पुर-गोत्र
व्यवस्था पर चर्चा
स्थान फेसबुक ग्रुप- बिहार शाकद्वीपी ब्राह्मण समाज
समय मार्च-अप्रैल 2015
क्या पुर छोड़ने में सुविधा है?
जातीय
समाज में समय-समय पर सुविधा की दृष्टि से भी कई विचार आते हैं और कुछ संशोधन के
प्रस्ताव भूल तथा गलतियों को सुधारने के नाम पर। ये मामले प्रायः विवादास्पद रहते
हैं। फिर भी इनके बारे में जातीय मंचों पर विचार तो होना ही चाहिये।
ऐसा
ही एक प्रस्ताव है कि विवाह के समय पुर का विचार छोड़ देना चाहिये। कुछ पुर वालों
की संख्या अधिक है तो उन्हें समान पुर वाले अधिक मिलते हैं। कुछ लोगों को अपने पुर
के बारे में जानकारी ही नहीं है, तो
वे क्या करें? आदि, आदि।
कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि जब भारत के अन्य ब्राह्मण गोत्र को ही आधार मान रहे
हैं, तब पुर का झंझट छोड़ गोत्र को ही क्यों न माना लिया जाय?
मामला
पेचीदा है। इस विंदु पर व्यापक विचार आना चाहिये। जो लोग मग-भोजक विवाह के पक्षधर
हैं वे भी पुर व्यवस्था को छोड़ने के पक्ष में हैं। कई लोग तो वैवाहिक विज्ञापनों
में इस बात का जाने-अनजाने उल्लेख भी करते हैं।
First Comment in detail
प्रत्येक जाति अपने कुल /वंश की पहचान हेतु
अपने को वास्तविक या मिथकीय मूल पुरुष से जोड़ती है. शक्द्वीपियों ने भी यही किया
है. अब इन मिथकों को सत्यता की कसौटी पर डाला नहीं जा सकता. हम इसे इतिहास और मिथक
में ही स्वीकृत कर लें, यही
उचित है. अतीत में काल यात्रा
हेतु अभी कोई यंत्रा विकसित नहीं है, अतः समसामयिक समाज में प्रचलित लोकाचार ही सबसे
बड़ा श्रोत है. मुझे आपकी इस अतीत कालयात्रा का कोई औचित्य समझ नहीं आ रहा.
रही पूर बदलने की बात- आज हर आदमी स्वतन्त्र है अपना निर्णय
लेने के लिए. अब हमारा समुदाय, क्षेत्र(पूर)
विशेष से बाहर फैल चुका है,और
वापसी संभव नहीं है. ऐसे में अगर वह अपनी पहचान पूर रूपी जुड़ाव से करता है तो कुछ
अनुचित नही लगता. शक्द्वीपियों या अन्य ब्राह्मणों मेंवंश के मूल पुरुषों से प्रवर
के मध्यम से भी जोड़ने की परंपरा है. उदाहरण के लिए हम यहाँ बिलसांया पूर की चर्चा
करना चाहेंगे-इनमें प्रचलित मान्यता के अनुसार- गोत्र-गर्ग, प्रवर-पाँच(गर्ग,गौरिवित,अंगीरस,बृहस्पति और भारद्वाज), ऐतिहासिक जुड़ाव-शुक्ल यजुर्वेद,शाखा- मध्यांदिनी, सूत्र-कात्यायन.
Second Comment in detail
१.पूर
भूल जाने परपरिवार के बुजुर्ग से पूछ लें . हमारे समाज में अभी लोगों को यह याद
रहता है. क्योंकि विवाह में इसका इस्तेमाल होता रहता है.
२ं. मेरा तात्पर्य मूल ग्राम से ही
था ,क्षेत्र
नहीं कोस्टक में स्पष्ट है.
३. वैज्ञानिक ड्रस्टी से गोत्र ही
महत्वपूर्ण है. यही रकतसंबंधो का द्योतक है. सगोत्र विवाह इसी लिए मना है. रक्त
संबंधो में विवाह से जेनेटिक समस्या उत्पन्न होती है.
