शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

किसान नेता स्वर्गीय यदुनन्दन शर्मा

जन्मदिन वसंत पंचमी के अवसर पर

महान स्वतंत्रता सेनानी एवं राष्ट्रीय किसान नेता स्वर्गीय यदुनन्दन शर्मा

आत्मज स्व0 रामदेव मिश्र का निधन 3 मार्च सन् 1975 ई0 नेयामतपुर आश्रम, बेलागंज, गया

पंडित यदुनंदन शर्मा एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी थे। वह किसानों के निर्भीक, लड़ाकू नेता थे। रात-दिन, सोते-जागते उन्हे एक धुन सवार रहती थी, किसान अपने खेतों के मालिक कैसे बनें? लोभ, अभिमान उनको छू तक नहीं सका था। महात्मा गाँधी के नमक छोड़ो सत्यााग्रह से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का प्रारंभ किया था, किन्तु जीवन के अनुभव में उन्हें गांधीवाद पर विश्वास नहीं रह गया। किसान के लोकप्रिय नेता जननायक स्वामी सहजानन्द सरस्वती के साथ किसान आन्दोलन के निर्माण और विकास में अन्त तक लगे रहे। उनके लिए किसी आंदोलन, किसी राजनीति के ठीक होने की एकमात्र कसौटी थी- किसान मजदूर हित, शोषित-पीडि़त जनता का हित और किसान-मजदूर राज्य। किसान उन्हे अवतारी पुरुष समझने लगे थे। किसान उनके नाम की र्कीतन गाया करते थे- ”लेलन यदुनंदन अवतार, हरेला दूख किसानन के।“ गांव-गांव के किसान ढ़ोलक झाल बजाकर उमंग और उत्साह के साथ यह कीर्तन गान करते थे। पंडित यदुनंदन शर्मा राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के एक तपस्वी सेनानी और किसान आंदोलन के असाधारण नेता थे।
जिन लोगों को पंडित यदुनंदन शर्मा की शिक्षा और योग्यता की जानकारी है, उन्हें भी यह जानकर आश्चर्य होगा, कि अठारह वर्ष की उम्र तक वह बिल्कुल निरक्षर थे। उनका जन्म टेकारी राज की जमींदारी के एक प्रमुख गांव मझियावाँ (वर्तमान जहानाबाद जिला (अब अरवल) कुर्था प्रखंड)  में बसन्त पंचमी के दिन 1918 में एक गरीब किसान के घर में हुआ था। उनके पिता पंडित रामदेव शर्मा जी तीस वर्ष की उम्र में ही मर गये। वह संस्कृत के विद्वान थे और अभी पढ़ाई जारी ही थी कि अचानक अकाल में ही कालकवलित हो गए। पिता के मरने के समय यदुनंदन सिर्फ तीन साल के थे। उनका बचपन का नाम सुखल पंडित था, शायद दुबला-पतला रहने के कारण ही यह नाम रखा गया था। कुछ सयाना होते ही घरवालों ने सुखल को चरवाही के काम में लगा दिया। गरीब घर में एक भैंस थी। सुखल उसकी चरवाही करते और उसके लिए खुरपे से बिखरी छोटी-छोटी घासों को गढ़ लाते थे।
चरवाही जीवन में भी सुखल पंडित गांव के सारे चरवाहों के कमांडर थे। इस पद को उन्होंने अपनी टोली में सबसे सबल को परास्त कर तथा बाहरवालों से लड़ने में अपना कुशल नेतृत्व दिखाकर प्राप्त किया था। गांव में मकई के बालों की चोरी में सबसे खतरे की जगह सुखल पंडित रहते, मगर बालों के बँटवारे में सब से पीछे। उनके सर्व स्वीकृत नेतृत्व का यह भी एक गुर था।
अब सुखल पंडित 18 वर्ष के हो गये। उनके पिता के मित्र रामदेव सिंह जी के समझाने पर एकाएक ख्याल आया कि मुझे पढ़ना चाहिए। उनके पिता रामदेव शर्मा जी और बाबू रामदेव सिंह जी एक-दूसरे को ‘मीत’ कहा करते थे। एक दिन ‘डोलपता’ खेलने में पेड़ से गिरे तरुण ‘सुखल’ कराह रहा था। उसी समय गांव के प्रतिष्ठित बाबू रामदेव सिंह जी उसी रास्ते से गुजर रहे थे। उन्होंने सुखल पंडित को उठाया और कहा आपके पिता हमारे ‘मीत’ थे। हम दोनों एक हीं नाम होने के कारण हम एक दूसरे को मीत कहा करते थे। शाकद्वीपी ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर आप मूर्ख हैं। बाप के पिता पंडित और विद्वान थे। सब लोग उनकी विद्वता की प्रशंसा करते थे। ‘पंडित बाप के पुत्र को कुछ पढ़ना चाहिए’ यह बात उनके मन में बैठ गयी और उन्होंने पढ़ने का दृढ़ संकल्प कर लिया। माँ गांव की दूसरी स्त्रियों की भांति अनपढ़ थी, फिर भी अपने  पति के उदाहरण से वह अपने बेटे को पढ़ने के लिए समझाती थी। वह कहा करती थी ब्राह्मण का बेटा बिना पैसा भी संस्कृत पढ़ सकता है। एक दिन रेल सड़क से दूर अपने गांव से अपढ़ किन्तु साहसी सुखल पंडित पढ़ने के लिए गायब हो गए। जैसे-तैसे बे-पैसे सुखल मगध से काशी पहुँच गये।
काशी विद्या की खान है, यह बात उस ग्रामीण तरुण केा मालूम था। वहाँ पहुचने पर उसने पता लगाया कि काशी का सबसे बड़ा पंडित कौन है? किसी ने कह दिया- महामहोपाध्याय शिव कुमार शास्त्री। दूसरे दिन सुखल पंडित पूछते-पूछते वहां पहुंच गये। शास्त्री जी दरवाजे पर दातवन कर रहे थे। उनके सरल सौम्य स्वभाव और शरीर को देखकर सुखल बेझिझक उनके पास गये। शास्त्री जी स्वयं गरीबी और दरिद्रता से परिचित थे, इसलिए दरिद्र ब्राह्मण तरुण को देखकर आत्मीयता अनुभव करने के लिए विवश थे। उन्होंने पूछा- कहां से आये हैं? संकोच और डर से शून्य सुखल पंडित ने कहा - ‘विद्या पढ़ने, आपका नाम सुनकर आपसे पढ़ने गया से आया हूँ।’ कुछ पढ़े हो? ‘एक अक्षर’ भी नहीं! पंडित शिकुमार शास्त्री ने दुत्कारा नहीं, उन्होंने कुछ पैसे देकर कहा ‘जाओ इससे क-ख सीखने की पोथी खरीद लाओ।’ सुखल पंडित में प्रतिभा थी, यद्यपि अभी तक उसका प्रयोग नहीं हो पाया था। शास्त्री जी बड़े स्नेह से स्वयं सुखल पंडित को समय निकालकर पढ़ाते थे। अक्षर के ज्ञान के बाद उन्होंने ‘लघु कौमुदी’ (संस्कृत व्याकरण) पढ़ानी शुरू की। सुखल पंडित को अब कुछ आगे का रास्ता भी दिखायी पड़ने लगा। उन्होंने बड़ी तत्परता से पढ़ाई जारी रखी। खाने के लिए संस्कृत पढ़ने वाले ब्राह्मण विद्यार्थी के लिए बनारस में सैंकड़ों भोजन गृह खुले थे।
सुखल पंडित अब पंडित यदुनंदन शर्मा हो गये। उन्होंने लघुकौमुदी समाप्त कर ली। अब वह आगे की सीढ़ी पर कदम रखना चाहते थे, इसी समय वह बीमार हो गये। पुस्तक के हाथ से छूटते ही माँ की याद आने लगी।
गुरू जी से आज्ञा लेकर स्वास्थ्य लाभ के लिए गांव चले आये। स्वछन्द, निरक्षर चरवाहा सुखल अब पंडित यदुनंदन शर्मा बनकर गांव आये थे। कुछ संस्कृत का ज्ञान हो गया था। हिन्दी और संस्कृत पढ़ने लगे थे। साथ ही शाकद्वीपी ब्राह्मण परिवार में जन्म होने से अपनी कुल-विद्या वैद्यक का भी थोड़ा ज्ञान रखते थे।
यदुनंदन शर्मा बनारस लौटने को सोच रहे थे उनके एक चाचा नौकरी से छुट्टी पर आये थे। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने को सलाह दी। ‘संस्कृत विद्या की आजकल मांग नहीं है। भिखमंगी ठीक नहीं। अंग्रेजी पढ़ो।’
टेकारी में अंग्रेजी का हाई स्कूल है, यह उन्हें मालूम था। उन्होंने वहाँ जाकर अंग्रेजी पढ़ने का संकल्प किया। टेकारी हाई स्कूल के कुछ छात्रों का रसोईया बनकर अपने रहने और भोजन की व्यवस्था कर ली। संस्कृत (द्वितीय भाषा) में कमजोर छात्रों को संस्कृत पढ़ाने लगे और बदले में उनसे अंग्रेजी पढ़ने लगे। कुछ दिन के अन्दर ‘फस्टबुक’ की पढ़ाई समाप्त कर टेकारी हाई स्कूल में नाम लिखा लिया। उसी समय टेकारी के राजा विलायत से लौटे थे। स्कूल का नया मकान बना था। मकान के उद्घाटन का समारोह हो रहा था। यदुनंदन शर्मा ने अंग्रेजी में एक लम्बी कविता लिखी। समारोह में उन्हें कविता पाठ करने की अनुमति मिली, कविता की अन्तिम पंक्तियों का भावार्थ था - ‘तुम्हारा गरीब रैयत, ब्राह्मण जाति के यदुनंदन नामक विद्यार्थी ने इस कविता केा बनाया, जो कि यावत् चंद्र दिवाकर तुम्हारा मंगल चाहता है।’ यदुनंदन शर्मा  को सात रुपये की पुस्तकें इनाम में मिली। फीस मांफ करने की बात कही गई, तो यदुनंदन ने कहा - मुझे से भी अधिक गरीब विद्यार्थी हैं, जिनको फीस देकर पढ़ना कठिन है। बड़ी कृपा हो यदि उनकी भी फीस माफ हो जाये’। यदुनंदन शर्मा की प्रार्थना स्वीकृत हो गयी और कुछ वर्षों तक टेकारी हाई स्कूल निःशुल्क घोषित कर दिया गया।
1919 ई0 में यदुनंदन शर्मा ने मैट्रिक पास किया। 1913 तक निरक्षर रहने वाला व्यक्ति 1914 में बनारस जाकर क, ख प्रारंभ करने वाला, 1916 में टेकारी राज स्कूल में दाखिल होने वाला तेज और मेहनती यदुनंदन मैट्रिक पास कर लोगेां को आश्चर्यचकित कर दिया। उनकी इच्छा थी कॉलेज जाने की। कालेज के खर्च का ख्याल कर कभी-कभी उनका उत्साह मंद हो जाता, तो भी प्रयास जारी रहा। कुछ दिन एक स्कूल में अध्यापक का काम किया। फिर एक जमींदार के मैनेजर का। नौकरी की खोज में पुलिस सब इन्सपेक्टर के इंटरव्यू में एक अंग्रेज पुलिस सुपरीटेडेंट के व्यवहार का यदुनंदन शर्मा ने जोरदार विरोध किया और अन्त में पुलिस की नौकरी के योग्य नहीं समझा गया। सन् 1925 ई0 में शर्मा जी हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस में दाखिल हुए। दाखिला फीस दे देने के बाद उनके पास मात्र दो तीन रुपये बचे। छितुपुर के एक लोहार के घर में एक छोटी सी कोठरी ली। लेाहार ने किराये की मांग की। उन्होंने कहा किराये के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं, मैं तुम्हारी भाथी को दो घंटे प्रतिदिन चला दिया करूँगा 4-5 दिनों तक भाथी चलायी थी। लोहार ने उनकी तपस्या देख कर कहा ‘बाबू मुझे किराया नहीं चाहिए, उाप पड़े और जब तक चाहें यह कोठरी आप के लिए रहेगी’।
पंडित शिवकुमार शास्त्री केा पढ़ाने के लिए राजी करने वाला दृढ़-व्रती तरुण यदुनंदन एक दिन पंडित मदन मोहन मालवीय के पास गया। यदुनंदन शर्मा की बात सुनकर मालवीय जी ने उपदेश देना शुरू किया- ‘पढ़कर क्या करोगे? काम करो, जीविका कमाओ।’ यदुनंदन शर्मा  उपदेश सुनने नहीं गये थे। उन्होंने कहा - मैं जीवका के लिए काम भी करना चाहता हूँ और पढ़ने के संकल्प को भी नहीं छोड़ना चहाता। मुझे कोई काम दे दीजिये।। मालवीय जी ने उपेक्षापूर्वक जब कहा कि तुम्हारे जैसे काम की बात करने वाले कितने विद्यार्थी को मैं देख चुका हूँ। शर्मा जी ने कहा-”आप मुझे कोई काम, पाखाना साफ करने का भी देकर देखें, यदि मैं महीने भर भी करता रहूँ तो मेरी फीस माफ करवा दीजिए।“
उनके बात का मालवीय जी पर गहरा प्रभाव पड़ा, काम नहीं मिला, किन्तु फीस माफ हो गई। गंगा तट पर लिट्टी लगाकर भोजन करना, फाका काशी का जीवन बिताना और अध्ययन करना यदुनंदन शर्मा का दैनिक कार्य हो गया। 1927 में आइ॰ ए॰ पास की और 1929 में बी0 ए0 की परीक्षा दी। इस बीच में शहीद चन्द्रशेखर आजाद और शहीद भगत सिंह के दल के साथ यदुनंगदन शर्मा का बनारस में सम्पर्क हुआ। जीवन ने एक नया रास्ता पकड़ा और देशभक्ति की भावना उनके मन में उमड़ने लगी। बी॰ ए॰ की परीक्षा देने बाद उन्हें पता चला कि दरभंगा जिले में भारी हैजा फैला हुआ है। दरभंगा जिल के दलसिंहसराय में पहुँचकर और 3-4 सप्ताह तक उस क्षेत्र में रहकर हैजा पीडि़तों की सहायता की।
