गुरुवार, 1 नवंबर 2012

मगध संस्कृति


मगों का वर्तमान सांस्कृतिक क्षेत्र मगध है अतः मगध को समझे बिना मगों की संस्कृति को समझना संभव नहीं है।
मगध संस्कृति : एक परिचय
आप सभी विद्धज्जनों, देवियों एवं कला-संस्कृति के रसिकों, अनुरागियों को मेरा सविनय नमस्कार स्वीकार्य हो। आज मुझे मगध की संस्कृति के विषय में एक परिचयात्मक विवरण देने एवं आप सबों की सत्संगति का लाभ उठाने का मौका मिला है। इसके लिए मैं आप सबों का आभारी हूँ। संस्कृति का क्षेत्र सागर की भाँति विशाल एवं गहरा है। मेरा ज्ञान अत्यल्प है फिर भी आपसे चर्चा के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। संस्कृति की चर्चा पर कभी कभी इतिहास हावी हो जाता है। जीवित परंपराओं पर ध्यान कम जाता है। अतः मैं इस समय अतीत या वर्तमान की सांस्कृतिक धाराओं की चर्चा को प्रमुखता दे रहा हूँ। कालक्रम या स्थितिकाल की चर्चा बाद में की जा सकती है या उसे छोड़ भी दिया जा सकता है।
राजाओं के इतिहास पर काफी सामग्री आप अन्यत्र पढ़ सकते है। संस्कृति के भी अति प्रचलित या विख्यात सूचनाओं के स्थान पर मैंने अल्पज्ञात विषयों की ओर आपकी ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ।
अब संस्कृति की आंतरिक चर्चा होगी। मगध की संस्कृति की चर्चा के पूर्व मगध को समझना जरूरी है। भारतीय संस्कृति में बहिर्याग, (बाह्म साधना) और अन्तर्यजन (आंतरिक साधना) दोनों का समन्वय कर जब उसे किसी भी क्षेत्र या समूह के द्वारा अंगीकार कर लिया जाता है तब वह संस्कृति का अंग बनता है। केवल बाह्म या केवल आंतरिक पक्ष पर ध्यान देने से जो चित्र दिखाई देता है वह विद्रूप और वीभत्स हो जाता है । बाह्म और आभ्यंतर को जोड़ने के अनेक उपाय है,ं जिनमें साधारणीकरण या मानवीकरण भी एक उपाय है। ‘मगध’ एक शब्द है, जिसके सम्पूर्ण अर्थ को पूर्ववर्णित दृष्टि से समझा जा सकता है। मगध का भी साधारणीकृत रूप मिलता है। मगध की सांस्कृतिक राजधानी गया है। गया एक असुर है वह महातपस्वी है जिसकी तपस्या के प्रभाव से धरती काँपती है। वह पुण्यात्मा है किंतु देवता भयभीत रहते हैं। विष्णु से उसके दमन की प्रार्थना होती है और ‘गदाधर’ विष्णु गयासुर के सीने पर सवार हो जाते हैं। गयासुर को वरदान प्राप्त होता है कि विष्णु का जहाँ पैर पड़ा है उस स्थान पर एवं गयासुर के अंग-प्रत्यंगों वाले स्थानों पर पिंडदान से पितरों को मुक्ति मिलती है, प्रेतात्माएँ शांत होती है। इस मानवीकृत रूप का एक भौतिक आधार भी है। पीठ एवं वेदी का स्थान साधना की उसकी आवश्यकतानुरूप तय किया जाता है । गयासुर की 257 वेदियों को जोड़ने पर एक मानवीकृत रूप उभरता है। यह संपूर्ण क्षेत्र ज्वालामुखी और भयानक उथलपुथल वाला रहा है। गया एवं उसके आस-पास भूगर्भीय हलचलें होकर शांत हो चुकी हैं। यहाँ आग्नेय पहदपवनेए अवसादी ेमकपउमदजंतल कायांतरित उमजंउवतचीपब सभी प्रकार की शिलाएँ पायी जाती हैं। यहाँ की भूपर्पटी तीन बार उलट-पुलट चुकी है। दर्जनों भ्रंश एवं वलन प्राप्त होते हैं जिनके बीच से नदियाँ निकलती हैं। फल्गु आदि छोटानागपुर के पठार से निकलने वाली नदियाँ भूगर्भ-शास्त्रीय दृष्टि से गंगा यमुना से पुरानी हैं। मगध में मुख्यतः ग्रेनाईट एवं क्वार्जाइट की पहाड़ियाँ हैं। इन्हीं ग्रेनाईट की पहाड़ियों के कारण पालकालीन ग्रेनाइट मूर्तियों की यहाँ विपुलता है । इस क्षेत्र में लगभग 35 प्रकार के ग्रेनाइट पाये जाते हैं। शिष्ट के साथ अभरख एवं अन्य रत्न प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। क्वार्जाइट बेल्ट में कई गरम जलस्रोत हैं, जिनमें राजगिर एवं तपोवन विख्यात हैं। एक ग्रेनाइट शिलाखंड ेनचमतेवदपब ेजंहम का भी मिलता है। इसे झुनझुनवा का पहाड़ कहते हैं। इस शिलाखंड से धातु के बर्तनों की भाँति आवाज निकलती है।
शाक्त दृष्टि से यह वक्षपीठ है मंगलागौरी एवं ब्रह्मयोनि शहरी तांत्रिक पीठ हैं। कौलेश्वरी वैदिक, जैन एवं कौल संप्रदाय का दूरस्थ पीठ है जहाँ हजारों की संख्या में भयानक बलि में और अहिंसा की साधना साथ-साथ चलती है। बार बार धारा बदलने वाली पुनःपुना वर्तमान नाम पुनपुन एवं सोन ने मुख्य रूप से इस क्षेत्र के जलोढ ।ससनअपनउ क्षेत्र का निर्माण किया है। पुनःपुन एवं सोन के क्षेत्र का पानी अति स्वादिष्ट एवं सुपाच्य होता है। सोन की हवा शिरोव्याधि को दूर करती है। इसीलिए माना जाता है कि अश्वत्थामा अभी भी सोन में टहलते रहते हैं। यहाँ का कुछ क्षेत्र आश्चर्यजनक रूप से बेसाल्टिक भी है। जो पश्चिमी घाट का भ्रम पैदा करता है। मगध एक क्षेत्र विशेष है-इसकी सीमा राजनैतिक और सांस्कृतिक दो प्रकार की रही है। राजनैतिक सीमाएँ राजाओं के वर्चस्व के अनुरूप घटती बढ़ती रही हैं। जैसा राजा वैसी सीमा। सांस्कृतिक सीमा लगभग एक रही है और आज भी है। सांस्कृतिक दृष्टि से भौगोलिक सीमा आगे वर्णित है।
चौहददी-
काशी क्षेत्र के पूर्व कर्मनाशा नदी के पार (पूर्व की ओर), गंगा के दक्षिण, अंग-वंग के पश्चिम किऊल नदी से पश्चिम की ओर, पुराने छोटानागपुर और वर्तमान क्षारखंड के उत्तर का भाग मगध क्षेत्र है।मगध का पुराना नाम कीकट है। कीकट क्षेत्र में निम्न पुण्य स्थान है।
कीकटेषु गया पुण्या नदी पुण्या पुनःपुना।
च्यवनस्याश्रमं पुण्यं राजगृहं वनम।।
कीकट क्षेत्र में गया पुण्य दायिनी नगरी है, यह सांस्कृतिक राजधानी है। पुनीत करने वाली पुनपुन नदी बहती है, च्यवन ऋषि का पुनीत आश्रम है और पुण्यदायी राजगृह वन है। इस सीमा एवं इस अर्थ को बाह्म-साधना की दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है।
इस सामान्य अर्थ के साथ सांस्कृतिक महत्त्व के दूसरे अर्थ को जानना भी जरूरी है। मग को जो धरण करे वह भूमि मगध है। मग शब्द के कई अर्थ हैं- मग एक जाति विशेष, दूसरा अपभ्रंश का मग, प्राकृत, पालि का मग या संस्कृत का मार्ग अर्थ है। साधना के मार्ग या विधि को जो धारण करे वह मगध है। ये दोनों अर्थ मगध शब्द के साथ संगत हैं। किसी जाति विशेष का उतना महत्त्व नहीं है। किंतु साधना विधि मग्ग या मार्ग अर्थ का बहुत महत्त्व है। विविध साधना विधियों को धारण करना ही मगध की सांस्कृति विशेषता है। इसलिए मगध विवादास्पद, आकर्षक, निन्दित एवं पूज्य एक ही साथ है। ऐसी विरोधाभासी धारणा का अन्य क्षेत्र के प्रति मिलना कठिन है।