४. मॅग-भोजक विवाह ना करने का कारण
केवल सामाजिक स्थिति है. मगध के मॅग अपने को उcच मानते हैं अतः भोजकों में विवाह नहीं करते.
SHAKADWIPI
BRAHAMANAS IN INDIA- GOTRA-PURA- AFFILIATION
The major concentration of Sakadwipies was in Magadha (place that holds Magas)
kingdom so named after Maga-Brahmana domain. Here they were allotted 72
principalities of villages (PUR). They gradually migrated to different nooks
and corners of the country. The shakadwipi even today are MOST RESPECTED Brahman
in Bihar. They are identified through their PUR affiliations than Gotra
affiliation. They are endogamous caste groups but strictly practice GOTRA and
PUR exogamy unlike others and give it prime importance in marriage.
They were the priest of many Indian Kingdoms until British regime in India.
Most of them remembers their mythological immigration and are proud of it.
There are 72 Puras of Shakadwipiya Brahmins in India. They have following five
subdivisions: AAR, ARK, ADITYA, and MANDAL AND KIRAN.( source-SHAKADWIPI (MAGA)
BRAHAMANAS IN INDIA Dr. Vijay Prakash Sharma, 2008)
·
Ravi
Shankar मैं कुछ असहज महसूस कर रहा हूँ
मैं पुर सहेजने का हिमायती हूँ। क्योंकि हममे गोत्र से अधिक पुर
महत्व का होता आया है। इसके सामाजिक एवम् धार्मिक मायने है।।
बहुत सहेज कर रखा था पुर को पूर्वजो ने।
अगर आज हम अपनी इतिहास खो दे फिर कल पहचान खो दे फिर कल जाति खो दे
और फिर ठौर ठिकाना भी तो निश्चित खानाबदोस बन कर रह जायेंगे। अगर अनुशाशन गयी और
सुविधानुसार परिवर्तन करते गए तो आज नही तो कल हम संकट में जरूर फसेंगे। ये भी
सत्य है की परिवर्तन असम्भावी है यह तो समयानुकूल होता ही रहा है और होगा भी
क्योंकि विकासबाद का सिद्धांत हमे उन्ही हालातों में जाने अनजाने ले ही जायेगा। आज
एकल परिवार, दूर रहकर पढ़ते हुए बच्चे, अभिभावको का घटता नियंत्रण , आधुनिकता से
बसीभूत फिल्मी टीवी कल्चर से संसकारित नयी पीढ़ी, अपनी जातीय और पारिवारिक इतिहास
बोध की विशिष्टता से अनभिज्ञता,
आर्थिक पहलू को सामाजिक पहलू पर हावी होना, अपसंस्कृति
बाहको को समाज में आदर्श स्थिति का मानक होना हमें इस ओर जाने के लिए विवस करते जा
रहा है। अतः इसके हर पहलुओ पर ध्यान देने की कोशिश होनी चाहिए। इस तरह की चर्चा अब
जरुरी हो चला है और प्रतिक्रिया के आशा में....
