बुधवार, 5 नवंबर 2014

सकलदीपी क्यों नहीं?

सकलदीपी क्यों नहीं?
एक बार एक सज्जन ने जो अब फेसबुक से कहीं लुप्त हैं, यह सवाल उठाया था। मैं ने भी िफर से भविष्य पुराण और सांब पुराण को मिलाया। तंत्र पर लिखे कुछ नये कुछ पुराने ग्रंथों को भी मिलाया, जिनमें कम से कम महामहोपाध्याय पं गोपीनाथ कविराज जी की पुस्तक भारतीय साधना की धारा का नाम लेना जरूरी है।
बात दरसल यह है कि अगर जंबूद्वीप आगमन और सांब से सीधा संबंध नहीं जुड़े तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बात मग-भोजक परंपरा से जुड़ी हुई नहीं है। एक ओर हम स्वीकार करते हैं कि मग के रूप में हमारी बिरादरी तंत्र विद्या की जानकार है, मगध हो या राजस्थान अपने घरों में लोग सूर्य से अधिक शिव या शक्ति के किसी रूप की उपासना कुलदेवी/देवता के रूप में कर रहे हैं लेकिन इस तुलनात्मक रूप से करीबी इतिहास को समझने से आनाकानी करते हैं।
सवाल यह है कि सकलदीपी शब्द में से दोनो भागों सकल और दीपी का कोई अर्थ होता है या नहीं और उसकी संगति हमसे है या नहीं? सकल शिव का एक रूप है। सकल और निष्कल क्रम से शिव की आराधना होती है। सकल उपासना तंत्र की विस्तारप्रधान उपासना है। सकल और निष्कल ये दोनो शब्द प्रचलित शब्द हैं न कि मेरे द्वारा प्रस्तावित। निष्कल वैराग्यप्रधान निर्गुण निराकार की ओर ले जाने वाली साधना है। दीपी का अर्थ होता है जिसने उस मार्ग को दीपित, प्रकाशित किया है, दीपन मतलब तीव्र करना, प्रकाशित करना होता है। इस प्रकार सकलदीपी मतलब शैव तंत्र के सकल (कलाओं सहित) साधना क्रम में तीव्र, निष्णात और दूसरों के लिये प्रकाशित करने वाला सिखाने वाला। 
मुझे यह अर्थ वर्तमान सकलदीपी लोगों पर पूरी तरह फिट नजर आता है। मगध में तो पुराने सूर्य मंदिरों से जितने इनके संबंध हैं, उनसे अधिक शिव मंदिरों से हैं। जहां कहीं सूर्य मंदिर हैं, उनके आसपास या समानांतर शाकद्वीपियों के द्वारा सेवित प्राचीन शैव या शाक्त मंदिर भी हैं। सकल उपासना क्रम का पूरा विवरण सांब पुराण में मिलता है। सौर पुराण तो उससे भी आगे है। उसने शिव में ही सूर्य को समेट दिया है। 
क्या उपासना आधारित जातीय नाम नहीं होते या उपाधियां नहीं होतीं़? विचार तो इस बात पर भी होना ही चाहिये। सकलदीपी से जुड़ी अन्य बातें आगे के आलेख में ..........