मगध की सांस्कृतिक विशेषताएँ:-
मगध संस्कृति भारतीय सनातन, बहुलवादी व्यापक जनसमुदाय द्वारा अंगीकृत धारा के साथ अंगांगीभाव से जुड़ी है। मूल व्यवस्थाओं जैसे पुनर्जन्म, कर्मवाद, अवतारवाद, वर्णव्यवस्था को मानते हुए भी यह कई विशेषताओं से युक्त है। इनमें से कुछ की चर्चा अत्यावश्यक है।
मगध के पड़ोसी, मिथिला, बंगाल एवं काशी में साधना से अधिक तर्क प्रधान तत्त्वमीमांसा की प्रमुखता रही है। मगध ने तार्किक चर्चा से अधिक साधना की प्रायोगिक विधियों की समसामयिक समीक्षा, परिष्कार एवं जड़ता के विरूद्ध आंदोलन को प्रमुखता दी जिसके कारण मगध की कोई एक पहचान या छवि नहीं बन सकी। मगध की व्यापक आबादी सभी विधियों के प्रति संवेदनशील है। इसलिए यहाँ के लोक जीवन में आज की तारीख में सभी धाराओं के तत्त्व मिलते हैं। वैदिक, बौद्ध, जैन, इनके अवांतर विभाग, शैव, वैष्णव, शाक्त श्वेतांबर दिगंबर, हीयान, महायान, सहजयान, वज्रयान, सिद्धपंथ, संतमत, विविध ईसाई एवं इस्लाम धाराएँ, कबीरपंथ, आर्य समाज आदि अनेक धाराएँ यहाँ जीवंत हैं। मगध में प्रयोग, क्रांति एवं समन्वय की निरंतरता रही है। अतः मगध यथास्थितिवादियों की दृष्टि से अत्यंत खतरनाक एवं निन्दित क्षेत्र है। इसलिए मगध की घोर निन्दा एवं अदभुत प्रशंसा है। मगध में जाने से मनुष्य के सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। पुण्य फल समाप्त हो जाते हैं, ऐसी धारणा है। मगध इसकी चिंता नहीं करता क्योंकि मुक्ति या निर्वाण की चिंता करनेवाले पुण्य-पाप के पचडे़ में नही पड़ते । सभी धाराओं के पास यदि विधियाँ हैं तो उन्हें क्यों न स्वीकार किया जाय ? शमथ विपश्यना वाली विश्लेषण तथा साक्षीभाव की साधना-धारा का शुभारंभ अर्थात् धर्मचक्रप्रवर्तन सारनाथ में हुआ जो काशी क्षेत्र में है। इसके विपरीत महायान धारा जो सबसे बड़ी व्यापक-धारा है, जिसमें उपाय कौशल्य है, अनेक प्रकार की विधियाँ हैं उसका प्राकट्य या धर्मचक्रप्रवर्तन राजगृह के गृघ्रकूट पर्वत पर हुआ है।
राजगृह- राजगृह सबके लिए महत्त्वपूर्ण है। महयान के बाद वज्रयान का विकास हुआ। नालंदा एवं उसके आस-पास के अनेक विहारों में सभी धाराओं की शिक्षा होती रही। किसी समय नालंदा के भिक्षुओं का स्थानीय सूर्यपूजकों के साथ झगड़ा हुआ। भिक्षुओं ने दो सूर्यपूजक ब्राह्मणों की हत्या कर दी। उन्होनें नालंदा महाविहार के पुस्तकालयों को पहली बार जला दिया। यह विवरण लामा तारानाथ की पुस्तक में मिलता है। यह दो खेमों की बाह्मकथा है। अंतर्कथा एवं साधना विधि के स्तर पर देखंे तो संपूर्ण सौर-साधना केा वज्रयान एवं सहजयान धारा ने स्वीकार कर लिए। साधनामाला जैसे अनुष्ठान परक गं्रथों में अधिसंख्य विधियाँ सूर्यमंडल की भावना के आधार पर विकसित हैं। पहले सूर्यमंडल की भावना कर सूर्यपुत्र यम की मदद ली जाती है फिर यमांतक, यमारि या यमांतक क्रोधराज को प्रकट किया जाता है। यह पूरी साधना सौर साधना है। आज भी उत्तरी भारत के बड़े भू-भाग में भैयादूज या यम द्वितिया के दिन और औरतें अपने ऊपर यमांतक क्रोधराज का आवाहन करती हैं और यम-यमी की गोबर की प्रतिमा बनाकर कूटती हैं। इस विधि एवं इसकी कार्यप्रणाली का मैंने अपनी पुस्तक में विस्तृत विवरण दिया है। इस अनुष्ठान एवं विधि को आप चाहे वैदिक, सौर या बौद्ध जो भी समझे।
ऐसे एक दो प्रसंगों की चर्चा करना जरूरी है। योग में चित्त के निर्मलीकरण, व्यापक एवं विस्तृत क्षेत्र में एकाग्रता हेतु तथा मन की भीतरी परतों की जानकारी के लिए चिदाकाशधारणा का अभ्यास कराया जाता है। थेरवादी धारा में विपश्यना अभ्यास के बढ़ने पर आकाश की अनन्तता , संज्ञाहीन होने का अनुभव होता है यह स्तर अत्यंत ऊँचा माना जाता है। सिद्धों ने इसे आसान कर दिया। इस कठिन साधना की दीक्षा बच्चों को दी। उन्हें पतंग उड़ाने का प्रशिक्षण दिया। पतंग के साथ हो गई बाह्माकाश में धारणा और बाह्म एकाग्रता से आंतरिक एकाग्रता स्वतः प्रकट होती है यह योग शास्त्र का मान्य सिद्धांत है। पेंच लड़ाने से पतंगबाजी का साधनापक्ष समाप्त हो जाता है।
चौरासी सिद्धों का नाम आपने सुना होगा । चौरासी की संख्या चर्चित है फिर भी जोड़ने पर सौ से सवा सौ तक की संख्या आती है। सिद्ध बौद्ध एवं वैदिक दोनों धाराओं में मान्य हैं और आम जनता को सभी मान्य है। बुद्ध विष्णु के बारह अवतारों में एक है जयदेव के गीतगोविंद में अवतारों का बहुत ही सरस वर्णन मिलता है। गीतगोविंद के बिना मगध के ब्राह्मणों के घरों में मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं होते । अन्य बौद्ध देवी देवता एवं वैदिक देवी देवताओं में अंतर करना आम आदमी के लिए आवश्यक नहीं है। मगध में तारा के प्रति विशेष लगाव है। तारा के नाम पर अनेक गाँव है। हर पाँच दस किलोमीटर की दूरी पर ताराडीह, ताराचक जैसा नाम या तारा का मंदिर मिल जायगा। इसी प्रकार कश्मीर शैव परंपरा का बहुत प्रभाव है। मगध की सर्वाधिक दलित जाति भूइयाँ वीर परंपरा से जुड़ी हुई है। तुलसी वीर उनके नायक है। स्थानीय ब्राह्मणों के घरों में अनेक प्रकार के धाराओं के प्रभाव एक ही स्थान पर मिल जाता है। अन्य जातियाँ किसी न किसी एक साधना विधि की विरासत चलती रहती है। वैदिक शुक्ल सरस्वती के साथ नील सरस्वती की पूजा भी मगध में होती है। जैन, बौद्ध एवं वैदिकों में तांत्रिक नील सरस्वती तारा की उपासना करते हैं। ब्रांड की तरह विधि को अलग करना हो तो बात भिन्न है अन्यथा सनातनी धारा वशिष्ठ को बुद्ध, वैरोचन एवं तारा की चीनाचार वाली वाममार्गी उपासना पद्धति का आदि प्रवर्तक मानती है। वशिष्ठ ने तारा के ‘त्रीं’ मंत्र का बहुत जप किया किंतु सफलता नहीं मिली। मंत्रोद्वार करना आवश्यक था। ‘त्रीं’ अंतर्यजन का मंत्र था। उसके साथ साकार स्त्रीं अर्थात् स्त्रीं के प्रति भावना जरूरी थी। वैसा करने पर उन्हें सफलता मिली।
मगध में ब्राह्मण से शूद्र तक या अन्य धाराओं में भी कोई ऐसा नहीं जिसकी अपनी पारंपरिक साधना विधि न हो। इस्लाम इसाई आदि को छोड़ दंे तो स्मार्त सनातनी परंपरा की सभी जातियों की अपने कुलदेव या कुलदेवी होती हैं। उनकी साधना के लिए भित्तिचित्र या यंत्र और मंत्र निश्चित होता है। उसके प्रवर्तक ऋषि या सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए हमारे कुल के आराध्य सिद्धनाथ महादेव है। जो बाणासुर के आराध्य हैं। इनका स्थान बराबर की पहाड़ी है। हमारी कुलदेवी सिद्धेश्वरी हैं। बराबर पहाड़ी में प्रसिद्ध नागार्जुनी गुफाएँ हैं। हमारे लिए योग एवं तंत्र के सभी संप्रदायों में प्रवेश विहित है। हमारी साधना में संहारक्रम की प्रधानता है। आजीविका का परम्परागत क्षेत्र धनुर्वेद एवं रसायन विद्या है। विधियों का मर्म जानना एवं संरक्षण करना तथा विभिन्न धाराओं के उलझे हुए साधकों की सेवा करना हमारा दायित्व है। हमारी ग्रामदेवी प्रसिद्ध यक्षिणी अन्धारी है। इसी तरह मेरे गाँव की अन्य जातियों की देवियाँ भी है। सप्तमातृका अर्थात् सतबहनी की पूजा सभी को करना होता है। वैष्णव एवं शाकाहारी होना सामाजिक आवश्यकता है।
मेरे ससुराल की कुल देवी तारा हैं। ननिहाल में प्रसिद्ध यक्षिणी भल्लिनी की पूजा होती है। मेरी ससुराल में चक्रपूजा की परंपरा आज भी जीवित है। विधियों की चर्चा लंबी हो जायेगी। अतः अन्य विंदुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है।
लोकोपयोगी विधाओं का महत्त्वः-
मगध के आचार्यों, सिद्धों एवं समाज के नियामकों ने तार्किक चर्चा को कम महत्त्व देकर उपयोगी ज्ञान की खोज एवं विकास मे मन लगाया। चाणक्य का महत्त्व जितना चन्द्रगुप्त को स्थापित करने में है उससे अधिक अर्थशास्त्र जैसे बहुआयामी ग्रंथ की रचना के कारण है। न्याय, वेदांत, मीमांसा की जगह नीतिविद्या, आयुर्वेद, तंत्र, ज्योतिष, रसायनविद्या, भूगर्भ विद्या आदि शिल्प शास्त्रों के प्रति मगध की गहरी रुचि रही। विभिन्न ग्रंथागारों में मगध से संकलित पांडुलिपियों में इन ग्रंथों की संख्या अधिक है। सिद्धों ने तो लोकजीवन में उन साधनाविधियों को जो बाह्म व आभ्यांतरिक जीवन चर्चा के लिए उपयोगी है, उनका गुप्त रूप से समावेश करा दिया। वहीं ब्राह्मणों ने 12 वर्षों तक व्याकरण पढ़ने को बेकार समझा। केवल वेदांत या न्याय की चर्चा करने वालों का भोजन चलना कठिन था। अतः सारस्वत मुनि ने अनेक सुगम शास्त्रों की रचना की। सारस्वत-चंद्रिका व्याकरण की पढ़ाई हाल-फिलहाल तक होती रही है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर को मगधवासी अपना मानते हैं। खगोल, तारेगना, मानसागर जैसे स्थान नाम मिलते हैं जो गणित-ज्योतिष के साथ सीधा संबंध रखते हैं। आज भी मगध में वेद से अधिक ज्योतिष, आयुर्वेद एवं तंत्र के प्रति रुचि है।
मगध के साथ षडयंत्रः-
मगध के साथ षडयंत्र प्राचीनकाल से चल रहा है। इसे व्रात्य क्षेत्र घोषित किया गया। फिर व्रात्यष्टोम के द्वारा वैदिक धारा में लाने का प्रयास किया गया। प्रयास मंे पूरी सफलता नहीं मिली। श्रमण धारा एवं स्थानीय धाराएँ चलती रहीं। रामकथा के प्रसंग में देखें तो सीता को श्राद्ध का अधिकार देना पश्चिम भारतीय मानसिकता को उचित नहीं लगा। राम ने पुनः श्राद्ध का विफल प्रयास किया। मगध की परंपरा के अनुरूप राम के पितरों के द्वारा सीता के द्वारा किए गए श्राद्ध को ही मान्यता मिली। ज्ञात हो कि गया पिंडदान के लिए सर्वप्रमुख तीर्थ है। जरासंध के यहाँ कृष्ण की पुरानी रिश्तेदारी रही किंतु मगध क्षेत्र असुर क्षेत्र हो गया। गयासुर के पुण्यबल पर लोग पिंडदान करने भी आते हैं और निंदा भी करते हैं। उन्हें मुक्ति भी चाहिए और पुण्य पाप का बोझ भी। परम प्रतापी एवं पुण्यात्मा बाणासुर के आराध्य सिद्धनाथ महादेव है । बाणासुर से कृष्ण का झगड़ा विख्यात है। समझौता होने तक पुण्यात्मा बाण असुर ही रहा। बाद में दोनो कुलों में विवाह होने के बाद संबंध सामान्य हो गया। पुराने सभी असुर एवं नागवंशी राजा प्रतापी, तेजस्वी एवं प्रजापालक थे, जिनकी तपस्या में विध्न डालने या बलि की तरह उनका शमन करने का प्रयास देवताओं एवं विष्णु के द्वारा अनेक बार किया जाता रहा । मगध में जीमूत की दुर्दशा गरुड. ने कर डाली।

मगध की पसंदः-
मगध की शालीनता, लालित्य एवं रहस्यवादिता की सर्वथा प्रशंसा होती है। मगहीपान सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। व्यंजनों की विविधता एवं भोजन की अल्पमात्रा में केवल मगध की पहचान है। मिथिला बंगाल में भोजन कराने को पदाश्त करने की भावना रहती है। मगध में भोजन कराने वाले एवं भोजनकराने वाले तीनों की प्रशंसा की होड़ लगती है। मगध ललित एवं गंभीर पदचाप (भगवान बुद्ध का चंक्रमण ध्यान तथा गंभीर साधना के लिए जाना जाता है।
नृत्य संगीतः-
मगध में शास्त्रीय संगीत के आचार्यों लोक नृत्य के कलाकारों एवं नर्तकियों के स्वतंत्र गाँव है। जहाँ का माहौल संगीतमय रहता था। कुछ गाँव बचे हैं। शेष उजड़ रहे है। ईश्वरपुर गाँ शास्त्रीय संगीत गयान एवं वादन केलिए प्रख्यात है। इस गाँव में केवल संगीताचार्य बसते हैं। इस गाँव के कारण गया की विशेष ठुमरी शैली विकसित हुई गया की ठुमरी में श्रंृगार के साथ, करूण वीर एवं अन्य रसों का समन्वय किया जाता है। यही इसकी विशेषता है। पं. कामेश्वर पाठक राष्ट््रीय स्तर के आचार्य है। जिनके घर पारंपरिक संगीत शिक्षा चलती रहती है।
लोक संगीत पर भोजपुरी कैसेट उद्याोग हावी हो रहा है। चेता गयान एवं तांत्रिक अनुष्ठान है। होली गायन यक्षों को प्रसन्न करने के लिए होता था। ‘हाल’ ‘हूहू’ घ्वनियाँ चूकिं यक्ष यक्षणियों को अत्यंत प्रिय है। अतः वासंती गीतों में ‘हा हा’ ‘हूहू’ का संपुट लगया जाता है। यक्ष यक्षणियों संगीत एवं मदिरा पसंद करती है। चैता गायन में पुरूष नर्तक जिसे जोगिन कहते हैं का नाच एवं दारू पीना स्वीकृत परंपरा है। चैता में अवरोह नहीं होता है। चौगुण या छगुण पर द्रुत अवस्था में ही हा घ्वनि के साथ ताल तोड़ा जाता हैं। इस साधना विधि की मैने अन्यत्र विस्तृत चर्चा की है। मगध की लालित्य की प्रतिष्ठा है। निश्चिंतता का महत्त्व है ताकि साधना की जा सके या चैन की वंशी बजायी जा सके। यहाँ किसान 1970 तक अनेक फसल उगाने के पक्ष में नही थे। अनेक फसल देने वाली जमीन अच्छी नहीं मानी जाती थी। दोमट से काली मिटटी (केवल) की जमीन अच्छी मानी जाती थी। निश्चिंतताह में ही सुख एवं साधना की संभावना मानी जाती थी। अब परिस्थितियाँ बदली हैं। बाजारी करण हावी हो गया है। मगध में नित्य मिलन एवं प्रेम-प्रतीक घटों हैं घाटों चकवा चक्रवाक के जोडे़ को कहते है। इनकी मंगलकामना के गीत गाए जाते है।