·
Ravi
Shankar एक समस्या दरभंगा मधुबनी में सुनने को मिली थी एक शादी में मंडप
में पता चला की वर कन्या के गोत्र अलग थे लेकिन पुर एक ही था । जब ये बात मालूम
चली तो शादी कैसे हो हो या न हो तो इस पर चर्चा चलने लगी। धर्म विषयक तथ्य होने से
यह बुजुर्गो ने यह तय किया की पहले लड़की को उसके अन्य पुर वाले संबंधी धार्मिक
रीती से गोद लें तब उस लड़की का गोत्र व पुर उस संबंधी का गोत्र व पुर माना जायेगा
तभी शादी प्रशस्त हो पायेगी। यही हुआ और शादी संपन्न की गयी।
यानि हमारे समाज में गोत्र से पुर का महत्व अधिक है अतः पुर की
उपयोगिता पर हमें अडिग होना चाहिये। संक्रमण करना अनुचित प्रतीत लगता है
पुर
व्यवस्था के पक्ष में
मैं
पुर व्यवस्था के पक्ष में न केवल इसलिये हूं कि यह पहले से चलन में है। यह कई
दृष्टियों से अच्छा है। प्रश्न के रूप में पोस्ट डाला था। अब अपने विचार भी धीरे-धीरे
रख रहा हूं। इसकी समालोचना भी सादर स्वीकृत है। लंबा होने के कारण टुकड़ों में
लिखना पड़ेगा।
पुर के पक्ष में पहली
बात-
यह
चलन में है। बहुत लोग इसे भूल रहे हैं, सभी नहीं। जो लोग भूल रहे हैं वे
लापरवाही या अति आधुनिकता से ग्रस्त हैं, ऐसा कहना पूरी तरह उचित नहीं है।
ऐसे उदाहरण पहले के भी है। उनमें दूर देश गमन और वहां का प्रभाव भी एक कारक है।
चूंकि हम पुर शब्द का प्रयोग करते हैं, इसलिये सामान्य से अलग या किसी को
विचित्र सा भी लगता है। इसे समझने के लिये अन्य जातियों में भी इसके समानांतर
प्रयोगों को देखना होगा, तब
बातें स्पष्ट होने लगेंगी।
विवाह
के समय अन्य जातियों में भी (सभी नहीं) पूछा जाता है आपका मूल ग्राम क्या है? आप किस गांव के वासिंदे हैं? यदि आपके नाम के साथ जुड़ी उपाघि
में ही गांव का नाम जुड़ा हो तो यह बेमानी हो जाता है। यह चलन अनेक प्रदेशों एवं
मगध की कई पुरानी जातियों में है, जो शादी विवाह के लिये मगध को
अपना मूल स्थान मानते हैं।
अगले
अंकों में जारी
पुर
के पक्ष में दूसरी बात-
ऐसा
न समझा जाय कि मूल ग्राम वाली बात केवल हमारे ही यहां है। मगध में पुरानी जातियों
में ग्राम की पहचान वाले अंबष्ठ कायस्थ हैं। आधुनिकता के प्रभाव से वे सिन्हा, प्रसाद आदि लिखते हैं अन्यथा
परंपरागत रूप से नंदकुलियार, चखैयार, देवकुलियार, रुखैयार आदि ग्राम आधारित पहचान
को ही उपाघि के रूप में प्रयोग करते हैं।
मगहिया कोइरी आदि पूछते हैं कि आप कहां के वासिंदा हैं? केवल मगध ही नहीं दक्षिण भारत में
अय्यर लोगों ने भी शादी विवाह के लिये ग्राम आधारित पहचान बना रखी है, उदाहरणार्थ- अष्टग्राम वडमा
अय्यर। महाराष्ट्र के प्रतापी गौड़ सारस्वतों का ग्राम उपाधि प्रेम लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर से ले कर वीर
सावरकर तक कहीं भी देख सकते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। केवल कान्यकुब्ज, मैथिल और गौड़ को देख कर यह न
मानें कि भारत में विवाह तथा पहचान के लिये केवल ऋषि गोत्र को ही आधार माना गया
है।
पुर
के पक्ष में तीसरी बात-
हम
मूलतः नागर नहीं ग्रामीण व्यवस्था वाले हैं। एक नगर में कई मुहल्ले हो सकते हैं और
किसी एक मुहल्ले के रहने वाले लोग लड़के तथा लड़कियों के बीच भाई-बहन की भावना को