1930 ई0 में महात्मा गांधी का नमक सत्याग्रह शुरू हुआ। हिन्दु विश्वविद्यालय में नमक बनाने वालों में पंडित यदुनंदन शर्मा भी शामिल हो गए। अपनी विशेषज्ञता के कारण शर्मा जी नमक बनाने का प्रशिक्षण देने लगे। गया जिले में कुमार बद्री नारायण सिंह का गांव भगवान (वर्तमान औरंगाबाद जिला) में नमक कानून भंग करने का निश्चय हुआ। शर्माजी की देख-रेख में प्रशिक्षण दिया गया। गया जिला कांग्रेस के नेतृत्व का भार पंडित यदुनंदन शर्मा पर आया। शर्मा जी ने बड़ी योग्यता से गांव-गांव घूमकर आंदोलन का संचालन किया। पुलिस की नजर से बहुत दिनों तक वह बच नहीं सके। एक दिन जब अपने साथी रामाश्रय राय जी के साथ शेरघाटी से गिरफ्तार हो कर गया कोतवाली जा रहे थे तब उन दोनो को समाचार मिला कि वे बी0ए0 उतीर्ण हो गये। शर्मा जी को सोलह माह की सजा हुई किन्तु दस माह के बाद ही 1931 में गांधी-इर्विन समझौते के कारण वह छोड़ दिये गये। सन् 1932 और 1933 में भी गिरफतार किये गये और 6-6 माह का सश्रम कारावास व्यतीत किया।
1933 में पंडित यदुनंदन शर्मा किसान सभा में शामिल हो गये और नियायतपुर में किसान आश्रम बनाकर अत्यन्त पददलित तथा भयत्रस्त किसानों में रूह फूँकनी शुरू की। शर्माजी ने किसानों की मूक वेदना को अपनी प्रबल वाणी प्रदान की। सन् 1936 में शाहबाजपुर और साँडा के किसानों का संगठित संघर्ष हुआ। जमींदार हारे और किसानों की जीत हुई। गया के कांग्रेस और किसान सभा का नेतृत्व पंडित यदुनंदन शर्मा के हाथों में आ गया। इस बीच गया जिला कांग्रेस कमिटी के एक बार सचिव और दो बार अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
बड़े घरानों के नेताओं को जेल के ऊपरी श्रेणी में रखा जाता था। जेल के अन्दर रहने वाले बाबू नेताओं का व्यवहार साधारण किसान-मजदूर परिवार से आनेवाले स्वयं सेवकों से अच्छा नहीं था। पंडित यदुनंदन शर्मा साधारण किसान परिवार के थे, उन्होंने बाबूगिरी पसंद नहीं थी। वइ सभी बन्दियों में अकृत्रिम रूप से हिले-मिले रहते थे। वह अपनी शिक्षा की डिग्री के आधार पर ‘डीविजन’ ले सकते थे, किन्तु उन्होंने ठुकरा दिया और इसका परिणाम यह हुआ कि साधारण सत्याग्रही बन्दी पंडित यदुनंदन शर्मा को अपना अगुआ मानने लगे।
18 जुन 1933 ई0 को बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन ने गया जिले के किसानों की जाँच के लिए एक जाँच समिति बनाई, जिसमें स्वामी सहजानन्द सरस्वती, पंडित यदुनंदन शर्मा, श्री यमुना कार्यी, श्री बलदेव सहाय एडवोकेट और डाक्टर युगल किशोर सिंह कुल पांच सदस्य थे। घोर बरसात में समिति के सदस्यगण गया जिले के अनेक गांवों में गए और किसानों की स्थिति की जाँच कर 80 पृष्ठों में ‘गया जिले के किसानों की करुण कहानी’ के नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित किया।
20 सितम्बर 1933 ई0 में 60 हजार से लेकर लगभग एक लाख किसानों का शानदार प्रदर्शन गया में पंडित यदुनंदन शर्मा के नेतृत्व में हुआ। 5 अक्टूबर 1934 केा गया की एक सभा में स्वामी सहजानन्द सरस्वती और पंडित यदुनंदन शर्मा केा भाषण करने पर सरकारी अधिकारियों द्वारा रोक लगा दी गई। इस सभा की अध्यक्षता भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद कर रहे थे। सन् 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडल बिहार में बनाने के बाद शर्माजी को किसानों की कई लड़ाईयाँ लड़नी पड़ीं और कई बार जेल की हवा खानी। बछवारा में बिहार प्रदेश किसान सम्मेलन का सभापतित्व करते हुए पंडित यदुनंदन शर्मा ने जो ओजस्वी भाषण किया था, उससे तिलमिला कर कांग्रेसी दैनिक ‘सर्चलाईट’ ने उन पर कितने ही बाग्वाणों की बौछार की थी। श्री जयप्रकाश नारायण ने उसका जवाब देते हुए एक छोटा सा नोट लिखा था, जो इस प्रकार है -