मगध की विभूतियाँः-
मगध ने अनेक विभूतियों को पुष्पित पल्लवित एवं विकसित किया। चाहें वे यहाँ उत्पन्न हुए हो या बाहर से आये हों। इनमें कुछ के बिना मगध अधूरा है। गयासुर, जरासंध, बाणासुर, बिंबसार, अजातशत्रु, बुद्ध, महावीर, जीमूतवाहन, सरहपा,अशोक, महापद्मनंद, चंद्रगुप्त, चाणक्य, राक्षस, वारहामिहिर, आर्यभट्ट, वाणभट्ट, असंग, दीपंकर, गुरूपाप के बिना मगध की पहचान नहीं है। इनमें से अनेक के विषय में आप जानते होंगे। सरहपा मगध के मनु है। सरह नए नियम का पर्यावाची होता है। वे सिद्धपंथ के आदि प्रवर्तक है। जीमूतवाहन लोकवीर हैं वे जीवदया वे अहिंसा की मूर्ति है। वे महान बोधिसत्त्व है। उन्होनें नागों की रक्षा के लिए अपना शरीर गरूढ़ को समर्पित कर दिया था। गुरूपाद के प्रति वतनी प्रबल श्रद्धा है कि उन्हें साक्षात् बृहस्पति समझा जाता है। वे अक्षय काया वाले सिद्ध हैं। वे सदैव गुरूपा पहाड़ी पर बसते हैं अतः ज्योतिष में प्रचलित गुर्वस्त दोष का विचार मगध में नहीं होता। पिंडदान विवाह सिद्धगमन आदि गुर्वस्त में भी होते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय में पधारे प्रसिद्ध चीनी यात्री इत्सिंग को जीमूतवाहन की कथा पर आधारित नागानंद नाटक ने बहुत प्रभावित किया था। सरहपा से निकली सिद्ध द्वारा बाद स्वतंत्र के रूप में विकसित हुई जिसमें प्रेम एवं भक्ति का महत्त्व है।
आज भी मगध में प्रेम की कीर्ति पताका श्री दशरथ माँझी फैला रहे हैं। श्री दशरथ माँझी एक दलित जाति भूइयाँ से आते हैं। भूइयाँ जहाँ विवाह के बंधन बहुत ढीले हैं। दशरथ माँझी का प्रेम अदभुत है। दशरथ माँझी ने अपनी पत्नी की स्मृति में एक पहाड़ी को अपने अथक प्रयास से करीब 14 वर्षों में कहकर उसमे आदमी के आने जाने लायक रास्त बना दिया। आधुनिक दृष्टि से उनका नाम ‘‘लिमका बुक ऑफ बर्लड’’ में दर्ज है। वे महान विभूति हैं।
तीर्थः-
गया में पिंडदान के लिए सभी स्थानों से हिन्दु पधारते हैं। पितरों को मुक्ति दिलाने के लिए पवित्र श्राद्ध का सिलसिला अश्विन कृष्ण पक्ष में खासतौर पर एवं अन्य समय सामान्य रूप से चलता रहता है। बोधगयाः बुद्ध की बोधि प्राप्ति का स्थान है। राजगृह- महायान के द्वितीय धर्म चक्रप्रवर्तन का स्थान है। पावापुरी- में महावीर की अंतिम यात्रा देहावसान हुआ। पार्वनाथ श्वेतांबर संप्रदाय का प्रसिद्ध तीर्थ है। कोल्हुआपहाड़ कौलमत एवं दिगंबर जैनमत का तीर्थ है। देवत्वउमगा आदि में विशाल सूर्यमंदिर हैं। बिहारशरीफ सूफी मत का केन्द्र रहा है। फुलवारीशरीफ मुस्लिम सरीयत व्यवस्था का संरक्षक है। वहाँ इमारत-ए- सरिया धार्मिक निर्णयों के लिए मान्य है। अमलाशरीफ एवं च्यवनाश्रम के बीच साधना के क्षेत्र में वर्चस्व का खेल चलता रहा है। ईशाई धारा ने भी मगध में अपना तीर्थ बनाया है। मोकामा में माँ मरियम का अवतरण मानकर वहाँ विशाल मरियम मंदिर बना है। पटना-सिटी गुरु गोविंद सिंह की जन्मभूमि के रूप में विख्यात है। मधुश्रवा, च्यवनाश्रम आदि पौराणिक तीर्थ हैं।
समन्वय शैलीः-
समन्वय शैली सीखना हो तो मगध से सीख सकते हैं। देवासुर समन्वय, जैन-वैदिक बौद्ध समन्वय। ईस्लाम ख्रीस्तपंथ इशाई के साथ समन्वय के एक से एक नमूने मिलेंगे। मगध में प्रचलित व्रतों में इनकी झलक निकलती है। अनंतव्रत में जैन पौराणिक परंपरा मिलती है। जनमा को उत्सव चाहिए वह जैन है या पौराणिक इससे क्या मतलब कर्मद हन दशमी जैन परंपरा का व्रत है, जिसमें कर्मों को दहन करने का अनुष्ठान होता है- ठीक उसके अगले दिन बिहार झारखंड में व्यापक रूप से कर्मा-एकादशी व्रत होता है। इस दिन के जड़े सरकंडे की भाँति स्थापित कर शीतल उपचार किया जाता है। कर्म ही नहीं तो कर्मफल कैसा। खेल चलता रहता है।

कौलाचार बालों के बारे में एक प्रसिद्ध उक्ति हैः-
अंतःशाक्त भीतर से शाक्त बहिःशैवा बाहर से शैव सभा मध्ये च वैष्णवाः सभा में वैष्णव इसी प्रकार के अनेकाविद्य आचारों में लगे हुए नाना चारताः कौला विचलित महीतले पृथ्वी पर विचरण करते हैं।
मगध के दक्षिणी क्षेत्र में कौलाचार की यह परंपरा पिछले 50 वर्ष पूर्व तक जीवित रही है। इस समय कोई समूह कौलाचार का दावा नहीं करता। लोगों ने विभिन्न स्त्रोतों की सामग्री को नए नाम या अज्ञात नाम से अपना रहता है। मूल ग्रंथों से मिलने पर वस्तुस्थिति स्पष्ट होती है। सौरों एवं शाक्तों में विवाह प्रारंभ होने के बाद शिव का सूर्य में सूर्य का द्वादश आदित्यों और बाद में शिव में अंतर्भाव कर दिया गया है। एक ही मंदिर में एक ही पीठिका पर मूर्तियों के बदलने के प्रभाण मिलते हैं। कोंच क्रौचापुर का विष्णु मंदिर घंश और जीर्णोद्वार के बाद कौचेश्वर शिव मंदिर हो गया है। अमगा के जगन्नाथ मंदिर में सूर्य स्थापित हैं, साथ ही गणेश की विशाल प्रतिमाएँ भी हैं। विष्णु के वराहरूप की पूजा दलितों में चल तो रही हैं किंतु वह अब राह पूजा के नाम से जानी जाती हैं। जैन परंपरा में यक्षिणियों के समावेश के बाद उनके लिए अंहे का ही सही प्रतीकात्मक पशुबलि जैन मंदिरों में भी करनी पड़ती है। सिद्धों का इतना प्रबल प्रभाव है कि अनेक दलित सिद्धों के नाम पर गाँव हैं और उनके द्वारा प्रवर्तित देवी-देवताओं का पूजा होती रहती है। विवाह के अनुष्ठान का शुभारंभ चमार की पत्नी चमइन के नेतृत्व में शुरु होता है। मृतिकाहरण का कार्य स्त्रियों के द्वारा गुप्त रूप से होता है। पुत्र के विवाह में बारात जाने पर लड़के की माँ लाग बैठती है। यह एक विचित्र अनुष्ठान है, जिसमें लड़के की माँ के पैर को अंगूठे की सिंदूर से लगाकर मालिश की जाती है। उसके साथ औरतें छेड़छाड़ एवं अश्लील हरकते करती हैं। माँ को अपनी सहनशक्ति, एवं यौन, एकाग्रता एवं इस क्रिया से होनेवाली भयानक उत्त्तेजना को वश में रखकर अपनी दक्षता का परिचय देना होता है। स्त्रियों के ऐसे अनुष्ठानों में पुरूष का प्रवेश वर्जित होता है। तिब्बती परंपरा की पुस्तकों डाकिनी जालसंवर तंत्र आदि से इन विधियों का सरलता से समझा जा सकता है। सूर्य चन्द्र नाड़ी इग पिंगला के नियंत्रण के लिए कठिन साधना की जगह केवल सुतरी बनाने की विधि में ही सभी बातें जोड़ दी गयी है। कुम्हार, तेली सबों की उत्पादक विधाओं के साथ योग की कोई न कोई विधि जोड़ी गयी है। इसी कारण विवाह के समय इन सबों के घर जाकर जोग लेना जरूरी समझा जाता है। उनकी साधना विधि से संबंद्ध जोग के जीत औरतें गाती रहती है।
ऐसेे अनेक उदाहरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
मगध की समन्वयशैली
भारत में प्रयोग, क्रांति एवं समन्वय तीनों का उदाहरण प्रचुर मात्रा में एवं विविधताओं के साथ मगध के इतिहास एवं संस्कृति में उपलब्ध हैं। मगध की धरती बहुत पुरानी है। मगध का भूभाग एवं भूगर्भ दोनों ही उथलपुथल से भरा है। यहाँ की धरती तीन चार बार उलट पुलट चुकी है फिर भी हर हाल में यहाँ की नदियाँ गंगा-यमुना से पुरानी हैं। पहाड़ हिमालय से पुराने हैं। गयासुर काँपती हुई धरती का प्रतीक असुर हैे। उसे ृाांत करने के लिए विष्णु को उस पर अपना पैर रखना पड़ता है, एक बड़ी षिला रखनी पड़ती है। असुर भी कोई अत्याचारी नहीं है। धरती एवं स्वर्गलोक उसके तप के प्रताप से काँपते हैं। हरबार की तरह विष्णु इस प्रतापी तपस्वी की छाती पर सदैव के लिए तैयार हो जाते हैं। असुर सदा से हारते है।। इस बार भी हारते हैं कितु एक समन्वयात्मक सांस्कृतिक समझौते के साथ गदाधर विष्णु का एक पैर यहाँ होने के कारण यह सभी वैदिकों के लिए पितृश्राद्ध का तीर्थ हो जाता है। देष-विदेष के ¬हिन्दू(आप की सुविधा के लिए) अपने पितरों की आत्माकी शांति के लिए गया पधारते हैं। यहाँ पराजय के स्थान पर तीर्थ निर्माण के कारण समाज के सभी वर्गों को कुछ न कुछ लाभ प्राप्त होता है। असुर भूमि माननेवालों के लिए भी गया में षिर झुकाना जरूरी हो जाता है।
दक्षिण भारत में शैवों-वैष्णवों के वर्चस्व एवं विरोध की कहानी दो चार सौ वर्ष पूर्व तक चलती रही किंतु मगध में षिव एवं कृष्ण का युद्ध महाभारत काल में ही होकर समझौता हो जाता है। कृष्ण जैसा प्रेममार्गी व्यक्ति भी राजनीति की उलझन में उलझकर मगध में बार बार फँस जाता है। जरासंध जैसे रिष्तेदारों से त्रस्त रहने के साथ ही बाणासुरकी कन्या एवं कृष्ण के पुत्र की बीच प्रेम संबंध पनप जाता है। कृष्ण पुत्र के अपहरण की घटना घट जाती है। परिणामतः बाणासुर जो परम-प्रतापी शैव राजा है, षिवभक्त तपस्वी असुर है, उसके साथ भयानक युद्ध होता है, जिसमें अंततः षिव एवं कृष्ण दोनो ही आमने सामने आ जाते हैं। समझौता होता हैं प्रेम विवाह में परिणत होता है। कृष्ण से जो समन्वयवादी धारा ृाुरु होती वह संाब के समय और बड़ी हो जाती है। सांब एक ही साथ वैष्णव, सौर, शैव, जैन सभी को ग्राह्य हैं। वे सबके अपने हैं। सांब की कथा के अनेक पक्ष हैं।
बाद के समय में भगवान बुद्ध को यही बोधि प्राप्त होती है। उनके समय अन्य तीर्थकर थे और उनके भारी संख्या में अनुयायी भी मगध में थे। इनके समानांतर अनेक ब्राह्मण कर्मकांडी, तपस्वी, जटिल तथा अन्य विचारों के लोग एक साथ जी रहे थे। बाद में भी समन्वय का यह सिलसिला लगातार चलता रहा, बौद्ध धर्म का रूपा जैसे ही महायानी हुआ उसमें अनेक बुद्ध एवं बोधिसत्त्वों की संभावना के साथ अनेक देवी देवताओं के भी समन्वय की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि मूर्तिपूजा बौद्धों ने हीशुरु की। यह मत विवादग्रस्त है। जो भी हो 12वीं 13वीं शती ई0 तक तो समन्वय यहाँ तक पहुँचा कि एक अपरिचित व्यक्ति के लिए यह निर्णय करना कठिन है कि कौन सी विधि और कौन से देवी देवता बौद्धों के हैं और कौन वैदिकों के। बुद्ध से इन्द्र तक वैरोचन से षिव तक सभी देव सर्वत्र पूज्य हैं। यही हाल तारा जैसी देवियों का है। तिब्बत की डाक डाकिनियाँ यहाँ भी हैं उनके प्रति श्रद्धाभाव की कमी हैं।
महामसान / प्रेतप्रतिष्ठाभूमिः-
पूर्वोक्त विषेषताओं से अलग मगध की एक और विषेषता चर्चित रहती है। यह न केवल अनेक विचारों, आंदोलनों के लिए आंरभ भूमि है, जिसकी चर्चा प्रायः होती रहती है अपितु कई विचारों, साधना परंपराओं की अंतिम यात्रा का भी यह साक्षी रहा है।
मगध के मुख्य धार्मिक स्थान गया क्षेत्र में तो पितरों को प्रतिष्ठा मिलती ही है। इस दृष्टि से यह महामसान है। प्रेतों का ृमषान है। यह अनेक धार्मिक सामाजिक आंदोलनों के लिए लय भूमि है।