गंभीरता से नहीं लेते। एक शहर ही नहीं एक मुहल्ले के भीतर भी आपस में शादी-विवाह
हो सकता है यदि अन्य अनुकूलताएं हों।
ग्राम व्यवस्था यहीं पर
भिन्न है। यदि कोई व्यक्ति भिन्न पुर और गोत्र का भी हो, वह कहीं बाहर से आकर बसा हो या
कुछ पीढि़यों पहले भी दान में या उत्तराधिकार में संपत्ति प्राप्त कर बस गया हो तब भी एक गांव के अंदर
परंपरानुसार विवाह नहीं होता। गांव में तो भाई-बहन ही माने जाते हैं, फिर विवाह का सवाल ही नहीं।
यही प्रवृत्ति प्रबल रही। इस प्रकार दो बंधन बने एक कि एक गांव के
मूल वासी मतलब समान पुर वाले के भीतर विवाह नहीं होगा साथ ही दो पुर वाले भी यदि
एक गांव में रह रहे हों तो वहां भी विवाह नहीं होगा। सवाल पूछने पर लोग बोलते हैं-
हम कोई मुसलमान हैं क्या कि एक गांव से उसी गांव में बारात जायेगी।
खाप, पारीछ
आदि जातियों के भीतर के वर्गीकरणों के सामने ऋषि गोत्र को अधिकांश जातियों ने
महत्त्व नहीं दिया। उनके भीतर निर्णय के कई अन्य मापदंड भी चलते रहे। उत्तर प्रदेश
खाश कर पश्चिमी जिलों में पता नहीं किनकी तर्ज पर षट् कुल और दश कुल का वर्गीकरण
बना था जो अब लगभग समाप्त हो गया है। उरवार से आगे छे तक अपने को श्रेष्ठ मानते थे
और छे से अन्य को लड़की देते नहीं थे लेते जरूर थे।
मेरे बचपन तक दो सवाल पूछना शिष्टाचार था, अपमान जनक नहीं- पहला ‘‘आप कौन आसरे दूसरा कहा के बासिंदे?’’
एक सवाल यह भी आता है कि पुर क्यों कहते हैं? ग्राम या गांव ही कहते? यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है।
मेरी जानकारी अति सीमित है। क्या पता किसके पास कौन सी जानकारी हो अतः कृपया
उदारतापूर्वक अपनी जानकारी भी साझा करें। इस बात पर कल.......
·
Vijay
Prakash Sharma एक
सवाल यह भी आता है कि पुर क्यों कहते हैं?संभवतः तत्कालीन समय में जब मॅग
का आगमन हुआ था , "पूर"
से ग्राम / नगर की पहचान अत्यधिक मान्या रही हो.
पूर से संभॉधन का प्रचलन तओ
रामायण काल में भी मिलता है यथा: जनकपुर, शृंगवे
र पूर.
·
Ravindrakumar
Pathak जी
प्रणाम, टिप्पणी
के लिये धन्यवाद।
मेरे पास अभी बाल्मीकि रामायण
नहीं है। हो सकता है, उसमें
जनकपुर और शृंगवेर पुर का प्रयोग हुआ हो। ये दोनों तत्कालीन राजधानियां हैं, नगर के समान, सामान्य ग्राम नहीं। ‘‘पुर’’ यदि कहीं किसी खाश आबादी/बसाव के
लिये तकनीकी रूप
से प्रयुक्त हुआ हो तो, उससे
भी शायद कुछ सहारा मिले। आरंभिक विशिष्ट प्रयोग और अनुवर्ती प्रयोग में अर्थ बदल
भी जातें हैं। मगों के द्वारा सहज ही पुर शब्द स्वीकृत हुआ या किसी खाश मकसद से, बस, यही समझने की कोशिश है।
·
·
Ravindrakumar
Pathak अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका या द्वारावती इनमें पुर
या पुरी नहीं है। जगन्नाथ जी से पुरी जुड़ती है। उपर्युक्त में से पुरी सबसे नई
है। आधुनिक इतिहास और पंरपरा दोनों दृष्टियों से।
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Ravindrakumar
Pathak आदरणीय...Kamlesh Punyark Guruji आज बड़े और छोटे हर प्रकार के पुर
नामधारी गांव मिल जाते हैं। एक और बात सोचने को विवश करती हैं कि 18 या 72 या उससे भी आगे जितने पुर हैं, जिन गांवों के आधार पर ये पुर बने