”अपने पंडित यदुनंदन शर्मा को अनाड़ी, गँवार, महत्वाकांक्षी आदि क्या नहीं कहा है। मुझे यकीन नहीं होता कि सचमुच आप उनकी योग्यता से वाकिफ नहीं है। आपका यह अनाड़ी, गँवार एक विचित्र आदमी है। काश, कांग्रेस में उनके जैसे आदमी और होते! चरित्र और शक्ति के साथ-साथ उनमें तकलीफ सहने की क्षमता भी है।अट्टारह साल की उम्र में स्कूल में भर्ती हुए और ग्रेजुएट बने। युनवर्सिटी में अपना खर्च चलाने के लिए उन्हें लोहार के यहाँ तथा कई और जगह काम करने पड़े। मैं उन्हें एक कारगर और किसान सभा के कार्यकर्त्ता के रूप में जानता हूँ और उनके परिवार की जिन्दगी का निर्वाह ब्राह्मणत्व के सर्वश्रेष्ठ आदर्श ‘उंच्छवृति’ पर हेाता है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है। उनकी जिन्दगी कठोर है और उनके गुण भी मामूली नहीं। अर्द्धनग्न रहने के कारण उन्हें सीधा-साधा और कुडौल भले हीं कह लें, जैसा कि जनता के आदमी होते हैं, लेकिन उनमें आन्तरिक महानता है, जो किसी ऊँचे आदर्श के कारण ही होती है। गया के देहात की ऊबर-खाबड़ सड़कों पर 40-40 मील रोज साइकल पर दौड़ना उनके लिए मामूली बात है। वह किसानों के साथ रहते हैं, वह उनके अपने आदमी हैं। सत्याग्रह आंदोलन में वह चार बार जेल जा चुके हैं। एक बार वह जिला कांग्रेस कमिटि के मंत्री रह चुके हैं और दो बार उसके सभापति। जनाब आपके उस गँवार की यह रूप-रेखा है।“
1938 में वारसलीगंज के रेबड़ा गांव का किसान सत्याग्रह पंडित यदुनंदन शर्मा के नेतृत्व में बिहार में हीं नहीं, भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में भी ऊँचा स्थान रखता है।
9, 10 अप्रैल 1939 को अखिल भारतीय किसान सभा का चतुर्थ अधिवेशन गया में आयोजिल हुआ। आचार्य नरेन्द्रदेव सम्मेलन के अध्यक्ष और पंडित यदुनंदन शर्मा स्वागताध्यक्ष थे। गया के हस सम्मेलन ने यह साबित कर दिया था कि कांग्रेस के बाद हमारे देश में सबसे बड़ी केाई जनसंस्था है, तो वह है किसान सभा। तात्कालिक ‘जनता’ साप्ताहिक ने इसकी सफलता का श्रेय पंडित यदुनंदन शर्मा केा देते हुए लिखा था - इस अधनंगे फकीर ने किसानों के हृदय को जीत लिया है।
”अपने स्वागत भाषण में पंडित यदुनंदन शर्मा ने जननायक स्वामी सहजानन्द सरस्वती के प्रति जो उद्गार प्रकट किया था, वह इस प्रकार है - एक बात जो मुझे सोते, जागते, चलते-फिरते हर समय याद रहती है, वह सह कि हमारा स्वामी सहजानन्द सरस्वती हमारे किसान आंदोलन का ‘डायनुमा’ हैं। यह सब कुछ भूलकर सदियों से पीडि़त भारतीय जनता के दिल और दिमाग में नयी रोशनी भरने के लिए चौबिस घंटे चालू रहता है। चन्द वर्षों में हीं उसने इस किसान आंदोलन को वहाँ पहूचाँ दिया है, जहाँ पहुँचकर यह अपने विपक्षियों को अपना लोहा मानने को मजबूर कर रहा है। मेरा अपना ख्याल है कि यह स्वामी भारत के पद-दलितों के लिए वही है जो रूस के दलितों के लिए लेनिन थे।“