इसी तरह मगध से निकला बौद्ध धर्म जो कर्मकांड का विरोधी या बहुदेववाद का विरोधी था, जो इसे ‘सीलव्ब्तपरामास’ समझता या वह धारायहीं अंतिम साँसे गिनने लगी। गृध्रकूट पर्वत पर महायान का श्री गणेष द्वितीय धम्म चक्र प्रवर्तन से ृाुरू हुआ जो वज्रयान से आगे बढ़ते हुए कालचक्रयान तक पहुँचते पहुँचते अपनी सरलता खो बैठा। क- इस बुद्ध की ऐतिहासिकता समाप्त कर दी गयी महायान में बुद्ध एक पद हो गया। बुद्ध अनंत हो गए और सिद्धार्थ गौतम को तो अवक्रमित कर कर उन्हे शाक्यमूनि जैसी छोटी उपाधि दे दी गयी। नालंदा महाविहार की लूटपाट के क्रम में भयानक खून खराबा हुआ। अहिंसा की कर्मभूमि पर मूर्ति, कर्मकांड विरोधी इस्लाम धारा ने भयानक रक्तपात मचाया। यह सब धर्म के खोखलेपन या धर्म के नाम पर सत्ता का खेल हुआ। कृष्ण का मगध-विरोध का वाणासुर के यहाँ रिष्तेदारी में अंत हुआ बाकी कोर कसर चैतन्य एवं जयदेव के आंदोलन ने पूरा कर दिया। मध्य बिहार ही नहीं पूरे भारतवर्ष में संन्यास को स्वीकार करनेवालों के पास 10 हजार एकड़ जमीन हो, अनागरिक होनेवालांे, बिना परिवारवालों के भवन, विहार सामंतों के प्रासादों से भी बड़े होने लगे तो इसे आप क्या कहेंगंे ? और यही हाल बोधगया मठ का रहा। आम आदमी की दृष्टि में मंुडित संन्यासियों एवं मंुडित बौद्धों की विलासितापूर्ण जिंदगी में कोई मौलिक अंतर नहीं है, अंतर केवल कपड़े की बनावट में है। बाकि जो अंतर है भी वह उसकी समझ के बाहर है।
विनोबाजी को भी मठ बनाने का मन हुआ। उन्होनें समन्वय आश्रम की स्थापना की। समन्वय आश्रम के द्वारा हरिजन, भूइयाँ आदि के सेवा के अनेक कार्य होते हैं किंतु सांस्कृतिक, धार्मिक समन्वय जैसे कार्य की विषेष जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। सहजानंद सरस्वती का जातीय पुनरुत्थानवादी आंदोलन किसान आंदोलन में परिणत हो गया। अपनी ही बिरादरी के जुल्मी जमींनदारों के खिलाफ चला गया। यदुनंदन शर्मा जैसे ब्राह्मण ही सहयोगी हो गये। आर्यसमाज का उदारवादी आंदोलन जाति-विषेष के संघ में तब्दील हो गया। आज आर्यसंघ, ‘आर्यक-संघ अर्जक-संघ’ नाम से होते हुए यह मुख्यतः कोइरी-कुर्मी संघ होकर रह गया है। 79 के आंदोलन के बाद बोधगया मठ भूमिमुक्ति आंदोलन प्रांरभ हुआ। इस आंदोलन को सफलता भी मिली किंतु अद्भुत बात यह है कि इसके आधार क्षेत्र ने नक्सल आंदोलन के लिए प्रचुर उर्वर भूमि दी। दक्षिण भारत में प्रांरभ हुआ रामानुजाचार्य का अछूतोद्धार अभियान मगध में अंतिम साँसे गिन रहा है। यहाँ रामानुजाचार्य के अनुयायियों से अधिक कट्टर दलित-विरोधी ढूढँना असंभव है। अपवादों को छोड़ दें तो यह अब दलित-संहार के लिए ढाल मात्र बनकर शेष रह गया है। संसदीय प्रणाली के प्रबल विरोधी नक्सली विधायक सांसद पद के चुनाव लड़ने लगे। कुछ परोक्ष रूप से पहियों का समर्थन करने लगे। केवल पुरानी बातें ही नहीं मगही समाज आधुनिक आंदोलनेों का भी साक्षी रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन, बोध गया मठ भूमि आंदोलन आदि कई ऐसे आंदोलन है, जिनसे मगध ही नहीं भारत के अन्य भाग भी प्रभावि हुए हैं। मगध का यदि सौभाग्य है कि यह आंदोलनों, साधना विधियों का उद्भव स्थल है तो दुर्भाग्य है कि कुछ दिनों के बाद हमेशा मानवता विरोधी, जड़तावादी ताकतें सत्ता पर काबिज हो जाती है। साम्राज्यवादी स्वभाव के लिए मगध के अतीत की जितनी निंदा की जाय यहाँ का सामाजिक संस्कार सर्वथा भिन्न है। मगध अतिथियों का संरक्षक है। मिलजुलकर जीना चाहता है किंतु आक्राताओं से ही नहीं आंगतुकों से भी त्रस्त होकर हीन मानसिकता का शिकार हो गया है। नीयी आबादी में मगध विरोधी है। पुरानी आबादी में सभी जातियों के भीतर दो भागों में बँटी है। कनौजिया एवं मगहिया। यह विभाजन गहरा है कि विवाह नहीं तो अपनी ही भूमि पर कन्नौजिया आबादी ने सभी जातियों के भीतर के मगहिया भाग गावानात्मक रूप से उन्हें घोषित कर संवात कर रखा है। हर्षवर्द्वन के समय हुए जमीन बंदोवश्ती हुई पक्षपात का यह दुष्परिणाम है। इसी तरह गाया धामि पंडो की दशा है। अत्याचार महाराष्ट्र् से आये अहिल्याबाई के प्रियजनों ने किया और गया के पंडे बदनाम हो गये। मगध में 1970 तक अपराध का रिकार्ड कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर लगभग शून्य पर था। आपराधिक प्रवृत्तियाँ उन्हीं क्षेत्रों में थी जहाँ गैर मगहिया आबादी का वर्चस्व है। अब हिंसा प्रतिहिंसा का भयानक तांडव चल रहा है। उत्वसव खंडित हो रहे हैं। मंदिरों में विवाहादि संस्कार पूरे का रश्म अदायगी हो रही है। पिछड़ों, यादवों, गोपालकों के नेता, मसीहा श्री लालू प्रसाद चारा घोटाले के आरोपी हैं। इस महाश्मषान भूमि पर पता नही और कितने प्रेत प्रतिष्ठित होते चले जायेंगे?
आषा है विज्ञजन मगध की संस्कृति को उसके समन्वयवादी, बहुआयामी, प्रयोगधर्मी एवं चेतन रूप में स्वीकार करने की उदारता दिखाएँगे।
मगध का सांस्कृतिक संकटः-
मगध इन दिनों व्यापक सांस्कृतिक संकट से जूम रहा है। उसकी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया है। मगध पर हो रहे सांस्कृतिक हमलों में निम्न मुख्य हैं-
-बाहरी आबादी की संख्यावृद्धि एवं उनके वर्चस्ववादी तथा मगध के सहिष्णु स्वभाव के कारण हार एवं हीन भावना का संकट। उदाहरणार्थ- भोजपुरी अश्लील कैसटों का आक्रमण।
-अपनी परंपराओं से अधिक पश्चिम की नकल की प्रवृत्ति।
-इस्लाम, ईशाई मत एवं आर्यसमाज, जैसी एकेश्वरवादी प्रवृत्ति से बहुलतावादी समाज के मन में जाने अनजाने कमजोर एवं असंठित होने का अहसास।
-प्राचीन एवं रहस्य विद्या के आचार्यों की तीव्र गति से घट रही संख्या।
- इन विद्याओं को संरक्षित करने का प्रयास का घोर अभाव।
-आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति एवं मूल्यों का आक्रमण।
स्थिति इतनी भयावह होती जा रही है कुछ वर्षों बाद मगध अपना पहचान एवं विधियों खो देगा। अब ने कुल हैं न कुल देवता की पूजा हो रही है। खानापूर्ति भर से काम चलाया जाता है। सामूहिक गायन के स्थान पर कैसटों का बोलबाला है। लड़कियाँ पारंपरिक जीत नहीं सीख रही हैं। पवनिया प्रथा जिसमें कई जातियों के सहयोग एवं साधना से व्यक्ति विवाह, श्राद्ध आदि संस्कारों से पावन होता था दम तोड़ रही है।
यह संकट पूरे भारतवर्ष का है। देखें मगध इन चुनौतियों का किस तरह सामना करता है?
मगध के पड़ोसी अंग में मुँगेर ने विहार योग भारती जैसे अंतराष्ट्र्ीय स्तर के योग विश्वविद्यालय को विकसित किया है। देखें मगध इन समकालीन चुनौतियों का समाना करते हुए क्या नई खोज प्रस्तुत करता है।
पुनः आप सबों को सादर वंदन।
मगही संस्कृति