हैं उनमें शायद ही किसी के आगे पुर लिखा है। आप सूची मिला
लें। ऐसी बातें मुझे कुछ सोचने खोजने को प्रेरित करती हैं। किसी को यह बेकार भी लग
सकता है। दूसरी बात कि पुर को आम्नाय भेद में बांटा गया- वार, आर और अर्क। यह जानकारी कई
सूचियों के आंरभ में है। यहां आम्नाय का क्या मतलब है? मुझे ठीक से समझ में नहीं आया।
·
Ravi
Shankar कहीं
सुनने में आया था की किम्बन्दतियों में फैली धारणा की शाकद्वीपीय मगो को भगवान्
कृष्ण के द्वारा गरुड़ पर बैठा कर बुलाया गया था उन्ही गरुड़ के अंगो के नाम से
(यादो में सहेजने के लिए) उन परिवारो के लिए पुर बसाया गया था । अन्य यादो के लिए
भी पुर के नामकरण
किये गए थे
कंठवार (खण्टवार से उच्चारित)
उर वार , (उर यानि ह्रदय), सपहा
(
गरुड़ के मुख में दबी आहार सर्प)
ध्यातव्य है की भगवान कृष्ण का
काल महाभारत काल है जहाँ हस्तिनापुर दिल्ली का प्राचीन नाम रहा है ये संभव हो की
स्वायत शासकीय क्षेत्र के लिए या करमुक्त प्रक्षेत्र के लिए पुर के नाम आता हो)
·
Ravindrakumar
Pathak Ravi
Shankar जी किंवदंती क्या पूरी पौराणिक
कथा ही है। अभी जितनी सूचियां चलन में हैं, उनके साथ गांव के नाम जुड़े हुए
हैं। मखपा, भलुनी
आदि सुनने में भी स्पष्ट हैं और इनकी पहचान भी लोगों में सरल है। सूची बनाने वाले
और उसे सुरक्षित रखने वाले प्रायः वे लोग रहे, जो अपने मूल स्थान से दूर देश
गये। प्रायः पुरानी याददाश्त से बनी हुई हैं कुछ तो केवल शाब्दिक अनुमान पर ही।
अतः सरजमीं पर कई बार मेल नहीं खातीं। मैं किसी का नाम नहीं ले रहा लेकिन सभी अपनी
सूची को सही मानते हैं और मिलाइये तो अजीबोगरीब हाल मिलेगा।
चूंकि मेरा गांव सोन के पश्चिम और
ननिहाल तथा अनेक रिश्तेदारियां सोन के पूरब रहीं और घूमा भी तो उसके अनुसार देव, औरंगाबाद के लोग देवसिया नहीं हैं
वे सिरमौरियार हैं, उमगा
से राजा के साथ गये हुए। इनकी वंशावली लगभग अद्यतन है।
देवहा भी यहां के नहीं हैं, वे देव पड़सर/मार्कण्डेय गांव से
शुरू होते हैं। देव वरुणार्क और देव मार्कण्डेय दो मंदिर राज्य की तरह रहे हैं।
देव मार्कण्डेय के लोग सौ साल पहले तक बड़े जंमीदार रहे। देव वरुणार्क के बिना तो
इतिहास ही नहीं बनता।
पुर
के पक्ष में चौथी बात-
अब
पुर के पक्ष-विपक्ष की असली बहस पर आता हूं। इसमें कई उलझनें हैं, जैसे - जो संशोधन चाहते हैं, वे प्रायः खुल कर नहीं कहते। कुछ
ही लोग खुल कर बात रखते हैं। प्रायः अर्धसत्य पर आधारित दलीलें, सुविधा, अन्य ब्राह्मण जिन्हें वे जानते
हैं, विस्मृति
या लापरवाही की स्थिति में क्या करें? मुख्यतः उरवार, पंचहाय और देवकुलियार पुर के
लोगों की अधिक संख्या तथा तुलनात्मक रूप से अच्छी शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति के कारण
एक ही पुर का मिलना तथा प्रस्ताव छोड़ने की मजबूरी
में लोगें को लगता है कि गो़त्र ही मानते, पुर छोड़ देते। पुर के पक्ष में
श्री रविशंकर जी की टिप्पणी इस मामले में मेरी दृष्टि से पर्याप्त है।
केवल
गोत्र के पक्ष में ऐसा सुविचारित आधार होता तो मुझे सहमत होने में देर नहीं लगती।
मेरी समझ से यह हड़बड़ी की गड़बड़ी है। दोनों का यदि तुलनात्मक अघ्ययन हो तो
देखिये क्या दृश्य उभरता है?
