी क्रम में पुर गोत्र चार्ट बनाये गये। ये व्यक्ति विशेष के क्षेत्र तथा जानकारी से प्रभावित रहे हैं। यह प्रयास किसी एक व्यक्ति के वश का नहीं है लेकिन प्रयास करना है तो किया जा रहा है। आप अपनी सूचना निम्न विंदुओं पर देने का कष्ट करें-
1          पुस्तक/ग्रंथ रचना स्वजातीय लोगों के द्वारा तथा स्वजातीय समाज पर
2          महत्त्वपूर्ण ग्रंथ/पांडुलिपि- किसी भी क्षेत्र में
3          किसी भी विधा के प्रसिद्ध व्यक्ति कम से कम जिला स्तर पर अन्यथा सभी प्रसिद्ध ही होते हैं।
4          लोकाचार, स्वजातीय क्षेत्रीय आचार, जो सामान्य से अलग हों
5          सूर्य उपासना संबंधी कोई नई जानकारी
6          आप अपनी सुविधा से जो बताना चाहें
            जितनी सूचनाएं प्राप्त होंगी, उन्हें स्वजातीय लोगों के समक्ष विचार तथा अनुमोदन हेतु रखा जायेगा। समान सूचना कई स्रोतों से मिलने पर सभी सूचना देने वालों के नाम का उल्लेख किया जायेगा। अपने गौरव या अपने परिवार के गौरव संबंधी जानकारी देने में भी न हिचकें लेकिन विवरण स्पष्ट होना चाहिये। महान विद्वान, महान साधक, अप्रतिम तेजस्वी जैसे साहित्यिक विशेषणों की जगह उनके कार्यों तथा उपलब्धियों को स्पष्ट रूप में लिखें। संभव हो तो चित्र आदि भी भेजें। यह ब्लाग अब केवल प्रामाणिक इतिहास एवं संभावित सूचनाओं के लिये होगा। जो नौजवान/वरिष्ठ व्यक्ति इसे संभालने के लिये समय देंगे, उन्हें एडमिन ग्रुप में भी रखा जायेगा। इसकी मर्यादा बनाये रखने के लिये इस ब्लाग को केवल इतिहास तक सीमित रखा जायेगा और विस्तृत रूप से आज से एक वर्ष पूर्व तक की जानकारी संकलित की जा सकती है।
            चर्चा, विचार तथा समीक्षा का खंड अलग होगा। सूचना तथा समीक्षा एक साथ मिल जाने से समझने वालों को बहुत असुविधा होती है।

            यदि किसी ने पहले से ही ऐसा प्रयास कर रखा हो और आज भी उसी उदारता एवं तत्परता के साथ हों तो कृपया सूचित करें ताकि उनसे संपर्क किया जाय और उसी स्थान पर यह काम हो। फेसबुक पर यह काम संभव नहीं हैं। यहां सामग्री की बहुत विविधता है और वर्गीकृत रूप से सामग्री को सजा कर रखना भी बहुत मुश्किल काम लगता है। वैसे मैं विशेषज्ञ नहीं हूं अतः इस बात का मेरा दावा नहीं है। इतिहास संकलन में पसंद नापसंद की गुंजाइश नहीं होगी अतः इस बात को स्वीकार करने वाले मित्रों की पहल जरूरी है। ravindrakumarpathak064@gmail.com
देव वरुणार्क, आस्था या कुछ और भी.......?


देव चंदा, देव पड़सर, देव मूंगा/उमगा, देव कुली, देव डीहा, देवढि़या आदि बिरादरी के गांव हैं। ऐतिहासिक नाम देव वरुणार्क, स्थानीय नाम देव चंदा (पहचानने के लिये पास का गांव) मग समाज के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण गांव है। यह वर्तमान भोजपुर जिले के तरारी प्रखंड के अंतर्गत स्थित है। यहां गुप्तकालीन सूर्य मंदिर के भग्नावशेष तो हैं ही बिरादरी इतिहास के पक्के सबूत के रूप में कई शिलालेख एवं स्तंभ लेख भी यहां हैं। इसका पूरा विवरण मैं ने अपने ब्लाग magasamskriti.blogspot.com पर लिख दिया है। यह पुर वाले पेज पर है।


पहली बार जब मैं ने 1980 में इस मंदिर के बारे में एक शोध निबंध में लिखा था कि मुख्य प्रतिमा को स्थानीय ब्राह्मण सुरक्षा की दृष्टि से जमीन के अंदर छुपा कर रखते हैं और अपनी परंपरा के अनुसार निकाल कर पूजा पाठ करते हैं, उस गांव के बिरादरी के लोगों ने जो रिश्तेदार भी हैं मेरा घोर विरोध किया था और मेरे घर आ कर मुझे पारिवारिक स्तर पर दंडित कराने का पूरा उपाय किया था। उस समय तक जब गांव के बिरादरी के लोगों की जब इच्छा होती थी वे हल्ला करते थे कि ‘‘बनारख’’ बाबा प्रगट हुए हैं। उनका अवतार हुआ है। इस अवसर पर मेले वगैरह का स्वतः स्फूर्त आयोजन हो जाता था। कमाई का प्रचलित तरीका यही था। उस समय तक कोई ठीक से मूर्तियों को पहचानता भी नहीं था और काल की दृष्टि से प्राचीन बालू पत्थर की जूता कोट वाली सूर्य की प्रतिमा को द्वार पाल मान कर बाहर ही लुढ़का रखा था। मूर्तियों को मैं ने चोरी से बचाने के लिये एक प्लेटफार्म बनाकर उसमें उसे सिमेंट से जड़ देने की राय भर दी थी। मेरी जान बच गई क्योंकि मेरी परदादी उसी गांव की थीं।


बाद में 2 साल बाद एक नौजवान पंडितजी को सपना आया और उसी तरीके से मूर्तियों को बचाया गया। अभी अभी उसी गांव के निवासी श्री चितरंजन पाण्डेयजी से पता चला है कि कुछ समय पहले गांव के कर्मकांड तथा ब्राह्मण विरोधी लोगों ने एक रात प्रतिमा को जमीन से बाहर निकाल कर फेंक दिया। सारा नाटक, दूसरों की आस्था से खिलवाड़ करने तथा अपनी ही अगली पीढ़ी को ठगने की आस्था समाप्त हो गईं। आखिर यह कब तक चलता? मैं नाराजगी के कारण दुबारा वहां गया ही नहीं।


मित्रों देव वरुणार्क और अपसढ़ के शिलालेखों के बगैर हमारा इतिहास अधूरा रहेगा। जो भी बचा हुआ है, उसे बचाने की जरूरत है। आगे लोगों की आस्था। हां यह भी जानिये कि ये मंदिर और घर में भी वस्तुतः पक्के सूर्यपूजक हैं फिर भी ये मांसाहारी हैं, शाकाहार नई चलन है। बाहर में सच बोलने से कतराते हैं क्योंकि शैव शाक्त तंत्र प्रचार के समय यहां भी कात्यायनी चामुंडा आदि की प्रतिमाएं स्थापित की गई, परंतु रिश्तेदार तो सच जानते ही हैं।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