मगह लोकभाषा का शब्द है। मगध संस्कृत, पालि, प्राकृत और हिंदी (खड़ी बोली) में स्वीकृत शब्द है। यह मगध क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होता है। मगही इस समय मगध क्षेत्र की बोली/भाषा है। पहले मागधी प्राकृत बोली जाती थी। मगह की राजनैतिक सीमा अस्थिर रही है।
मगध हजारों वर्षों से अनेक उथल-पुथल को समेटे हुए है। यह अतिवाद एवं रहस्य की भूमि है। मगध मान्यताओं, विश्वासों एवं प्रणालियों की उत्पत्ति और लय, दोनों ंको धारण करता है। इस कारण एकरैखिक, लकीर पकड़कर चलने को आदर्श मानने वालों को यह भूमि एवं यहाँ की संस्कृति विचित्र लगती है लेकिन साधकों को आकृष्ट करती है। इसने बुद्ध से लेकर आज के विनोबा तक को सिद्धि पाने के लिए आकृष्ट किया है।
मगध दक्षिण एशिया एवं समस्त बौद्ध क्षेत्र में जितना आदर्श एवं पूज्य है ; वैदिकों, खास तौर पर संकीर्णतावादियों को मगध से उतनी ही अधिक जलन है। उन्होंने मगध की घोर निंदा की है। उन्हें मगध से भय है क्योंकि मगध प्रयोगभूमि है। पता नहीं मगध में कब क्या प्रयोग हो जाय और पुरानी मान्यताएँ टूट जायँ।
प्राचीन इतिहास में मगध साम्राज्यवादी है, विस्तारवादी है। जरासंध से लेकर अशोक तक अनेक पराक्रमी राजा हुए। लिच्छवी आदि गणतंत्रों को नष्ट करने का दोष मगध के राजाओं पर है। इसके विपरीत बाहरी आक्रमण में नालंदा ही नहीं अनेक मंदिरों का ध्वंस भी मगध ने झेला है।
सिद्धों की भूमि होने के कारण यहाँ साधना की विधियों की बहुलता है। तंत्र के कारण यहाँ रहस्यमयता भी है। इस विचित्रता के कुछ चित्रों को अलग-अलग देखने में बहुत कौतूहल एवं रस मिलेगा।
मगह की सीमा का रहस्य
मगह की सीमा निश्चित करना अति कठिन है। मगध साम्राज्य की सीमा पहले काशी तक सटी हुई थी अतः काशी से ही प्रारंभ करता हूँ। काशी के लोग गंगा के पूर्ववर्ती क्षेत्र को मगध मानते हैं। गंगापार का क्षेत्र मगध है। इस प्रकार गंगापार का रामनगर, जो काशीराज का क्षेत्र एवं वर्तमान किले का आवासीय क्षेत्र है, मगध में आ गया। इसी कारण कुछ लोग काशीराज के मगधवास को अब भी बुरा-भला कहते हैं।
गंगापार इलाके के लोग इस क्षेत्र को मगध नहीं मानते। इनकी दृष्टि से कर्मनाशा नदी के पूरब का भाग मगध है। पुराणों में त्रिशंकु की कथा है। त्रिशंकु की लार से कर्मनाशा बनी है। कर्मनाशा के पूरब एवं गंगा से दक्षिण का भाग मगध है। कर्मनाशा के बाद सोन नद है। कर्मनाशा से पूरब एवं सोन नद से पश्चिम का भाग वैदिक दृष्टि से ‘करुष’ एवं ‘मल्ल’ क्षेत्र है। पहले यहाँ की भी भाषा अर्द्धमागधी थी किंतु आज भोजपुरी है।
इस क्षेत्र के लोग अपने को मगहिया (मगध का वासी) एवं अपने क्षेत्र को मगह या मगध मानने को तैयार नहीं है। सामान्यतः यह क्षेत्र भोजपुरी भाषी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में धर्मशास्त्र की दृष्टि से काशी की परंपरा चलती है। आज यहाँ स्थानीय लोगों की तुलना में बाहर से आकर बसे हुए लोगों का इतना अधिक प्रभाव है कि स्थानीय लोग यह समझ ही नहीं पाते हैं कि वे ही मूलवासी हैं। इनकी दृष्टि में सोन के पार (पूरब) का क्षेत्र मगध या मगह है जहाँ आज मगही भाषा बोली जाती है।
समस्या का समाधान सुलभ नहीं है। प्रायः भाषा या बोली के नाम पर क्षेत्र की पहचान पक्की हो जाती है। किंतु सोन के पार पूरब आकर लोगों से यदि कोई पूछे कि भाई, यहाँ की भाषा मगही है तो यह क्षेत्र तो निश्चित रूप से मगह होगा ही और वह भी असली मगह, तो आपको वही पुराना उत्तर मिलेगा। नहीं, असली मगह तो पुनपुन नदी के पूरब का क्षेत्र है।
मगह का पुराना पर्यायवाची शब्द कीकट है। कीकट क्षेत्र में पुनपुन (पुनः-पुनः बार-बार बदलने वाली, बार-बार पुनीत करने वाली, पितरों को पवित्र करने वाली ) नदी बहती है, इसका उल्लेख तो मिलता है किंतु ग्रंथों में पुनपुन को किसी ने मगध की सीमा नहीं माना है।
कीकटेषु गया पुण्या नदी पुण्या पुनः पुना।
च्यवनस्याश्रमं पुण्यं पुण्यं राजगृहं वनम्।।
इस क्षे़त्र में ़ऐसा क्या है कि यहाँ के लोग मगही भाषा बोलकर भी अपने को मगहिया (मगधवासी) मानने को तैयार नहीं हैं? कुछ लोग, (जो काफी संख्या में हैं) जो बाहर से आकर इस क्षेत्र में बसे हैं और अपनी मूलस्थान की स्मृति रखे हुए हैं, उनकी दृष्टि में उत्तर ‘‘पता नहीं’’ है। शेष लोग परम गोपनीय रहस्य की भाँति दो कारण एवं मगह की पहचान बताएँगे:-
पहला - ‘मगह के लोग बुड़वकवा, सुकर के कहे ‘भुडुकवा’। भुडुकवा की कथा आगे आएगी। मगध में भुडुकवा भुलूकवाँ नाम से गाँव पाए जाते हैं।’
दूसरा - ‘खाँटी (असली) मगह के किसान हल एवं गाड़ी में भैंसांे का उपयोग करते हैं जबकि हमारे क्षेत्र में ऐसा करना वर्जित है।’ यह मान्यता आज भी है। बैलों की तरह भैंसों की जुताई के साथ-साथ पुनपुन के बाद के मंदिरों में जहाँ-तहाँ भैसांे की बलि की बात स्वीकृत है जो 50-60 वर्ष पहले तक चल रही थी। यहाँ से पूरब बढ़ने पर महिषबलि की परंपरा बढ़ती जाती है।
अब आप यदि पुनपुन नदी पार कर जायँ तो भी कोई अपने आप को सहज ढंग से मगहिया मानने को तैयार नहीं मिलेगा। इस प्रकार फल्गु पारकर यह मगह नालंदा-राजगृह के आसपास के इलाके तक सीमित हो जाएगा।
मैंने मगह की सीमा निम्न आधारों पर तय की है।
1. भाषा का प्राचीन विभाग
मागधी प्राकृत, ‘सा मागधी मूलभासा’। पालि एवं सिद्धों की मूल भाषा।
2. पौराणिक धार्मिक विश्वास त्रिशंकु की लार से बनी कर्मनाशा के पूर्व मगध।
3. नदियाँ
पश्चिम में कर्मनाशा, जिसके बाद काशी क्षेत्र है। पूर्व में किउल नदी जिसके बाद अंग क्षेत्र है। उत्तर में गंगा जिसके बाद तिरहुत एवं मिथिला है। दक्षिण में सोन को छोड़कर अन्य नदियों का जहाँ से उत्स स्थल या प्रारंभ विंदु है, वहाँ तक मगध है। अर्थात् छोटानागपुर का पहाड़ी भाग मगध की दक्षिणी सीमा है।
4. स्थानीय जातियों के मूलग्राम एवं परंपरा की समानता
उत्तर भारत में आम तौर पर अपने गाँव में विवाह करना वर्जित है। एक गाँव के सजातीय निवासी आम तौर से एक ही माता-पिता की संतान होते हैं अतः उनकी सगोत्रता रक्त की सगोत्रता है। सगोत्रता गुरु एवं पिता, दोनों से प्राप्त होती है। गुरु का गोत्र तो भिन्न हो सकता है किंतु रक्त की धारा एक ही होती है। कई अन्य कारणों से गाँव में बाहर से आकर बसे हुए असगोत्रीय के यहाँ भी भाई-बहन का रिश्ता मान्य होता है अतः एक गाँव में विवाह नहीं होता। शहर में यह सीमा पहले मुहल्ले तक थी, अब नहीं है।
मूलग्राम की परंपरा व्यापक रूप से स्वीकृत हैे। लोग इसे मूलग्राम, वासिंदा आदि नामों से जानते-पहचानते हैं। जिन जातियों के मूलग्राम मगध क्षेत्र में हैं उन्हें आसानी से और निश्चित तौर पर मगधवासी, मागध या मगहिया कहा जा सकता है। बाह्मण से शूद्र तक यह विभाजन व्यापक है। जो स्थानीय हैं उनके मूलग्राम कर्मनाशा से किउल के बीच मिलते हैं और वे उन्हीं गाँवों के लोगों के बीच विवाह करते हैं। इस आधार पर भी मैं ने किउल से कर्मनाशा तक मगध की सीमा मानी है।
इस समय मगध के अधिकांश भाग में मगही एवं सोन के पश्चिमी भाग में भोजपुरी बोली जाती है। मगही का विस्तार भाषाविज्ञान की दृष्टि से छोटानागपुर की पहाड़ियों तक है। लेकिन भोजपुरी भाषा तो बिहार के पश्चिमी एवं उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से की भी सर्वमान्य लोकप्रिय भाषा है।
मगध के पश्चिमी भाग अर्थात् सोन एवं कर्मनाशा के बीच के इलाके में आज भोजपुरी बोली जाती है। भोजपुरी बोलने के कारण स्थानीय लोग रक्तसंबंध से इतर मामलों में अपने को ‘भोजपुरिया’ कहते हैं। इस क्षेत्र में सीमावर्ती भोजपुरी भाषाभाषी क्षेत्रों से बहुत बड़ी आबादी आकर बसी है और उसने स्थानीय मगहिया आबादी (रक्तसंबंधों की दृष्टि से) को भी भोजपुरी भाषाभाषी बना दिया है।
वासी/आबादी के प्रकार
सांस्कृतिक दृष्टि से मगध क्षेत्र के निवासियों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है।
एक - वे, जो अपने को मगध के मूलवासी मानते हैं। वे शादी विवाह के लिए मगध के ही किसी गाँव को सगोत्रता, सपिंडता का आधार बनाते हैं। इनमें से कुछ लोग सीधे-सीधे अपने को मगहिया कहते हैं। विशेषकर वैश्य एवं शूद्र वर्ण की अनेक जातियाँ अपनी सीधी पहचान रखती हैं। क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं अन्य मगहिया जातियाँ पुनरुत्थानवादी द्वंद्व से ग्रस्त हैं। इन जातियों के लोग जीवन तो मागधी पहचान के आधार पर जीते हैं किंतु अपने को सीधे-सीधे मगहिया कहते नहीं हैं। इस कोटि में सभी जातियों के मगहिया उपविभाग के लोग, जैसे मग ब्राह्मण, अंबष्ठ कायस्थ, राजपूतों की ढेकहा, भूतहा आदि शाखाएँ भुइयाँ, धामी पंडे आदि आते हैं।
दो - वैसे लोग जो काफी लंबे समय पहले मगध में आकर बस गए हैं किंतु अपनी सगोत्रता का पूर्व आधार अपनी स्थानीय सीमा में मानते हैं। आज इनका विवाह अपने मूल स्थान में नहीं होता है,जैसे - मथुरा से आए माहुरी वैश्य जिनका ब्राह्मण से वैश्य में वर्णांतरण हुआ है तथा अहिल्याबाई द्वारा लाए गए गयावाल पंडे। गयावाल पंडे अब महाराष्ट्र से आकर गया में बसना स्वीकार नहीें करते। वे अपने को ब्रह्मकल्पित ब्राह्मण बताते हैं।
तीन - वैसे लोग जो अपनी बाहरी पहचान अक्षुण्ण रखे हुए हैं और रक्तसंबंध अपने मूलस्थान के लोगों के साथ करते रहते हैं, स्थानीय सवर्ण या सजातीय लोगों के साथ विवाह नहीं करते। इस कोटि के अंतर्गत सभी कन्नौजिया (ब्राह्मण से डोम तक) जातियाँ आती हैं। इनका रक्तसंबंध सवर्ण या सजातीय मगध/मगहिया लोगों से नहीं होता। आधुनिक लोगों को इस विभाजन की जानकारी नहीं है। वे केवल अपने जातीय विभाग को ही जानते हैं। इनके अतिरिक्त राजस्थान, मध्यप्रदेश, मिथिला, उत्तर प्रदेश एवं बंगाल से भी काफी लोग आकर पुारनी पहचान के साथ बसे हुए हैं।
चार - धर्मांतरित लोगों पर ऐसे नियम लागू नहीं होते अतः मुसलमान, ईसाई, सिख आदि को इस कोटि में रखा जा सकता है।
तीर्थ
मगध में तीर्थ स्थापित करने का अपना आकर्षण है। इस तरह के कुछ नए प्रयासों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। सिख धर्म का प्रभाव क्षेत्र पंजाब में भले ही रहा हो किंतु पटना गुरु गोविंद सिंह के कारण एक पवित्र तीर्थ स्थान है। पटना सिटी में ही नहीं, गया के दक्षिणी जंगली क्षेत्र में भी सिखों के गाँव हैं और पिछले पचास वर्षो में निरंकारी मत का आकर्षण सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बढ़ रहा है। गया जिले के टिकारी थाना क्षेत्र को इसका उदाहरण माना जा सकता है।
मुसलमानों का तीर्थ हिन्दू तीर्थों के समानंातर हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए फिर भी ‘ शरीफों’ में मुख्य तीन हैं - फुलवारीशरीफ, बिहारशरीफ एवं सुदूर एकांत के ग्रामीण माहौल में च्यवनाश्रम/देवकंुड के समानांतर अमझरशरीफ। सूफी संतों एवं दरगाहों से मगध की धरती भरी हुई है और उर्स का आयोजन खूब होता है।
ईसाई भी पीछे नहीं हैं। उन्होंने भी तीर्थ बना लिया है। उत्पत्ति की दृष्टि से मुसलमानों से ईसाई पूर्ववर्ती भले ही हों, मगध में ईसाई धर्म का प्रचार बाद का है। ईसाइयों का प्रभाव क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों में मूलतः दलितों में ही अधिक रहा है। मगध क्षेत्र में मोकामा नया ईसाई तीर्थ है। यहाँ मिशनरियों की अनेक संस्थाएँ तो हैं ही, यह विश्वास भी है कि देवी मरियम की प्रेरणा/आदेश के अनुसार मोकामा एक पवित्र ईसाई क्षेत्र है। वहाँ मरियम का मंदिर भी बनाया गया है। अब मगध के ईशाई परिवारों को तीर्थ एवं मेले का सर्वथा अभाव नहीं रहा। तीर्थ एवं मेला संस्कृति के साथ ये भी समन्वित हो गए हैं।
मग/मगध
मगहिया लोगों की सहज निष्ठा मगध के प्रति है लेकिन पढ़े-लिखे लोग निष्ठाविहीन सुविधावादी हैं। ब्राह्मणों में कोई भी अपने को मागध नहीं कहता। शाकद्वीपीय कहे जाने वाले ब्राह्मणों की ढिठाई और ही है। मगध क्षेत्र के बाहर रहने वाले शाकद्वीपीय ब्राह्मण अपने को मगध क्षेत्र से आकर बसा हुआ मानते हैं और मूलग्राम व्यवस्था मगध के गाँवों के आधार पर वैसे ही मानते हैं जैसे राजस्थान वगैरह से मगध में आए राजपूत एवं मारवाड़ी। लेकिन शाक़द्वीपीय ब्राह्मण अपने को मागध न मान कर शाकद्वीप से आया हुआ मानते हैं। आज भारत के पश्चिमी भाग के शाकद्वीपीय अपने को भोजक कहते हैं, मगध एवं उत्तरी भारत के मग। इनमें रक्तसंबंध नहीं होता। मगों का दावा है कि मग ब्राह्मणों को जो धारण करे वह धरती मगध है।
कन्नौजिया/मगहिया एवं हर्षवर्घन