पंडित यदुनंदन शर्मा को स्वामी सहजानन्द सरस्वती के व्यक्तित्व में अगाध श्रद्धा थी। उनके जीवन के अन्त तक वह सहयोगी बनकर रहे। सन् 1939 में अगस्त सितम्बर में मंझियावाँ के किसानों का एक ऐतिहासिक सत्याग्रह हुआ। मखदुमपुर अंचल के सतीथान, हिसुआ अंचल के सिन्दुआरी, औरंगाबाद के फेसर, नालन्दा के घोसरावां आदि दर्जनों स्थानों में किसान आन्दोलन का नेतृत्व पंडित यदुनंदन शर्मा ने किया।
सन 1938 में पंडित यदुनंदन शर्मा की ऐतिहासिक ‘चिनगारी’ पुस्तिका निकली। इस पुस्तिका ने तहलका मचा दिया। सन् 1940 में अपने भूमिगत जीवन में ‘लंकादहन’ नोटीस निकाली। ‘चिनगारी’ और ‘लंकादहन’ नोटीस सरकार ने जप्त कर लिया था। अपने सवा वर्ष भूमिगत जीवन में भी उनकी चेतावनियां, नोटीस, बुलेटिन आदि प्रकाशित हो लोगों के बीच बँटती रहती थी। पुलिस दो वर्ष से अधिक दिनों तक खोज करती रही, मगर वह हाथ नहीं आये। पुलिस के हाथ पड़कर भी निकले भागने की उनकी कितनी ही कहानियाँ प्रचलित हैं।
15 अगस्त 1947 का देश की आजादी के बाद शर्मा जी ने सदा सर्वथा के लिए कांग्रेस से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। 1952 में स्वतंत्रता सेनानियों की समस्या को लेकर शर्मा जी ने गया में 27 अप्रैल को एक सम्मेलन आयोजित किया था। पंडित यदुनंदन शर्मा एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी थे। वह किसानों के निर्भीक लड़ाकू नेता थे।
3 मार्च 1975 को किसानों का वह प्यारा नेता चल बसा। गांधी जी के छेड़े नमक सत्याग्रह से उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया। वह वामपक्षी जनवादी विचारधारा के समर्थक बन गये। रात दिन सोते जागते उन्हें यही धुन सवार रहती - ”किसान मजदूर राज“ कब और कैसे कायम होगी? किसानों का पर उनपर अटूट विश्वास था। शर्माजी का सम्पूर्ण जीवन त्याग और बलिदान का जीवन था। लोभ, अभिमान उनको छू तक नहीं गया था। उनकी जन्म शताब्दी वर्ष में हम उन्हें बिहार राज्य किसान सभा की ओर से श्रद्धान्जलि अर्पित करते हैं और सभी स्तर पर गोष्ठी, सभा और समारोह आयोजित उनकी शताब्दी आयोजित करने की अपील करते है।
प्रस्तुत कर्ता की बात-
ऊपर में प्रस्तुत पूरा आलेख श्री कामरेड त्रिवेणी शर्मा सुधाकर द्वारा लिखित और उनकी ही पुस्तिका ‘किसान सभा के गौरव शाली साठ वर्ष’ से यथावत उद्धृत है। मुझे यह पुस्तिका नियामत पुर आश्रम में मिली।
पूरे गौरव गान के बाद दुखद कथा यह है कि पं श्री यदुनंदन शर्मा का अंतिम समय उपेक्षा, तिरस्कार और पहले से भी अधिक भयानक गरीबी में बीता, अभाव एवं अपार कष्ट के बीच नियामतपुर आश्रम में ही शरीर छोड़ा। नियामतपुर के लोगों ने उन्हें आश्रम से खदेड़ा नहीं क्योंकि  मुफ्त क शिक्षक तो वे थे ही। उन्हें विधान सभा का चुनाव लड़ाया गया और भूमिहार एकता के नाम बाबू शत्रुघ्न सिंह को जिताया गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती का मित्र और गरीब भूमिहारों का मसीहा हार गया। मसीहा न केवल चुनाव हारा बल्कि वामपंथी नौटंकी की असलीयत जान कर भी टूट गया। तिकड़म से परहेज करने वाला सच्चा ब्राह्मण अपनी ही जाति के शिक्षा माफियाओं और जमींदारों द्वारा जजमानी का विरोध न किये जाने के कारण शाकद्वीपी विरोधी खेमे कस व्यक्ति माना गया और जातीय समाज में भी आदर न पा सका क्योंकि गया जिले के अधिकांश ब्राह्मण पहले जनसंघी और बाद में भाजपाई हैं। सहजानंद स्वामी जैसे तथाकथित संन्यासी ने नियामतपुर आश्रम के पास सिलौंझा गांव में ही शाकद्वीपी ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ किया था और भूमिहारी दावे के अनुसार उन्हें हराया था। यह इतिहास का करुण पक्ष है।