शाकद्वीपी समाज में शाकाहार और मांसाहार

शाकद्वीपी समाज में शाकाहार और मांसाहार      :   फेसबुक पर उठाये गये प्रश्न के आलोक में
शाकाहार और मांसाहार के मामले में जब सच्चाई ज्ञात हो तो फिर सवाल क्या? बलि तो खाद्य पदार्थ की दी ही जाती है। इसमें कौन सी नई बात है? शाकाहारी शाकाहारी खाद्य पदार्थ की बलि देता है मांसाहारी मांसाहारी खाद्य पदार्थ की। बलि वैश्वदेव की यही प्रक्रिया है। विवाह हो या श्राद्ध काक बलि एवं दहि-उड़द की बलि मांस का समतुल्य मान कर देते ही हैं। बलि का अर्थ केवल जानवर की हत्या थोड़े ही है। जिनकी जैसी कुल देवी या देवता, उनका वैसा भोजन। 
रही वर्जना की बात तो कब हुई वर्जना, अनेक गांवों में पहले से ही मांसाहार स्वीकृत है। शाक्त और भगवती के विभिन्न रौद्र रूपों के उपासक, जो ऐसे मंदिरों के पुरोहित हैं, आज भी मांसाहारी हैं और खुलेआम बलि दिलाते हैं। शाकाहारी तथा मांसाहारी परिवारों के बीच बहुत पहले से आज तक रक्त संबंध हो रहे हैं। तब यह सामाजिक वर्जना कब हो गई कि इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर दिया जाय। कई लोग अपने मूल गांव जैसे भलुनियार भलुनी में खुले आम मांसाहारी हैं। उरवारों का बड़ा गांव पचरुखिया पंरपरा से मांसाहारी है। कई पुर वालांे के यहां जिनके कुल देवता सूर्य के ही कोई न कोई रूप हैं आज आंटे के भेड़ की बलि पड़ती है। हो सकता है कभी पशु भेड़ की बलि पड़ती हो। परंपरागत सूर्य मंदिर वाले गांवों में भी मांसाहार तो है ही। 
किसी काल खंड में चैतन्य, जयदेव या किसी अन्य के प्रभाव में किसी परिवार ने खाना छोड़ दिया यह भी संभव है और शैव, शाक्त परंपरा में जाने के कारण अगर किसी ने मांसाहार अपनाया हो यह भी संभव है। अब अगर कुछ लोग मांसाहार न करते हों तो उनकी व्यक्तिगत या पारिवारिक रुचि एवं उनके घर के अभिभावक का यह निर्णय हो सकता है, शाकद्वीपी समाज की वर्जना थोड़े ही है। समाज की वर्जना होती तो पुराने जमाने में जब समाज दंड एवं बहिष्कार की चलन थी आपस में खाना पीना एवं विवाह ही नहीं होता।
जब शाकाहार एवं मांसाहार दोनो ही चलन में हो तो यह एकतरफा पक्ष या विपक्ष में निर्णय जिसे करना हो करे मेरी समझ से यह कोई अज्ञात विषय नहीं है। हमारा समाज पुराने बिहार तथा मध्य प्रदेश में मिश्रित हाज में है। किसी की निजी रुचि एवं आदर्श को समाज क्यों अपनी परंपरा या वर्जना मानेगा? वह तो सामाजिक वर्जना को ही मानेगा कि एक पुर में विवाह नहीं होता, यह समाजिक वर्जना का उदाहरण है। रही बात कुक्कुट वाली तो यह बात नये लोगों को भले ही ज्ञात न हो क्योंकि उनमें से कुछ लोग परंपरा को अपने मन से या आज की स्थिति की सुविधा से समझना चाहते हैं, पुराने मांसाहारी भी ग्राम कुक्कुट अर्थात् मुर्गा नहीं खाते थे जंगली चीतल बगेरी वगैरह खाते थे तभी तो इन्हीं उदाहरणों के माध्यम से करणीय अकरणीय का फर्क यज्ञविधि की पुस्तक में समझाते हैं। न ही उनके मांसाहारी भोजन में लहसुन प्याज पड़ता था भले ही लहसुन-प्याज शाकाहारी हो। इतना ही नहीं वाम मार्गी पंच मकार के अंतर्गत भी मांस और मछली की गिनती है, मुर्गे की नहीं। यही सामाजिक चलन है। 
हां, अगर प्रश्न यह हो कि ऐसा ही क्यों है या यह कहां तक उचित है तो कुछ लोग जरूर उत्तर देना पसंद करेंगे। यह मेरी रुचि और निष्ठा का प्रश्न है कि मांसाहारी से मैं घृणा करूं न करूं? मेरे मांसाहारी या शाकाहारी होने मात्र से किसी समाज या देश का कोई न तो बड़ा अनिष्ट होने वाला है न लाभ? खैरियत है कि मेरी टिप्पणी विद्वत्तापूर्ण लगी किसी को यह नितांत मूर्खता पूर्ण भी लग सकती है। मुझसे अधिक ज्ञानी अनंत हैं।
मैं जब राजस्थान के बारे में इस मामले में नहीं जानता तो क्यों न प्रश्न पूछूं? फिर यह ग्रुप क्यों? केवल सर्वज्ञ ही प्रश्न नहीं करते? वे ही हर बात का अकेले निर्णय कर लेते हैं। मेरी जानकारी इतनी ही है। इससे अधिक जो जानें वे बतायें। 

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

शाकद्वीपी ब्राह्मणों के प्रमुख ऐतिहासिक खंड

मित्रों स्वजातीय इतिहास की चर्चा हेतु मेरा विस्तृत प्रस्ताव आपके समक्ष है। अब मेरा काम पूरा हुआ। आपकी सहभागिता की प्रतीक्षा में ........................