मगहिया एवं कन्नौजिया का भेद बिहार के गैर मैथिल क्षेत्र में लगभग सभी जातियों में मौजूद है। विचित्र किंतु सत्य बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या में व्यापक रूप से कन्नौज से मगध और मगध से कन्नौज के इलाके में स्थानांतरण के बावजूद कन्नौजिया एवं मगहिया लोगों में एक-दूसरे के साथ शादी-विवाह नहीं होता, भले ही उनकी जाति एक ही क्यों न हों। सभी जातियों में कन्नौजिया एवं मगहिया के बीच दूसरे की तुलना में श्रेष्ठता का भाव है। इस विरोध का कारण मेरी दृष्टि में हर्षवर्द्धन के समय व्यापक रूप से हुआ आर्थिक विभाजन एवं परस्पर स्थानसंक्रमण है। मंदिर, स्थानीय सामंत एवं ब्राह्मणों को योग्यतानुसार पदवी देने आदि के अनेक काम अन्य राजा कभी-कभार करते थे लेकिन हर्षवर्द्धन के काल में यह काम जमकर हुआ। स्वाभाविक रूप से हर्षवर्द्धन ने अपनी श्रेष्ठता के लिए कन्नौज की श्रेष्ठता को स्थापित किया।
यह प्रवृत्ति बाद में भी चलती रही। मौखरी राजा मगध के हैं अतः मगध को प्रिय हैं। रक्तसंबंध के कारण मगध से भी काफी संख्या में लोग हर्ष की राजधानी के आसपास एवं उनके इलाके में बसे और आदान-प्रदान, वर्चस्व, घृणा सबका विकास हुआ।
काशी-बंग का मध्यस्थ क्षेत्र
समन्वयवादी होने के कारण मगध के कर्मकांड बंगाल एवं मिथिला से मिलते-जुलते हैं फिर भी मुख्य प्रभाव काशी कुल का है। काशी भारतीय संस्कृति का केन्द्र है। काशी से दक्षिण दक्षिण होता है। यहाँ से थोड़ी दूरी पर विंध्य पर्वतमाला शुरू होती है। उसके पार अगस्त्य ऋषि गए हैं जो आज तक नहीं लौटे, यह लोककथा है।
काशी से पूर्व की मान्यताओं में काफी अंतर है। दैनिक पूजा-पाठ से लेकर विवाह आदि प्रसंगों तक में यह अंतर देखा जा सकता है। कुछ उदाहरणों पर विचार किया जा सकता है।
काशी से पश्चिम के स्थानों में वेद की प्रधानता अधिक है आगम/तंत्र की कम। लेकिन काशी से पूर्व में आगम का ज्ञाता होना गौरव की बात है। योग एवं तंत्र व्यावहारिक विद्याएँ हैं जबकि वैदिक आचार कालवाह्य एवं आदर्श दशा वाला है, वह सतयुगी है, कलियुगीन नहीं। काशी से पश्चिम में चातुर्मास का महत्त्व साधारण मनुष्य के लिए अधिक नहीं है। काशी से पूर्व बरसात के चार महीने उत्सवों से भरे पड़े हैं।
काशी से पूर्व मंे गया का पिंडदान आश्विन मास में ही होता है। कर्मा, जीउतिया, अनंत, तीज, नागपंचमी आदि सभी व्रत चातुर्मास के अंतर्गत होते हैं। बैजनाथ धाम की प्रसिद्ध यात्रा चातुर्मास के भीतर श्रावण मंे पूरे महीने भर होती है। ऐसे अनेक उत्सव होते हैं।
विवाह
मगध में भी बंगाल की भाँति विवाह संस्कार मुख्यतः कन्या का होता है। यह संस्कार मुख्यतः लौकिक विधि से संपन्न्ा होता है। वेदाचार का भाग इसमें कम होता है। बंगाल की भाँति शाक्त धर्म के गहरे प्रभाव के कारण कन्या का दान करना यहाँ पिता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है अतः ‘वाग्दान’ (विवाहपूर्व सशर्त दान) एवं पाणिग्रहण के संकल्प का महत्त्व है। इस समय मगध में वाग्दान का महत्त्व केवल सामान्य सामाजिक विवाहपूर्व अनुबंध के रूप में है न कि पहले की तरह जब बंगाल एवं मिथिला में वाग्दान के बाद वर की मृत्यु हो जाने पर भी कन्या को विधवा मान लिया जाता था। अब वाग्दान के संकल्प की औपचारिकता किसी जाति में छेंका और किसी जाति में तिलक के समय पूरी कर ली जाती है।
मगध में मुख्य पूजनोत्सवों में जाति/वर्णव्यवस्था ढीली रहती है। सबसे श्रेष्ठ, पवित्र पूजनोत्सव सूर्यषष्ठी अर्थात्् छठ व्रत है जिसमें ब्राह्मण से शूद्र तक सबको भाग लेने का अधिकार है। पुरुष स्त्री का भी भेद नहीं है। छठ के प्रसाद में छुआछूत नहीं लगता। गुप्त रूप से चलने वाले वामाचार एवं कौलाचार में तो छुआछूत की कल्पना भी नहीं होती। मगध में जन्म की तुलना में आचरण की पहले से ही प्रतिष्ठा रही है। इसीलिए भविष्य, वायु एवं स्कन्द पुराणों का इस क्षेत्र पर अधिक प्रभाव है। उक्त पुराणों में मगध संबंधी पर्याप्त वर्णन भी मिलता है। उक्त पुराण जन्म की तुलना में आचरण को प्रधान मानते हैं। बौद्ध, जैन धाराओं ने भी इस मत का समर्थन किया है।
मगध में लोकाचार वेदाचार से प्रबल है। सिद्धों-योगियों के द्वारा प्रवर्तित लौकिक कर्मकांडों ने वैदिक रूप ले लिया है। यहाँ सौर, शैव, शाक्त, गाणपत्य, वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं सिद्धों के द्वारा प्रवर्तित देवी-देवताओं की पूजा-आराधना मिश्रित रूप मंे होती है। यक्ष-यक्षिणी एवं नाग यहाँ सभी वर्णों द्वारा पूजित हैं। यहाँ यक्ष-यक्षिणियों के नाम पर कई गाँव हैं। यहाँ शिव के कई देशी रूप हैं।
काशी नगरी में मरे हुए व्यक्ति का अंतिम संस्कार काशी में ही होता है। उसका शव बाहर नहीं ले जाया जाता। यह शिव का, काशी का अपमान माना जाता है। ठीक इसी तरह गया नगर से भी मरे हुए का शव या हड्डी आदि अवशेष गया से बाहर नहीं जाते। यह विष्णु का अपमान समझा जाता है। आखिर पितरों की शांति एवं सद्गति के लिए विष्णु के चरण में, गया में ही तो आना होता है फिर अवशेष बाहर क्यों जाएँ ?
मगध की समन्वय शैली
भारत में हुए प्रयोग, क्रांति एवं समन्वय तीनों के उदाहरण प्रचुर मात्रा में एवं विविधताओं के साथ मगध के इतिहास एवं संस्कृति में उपलब्ध हैं। मगध की धरती बहुत पुरानी है। मगध का भूभाग एवं भूगर्भ, दोनों ही उथल-पुथल से भरे हैं। यहाँ की धरती तीन-चार बार उलट-पुलट चुकी है फिर भी हर हाल में यहाँ की नदियाँ गंगा-यमुना से पुरानी हैं। पहाड़ भी हिमालय से पुराने हैं।
गयासुर काँपती हुई धरती का प्रतीक असुर हैे। उसे शांत करने के लिए विष्णु को उसपर अपना पैर रखना पड़ता है, एक बड़ी शिला रखनी पड़ती है। गयासुर भी कोई अत्याचारी असुर नहीं है। धरती एवं स्वर्गलोक उसके तप के प्रताप से काँपते हैं। हर बार की तरह विष्णु इस प्रतापी तपस्वी की छाती पर सदैव के लिए तैयार हो जाते हैं। असुर सदा से हारते हैं। इस बार भी हारते हैं किंतु एक समन्वयात्मक सांस्कृतिक समझौते के साथ। गदाधर विष्णु का एक पैर यहाँ होने के कारण यह सभी वैदिकों के लिए पितृश्राद्ध का तीर्थ हो जाता है। देश-विदेश सभी जगह के पितरों की मुक्ति पर विश्वास करने वाले हिन्दू लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए गया पधारते हैं। यहाँ असुर के पराजय के स्थान पर तीर्थ निर्माण के कारण समाज के सभी वर्गों को कुछ न कुछ लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार मगध एवं गया को असुरभूमि मानने वालों के लिए भी गया में सिर झुकाना जरूरी हो जाता है।
सांब
दक्षिण भारत में शैवों-वैष्णवों के वर्चस्व एवं विरोध की कहानी दो-चार सौ वर्ष पूर्व तक चलती रही किंतु मगध में शिव एवं कृष्ण का युद्ध महाभारत काल में ही होकर समझौता भी हो जाता है। कृष्ण जैसा प्रेममार्गी व्यक्ति भी राजनीति की उलझन में उलझकर मगध में बार-बार फँस जाता है। जरासंध जैसे रिश्तेदारों से त्रस्त रहने के साथ ही बाणासुर की कन्या एवं कृष्ण के पुत्र के बीच प्रेम संबंध पनप जाता है और कृष्ण के पुत्र के अपहरण की घटना घट जाती है। परिणामतः बाणासुर के साथ, जो परमप्रतापी शैव राजा और शिवभक्त तपस्वी असुर है, कृष्ण का भयानक युद्ध होता है जिसमें शिव एवं कृष्ण, दोनांे ही आमने-सामने आ जाते हैं। अंततः समझौता होता है और प्रेम संबंध विवाह में परिणत होता है। कृष्ण से जो समन्वयवादी धारा शुरू होती है वह संाब के समय और बड़ी हो जाती है। साम्ब एक ही साथ वैष्णव, सौर, शैव, जैन सभी को ग्राह्य हैं। वे सबके अपने हैं। साम्ब की कथा अनेकों के पक्ष में है।
बाद के समय में भगवान बुद्ध को यहीं बोधि प्राप्त होती है। उनके समय अन्य तीर्थंकर भी थे और उनके भारी संख्या में अनुयायी भी मगध में थे। इनके समानांतर अनेक ब्राह्मण कर्मकांडी, तपस्वी, जटिल तथा अन्य विचारों के लोग एक साथ जी रहे थे।
बाद में भी समन्वय का यह सिलसिला लगातार चलता रहा। बौद्ध धर्म का रूप जैसे ही महायानी हुआ उसमें अनेक बुद्ध एवं बोधिसत्त्वों की संभावना के साथ अनेक देवी-देवताओं के भी समन्वय की प्रवृत्ति बढ़ती गई। कुछ लोगों का तो यह भी मन्ना है कि मूर्तिपूजा बौद्धों ने ही शुरू की। यह मत विवादग्रस्त है। जो भी हो 12वीं-13वीं शती ई0 तक तो समन्वय यहाँ तक पहुँचा कि एक अपरिचित व्यक्ति के लिए यह निर्णय करना कठिन है कि कौन सी विधि और कौन से देवी-देवता बौद्धों के हैं और कौन वैदिकों के। बुद्ध से इंद्र तक, वैरोचन से शिव तक, सभी देव सर्वत्र पूज्य हैं। यही हाल तारा जैसी देवियों का है। तिब्बत की डाक-डाकिनियाँ यहाँ भी हैं किंतु उनके प्रति श्रद्धाभाव की कमी है। डाक होने के दावेदार तो मिल सकते हैं क्रितु किसी स्त्री द्वारा अपने को डाकिनी कहा जाना साक्षात् मौत को बुलाना है।
सिद्ध
सिद्धों ने मगध में साधना की और मगध को अनेक प्रकार से प्रभावित किया। मगध के अनेक गाँवों के नाम सिद्धों के नामों के अनुसार हैं।
पहले सिद्ध सरहपा को ही लें। एक गाँव है ‘सरहतेलपा’ - सरह(पा) तेलपा (तिलोपा)। डुंबरिपा के नाम पर डुमरी, डुमरिया आदि नाम के अनेक ग्राम मिलते हैं। ‘डुमरी का फूल’ रहस्यवाद की प्रचलित पहेली है। इसी तरह लई (लईपा), कुरकुरी (कुक्कुरीपा), भुलुकवाँ (भुसुकपा) हैं। मगध में स्थानों के नाम सिद्धों के द्वारा प्रवर्तित देवी-देवताओं के अनुसार भी हैं, जैसे - सोभ (सोंबी), डोभी (डोंबी) आदि। सरह को तो सही ही रजनीश ने द्वितीय मनु कहा है। मगध में सरह शब्द नए नियम का पर्यायवाची है। ‘सरह’ बनाना/लगाना अर्थात्् नया नियम या रास्ता बनाना होता है। प्रारंभ में सिद्धों ने लिखित ग्रंथों के अघ्ययन-अध्यापन के स्थान पर प्रायोगिक अभ्यास पर बल दिया एवं मस्ती में गीत गाते रहे। बाद में उनके गीतों को संकलित कर ‘दोहाकोश’ ‘चर्यागीति’ आदि पुस्तकें भी बन गईं। एक ओर श्रमणों एवं सिद्धों की धारा ब्राह्मण वर्चस्व को खंडित करती रही तो दूसरी ओर पौरोहित्य एवं शास्त्र पर सदैव काबिज रहे ब्राह्मणों ने लोकानुरूप संशोधन कर तंत्र की साधना प्रणाली में बौद्ध देवी-देवताओं का समन्वय करके उनको भी वैदिक रूप दे दिया। परिणामतः तारा जैसी देवी के मंदिरों के पुजारी भी मगध में ब्राह्मण हैं। कुछ की तो कुलदेवी ही तारा हैं। ताराडीह नाम के गांव तो सर्वत्र मिलते हैं, चाहे उसकी मुख्य आबादी कोई भी क्यों न हो।
तंत्र एवं गोसाँई
कौल संप्रदाय में वामाचार/वीराचार की उत्कट साधनाएँ स्वीकृत हुईं तो बहुत हद तक जातिबंधन मिट गया। शांकर संन्यास परंपरा में भी तंत्र स्वीकृत हुआ। कुछ लोगों के मत में संन्यासी भी वामाचारी होते थे। उन्हें गुप्त साधना के लिए सामग्री की जरूरत होती थी इसीलिए प्रमुख मठों ने नए शक्तिपीठों की स्थापना की या किसी पुरानी पीठ पर कब्जा जमाया और वहाँ के पुराने पुजारियोें को हटाकर गोसाँई लोगों को पुजारी बनाया। मंगलागौरी, इटखोरी आदि मंदिरों के परंपरागत पुजारी गोसाँई लोग होते हैं। गोसाँई एक नवसृजित ब्राह्मण जाति है। आम जनता के वैदिकीकरण या मुख्य धारा में लाने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
इस प्रकार एक ओर समन्वयवादियों का प्रयास चलता रहा तो दूसरी ओर बाहर के लोगों ने मगध के लोगों को अपनी पुरानी इर्ष्या, घृणा एवं वर्चस्व की प्रवृत्ति के कारण नीचा, निंदित घोषित करना शुरू कर दिया। उनकी इस आलोचना के कारण वैदिक कर्मकांड में काशी, कन्नौज आदि क्षेत्रों की देखादेखी मगध में भी सवर्ण/असवर्ण के बीच दूरी बढ़ने लगी। छुआछूत को आदर्श घोषित किया गया।
यह समस्या मगध की ही नहीं संपूर्ण उत्तरी भारत की रही। इसके विरोध में अनेक आंदोलन उभरे। इस काल में शांकर संप्रदाय के लोग तीन भागों में बँटे - (1) शुद्ध वेदांती, (2) वेदसम्मत योगाचार या अखाड़ा वाले साधु तथा (3) तांत्रिक संन्यासी एवं उनसे उत्पन्न गोसाँई।
शुद्ध वेदाचार वाले धीरे-धीरे रूढ़िवादी होते गए। योग-साधना अखाड़ों के पास रही और तंत्र साधना तांत्रिक संन्यासियों के पास। बाद में कुछ वेदाचारी भी दक्षिणमार्गी तंत्र साधना खुलेआम करते रहे।
गोसाँइयों का गोत्र, विभाग एवं उपाधि संन्यासियों के अनुसार गिरि, पुरी, भारती एवं सरस्वती आदि होती है। बोधगया मठ की उपाधि गिरि है। गया के मंगलागौरी के जो गोसाँई पुजारी हैं वे गिरि हैं। गोसाँई अपने को ब्राह्मण मानते हैं। समाज भी उनको ब्राह्मण मानता है। उनके भीतर उपजाति विभाग की सूचना मुझे नहीं है।