आज भी उनके नाम पर स्मारक निर्माण समिति तो बन गई लेकिन न तो लोग आश्रम की कब्जा की गई जमीन छोड़ने को तैयार हैं न कब्जा किया हुआ आश्रम? जो भी भूमिहार धनी हो जाते हैं, उन्हें किसान आंदोलन से अधिक भूमिहारी जमींदारी के गौरव का नशा चढ़ जाता है।
आजकल मूर्ति बनाने का फैसन है तो पं श्री यदुनंदन शर्मा की भी मूर्ति लगाने के लिये चबूतरा तो बन गया, मूर्ति लगनी बाकी है। 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार मिलन समारोह

शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार मिलन समारोह
स्थान- प्रकृति वाटिका, खटकाचक। दिनांक- 19 जनवरी 2014 प्रातः 9.00 से सायं 5.00
सम्माननीय स्वजातीय सदस्य गण,
पिछले वर्षों मंे  2 बार आयोजित हुए परिवार मिलन समारोह में आपकी भागीदारी बढ़ने के साथ उत्साह भी बढ़ता जा रहा है। यह आयोजन स्वजातीय बृहत् परिवार के साथ मिलने, सहभोज एवं मुक्त चर्चा का अवसर है। आयोजन को रोचक तथा सफल बनाने के लिये कई उपाय तथा कार्यक्रम आयोजित करने के प्रयास हो रहे हैं। यह सब कुछ तभी संभव होगा जब आपकी सपरिवार भागीदारी होगी। अतः आपसे आग्रह है कि आप अपने परिवार के साथ तो सम्मिलित हों ही, पास पड़ोस के स्वजातीय लोगों को भी सपरिवार सम्मिलित करें।
अनुरोध एवं परामर्श-
1. प्रकृति वाटिका माड़नपुर नैली मोड़ से पहाड़पुर तरफ आधे किलो मीटर पर है। 5 नंबर मिलिट्री गेट से नवादा बाई पास रोड पर ठीक दूसरे किलोमीटर पर सड़क से उत्तर रोड तथा पहाड़ी के बीच खटकाचक गांव में न जा कर मुख्य सड़क एन.एच. 82 पर ही प्रकृति में आना हैै। पूरब घुघरी टांड़ मोड़ एवं पश्चिम में 5 नंबर गेट से किराये का टेंपू मिलता है। अपनी सवारी से भी आ सकते हैं।
2. आयोजन समिति के सदस्यगण आपसे संपर्क करेंगे। हमने रसीद नहीं छपाई है, अतः कृपया सादे कागज की सूची पर ही अपना नाम दर्ज कर चंदे की राशि अंकित कर दें। चंदा स्वैच्छिक है, जो लोग आयोजन के पूर्व चंदा नहीं दे पायंे या न दे सकें, वे भी सादर आमंत्रित हैं। समारोह स्थल पर भी आप अपनी सहयोग राशि दे सकते हैं।
3. अपने साथ एक बिछावन की चादर लायें तो समूह में बैठ कर चर्चा में सुविधा होगी। पेय जल, शौचालय आदि व्यवस्था के साथ प्रकृति वाटिका चारो तरफ से दीवार/कांटेदार तारों से सुरक्षित भीतर में पेड़-पौधों से भरा स्थान है।
4 कृपया किसी भी अन्य संगठन, संस्था, राजनैतिक दल आदि के लिये प्रयास छोड़ कर यहां उत्सव आनंद तथा स्वजातीय समाज के सुख-दुख तक अपने को सीमित रखंे।
निवेदक - शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार मिलन समारोह आयोजन समिति
 संपर्क- सर्व श्री विजय कुमार चक्रवर्ती-9934431919, राजेश कुमार मिश्र-9934139774, कमल पाठक- 8409615322, हरिनंदन मिश्र- 9934058817, गणेशदत्त मिश्र-9934082490, अरुणकुमार मिश्र-9934905046,  विवेकानंद वैद्य- 9835822129, मनीषकुमार मिश्र-9430057999, प्रभात कुमार पाण्डेय- 8051452756, डॉ.प्र्रमोद कुमार पाठक- 9334927051, देवेन्द्र नाथ मिश्र-9835012480, अरुणोदय मिश्र- 9334424369, कमलेश मिश्र- 9934058209, संदीप मिश्र-9973161460 अन्य सदस्य-

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा

कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा: व्यक्तित्व, समाज और विडंबनाएं