शाकद्वीपी ब्राह्मणों के प्रमुख ऐतिहासिक खंड

शाकद्वीपी ब्राह्मण प्रायः सामाजिक रूप से संवेदनशील, समकालीन परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना करने वाले लगते हैं। अपने बौद्धिक वर्चस्व तथा अपने मूल स्थान को स्मरण किये होने के कारण ये ईर्ष्या के पात्र भी रहे हैं। इनके इतिहास के बारे में जो भी जानकारी मिलती है, उसे निम्न कालखंडों में बांटा जा सकता है। चूंकि सिलसिलेवार पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी है अतः  ज्ञात भागों की प्रमुख सूचनाएं दी जा रही हैं। जो संभावनाएं और उन पर बने सिद्धांत सीधे तौर पर इतिहास के किसी काल खंड से नहीं जुड़ते केवल सनसनी फैलाने जैसा काम करते हैं, उन्हें विचारणीय/समीक्षाधीन शीर्षक के अंतर्गत रख कर उसकी समीक्षा की जा सकती है। सीधे जुड़े संदर्भ वे हैं जहां शाकद्वीपी या समतुल्य शब्द के साथ ब्राह्मण के रूप में, मग/भोजक/दिव्य ब्राह्मण नाम से इतिहास मिलता है। शाकद्वीप की भौगोलिक पहचान, शक एवं मगी वाला संदर्भ एवं सिद्धांत मौलिक रूप से विवादास्पद एवं परीक्षणीय हैं। हां, सूर्य प्रतिमा की दो प्रमुख शैलियां हैं- उदीच्य एवं प्रतीच्य अर्थात पूर्वी एवं पश्चिमी। यह निर्विवाद एवं प्रत्यक्ष है। इसके उल्लेख अनेक मूल ग्रंथों में पाये जाते हैं लेकिन प्रतीच्य का अर्थ ईरान कैसे हो गया मेरी समझ के बाहर है। क्या भारत वर्ष में पूरब पश्चिम नहीं है?
प्रमुख काल खंड एवं उनसे जुड़ी सूचनाएं
वैदिक काल-
जातीय इतिहास की कोई सूचना नहीं। ऋषिगोत्र बाद में अपनाये गये अन्यथा शाकद्वीप से आगमन एवं जंबूद्वीप में बसने संबधी विवरण में ही इसका उल्लेख होता।
महाभारत काल-
सांब की कथा के साथ पुराणोक्त कथा शुरू होती है। सूचनाओं का अंतर इतना जरूर है कि 18 कुल आये या 18 पुरुष जिनके लिये भोज वंशीय कन्याओं की व्यवस्था हुई और उन्हीं से आगे की संतानें बनीं।
हर्ष पूर्व-
मूर्तियां एवं शिलालेख मिलते हैं।
हर्षकालीन-
मगध से कन्नौज एवं कन्नौज से मगध में काफी संख्या में जा कर लोग बसे या बसाये गये। सभी जातियों के लोग गये इसलिये अभी भी सभी जातियों में कन्नौजिया एवं मगहिया भेद पाया जाता है।
गुप्तकालीन/उत्तर गुप्तकालीन-
अनेक शिला लेख एवं दक्षिण बिहार में भोजकों के मंदिर राज्यों की स्थापना। देव वरुणार्क एवं अन्य शिलालेख। सूर्य के आदित्य नाम के गौरव की खूब चर्चा कर द्वादश 12 आदित्यों का वर्गीकरण तथा उसे नारायण और विष्णु रूप के अंतर्गत समेटने का प्रयास। सौर तंत्र का प्रचार आरंभ तथा कर्मकांड में सूक्ष्म मुहूर्त विचार का समावेश।
10 वीे से 14 वीं
सूर्य का शिव में अंतर्भाव की धारा का अभ्युदय। द्वादश आदित्य परंपरा की काशी में स्थापना एवं अस्सी संगम से लोलार्क कुड से ले कर वरुणा के वरुणार्क मंदर तक अनेक मंदिरों का निर्माण। कुद तालाबों को विशेष तिथियों में गंगा से भी पवित्र घोषित किया जाना। इसके परिणाम स्वरूप प्रसिद्ध अघोरी सिद्ध कीनाराम के द्वारा क्रीं कुंड को गंगा से भी अधिक पवित्र घोषित किया जाना।
मगध से उड़ीसा के समुद्र तट तक सूर्य मंदिरों की स्थापना एवं जगन्नाथ मंदिरों को ही उसकी मूर्ति हटा कर सूर्य मंदिर बनाना। इसी प्रकार अन्य विष्णु मंदिरों पर कब्जा जमा कर उसे शिव मंदिर बनाना। तंत्र धारा का पूरा साम्राज्य एवं पालवंशीय राजाओं द्वारा समर्थित वामाचार में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना। दक्षिण बिहार के जंगलों में तो एक पूरे कौल क्षेत्र की स्थापना।
मूहूर्त विचार की अनिवार्यता पूरे कर्मकांड में लागू। अनेक ब्राह्मणों द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में समर्थन तथा उसे अपनाने के कारण सौर तंत्र के छाया पक्ष अर्थात् छाया मापन के यंत्रों द्वारा ज्ञान को सौर तंत्र की जगह ज्योतिष शास्त्र का रूप दिया जाना। सूर्य मंदिर एवं वेधशाला से बाहर विकेन्द्रित रूप से ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन की परिपाटी की चलन। सूर्य सिद्धांत आदि के रचनाकार में किसी के द्वारा स्वयं को मग, भोजक या किसी भी रूप में स्पष्ट तौर पर शाकद्वीपी नहीं घोषित किया जाना। यह सब तो बाद के युग का संभावना आधारित प्रचार है जिसकी पुष्टि जरूरी है।
14 वीं से 20 वीं
सभी समकालीन राजनैतिक सामाजिक आंदोलनों में कुछ न कुछ लोगों की सहभागिता। परिणामस्वरूप खिचड़ी संस्क्ति एवं भयानक गृह कलह का आरंभ। तंत्र के नाम पर पूरा छलछद्म एवं परिवार में स्त्रियों पर अत्याचार क्योंकि सभी धारा के सांस्कृतिक नेतृत्व के कारण मामले का पेचीदा होते जाना। जयदेव की पूर्ण स्वीकृति, गीत गोविंद को कुल गीत का दर्जा। मांसाहार एवं तंत्र साधना परंपरा जारी। सौर मगों की दुर्गति, उनके मंदिरों एवं साम्राज्य का मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा ध्वंस। कोणार्क का अंगरेजों द्वारा ध्वंस।
आर्य समाज जैसी ब्राह्मण विरोधी धारा को न केवल समर्थन वरन पुरोहिती तथा चिकित्सा पेशे में गैर परंपरागत जातियों को स्थापित करने में मुख्य भूमिका, खाश कर मूल औैषधीय द्रव्यों के आढ़ती जातियों का आयुर्वेद व्यवसाय पर कब्जा, कंपनी संस्कृति का उदय।
विभिन्न राजनैतिक धाराओं का नेतृत्व, निम्न पसंदीदा क्रम में- पहली प्राथमिकता-जनसंघ एवं अंगरेज, शाहाबाद तथा मुगेर प्रमंडल को छोड. कर। यहां 1857 के प्रभाव के कारण अंगरेज भक्ति अच्छी नहीं मानी जाती थी। इसी प्रभाव में अंगरेज परश्त बिरादरी के जंमीदारों एवं आर्यसमाजियों द्वारा जातीय सम्मेलनों संगठनों की शुरुआत। मुख्य बहुसंख्यकों के द्वारा किये गये प्रयासों की चर्चा मैं ने दूसरी जगह की है। दूसरी प्राथमिकता- कांग्रेस, अनेक कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी, तीसरी- साम्यवादी जो कई बार लेनिन ही नहीं माओ की भक्ति तक जाती है। चौथी- समाजवादी, बहुत कम, न के बराबर। आज भी भाजपाइयों की संख्या सबसे अधिक है।
राजस्थान में शाकद्वीपीय पुनरुत्थान आंदोलन, याचक वृत्ति एवं मंदिरों के पुजारी होने के साथ आधुनिक शिक्षा तथा व्यवसाय में आगे बढ़ने का प्रयास और काफी सफलता। भोजक नेतृत्व द्वारा मगों के यहां रक्त संबंध का प्रस्ताव। उड़ीसा में पुनः स्थानीय शाकद्वीपी ब्राह्मणों को यज्ञ में स्थान न दिये जाने के विरुद्ध जगन्नाथ मंदिर कमिटी में मुकदमा। मगध से पुराने रक्त संबंध के आधार पर पक्ष में फैसला, प्रतिष्ठा प्राप्ति। अनेक प्रदेशों में ब्राह्मण के स्प में स्वीकृति किंतु बंगाल में अभी तक राजा एवं समाज दानों के द्वारा अस्वीकृति।