आज की परिभाषा में अति पिछड़ी जातियों को वैदिक परंपरा में बांधकर रखने में गोसाईं ब्राह्मणों की अग्रणी भूमिका है। इन जातियों के गुरु प्रायः गोसाँई लोग होते थे जो उन्हें तंत्र साधना की विधियाँ सिखाते थे। पहले से स्थापित ब्राह्मण आभिजात्यता के अहंकार के कारण तेली, कुम्हार, बढ़ई जैसी जातियों को अछूत न मानते हुए भी उनका गुरु बन्ने को तैयार नहीं थे। वैदिक मंत्रों को इन्होंने केवल ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्ण तक के लिए ही सीमित कर लिया था। तंत्र की सर्वसुलभता के स्थापित सामाजिक प्रचारक गोसाँई लोग हुए और आज भी हैं। उन्होंने असवर्णों को अपनाया और असवर्णों ने उन्हें ब्राह्मण के रूप मंे गुरु बनाकर प्रतिष्ठित किया।
चक/चक्रपूजा
मगध में अनेक गाँवों के नाम में ‘चक’ शब्द जुड़ा है। चक्र का शाब्दिक अर्थ होता है चक्का। ये गाँव चक्राकार बसाए गए हों ऐसी बात नहीं है। कुछ गाँवों के नाम पर ध्यान देने पर ऐसी संभावना होती है कि ये किसी न किसी साधना परंपरा को इंगित कर रहे हैं, जैसे - दुल्लमचक (दुर्लोम चक्र), मिश्रीचक (मिश्रित चक्र), भैरोचक (भैरव चक्र)। कई गाँवों का नाम केवल चक होता है। इस नामकरण के पीछे चक्रपूजा की परंपरा को आधार के रूप में देखा जा सकता है।
तांत्रिक साधना की प्रणालियाँ दोनों प्रकार की होती हैं। व्यक्तिगत साधना एवं सामूहिक साधना। सामूहिक साधना में साधक-साधिका चक्राकार (गोलाई में) बैठते हैं। पूजा, पाठ, स्तुति, नृत्य, गीत - सभी कार्य चक्राकार बैठकर ही संपन्न्ा किए जाते हैं।
इस चक्राकार बैठने की साधना के साथ मूलाधार से सहस्रार तक शरीर के भीतर भी चक्रों की मान्यता है। उन चक्रों के जागरण, नियंत्रण आदि के लिए भी कई विधियाँ विकसित हुई थीं। संभव है इन गाँवों के लोग सामान्य चक्रपूजा का अभ्यास करते हों जिसके आधार पर चक्र या किसी विशेष चक्र के अनुसार गाँवों का नामकरण हुआ।
लौकिक/वैदिक कर्मकांड
मगध में प्रचलित धार्मिक पूजा-पाठ की विधियों अथवा कर्मकांड को निम्न रूप में विभाजित कर समझा जा सकता है। यह विभाजन समझने की सुविधा के लिए किया गया है। कभी-कभी ये अलग-अलग और कभी-कभी एक साथ भी चलते रहते हैं।
(1) एकधर्मीय - हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि।
(2) बहुधर्मीय/मिश्र - वैदिक, जैन, बौद्ध, मुसलमान, ईसाई आदि का मिश्र रूप।
हिन्दू या वैदिक
क - वेदप्रधान, धर्मशास्त्रानुमोदित।
ख - पूर्णतः लौकिक।
ग - मिश्र अर्थात् योग-तंत्र शास्त्रों से अनुमोदित एवं परंपरा में प्रचलित।
क - वेदप्रधान, धर्मशास्त्रानुमोदित
ऐसे अनुष्ठानों में नारायण यज्ञ आदि को गिना जा सकता है। इसी प्रकार सभी संस्कारों में वैदिक मंत्रों का पाठ होता है। अग्निप्रतिष्ठा, यज्ञोपवीत, विवाह में सप्तपदी आदि अनेक अनुष्ठान वैदिक रीति के अनुसार संपन्न्ा कराए जाते हैं, जो वस्तुतः पूजाविधि संबंधी धर्मशास्त्रीय ग्रंथो में वर्णित रीति होती है। ऐसे अनुष्ठान न केवल मगध में अपितु भारत के अन्य भागों में भी व्यापक तौर पर होते हैं। इनमें वैदिक देवताओं एवं मंत्रों की प्रधानता होती है।
ख - पूर्णतः लौकिक
इसमें चुमावन, नहछूर आदि ऐसे कर्मकांड हैं जो देशज हैं। जिसका चुमावन किया जाता है,े अक्षत अर्थात् चावल को उसकी अंजली में भर दिया जाता है। उस अंजली में से कुछ दाने निकालकर शरीर के विभिन्न्ा भागों को स्पर्श कराते हुए शिर के ऊपर बिखेर दिए जाते हैं। यह विधि मांगलिक पूजा-पाठ के बाद औरतों के द्वारा आशीर्वाद दिए जाने की है। चुमावन करने का अधिकार केवल विवाहित औरतों को होता है। परीछन विवाह के समय होता है। उसका अर्थ समझ में नहीं आता है। सिलबट्टे का लोढ़ा घुमा-घुमाकर परीछन होता है। इसी प्रकार के अनेक कर्मकांड हैं, जो देशज हैं।
मिश्र
मृत्तिकाहरण या मटकोड़, मंडपाच्छादन या मड़वा, हल्दी, द्वारपूजा, नामकरण आदि संस्कार, देवी-देवताओं की पूजा, डाक, राह, गोरेया, डीहवार, ब्रह्म की पूजा आदि मिश्रित कर्मकांड हैं। यह मिश्रण कई प्रकारों का है। जैसे - भइया दूज एवं गोवर्धन पूजा का मिश्रण, अनंत चतुर्दशी में वैदिक-जैन परंपरा का मिश्रण, कर्मदहन दशमी (जैन) एवं कर्मा एकादशी (वैष्णव) का प्रतिस्पर्धी मिश्रण। पंचदेवों की उपासना के साथ स्मार्त परंपरा में तो बस मिश्रण ही मिश्रण है। शाक्त परंपरा की सप्त मातृका पूजा यहाँ सतबहिनी के रूप में स्वीकृत है।
गया में पुण्यकर्म के विधान के लिए ज्योतिष संबंधी मान्यताओं में भी अंतर है। यहाँ विवाहादि शुभ कर्मों के लिए भी गुरु का उदित होना जरूरी नहीं है। गया या मगध में यह सर्वत्र नियम है। इतना ही नहीं, जो लोग मगध के बाहर से भी आते हैं वे भी मगध की इस परंपरा की मर्यादा को मानते हैं।
न त्यक्तव्यं गयाश्राद्धं सिंहस्थे च वृहस्पतौ।
अधिमासे सिंह-गुरावस्ते च गुरु-शुक्रयोः।
तीर्थयात्रा न कर्तव्या गयां गोदावरीं विना।
(वायुपुराण)
(वृहस्पति के सिंह राशि पर स्थित होने, अधिक मास, सिंह या गुरु के अस्त होने पर भी या गुरु-शुक्र दोनों के अस्त रहने पर गया एवं गोदावरी के अतिरिक्त तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए।)
बहुधर्मीय
सूफी परंपरा एवं शरीफ की चर्चा हो चुकी है। इसी प्रकार मोकामा के मरियम मंदिर का भी उल्लेख हुआ है। अनंत (जैन-वैदिक), जिउतिया (बौद्ध, वैदिक) तथा उर्स (सूफी, वैदिक) को बहुधर्मीय उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
उक्त रूप से मगध की संस्कृति के विविध पक्षों पर संक्षिप्त चर्चा की गई। एक-एक विषय का विस्तार से उल्लेख यहाँ संभव नहीं है। यद्यपि पिछले सौ वर्षों में लुप्त मूल सामग्री को संकलित/प्रकाशित करने का महान प्रयास सुधी जनों द्वारा जारी है फिर भी इन विषयों पर अभी पर्याप्त प्रकाश नहीं पड़ा है।
तिब्बत, चीन वगैरह से प्रकाशित/अप्रकाशित रूप में काफी सामग्री भारत आई है। साधनामाला एवं मंजुश्रीमूलकल्प जैसे बौद्ध परंपरा के गं्रथों के साथ महानिर्वाणतंत्र, शारदातिलक, ब्रह्मरामायण, मालिनीविजय आदि ग्रंथों से भी इन पर काफी प्रकाश पड़ता है।
लोकोपयोगी विद्याओं का महत्त्व
मगध के आचार्यों, सिद्धों एवं समाज के नियामकों ने ताक्रिक चर्चा को कम महत्त्व देकर उपयोगी ज्ञान की खोज एवं विकास में मन लगाया। चाणक्य का महत्त्व जितना चन्द्रगुप्त को स्थापित करने में है उससे अधिक अर्थशास्त्र जैसे बहुआयामी ग्रंथ की रचना के कारण है।
न्याय, वेदांत, मीमांसा की जगह नीतिविद्या, आयुर्वेद, तंत्र, ज्योतिष, रसायनविद्या, भूगर्भविद्या आदि शिल्पशास्त्रों के प्रति मगध की गहरी रुचि रही। मगध से संकलित पांडुलिपियों में इन ग्रंथों की संख्या अधिक है। सिद्धों ने तो लोकजीवन में बाह्य एवं आभ्यंतरिक, दोनों प्रकार की जीवन चर्या के लिए उपयोगी साधना विधियों का गुप्त रूप से समावेश करा दिया। ब्राह्मणों ने भी बारह वर्षों तक व्याकरण पढ़ने को बेकार समझा। केवल वेदांत या न्याय की चर्चा करने वालों का भोजन चलना कठिन था अतः सारस्वत मुनि ने अनेक सुगम शास्त्रों की रचना की। सारस्वतचंद्रिका व्याकरण की पढ़ाई हाल-फिलहाल तक होती रही है।
आर्यभट्ट, वराहमिहिर, आजीवक, चाणक्य, भाव मिश्र आदि को मगधवासी अपना मानते हैं। यहाँ खगोल, तारेगना, मानसागर जैसे स्थान नाम मिलते हैं जो गणित ज्योतिष के साथ सीधा संबंध रखते हैं। आज भी मगध में वेद से अधिक ज्योतिष, आयुर्वेद एवं तंत्र के प्रति रुचि है।
चेतनापूर्ण प्रयोगधर्मी रूप
जड़ता से गति रुकती है। चेतनापूर्ण व्यक्ति या समाज जड़ नहीं होता। वह समकालीन घटनाओं से प्रभावित होता एवं उसे प्रभावित करता रहता है। भगवान बुद्ध ने कहा चेतना ही कर्म है, ‘चेतनाहं भिक्खवे कम्मंति वदामि’। महायान एवं वज्रयान में शीघ्र चेतना के उँचे शिखर पर पहुँचने की विधियां प्रचारित की गई। तंत्र ने भी इसी मार्ग को अपनाया और सिद्धों ने तो संपूर्ण रहस्य को ही प्रकट कर लोकसुलभ बना दिया। चेतना के स्तर पर होने वाला परिवर्तन एवं परिवर्तन के समर्थन का प्रभाव सामाजिक जीवन पर भी पड़ता ही है।
मगध की भी यही दशा है। वैदिक युग से लेकर आज तक नए-नए सामाजिक और व्यक्तिगत प्रयोग हो रहे हैं। सामंतवाद के विरुद्ध शांतिपूर्ण भूमिमुक्ति आंदोलनों के साथ-साथ नक्सल धाराओं के आंदोलन भी चल रहे हैं। चूँकि ये तात्कालिक हैं अतः इनकी समीक्षा आसान है।
मार्क्सवाद की अंतर्राष्ट्रीय प्रेरणा से प्रभावित नक्सलवादी समूहों ने खूनी क्रांति का मार्ग अपना रखा है। सिद्धों की तरह इन्हें भी बहुत जल्दी है। जल्दबाजी का दुष्परिणाम भी है। आज ये आपस में ही लड़ रहे हैं। यह जड़ता की धारा है जो निकट भविष्य में लोगों को सोचने पर विवश करेगी और संभव है कि किसी नए आंदोलन का आधार बनेगी।
पिछड़ी जातियों का सामाजिक न्याय का आंदोलन ढलान पर है। वह नवसामंतवाद के रोग से ग्रस्त हो गया है अतः मगध की धरती पर यदि पूर्व सामंतवाद शाश्वत नहीं है तो मलाईदार परतों वाला नव सामंतवाद भी अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।
महामसान/प्रेतप्रतिष्ठा भूमि
मगध के मुख्य धार्मिक स्थान गया क्षेत्र में तो पितरों को प्रतिष्ठा मिलती ही है। इस दृष्टि से यह महामसान, प्रेतों का श्मशान है। सारे प्रेत गया में या तो प्रेतशिला के नीचे दबे रहते हैं या दूसरी योनि में चले जाते हैं।
पूर्वोक्त विशेषताओं से अलग मगध की एक और विशेषता चर्चित रहती है। यह न केवल अनेक विचारों, आंदोलनों के लिए आंरभ भूमि है, जिसकी चर्चा प्रायः होती रहती है, अपितु कई विचारों एवं साधना परंपराओं की अंतिम यात्रा का भी यह साक्षी रहा है।
इसी तरह मगध से निकला बौद्ध धर्म कर्मकांड का विरोधी या बहुदेववाद का विरोधी था और इसे ‘सीलव्ब्तपरामास’ समझता था। वह धारा भी यहीं अंतिम साँसें गिनने लगी। गृध्रकूट पर्वत पर महायान का श्रीगणेश द्वितीय धर्मचक्रप्रवर्तन से शुरू हुआ जो वज्रयान से आगे बढ़ते हुए कालचक्रयान तक पहुँचते-पहुँचते अपनी सरलता खो बैठा। उसपर जटिल तंत्रयान हावी हो गया। शांति, करुणा एवं समाधि के केंद्र नालंदा महाविहार का अंत बख्तियार बिन खिलजी के द्वारा भयानक लूट-पाट और खून-खराबे के साथ हुआ।
अहिंसा की कर्मभूमि पर मूर्तिपूजा एवं कर्मकांड की विरोधी इस्लाम धारा ने भी भयानक रक्तपात मचाया। यह सब या तो धर्म के खोखलेपन के कारण हुआ या फिर धर्म के नाम पर सत्ता का खूनी खेल हुआ।
कंस एवं जरासंध की रिश्तेदारी के कारण कृष्ण के मगध विरोध का अंत भी यहाँ बाणासुर के घर रिश्तेदारी में हुआ। बाकी कोर कसर चैतन्य एवं जयदेव के भक्ति आंदोलन ने पूरी कर दी।
मध्य बिहार ही नहीं, पूरे भारतवर्ष में संन्यास को स्वीकार करने वालों के पास दस हजार एकड़ जमीन हो, अनागारिक होने वालांे, बिना परिवार वालों के भवन-विहार सामंतों के प्रासादों से भी बड़े होने लगंे तो इसे आप क्या कहेंगंे? यह हाल बोधगया मठ का रहा। आम आदमी की दृष्टि में मंुडित संन्यासियों एवं मंुडित बौद्धों की विलासितापूर्ण जिंदगी में कोई मौलिक अंतर नहीं है। अंतर केवल कपड़े की बनावट में है। बाकि जो अंतर है भी वह उसकी समझ के बाहर है।
विनोबा जी को भी यहाँ मठ बनाने का मन हुआ। उन्होंने समन्वय आश्रम की स्थापना की। समन्वय आश्रम के द्वारा हरिजन, भुइयाँ आदि के सेवा के अनेक कार्य होते हैं किंतु सांस्कृतिक, धार्मिक समन्वय जैसे कार्य की विशेष जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी।
सहजानंद सरस्वती का भूमिहारों को प्रतिष्ठा दिलाने वाला जातीय पुनरुत्थानवादी आंदोलन यहाँ किसान आंदोलन में परिणत हो गया और अपनी ही बिरादरी के जुल्मी जमींदारों के खिलाफ चला गया। यदुनंदन शर्मा जैसे विरोधी जाति के ब्राह्मण भी इसमें उनके सहयोगी हो गए। मगध में आर्य समाज का उदारवादी आंदोलन जातिविशेष के संघ में तब्दील हो गया। आज ‘आर्य संघ,’ ’‘आर्यक संघ’ ‘अर्जक संघ’ नाम से होते हुए यह मुख्यतः कोइरी-कुर्मी संघ होकर रह गया है।
74 के आंदोलन के बाद बोधगया मठ भूमिमुक्ति आंदोलन प्रांरभ हुआ। इस आंदोलन को सफलता भी मिली किंतु अ˜ुत बात यह है कि शांतिपूर्ण आंदोलन से बने इसके आधार क्षेत्र ने नक्सल आंदोलन के लिए प्रचुर उर्वर भूमि दी।
दक्षिण भारत में प्रांरभ हुआ रामानुजाचार्य का अछूतोद्धार अभियान भी मगध में अंतिम साँसे गिन रहा है। यहाँ रामानुजाचार्य के अनुयायियों से अधिक कट्टर दलितविरोधी ढूढँना असंभव है। अपवादों को छोड़ दें तो यह अब दलितसंहार के लिए ढाल मात्र बनकर रह गया है।
पिछड़ों, यादवों, गोपालकों के नेता, मसीहा श्री लालू प्रसाद चारा घोटाले के आरोपी हैं। इस महाश्मशान भूमि पर पता नहीं और कितने प्रेत प्रतिष्ठित होते चले जाएंगे?
आशा है विज्ञ जन मगध की संस्कृति को उसके समन्वयवादी, बहुआयामी, प्रयोगधर्मी एवं चेतन रूप में स्वीकार करने की उदारता दिखाएँगे।