पंडित जी का एक आश्रम है, उसका जीर्णोद्धार हुआ है। वहां पंडित जी की एक मूर्ति भी लगनी है। संयोग से यह इलाका 2008 से मेरा भी कार्यक्षेत्र है। वहां लगभग 65 गांवों की सिंचाई व्यवस्था में हमारा कमोबेश योगदान है। एक बड़ा संगठन भी बना जमुने-दसइन पइन गोआम समिति । 2, 3 छोटी कमिटियां भी हैं। दोनों समितियों के अघ्यक्ष हैं- श्री रामनंदन सिंह।
मगध जो कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा की जन्मभूमि और कर्म भूमि दोनों ही है, वहां के जातीय अर्थात शाकद्वीपीय समाज में इनकी चर्चा भी कम होती है, लोकप्रियता की बात क्या करें? कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा अपनी स्वतंत्र जीवन शैली तथा पीडि़त मावता के प्रति संवेदनशीलता से भरे पूरे लेकिन तिकड़म विद्या में कमजोर होने के कारण कई प्रकार के संकटों में फंसे।
सबसे बड़ी व्यथा मनुष्य को तब होती है, जब उसे वही समूह या समाज नकार दे, धोखा दे, जिसके  लिये उसने अपने को अर्पित कर दिया हो। शर्मा जी कोई विरक्त व्यक्ति तो थे नहीं, इसलिये शादी की, संतान भी हुआ और उसकी अगली पीढ़ी भी। एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से आने के कारण आजादी की लड़ाई और उसके बाद मध्य बिहार के सामंतों के अत्याचार के विरुद्ध किसान आंदोलन के अग्रणी नेता होने के कारण  उनका पूरा परिवार आर्थिक विपन्नता में संकट में फंस गया, एक तरह से बर्बाद हो गया। एक पौत्र है जो बिलकुल निराश्रित तथा पूर्णतः सर्वहारा हो कर रह गया है।
स्वजातीय लोगों ने तो उन्हें नहीं ही महत्त्व दिया। मगध में शर्मा उपाधि रखने, वामपंथी झुकाव तथा भूमिहार ब्राह्मणों के साथ आंदोलन करने के कारण पारंपरिक रूप से जनसंघी, भाजपाई मानसिकता वाले एवं ब्राह्मणविरोधी तेवर वाले सहजानंद सरस्वती के साथ मित्रता के कारण कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा जी को अनेक लोग अभी भी भूमिहार जाति का ही मानते हैं। इस प्रकार एक अवतार, एक भगवान की तरह किसी समय माने गये कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा शाकद्वीपीय ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हो कर भी इनके बीच बहुत लोकप्रिय नहीं हो सके।
उससे भी दर्दनाक वाकया तब हुआ जब भूमिहार जाति के लोगों ने इन्हें धोखा दे कर उल्लू बनाया।  पुराने गया जिले को कार्यक्षेत्र बनाये हुए श्री शर्मा जी का आश्रम नेहालपुर गांव में तब के गरीब रैयत भूमिहारों ने बनवाया था। नेहालपुर गांव गया पटना रोड पर गया से 18 किलोमीटर उत्तर में है। आश्रम आज भी है। पंडित जी को लोगों ने चुनाव लड़ने के लिये तब की वामपंथी किसान सभा अर्थात सीपीआई के प्रत्याशी के रूप में आजादी के बाद के समय इन्होंने चुनाव भी लड़ा। गरीबों का मसीहा हार गया और हराया भूमिहारों ने, वह भी राजनैतिक रूप से अत्यंत कमजोर प्रत्याशी के द्वारा। वर्ग संधर्ष पर जातीय भावना हावी हो गई। आजादी मिल गई तो स्वतंत्रता सेनानी की क्या सार्थकता? जंमीदारी अत्याचार मिटा तो कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा की क्या सार्थकता? यहां से शिक्षा माफिया, संकीर्ण जातीयता और अपराध का गठजोड़ शुरू हुआ। यदुनंदन शर्मा ने कई स्कूल खुलवाये थे। विजयी उम्मीदवार की गौरव गाथा इस तरह गाई गई कि काबिल को मास्टर तो कोई भी बना सकता है, शत्रुघ्न बाबू तो गदहों को भी मास्टर बना देते हैं।
अयोग्य को सरकारी शिक्षक बनाने के केन्द्र बना गया और देवघर। शत्रुघ्न सिंह से यदुनंदन शर्मा हार गये, किसान आंदोलन बिखर ही नहीं समाप्त हो गया और सीपीआई कांग्रेस की पिछलग्गू बन कर रह गई।