तुलना
के पहले एक बात का स्मरण कर लें कि हर पुर का एक ही गोत्र होता है, कई नहीं। यदि प्रचलित और मूल
स्थान पर स्वीकृत गोत्र से भिन्न गोत्र मिले तो कहीं न कहीं विस्मृति आदि की
़त्रुटि है, यह
सामाजिक व्यवस्था नहीं है।
इस
प्रकार एक पुर के लोग जब केवल अपने पुर के बाहर विवाह करते हैं तो केवल अपने पुर
को छोड़ना पड़ता है। यदि गोत्र के बाहर विवाह करने लगें तब तो कई पुरों को छोड़ना
पड़ेगा। उदाहरण के लिये पंचहाय का गोत्र कश्यप है। पंचहाय को इससे सर्वाघिक
असुविधा होगी क्योंकि कश्यप गोत्र वाले पुर काफी हैं। इसी सिद्धांत पर सभी कश्यप
गोत्र वालों के लिये दायरा कम हो जायेगा। भारद्वाज वाले संभवतः दूसरे नंबर पर
आयेंगे। इस बात की मिलान आप 3-4 सूचियों को एक साथ रख कर कर सकते
हैं।
इसलिये
जो सोचते हैं कि गोत्र मानने से अधिक विकल्प मिलेंगे, मेरी समझ से उनका सामाजिक गणित
ठीक नहीं है। यह उलटा पड़ सकता है।
गोत्र की वैज्ञानिकता
पर आगे........
गोत्र-प्रवर तो कब का छूटा
मैं बस केवल परिस्थिति सबके सामने रख रहा हूं। मेरी सीमा यहीं तक
है। आगे आप सबों की, समाज की मर्जी। जब गोत्र एवं प्रवर मानने की बात करते हैं, तो इस सच्चाई
को भी बताना चाहिये कि यह कब का छूट गया। कुछ लोग गोत्र की वैज्ञानिकता/साइंटिफिक
होने की बात करते हैं, मैं सायंस का छात्र नहीं हूं और मेरा क्षेत्र भारतीय विज्ञान का है, सायंस का नहीं, विज्ञानमय कोश
वाला भारतीय विज्ञान।
मैं ने जब समझने की कोशिश की तो पाया कि भारत में जब हम गोत्र की
बात करते हैं तो बड़ा ही मनमौजी अर्थ निकाला जाता है। गोत्र मतलब कौन सा? रक्त संबंध पर
आधारित या ऋषि और गुरु परंपरा पर आधारित? रक्त संबंध वाला तो जाति के भीतर
का हो गया, जिसे ठेठ में ‘गोतिया’ कहते हैं। मगों में एक पुर वाले गोतिया माने जाते हैं और उनके साथ
वही व्यवहार होता है। उन्हें कुल देवता का प्रसाद पाने का हक होता है और उनके बीच
शादी नहीं होती। गोतिया वाला गोत्र यह हुआ। इसके बाहर शादी से अनेक रोग व्याधि से
बचा जा सकता है। इस नियम से 7
क्या उससे अधिक कितनी पीढि़यों से बाहर ही शादी होती है। मैं इस
बात से सहमत हूं।
इसके बावजूद जो गोत्र शब्द का दूसरा अर्थ है, उसे इस गोतिया
वाले अर्थ से लेना-देना नहीं है। वहां गोत्र मतलब ऋषि गोत्र है। यह बहुत ही व्यापक
आबादी को घेरता है, अपनी जाति ही नहीं, उससे बाहर की अन्य जातियों तक।
इसमें विद्या वंश और कई बार गुरु परंपरा भी सम्मिलित हो जाती है।
प्रवर का दायरा उससे भी बड़ा है। केवल प्रवर के शब्दार्थ पर न जाएं, यह एक तकनीकी
धर्मशास्त्ऱीय शब्द है। तीन या पांच ऋषियों के समूह को प्रवर कहते हैं। जनेऊ में 3 या 5 प्रवर के हिसाब