5 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

शानदार पाठक जी...बधाई!

Nand Kishore ने कहा…

आपके लेख से मुझे अपने मगध क्षेत्र के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हुआ। इस लेख के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

श्रीमान क्या आप मुझे मेरे पूर्वजों के बारे में कुछ बता सकते हैं। मेरा पैतृक गांव औरंगाबाद जिले के रफीगंज ब्लाक के सईरा गांव है। मेरी जाति मगहीया तेली और गोत्र मगहीया सरगैठ है।

Unknown ने कहा…

काफी सुंदर और स्पष्ट लेखन कौशल बिल्कुल तथ्य पर आधारित हैं.
मगध/मागधी/मगही की संस्कृति को संरक्षित करने के लिए,इसी प्रकार लिखते रहिए।
इश्वर की कृपा से आप स्वस्थ और ऊर्जावान रहे।
🙏🙏🙏
हो सके तो आप हमारे संपर्क न.9838364883 पर एक छोटी SMS के द्वारा अपना संपर्क न.भेजने का कृपा करें.

Unknown ने कहा…

मेरा नाम रंजय राज हैं मै शेखपुरा जिला का रहने वाला हूँ

Dr.Shrikant Singh,Nalanda ने कहा…

Beautiful and in depth analysis.writer deserves all praise for his efforts. Further researchers could be based on it.

Dr. Shrikant Singh, Dept. of English Nava Nalanda Mahavihara,Nalanda