इसमें जो सूचनाएं गलत हों उनका आधार सहित खंडन, सुधार करें। जो छूटी हुई हैं, उन्हें खोज कर पूरा करें। मेरा यह आलेख केवल प्रस्ताव भर है। तथ्य एवं सत्य को सर्वापरि माना जाय। इसमें मेरा विचार तेरा विचार जैसा कुछ नहीं है। 
मित्रों स्वजातीय इतिहास की चर्चा हेतु मेरा विस्तृत प्रस्ताव आपके समक्ष है। अब मेरा काम पूरा हुआ। आपकी सहभागिता की प्रतीक्षा में तब तक के लिये मौन।
शाकद्वीपी ब्राह्मणों के प्रमुख ऐतिहासिक खंड
शाकद्वीपी ब्राह्मण प्रायः सामाजिक रूप से संवेदनशील, समकालीन परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना करने वाले लगते हैं। अपने बौद्धिक वर्चस्व तथा अपने मूल स्थान को स्मरण किये होने के कारण ये ईर्ष्या के पात्र भी रहे हैं। इनके इतिहास के बारे में जो भी जानकारी मिलती है, उसे निम्न कालखंडों में बांटा जा सकता है। चूंकि सिलसिलेवार पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी है अतः  ज्ञात भागों की प्रमुख सूचनाएं दी जा रही हैं। जो संभावनाएं और उन पर बने सिद्धांत सीधे तौर पर इतिहास के किसी काल खंड से नहीं जुड़ते केवल सनसनी फैलाने जैसा काम करते हैं, उन्हें विचारणीय/समीक्षाधीन शीर्षक के अंतर्गत रख कर उसकी समीक्षा की जा सकती है। सीधे जुड़े संदर्भ वे हैं जहां शाकद्वीपी या समतुल्य शब्द के साथ ब्राह्मण के रूप में, मग/भोजक/दिव्य ब्राह्मण नाम से इतिहास मिलता है। शाकद्वीप की भौगोलिक पहचान, शक एवं मगी वाला संदर्भ एवं सिद्धांत मौलिक रूप से विवादास्पद एवं परीक्षणीय हैं। हां, सूर्य प्रतिमा की दो प्रमुख शैलियां हैं- उदीच्य एवं प्रतीच्य अर्थात पूर्वी एवं पश्चिमी। यह निर्विवाद एवं प्रत्यक्ष है। इसके उल्लेख अनेक मूल ग्रंथों में पाये जाते हैं लेकिन प्रतीच्य का अर्थ ईरान कैसे हो गया मेरी समझ के बाहर है। क्या भारत वर्ष में पूरब पश्चिम नहीं है?
प्रमुख काल खंड एवं उनसे जुड़ी सूचनाएं
वैदिक काल-
जातीय इतिहास की कोई सूचना नहीं। ऋषिगोत्र बाद में अपनाये गये अन्यथा शाकद्वीप से आगमन एवं जंबूद्वीप में बसने संबधी विवरण में ही इसका उल्लेख होता।
महाभारत काल-
सांब की कथा के साथ पुराणोक्त कथा शुरू होती है। सूचनाओं का अंतर इतना जरूर है कि 18 कुल आये या 18 पुरुष जिनके लिये भोज वंशीय कन्याओं की व्यवस्था हुई और उन्हीं से आगे की संतानें बनीं।
हर्ष पूर्व-
मूर्तियां एवं शिलालेख मिलते हैं।
हर्षकालीन-
मगध से कन्नौज एवं कन्नौज से मगध में काफी संख्या में जा कर लोग बसे या बसाये गये। सभी जातियों के लोग गये इसलिये अभी भी सभी जातियों में कन्नौजिया एवं मगहिया भेद पाया जाता है।
गुप्तकालीन/उत्तर गुप्तकालीन-
अनेक शिला लेख एवं दक्षिण बिहार में भोजकों के मंदिर राज्यों की स्थापना। देव वरुणार्क एवं अन्य शिलालेख। सूर्य के आदित्य नाम के गौरव की खूब चर्चा कर द्वादश 12 आदित्यों का वर्गीकरण तथा उसे नारायण और विष्णु रूप के अंतर्गत समेटने का प्रयास। सौर तंत्र का प्रचार आरंभ तथा कर्मकांड में सूक्ष्म मुहूर्त विचार का समावेश।
10 वीे से 14 वीं
सूर्य का शिव में अंतर्भाव की धारा का अभ्युदय। द्वादश आदित्य परंपरा की काशी में स्थापना एवं अस्सी संगम से लोलार्क कुड से ले कर वरुणा के वरुणार्क मंदर तक अनेक मंदिरों का निर्माण। कुद तालाबों को विशेष तिथियों में गंगा से भी पवित्र घोषित किया जाना। इसके परिणाम स्वरूप प्रसिद्ध अघोरी सिद्ध कीनाराम के द्वारा क्रीं कुंड को गंगा से भी अधिक पवित्र घोषित किया जाना।
मगध से उड़ीसा के समुद्र तट तक सूर्य मंदिरों की स्थापना एवं जगन्नाथ मंदिरों को ही उसकी मूर्ति हटा कर सूर्य मंदिर बनाना। इसी प्रकार अन्य विष्णु मंदिरों पर कब्जा जमा कर उसे शिव मंदिर बनाना। तंत्र धारा का पूरा साम्राज्य एवं पालवंशीय राजाओं द्वारा समर्थित वामाचार में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना। दक्षिण बिहार के जंगलों में तो एक पूरे कौल क्षेत्र की स्थापना।
मूहूर्त विचार की अनिवार्यता पूरे कर्मकांड में लागू। अनेक ब्राह्मणों द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में समर्थन तथा उसे अपनाने के कारण सौर तंत्र के छाया पक्ष अर्थात् छाया मापन के यंत्रों द्वारा ज्ञान को सौर तंत्र की जगह ज्योतिष शास्त्र का रूप दिया जाना। सूर्य मंदिर एवं वेधशाला से बाहर विकेन्द्रित रूप से ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन की परिपाटी की चलन। सूर्य सिद्धांत आदि के रचनाकार में किसी के द्वारा स्वयं को मग, भोजक या किसी भी रूप में स्पष्ट तौर पर शाकद्वीपी नहीं घोषित किया जाना। यह सब तो बाद के युग का संभावना आधारित प्रचार है जिसकी पुष्टि जरूरी है।
14 वीं से 20 वीं
सभी समकालीन राजनैतिक सामाजिक आंदोलनों में कुछ न कुछ लोगों की सहभागिता। परिणामस्वरूप खिचड़ी संस्क्ति एवं भयानक गृह कलह का आरंभ। तंत्र के नाम पर पूरा छलछद्म एवं परिवार में स्त्रियों पर अत्याचार क्योंकि सभी धारा के सांस्कृतिक नेतृत्व के कारण मामले का पेचीदा होते जाना। जयदेव की पूर्ण स्वीकृति, गीत गोविंद को कुल गीत का दर्जा। मांसाहार एवं तंत्र साधना परंपरा जारी। सौर मगों की दुर्गति, उनके मंदिरों एवं साम्राज्य का मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा ध्वंस। कोणार्क का अंगरेजों द्वारा ध्वंस।
आर्य समाज जैसी ब्राह्मण विरोधी धारा को न केवल समर्थन वरन पुरोहिती तथा चिकित्सा पेशे में गैर परंपरागत जातियों को स्थापित करने में मुख्य भूमिका, खाश कर मूल औैषधीय द्रव्यों के आढ़ती जातियों का आयुर्वेद व्यवसाय पर कब्जा, कंपनी संस्कृति का उदय।
विभिन्न राजनैतिक धाराओं का नेतृत्व, निम्न पसंदीदा क्रम में- पहली प्राथमिकता-जनसंघ एवं अंगरेज, शाहाबाद तथा मुगेर प्रमंडल को छोड. कर। यहां 1857 के प्रभाव के कारण अंगरेज भक्ति अच्छी नहीं मानी जाती थी। इसी प्रभाव में अंगरेज परश्त बिरादरी के जंमीदारों एवं आर्यसमाजियों द्वारा जातीय सम्मेलनों संगठनों की शुरुआत। मुख्य बहुसंख्यकों के द्वारा किये गये प्रयासों की चर्चा मैं ने दूसरी जगह की है। दूसरी प्राथमिकता- कांग्रेस, अनेक कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी, तीसरी- साम्यवादी जो कई बार लेनिन ही नहीं माओ की भक्ति तक जाती है। चौथी- समाजवादी, बहुत कम, न के बराबर। आज भी भाजपाइयों की संख्या सबसे अधिक है।