से गांठ बनाई जाती है। आज कल बाजारू जनेऊ के चलन में आने से लोगों के मन में यह
सवाल ही नहीं पैदा होता। मेरे पूर्वजों ने मुझे 3 प्रवर के हिसाब से जनेऊ में गांठ
लगाना तो सिखाया लेकिन यह नहीं समझाया कि किसी के जनेऊ में 5 गांठें भी
लगेंगी। जो 3 प्रवर वाले हों कायदे से वैदिक व्यवस्था के अनुरूप उन्हें केवल
अपने गोत्र वाले को ही नहीं अपने प्रवर के अन्य 2 को भी छोड़ कर रक्त संबंध करना
पड़ेगा। 5 प्रवर वालों को तो 5 ऋषियों वालों को छोड़ना पड़ेगा।
हमारी जाति ने तो प्रवर बाहर विवाह को कब छोड़ा, शायद ही किसी
को पता हो। गोत्र बाहर विवाह को भी छोड़ दिया गया है। केवल बचा है, पुर के बाहर
विवाह की चलन। प्रवर छोड़ने और वैदिक पहचान को एक प्रकार से महत्त्वहीन साबित करने
का एक ’’नेग’’ भी विवाह में निभाया जाता है। यह पहले मुझे बहुत खटकता था। बाद में
कुछ-कुछ समझ में आया। समधी लोग अपना जनेऊ परस्पर एक दूसरे को पहनाते हैं? यह क्या है? जनेऊ तो नितांत
व्यक्तिगत और कुल पंरपरा की चीज है, फिर उसकी अदला-बदली कैसे? इशारा यह कि हम
रक्त संबंध एवं जातीय पहचान तथा तांत्रिक पहचान के महत्त्व के सामने अंदरूनी तौर
पर इस भेद को कोई महत्त्व नहीं देते।
कृपया ध्यान दें- जहां ऋषि गोत्र की जगह खाप और पारीछ जैसी
व्यवस्था है, वहां के लिये यह प्रसंग ही बेमानी है।
परिवर्तन संसारिक नियम है. स्थान , काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन अवश्यम
भावी है. वही हमारे समाज में भी हुआ है / होता है,होता रहेगा. जिसमे परिवर्तन नहीं
होता वा विकसक्रम में अकेला छुट् जाता है और अलोप हो जाता है-जैसा विश्वा की कई
संस्कृतियों यथा मेसोपोटामिया
, बबिलोन, आदि.
हमारा
समाज परिवर्तनों के मध्यम से ही सजीव है. अतः विवहादि में परिवर्तन परिमार्जन चलता
रहता है. बहुत जगह समाज के अलावे क्षेत्रीय मानदंड सम्मिलित हो जाते हैं जैसा
खापों में हुआ है.
आपने सही कहा। कुछ बातें होती हैं, जिनमें परिवर्तन होने पर भी मूल
पहचान एवं व्यवस्था में सुरक्षित रहती है और कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं, जिनके कारण मूल रूप ही बरबाद हो जाता
है। सतर्क समाज को इन दोनों कारणों एवं प्रक्रियाओं को समझना चाहिये, जिससे अपनी रक्षा करते हुए पविर्तन
का भी लाभ उठाया जा सके। यह एक स्वतंत्र विषय है क्यों न हम इस पर भी एक मुक्त
चर्चा आमंत्रित करें?
Vijay
Prakash Sharma अपवादों
को हटा कर , बहुतायत
में , हमारे
समाज में गोत्र -पूर वहिर्विवाह का ही प्रचलन है, वैसे "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्नह".