राजस्थान में शाकद्वीपीय पुनरुत्थान आंदोलन, याचक वृत्ति एवं मंदिरों के पुजारी होने के साथ आधुनिक शिक्षा तथा व्यवसाय में आगे बढ़ने का प्रयास और काफी सफलता। भोजक नेतृत्व द्वारा मगों के यहां रक्त संबंध का प्रस्ताव। उड़ीसा में पुनः स्थानीय शाकद्वीपी ब्राह्मणों को यज्ञ में स्थान न दिये जाने के विरुद्ध जगन्नाथ मंदिर कमिटी में मुकदमा। मगध से पुराने रक्त संबंध के आधार पर पक्ष में फैसला, प्रतिष्ठा प्राप्ति। अनेक प्रदेशों में ब्राह्मण के स्प में स्वीकृति किंतु बंगाल में अभी तक राजा एवं समाज दानों के द्वारा अस्वीकृति।
इसमें जो सूचनाएं गलत हों उनका आधार सहित खंडन, सुधार करें। जो छूटी हुई हैं, उन्हें खोज कर पूरा करें। मेरा यह आलेख केवल प्रस्ताव भर है। तथ्य एवं सत्य को सर्वापरि माना जाय। इसमें मेरा विचार तेरा विचार जैसा कुछ नहीं है। 
शाकद्वीपी ब्राह्मण बिरादरी के इतिहास जानने की मुख्य दुविधाएं/उलझनें
तथ्य नहीं मिल रहे, सूचनाएं अधूरी हैं। कथाएं प्रतीकात्मक हैं या सच्ची? हमारा अतीत गौरवशाली है या कलंकित? दूसरों को क्या कहें? क्या अपनी अगली पीढ़ी को पुरानी घटनाओं को उसी रूप में बताना जरूरी है। इससे बदनामी नहीं होगी? दूसरे लोग अपने ऊज्ज्वल पक्ष की ही चर्चा करते हैं तो हमें अपने काले पक्ष को क्यों सामने लाना चाहिये आदि प्रश्न पिछले 40 सालों से मैं झेल रहा हूं। ये संक्षेप में नीचे प्रस्तुत हैं-
दुविधाएं-
ं1 सच्चा इतिहास या मनोनुकूल इतिहास? केवल पुराण आधारित या अन्य पर भी?
2 राज्यसत्ता समर्थक या लोकसत्ता समर्थक?
3 वैदिक या अवैदिक?
4 भारतीय या विदेशी?
उलझनें-
1 शाकद्वीप की भौगोलिक स्थिति - ईरान, वर्मा, इंडोनेशिया, कजाकिस्तान, भारत का ही कोई क्षेत्र? आखिर कहां?
2 पुराने ईरानी ‘मगी’ एवं भारतीय ‘मग’ एक ही या भिन्न?
3 आर्य या आर्येतर?
4 शाकद्वीपी क्या शक हैं?
5 शाकद्वीपी, शाकिनी, शाकम्भरी, शकसंवत्, शकसेन वंश, सक्सेना उपाधि के बीच क्या संबंध हैं?
6 सूर्यपूजक से वैष्णव एवं शैव-शाक्त तांत्रिक बनने की एंतिहासिक प्रक्रिया एवं कारण
7 दो प्रमुख शाकद्वीपीय ब्राह्मण समूहों की पहचान की भिन्नता एवं आपसी रक्त संबंध का न होना। यही हाल कुछ अन्य छोटे समूहों का जो अब अपनी पहचान भी बदल चुके हैं। मगों के द्वारा अपने निजी उपयोग, रक्त संबंध के लिये अन्य भारतीय जातियों में प्रचलित मूलग्राम व्यवस्था के अनुसार पुर (गांव) आधारित पहचान तथा बाहरी तौर पर पूजा पाठ आदि के लिये वैदिक ऋषि गोत्र  को अपनाया जाना और भोजकों द्वारा खाप व्यवस्था के आधार पर सगोत्रता का निश्चय।
8 प्रत्यक्ष सूर्यपूजा के विवरण से मगों की खोज। यह तो सर्वप्रचलित है। मगों का इतिहास तो सूर्यप्रतिमा एवं मंदिर के निर्माण से शुरू होता है। सूर्य प्रतिमा की दो प्रमुख शैलियों मानवीय, कमलासन  वाला, जूता कोट धारी रूप और रथस्थ सप्ताश्व रूप का ऐतिहासिक कारण एवं आधार।
9 सौर तंत्र एवं चिकित्सा से ज्योतिष तथा आयुर्वेद तक की यात्रा क्रम। भारत में बसने के बाद जीविका में आये बदलाव के समय एवं कारण। आयुर्वेद या ज्योतिष के प्रणेता किसी भी ऋषि को शाकद्वीपियों के भारत आने के पहले के पूर्ववृत्त में वर्णित न होना। ऐसी किसी भी पारंपरिक कथा का अभाव। प्रश्न खड़ा होने पर झूठी एवं नई कथा कह देने से वह इतिहास नहीं बन जाती।
इतिहास एवं पुराण की दृष्टि की उलझन
इस विंदु पर मैं ने एक पूरा लेख ही ब्लाग में डाल रखा है। पौराणिक कथा, घ्वनि साम्य के आधार पर या मनमाने ढंग से अब तक उपलब्ध सूचनाओं, संदर्भों को बिना मिलाये जो लोग इतिहास ढूंढने की बात करते हैं उन्हें पता नहीं कि वे क्या समस्या पैदा कर रहे हैं। यह तो बस वैचारिक हुड़दंग है।
इतिहास ढूंढ़ने का तरीका
इतिहास को आदि से आज और आज से आदि दोनों प्रकारों से खोजा जा सकता है। कडि़यां इतनी टूटी है कि आरंभ में सभी संभावनाओं को एक़त्र कर तब मिलान करने का प्रयास करना चाहिये। सामग्री संकलन की जगह झटपट निष्कर्ष अनेक विसंगतियां पैदा करेगा जिसकी पीड़ा पूरे समाज को झेलनी पड़ेगी। किसी भी भारतीय जाति का इतिहास पूर्णतः तर्क आधारित या सदैव गौरव शाली वाला नहीं है तो हम डर कर उलटा-पुलटा काम क्यों करें?
उपलब्घ सामग्री
आदि से आज- महाभारत काल से आज तक
आज से महाभारत काल तक
क महाभारत काल से आज तक की ओर के इतिहास की स्रोत/सामग्री-
भविष्य पुराण एवं अन्य सभी पुराण, सांब सूर्य एवं सौर पुराण, अवेस्ता के मगी वाले संदर्भ, बायबिल का मगी वाला संदर्भ, धर्मशास्त्रीय ग्रंथों उल्लेख, नालंदा का इतिहास, विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरण, कहीं पक्ष कहीं विपक्ष आदि।
आज से महाभारत काल तक की ओर के इतिहास की स्रोत/सामग्री-
पुरों, गोत्रों के चार्ट, वंशावलियां, डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के रिपोर्ट,शिलालेख, स्तम्भ लेख आदि।
अनुपूरक सामग्री / सेकेंडरी सोर्सेज ैमबमदकंतल ैवनतबमे
विभिन्न लेखकों के निजी विचारों वाली पुस्तकें लेख वगैरह-
1 मगोपाख्यान कई पहला पं बृहस्प्ति पाठक बाद में अन्य लेखकों के संस्करण
2 मग तिलक एवं समान नामवाली पुस्तकें पं सभानाथ पाठक एवं अन्य
3 डॉ. मंजु गीता राय की पुस्तक
4 प्रो. बी.एन.सरस्वती की पुस्तक
5 उड़ीसा के संघर्ष वाली पुस्तक
6 स्वजातीय संगठनों एवं संस्थाओं द्वारा प्रकाशित स्माारिकाएं/पत्रिकाएं
7 वीकीपीडिया के मनमौजी लेख
8 अन्य वेबसाइटों पर डाली गई सामग्रियां
जो लोग भी इतिहास चर्चा में शामिल होना चाहें उनका स्वागत है। ये सूचनाएं एवं वर्गीकरण केवल आपकी सुविधा के लिये हैं। अगर कोई आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति/संगठन बिखरी हुई सामग्री को एकत्र संकलित कर उसे प्रकाशित करने का बोझ उठाते तो समाज के लिये बड़ा योगदान होता। चूंकि सारी सामग्री इंटरनेट पर उपलब्घ नहीं है। इस लिये क्षेत्र भ्रमण आदि की आवश्यकता है। अतः लाख उत्साही होने पर भी यह काम एक दो लोगों के वश का नहीं है। इसमें कुछ लाख रुपयों की आवश्यकता तथा समय देने की भी जरूरत है। मैं भी अपने स्तर से यथा संभव प्रयास कर रहा हूं।
कुछ लोग सामग्री संकलन की जगह झटपट निष्कर्ष के मूड में रहते हैं। इस तरह तो हम अपनी ही आंखों में धूल झोंकते हैं। प्रयास करने पर क्या पता कितनी उलझनें सुलझ जायं। समाधान मिल जायं। मेरे पास न तो कोई बना बनाया गौरवशाली निष्कर्ष है, न कोई दावा।



गुरुवार, 15 अगस्त 2013

स्वतंत्रता और आजादी


स्वतंत्रता , ‘‘स्व’’ अर्थात अपनी ‘‘तंत्रता’’ व्यवस्था का होना यह भारतीय शब्द एवं समझ है, उसी तरह जैसे- स्वस्थ, स्वाध्याय आदि। इसमें तंत्र अर्थात व्यवस्था का भी ‘स्व’’ की तरह महत्त्व है। आजादी के लिये मुक्ति शब्द अधिक करीब है। आजादी लोगों को अधिक पसंद आती है। इसमें कोई बंधन जो नहीं हैं लेकिन दूसरे की आजादी को महत्त्व देने पर कोई न कोई व्यवस्था तो अपनानी ही होगी। आज तक की सभी व्यवस्थाओं में कोई न कोई कमी रह ही गई है क्योंकि धूर्त तथा अत्याचारी सबसे पहले व्यवस्था के भीतर ही पक्षपात को सम्मिलित कर उसे नैतिक रूप देने का काम कर देते हैं, जैसे- आज का नव उदारवादी मुक्त बाजार सिद्धांत, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सारी समस्याओं का समाधान मानना आदि। परिणाम स्वरूप वर्तमान शासन का आदर्श है इनके पक्ष में काम करना फिर चाहे हमारा तंत्र लोक तंत्र हो या कोई दूसरा।
मेरा जन्म 1959 में हुआ, आजादी के बाद, आजादी के लिये लड़ने वाले (पैत्रिक परिवार) एवं अ्रगरेजों की फौज-पुलिस में काम करने वाले जंमीदार (ननिहाल) परिवारों के बीच। इसलिये मेरे बचपन में आजादी मिलने का जोश बचा हुआ था। अपने पितामह की जेल की डायरी मेरे निजी पाठ्य पुस्तकोें में से एक थी, जो 3 खंडों में थी, पूरा मिलाकर एक समकालीन पैनोरमा क्योंकि जिला स्तरीय क्रंातिकारी नेताओं को तत्कालीन कलेक्टर से अधिक काबिल बनाने का लक्ष्य रखने वाले गुरु लोग भी जेल में होते थे। क्रांतिकारी कूप मंडूक हो यह मान्य नहीं था। ऐसे ही एक स्वतंत्रता सेनानी मेरे बाबा थे और उन्हें जेल में पढ़ाने वाले गुरु थे स्वामी विज्ञानानंद। मेरे बाबा पुराने शाहाबाद जिले के और स्वामी विज्ञानानंद पुराने छपरा जिले के।
संयोग से दोनो शाकद्वीपी ब्राह्मण थे।

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

अमर शहीद मंगल पाण्डेय की जाति का सच?

अमर शहीद मंगल पाण्डेय की जाति का सच?
बंधुओं एक बार लगभग 1 साल पहले मैं ने अपने ब्लाग पर अमर शहीद मंगल पाण्डेय की जाति के सच के बारे में वास्तविकता जानने हेतु जानकारी मांगी थी। विकीपीडिया के अनुसार एवं अन्य स्वजातीय संगठनकर्ताओं/विशेषज्ञ बंधुओं के अनुसार बलिया वाले मंगल पाण्डेय तो भूमिहार निकलते हैं। यह सारी सूचना मैं ने अपने ब्लाग पर संदर्भसहित अपने ब्लाग पर डाल दी थी।
मुझे फिर से एक नई बात पढ़ने को मिली है। एक दूसरे मंगल पाण्डेय, जिन्हें अमर शहीद मंगल पाण्डेय माना जा रहा है वे बलिया नहीं फैजाबाद के हैं। ये मान्यवर शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं। यह जानकारी विस्तार से शाकद्वीपीय ब्राह्मण बन्धु पत्रिका के अंक 4, जुलाई 2013 में दी गई है। जीवनी लेखक महोदय श्री नथमल पाण्डेय जो स्वयं तो जयपुर, राजस्थान के हैं, न उनका पता इस पत्रिका में उपलब्ध है न ही उन्होने अपने वक्तब्य का कोई आधार दिया है।
सब कुछ एक कहानी जैसा वर्णित है। मैं ने इस आलेख की स्कैंड कापी संलग्न कर दी है। आप सभी जो फैजाबाद या आसपास के हों कृपया इस बात की पक्की जानकारी दें कि क्या ‘दुगवां रहीमपुर’ गांव में स्वजातीय बंधु अभी भी हैं और उनकी याददाश्त स्मृति परंपरा क्या है? फैजाबाद में  मगध से गये हुए ‘मग’ हैं। अतः उनका ‘पुर’ भी बताने

का कष्ट करें।

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

जातीय संगठन कैसा हो?
जीव जगत में हाथी जैसे विशाल एवं चींटी जैसे छोटे जीवों को भी संगठन एवं समाज (नियम, परंपरा, समाज) की आवश्यकता पड़ती है। मानव शिशु तो बिना समाज के विकसित ही नहीं हो पायेगा। संगठनों का का महत्त्व इसीलिए सभी समझते हैं। जीव जगत में पारदर्शिता है। पैंतरेबाजी, छल केवल दुश्मनों के साथ ही स्वीकृत है, अपनों के बीच नहीं। अपनों के बीच केवल कभी-कभी बल प्रयोग हो सकता है, खासकर जब किसी दो या अधिक के बीच भोजन या यौन सुख संबंधी वर्चस्व का मामला आ जाए।
मानव के व्यवहार में दूरगामी पैंतरेबाजी एंव छल के विभिन्न रूप एवं स्तर स्वीकृत हैं। इसीलिए मानवीय समाज और उसका संगठन जटिल है। संगठनों का प्रगट एवं छिपे हुए दोनों रूप हो सकते हैं।
संगठनों का सहज आधार जाति एवं भाषा होती है, उसके बाद क्षेत्र। बाद में अन्य     आधार जुड़ते गए हैं, जैसे - धर्म, राजनीति या अन्य केाई भी आदर्श अथवा लक्ष्य। ये अन्य आधार जाति जैसे सहज आधार को तोड़ने की कोशिश करते हैं। परिणाम विचित्र हेाता है, बौद्ध, ईशाई, मुसलमानों के भीतर भी जातीय, भाषाई एवं क्षेत्रीय भेद हैं। धर्म की एकता कभी भाषा पर हावी होती है, जैसे भारत में मुसलमानों की मानसिकता है कि वे ऊर्दू को धर्म से जोड़ते हैं भले ही खुद को ऊर्दू नहीं आती हो तो इसके विपरीत बंगलादेश एवं मालदीव में उर्दू-फारसी को अभी भी थोपा नहीं जा सका। ईशाई हिन्दी में खुलकर प्रार्थना करने लगे हैं और वे क्षेत्रीय (भारत की हिन्दी पट्टी) प्रभाव से हिन्दी नाम के साथ या अंग्रेजी नाम के साथ शास्त्री, आचार्य जैसे उपाधि भी लिखते हैं। बनारस में ख्रिस्तपंथी आश्रम है और ईशाई धर्म का यह संप्रदाय हल्के गेरू रंग का वस्त्र पहनता है। प्रयाग जमुना पुल के सटे ईशाइयों का कृषिविज्ञान का विश्वविद्यालय है। वहां आपको कई ईशाई शास्त्री, आचार्य मिल जा सकते हैं। आप कह सकते हैं कि यह तो भगवाकरण हो गया। मेरी समझ तो अलग है।
जो लोग केवल जातीय संगठन के पक्षधर हैं न कि जातीय संस्कृति, गौरव एवं भविष्य के वे जो सोचें, मुझे तो लगता है कि आगे वर्णित विंदुओं पर जातीय ग्रुपों के लोगों को विचार आमंत्रित करना चाहिए -
1. जातीय पहचान का आधार, क्या हो? इतिहास, नाम, रक्त संबंध या कुछ अन्य
2. अंतर्जातीय विवाहों वाले मामले में समाधान का आधार क्या हो? बहिष्कार, मुक्त स्वीकृति, पितृसत्तात्मक स्वीकृति जैसा कि पितृ सत्तात्मक समाज में प्रचलित है, बेटी लेगें, बेटी देगें नहीं या बेटी देंगे, लेगें नहीं, उससे तो नस्ल बिगड़ जाती है या फिर झूठ बोलकर घटना को विस्मृति के गर्त में डालना या फिर कोई अन्य।
3. जब बड़ी संख्या में लोग ब्राह्मणों के लिए निर्धारित एवं प्रचलित आजीविका छोड़कर नौकरी/दास वृत्ति अपना रहे हों तो किन गुणों के कारण समाज उन्हें ब्राह्मणोचित सम्मान दे?
4. हम आपसी परंपरा से व्यावहारिक एवं वास्तविक रूप से क्या सीख सकते हैं, जो वर्तमान एवं भावी समाज के लिए उपयोगी है?
5. योग, मंत्र, तंत्र जानने के लिए खतरा तो मोल लेना ही पड़ता है। अपने समाज के लोग भी अनेक गुरुओं, सम्प्रदायों के यहाँ चेला बनते ही हैं फिर अपनी परंपरा की प्रगति कैसे हो?
6. जजमानी, पुरोहिती, ज्योतिषी, तंत्र-मंत्र का रोजगार बढ़ाने में क्या मानदंड हो, जैसे - जजमान एवं चेले को ठगना, सच्ची बात बताना या कोई अन्य।
7. परस्पर एक दूसरे की मदद का तौर तरीका क्या हो ?
8. एकता एवं विवाद के विंदुओं की खोज ?
9. एक अच्छी वैवाहिकी कैसे चले?
10. आज की जरूरत के अनुसार कर्मकांड में संशोधन क्या, क्यों ओर कैसे हो ?
11. क्या दूसरे ब्राह्मणों में विलय के प्रस्ताव का औचित्य है और क्यों ? यदि हाँ, तो किसके साथ - मैथिल, भूमिहार (ये दो पुराने प्रस्ताव हैं) सान्नाढ्य, गौड़, पुष्करणा या अन्य।
12. मग-भोजक के बीच विवाह हो या न हो ? उसका आधार क्या हो ?
13. विवादस्पद, विषयों पर चर्चा कर जातीय बंधुओं का विचार जानना चाहिए या नहीं या फिर केवल सुमधुर निर्विवाद बातों को ही दुहराना चाहिये ?
14. वर्तमान में स्त्री शिक्षा के बढते स्तर के साथ उनकी सहभागिता का स्वरूप क्या हो?
15. क्या यह उचित है कि फैशन में अति आधुनिक और सामाजिक व्यवहार में रूढि़वादी बने रहें ? मैनें तो प्रस्ताव लिख दिए, आपलोग भी जरा गौर कर देख लें ?

सोमवार, 5 अगस्त 2013

सवालों से क्या डर?

सवालों से क्या डर?
मेरी इच्छा ही नहीं अनुरोध है कि अपनी जाति की परिस्थिति, इतिहास, परंपरा, धर्म, साधना, शैली, रूढि़याँ, उलझनें सभी पर गंभीर सें गंभीर प्रश्न सामने आएँ। प्रश्न आएंेगे तो लोग उत्तर ढूंढ़ने का प्रयास करेेंगे। किसी के सवाल पूछने को अपमान या अशिष्टता नहीं मानना चाहिए। इसी प्रकार किसी के उत्तर से किसी की सहमति हो या न हो उसे विचार हेतु खुला छोड़ना चाहिए। प्रश्नकर्ता भी उत्तर दाता पर व्यक्तिगत आक्रमण न कर उसे प्रश्नों के दायरे में घेर कर परीक्षा करें। अगर वह अपने ज्ञान एवं अज्ञान को स्पष्ट करे तो उसे दंड न दें। जितना उत्तर दे सका, उतने के लिये ही धन्यवाद, सारे प्रश्नों का उत्तर कोई नहीं दे सकता।
जानने एवं मानने की मिलावट नहीं करनी चाहिये। जानते हुए  उसे मानने में खतरा नहीं है। मानने को जानना कहने में खतरा ही खतरा है। जानना किसी आधार पर होता है। मानने का आधार हो ही यह जरूरी नहीं है। अतः हो सके तो किसी भी जानकारी का आधार एवं स्रोत अवश्य बतायें। इसके विपरीत स्वयं प्रश्न उठाकर और स्वयं ही ंनकारात्मक निष्कर्ष यह मान कर नहीं निकाल लेना चाहिए कि मेरे प्रश्न का कोई उत्तर देने वाला नहीं है अतः पहला और अंतिम ज्ञानी मैं ही हूँ। स्वयं सवाल एवं स्वयं उत्तर की यह शैली दूसरों को उत्तर देने से रोकती है अतः मैं उन श्रीमान् का नाम नहीं ले रहा। प्रश्नकर्ता के द्वारा ही उत्तर आ जाने पर दूसरे के पास सहमति या असहमति जैसा खाका ही नहीं बचता है।
फेश बुक पर फोटो देखिए तो तिलक, छापा, माला, नाम, देवी-देवता मंत्र सभी पर्याप्त मात्रा में   उपलब्ध हैं। जब उन पर चर्चा होने लगी तो कुछेक लोग ऐसे प्रश्न उठाने लगे जैसे योग, तंत्र आदि विषय सब बिलकुल स्पष्ट है। इस पर चर्चा की क्या आवश्यकता? ऐसे महानुभाव जीवन को इतनी सरलता से लिख रहे हैं जिसके अंतर्गत ही तो सारी साधना का समावेश है। यह एक साहित्यिक, भाषाई लच्छेदारी हो सकती है। इससे विषय वस्तु स्पष्ट नहीं होता। साधना एक अभ्यास पूर्ण तकनीकी ज्ञान की तरह है। यह केवल भावनात्मक विषय नहीं है। विधिपूर्वक न करें तो एक दिन का उपवास भी कष्टदाई हो जाता है। इसके विपरीत गर्मियों में भी छठ एवं निर्जला एकादशी लोग खुशी एवं उत्साहपूर्वक करते हैं। मैं ने एक साल विधिविरुद्ध छठ किया, बहुत कष्ट हुआ। उपवास के पहले अल्पाहार की जगह मुसलमानों की नकल पर खूब खा लिया। पेट एवं पूरे शरीर में बहुत जलन हुई। अगले साल उपवास के पहले कम खाया, समय रहते नियमानंसार खूब पानी पिया, परिणामतः 36 घंटे तक बिना कष्ट के व्रत में रहा, काम भी करता रहा।
पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, योग, तंत्र, उपासना, मंत्र, उत्सव, अनुष्ठान, उत्तराधिकार, चार पुरुषार्थ, जातीय पहचान, पुराने एवं भावी गौरव के उपाय किसी भी बात पर खुलकर पूछिए एवं विभिन्न लोगों से दूसरों का विचार जानिए। हर मुद्दे पर सहमति की आशा स्वयं को पीडि़त करने का उपाय है। विभिन्न सूचनाओं  तथा विचारों के बीच से कुछ तो निकलेगा ही।
मैं ने स्वयं फेश बुक पर उठाये गए सवालों को चुनने का काम शुरू कर दिया है और चर्चा आगे बढ़ाने की कोशिश करूँगा। देखें कि लोगों का दिल दिमाग किस ओर जाता है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

मगों का ब्राह्मणत्व

मगों का ब्राह्मणत्व
मगों ने ब्राह्मणोचित सभी जीविकाएँ पकड़ी। यज्ञ, अध्ययन अध्यापन, पौरोहित्य, गुरुपद, ज्येातिष, तंत्र, दान लेना एवं देना, इसके साथ आर्युवेद। सूर्य मंदिर में पूजा से सुविधापूर्ण जीवन का आकर्षण आज के दक्षिण बिहार में पहले भी कम नहीं था। पूरा भोजपुर रोहतास जिला मंदिरों के राज में था फिर भी राजस्थान की तरह अपने को केवल मंदिरों की पूजा तक नहीं समेटा बल्कि अन्य ब्राह्मणों की तरह समाज में स्वीकृत ब्राह्मणों की आजीविका को असुविधापूण्र होने पर भी स्वीकार किया।
बौद्धों से विद्या तो स्वीकार की, तारा की उपासना को अपनाया, वैरोचन बुद्ध को स्वीकार किया, बुद्ध को 12 वां अवतार भी बनाया लेकिन इसके विपरीत जब नालंदा विश्वविद्यालय के भिक्षुओं ने अत्याचार किया तब सूर्य पूजक ब्राह्मण भड़क गए। सूर्यपूजक ब्राह्मणों ने ही पहली बार बिना राज्याश्रय के नालंदा विश्वविद्यालय के एक खंड और उसके ग्रंथागार केा जला डाला, मतलब पराक्रम भी दिखाया।
भोजक गण धीरे-धीरे मंदिरों के पुजारी पद तक सीमित होते गए। वैदिक गोंत्र व्यवस्था भी नहीं मानी, खाप परंपरा को अपनाया न कि ग्राम व्यवस्था को, जैसा कि जाट, दुसाध, पासी, गुर्जर आदि अपनाते हैं। राजस्थान की कठोर स्थिति में किसी समय ओसवाल जजमानों के साथ जैन धर्म भी स्वीकार कर लिया और अंत में मंदिरों के आगे दान की याचना करने वाले ‘याचक’ बन गए।
इसके बावजूद राजस्थान में 19वीं 20वीं शदी में जबर्दस्त पुनरूत्थान आंदोलन चला। इस सच्चाई को स्वीकार कर उन समझदार महानंभावों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये न कि इस तथ्य को ही छुपाने का प्रयास। संस्कृत तथा आधुनिक उच्च शिक्षा के बल पर समाज के हर क्षेत्र में अंग्रेजी राज में भी स्थान पाने का तप किया। आज धन, विद्या, व्यवसाय, शिक्षा, पद, संगठन एंव प्रतिस्पर्धी कलह (न कि दूसरों की टंाग खिंचाई) सबमें भोजक आगे हैं। मग पिछड़ रहे हैं, निजी व्यवसाय केे क्षेत्र में तो मग अभी भी भोजकों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
विवाह करना न करना निजी मामला है। केसे पहल करें ? मूल बात यह है। भोजकों को भी वैदिक गोत्र व्यवस्था या मगों की तरह ग्राम व्यवस्था जैसे रीति अपनाने पर सोचना चाहिए। वैदिक पहचान के बिना ब्राह्मण होने का दावा!, वह भी भारतीय समाज में आखिर कैसे चलेगा?

ब्राह्मणों के वर्गीकरण के प्रमुख आधार

भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणों के वर्गीकरण के प्रमुख आधार
एक बार किसी ने उपाधियों के आधार पर जातियों को पहचानने का प्रयास किया था। मुझे यह प्रयास उत्साह पूर्ण किंतु सांस्कृतिक समझ की कमी वाला लगा। इसलिये जो जानकारी मेरे पास है उसे आप लोगों के सामने रख रहा हूं।
पहले जाति की पहचान तीन बातों से होती थी। रक्त संबंध, खेती, क्षेत्रीय पहचान एवं आचार, व्यवसाय एवं कच्ची रसोईयों का सहभोज (रोटी/भात)। ये असली मामले हैं, जो अंदरूनी रिश्तों का आधार बनते हैं।
मिश्र, पाठक, झा, ओझा, बनर्जी, साहू, पंडा, बनर्जी, चटर्जी, चौबे, अय्यर, नंबूदरी, नौटियाल, बहुगुणा, पौड़वाल तिवारी आदि सामान्य एवं गाँवों के नाम पर आधारित - मुसलगाँवकर, पणीकर, नौरिया एवं राजकीय उपाधियाँ - राय, चौधरी, ंिसह आदि बाहरी एवं बदलने वाली पहचान हैं। शर्मा लिखना सुनियोजित आंदोलन की हिस्सा है, जिसके बाद में अन्य जातियों ने भी इसे अपनाना शुरू कर दिया। पहली बार पुराणों ने एवं कुछ धर्म शास्त्रकारों ने शर्मा, वमा/देव, प्रसाद/गुप्त तथा दास लिखने का प्रस्ताव दिया जिसकी नकल चली तो जरूर पर बहुत कम।
दरसल गुप्त रूप से छल पूर्वक अपने को ब्राह्मण मनवाने का सिलसिला पुराना है। जिन   उपाधियों के प्रति आकर्षण होता है दरसल वे ब्राह्मण या क्षत्रिय की उपाधियां होती हैं। गुप्त, प्रसाद, साहू ये सभी ब्राह्मणों की उपाधियां हैं। विष्णु गुप्त चाणक्य को कहते हैं। उड़ीसा में आज भी साहू वहां के सबसे प्रभावशाली एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मण हैं। कोई इसका विरोध भी नहीं कर सका क्योंकि ‘शर्मा’ के पक्षधर जन्म से जाति की पहचान वाली धारा की जगह कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था के पक्षधर आर्य समाज एवं उससे उपजे अन्य आंदोलनों के लोग रहे हैं भले ही वे जन्म से ब्राह्मण क्यों न रहे हों। कुछ लोगों ने इसे इतना अधिक पसंद किया कि हमारे यहां नई पहल के रूप में बढ़ई, लुहार, एवं नाई लोगों ने शर्मा को अपनी जातीय उपाधि बना ली है। समाज इनके अतिरिक्त व्यापक रूप से भूमिहारों को शर्मा के रूप में पहचानता है।
बिहार के प्रसिद्ध भूमिहार नेता स्व. श्री कृष्ण सिंह के जमाने में भूमिहारी ध्रुवीकरण के समय सभी ब्राह्मणों के एकीकरण का एवं भूमिहारों को अपना मसीहा मानने का दबाव बनाया गया था। सरकारी, अर्ध सरकारी एवं कालेज विश्वविद्यालयों जैसे स्व-शासी संस्थाओं में अध्ययनरत ब्राह्मण छात्र एवं कार्यरत कर्मचारियों तथा अध्यापकों ने भी काफी संख्या में मिश्र, पाठक जैसी उपाधियों की जगह शर्मा लिखना शुरू कर दिया लेकिन ब्राह्मणों की भूमिहारों द्वारा पुरोहिती एवं जमीन छीनने के आंदोलन के साथ-साथ चलने के कारण मिथिलांचल को छोड़ बाकी जगहों पर इसका उलटा ही असर हुआ। मिथिलांचल में ब्राह्मणों तथा भूमिहारों के बीच वह द्वेष भाव नहीं है। वहां तो रक्त संबंध भी लंबे समय से चलन में है।
ब्राह्मणों का वर्गीकरण कई बार हुआ। इनमें मेरी जानकारी में निम्न प्रमुख हैं -
1- वैदिक सूत्रों वाला - जैसे वाजसनेयी, आंगिरस आदि
2- स्मृतियों वाला - मनु, पराशर, गोभिल, मौद्गल आदि।
3- उत्तर भारत में राजा हर्षवर्द्धन वाला - त्रिपाठी, चतुर्वेदी, द्विवेदी आदि
4- शंकराचार्य वाला- पंच गौड़, पंच द्रविड़ वाला कान्यकुब्ज, वंग, कलिंग, सारस्वत आदि।
5- अंग्रेजों की रायशुमारी वाला- विस्तृत एवं अनेक विवादों की जड़।
बंगाल, उड़ीसा एवं दक्षिण के वर्गीकरण की पूरी सटीक जानकारी मुझे नहीं है।
ब्राह्मणों की उपाधियाँ दूसरे लोग अपनाते रहे और राज्याश्रय का तो जाति से कोई रिश्ता ही नहीं होता। खान, ंिसह, चौधरी, राय, अधिकारी, धर्माधिकारी इसी तरह की उपाधियाँ हैं। पुरानी     उपाधियों का हाल भी कम मजेदार नहीं है। देव एवं गुप्त ब्राह्मणों की उपाधि होती थी। चाणक्य का नाम विष्णु गुप्त है। शर्मा का क्या कहना, बढ़ई, नाई, लुहार, सोनार सभी विश्वकर्मा से शर्मा बन गए। पंचतंत्र हितोपदेश के रचनाकार विष्णु शर्मा केा कुछ लोग विष्णु गुप्त चाणक्य मान बैठते हैं। गुप्त की जगह शर्मा भी लग सकता है। उड़ीसा में ‘साहू’ ब्राह्मण की उपाधि है तो हिंदी क्षेत्र में बनिया की। अब आप क्या समझ लेंगे उपाधि से?
इसलिए मित्रों, सावधान! उपाधि आधारित जातीय ज्ञान आपको कभी भी धोखा दे सकता है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना हीं धर्म, धर्मशास्त्र, तंत्र शास्त्र, भारतीय समाज को समझ लेने का आधार नहीं हो सकता, वह तो आपकी पात्रता सुनिश्चित करता है। अध्ययन, सत्संग चर्चा के बगैर जो मनमना धारणा बनाते हैं, शार्टकट हर जगह लगाते हैं वे सबसे पहले अपना बुरा करते हैं और जब दूसरों को गलत जानकारी देते हैं तो दूसरों को भी हानि होती है। यह मामला चाहे जाति व्यवस्था समझने का हो, वर्ण व्यवस्था या समाज की किसी अन्य परंपरा को।