पुर परिचय, कुल साधना परंपरा एवं इतिहास
इस शृंखला में विभिन्न पुरों के इतिहास, वर्तमान स्थिति एवं उनकी साधना परंपरा के साथ-साथ उनकी विशिष्ट प्रवृत्तियों का यथा संभव विस्तृत विवरण उपलब्ध कराया जायेगा। यदि कोई नई सूचना मिलती है तो उसे भी सहर्ष जोड़ा जायेगा। आपके पास यदि कोई सूचना है तो मुझे इमेल करें।
यह प्रक्रिया लगातार जारी रहेगी। इसलिये इस पेज को नई जानकारी के लिये बार-बार देखना होगा।
भूमिका
मनुष्य का अपने इतिहास से लगाव होता है। उसका इतिहास उसके वर्तमान को प्रभावित करता है, जिज्ञासा के स्तर पर और सामाजिक दशा के स्तर पर। वह स्वयं अपनी पहचान करता है और दूसरे भी पहचानते हैं।
भारतवर्ष में अनेक संस्कृतियाँ विकसित हुईं और विविध रूपों में मुख्य धारा का भाग बनती गयीं। सहज सामयिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन हुए। स्वैच्छिक परिवर्तन में विस्मृति का प्रभाव पड़ा लोग अपना इतिहास भूल गये और आक्रमण, राज्य सत्ता के दबाव आदि बाह्य कारणांें से इनकी ऐतिहासिक कड़ियाँ टूट गयीं।
इतिहास काल के प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है। इस प्रवाह में जो चीजें दीर्घजीवी होती हैं, वे संस्कृति और परंपरा का रूप ग्रहण करती हैं। यह परंपरा अतीत से वर्तमान को जोड़ती एवं प्रभावित करती रहती है क्योंकि यह जीवंत होती है। इसे जाना, समझा ही नहीं जिया एवं भोगा जाता है।
आज भी भारत परिवारों एवं कुलों का देश है। हर व्यक्ति की पारिवारिक परंपरा होती है, जिसे कुल परंपरा भी कहते हैं।
मगध में रहनेवाले शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की भी अपनी कुल परंपराएँ हैं, कुल देवियाँ है, कुलदेवता हैं और उनका अपना इतिहास है। पिछले सौ दो सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति के विकास के साथ देशी ज्ञान, भाषा, संस्कृति सबकी उपेक्षा एवं अवहेलना होती रही। इसके दुष्परिणाम स्वरूप अनेक लोग जो अपनी परंपरा, संस्कृति के घटकों को पहचानना चाहते हैं वे भी लुप्त होती सूचनाओं के कारण उन्हें जान-पहचान नहीं पाते। बीच बीच में इसे व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता रहा है। कई छोटी छोटी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं।
हमारी पहचान समाज में वैदिक एवं तांत्रिक दोनों क्षेत्रों में रही है। ऐसी दशा में स्वभाविक जिज्ञासा उभरती है कि हमारी पहचान क्या है? हम वैदिक एवं तांत्रिक धारा से किस व्यवस्था के अंतर्गत जुड़ते हैं। जुड़ाव समाज व्यवस्था के अंतर्गत होना चाहिए। बिना किसी आधार या व्यवस्था के मनमानी बातों की प्रमाणिकता नहीं होती।
वैदिक परंपरा के अनुसार गोत्र, प्रवर, वेद आदि की दृष्टि से कई सूचियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनका बार बार पुनर्मुद्रण होता रहता है।
इससे भिन्न हमारी कुलपूजा परंपरा है, जिसके अंतर्गत कोई विशेष कुल अपनी कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करता है। कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा अनेक घरों में प्रायः स्त्री के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है। कुल देवी-देवता के माहात्म्य को तो लोग स्वीकार करते हैं किंतु उसकी पूजा-विधि की रक्षा पर ध्यान नहीं देते। कुछ लोगों को यह जानकर अटपटा सा लग सकता है कि अनेक (कुलों में) पुरों में कुलदेवी के रूप में भगवती शक्ति के ही किसी रूप या विग्रह की पूजा होती है भले ही हम अपने को सूर्य का वंशज मानते हों। इसके विपरीत अनेक कुलों में भगवान सूर्य के ही किसी रूप या विग्रह की पूजा होती है। अतः यह कहना ठंीक नहीं है कि इस बिरादरी ने अपने घर से, कुल-स्थान से सूर्य को हटा दिया है।
कुल-पूजा में तंत्र का प्रभाव अधिक है और यहाँ प्रायः स्त्रियों का वर्चस्व होता है लेकिन अपने अज्ञान के कारण यह मान लेना उचित नहीं है कि कुल-पूजा की विधि, शास्त्र से संबंध और बड़ी व्यवस्था की मर्यादा नहीं होती।
एक ही कुल के दो स्थानों पर बसे लोगों में से एक की जानकारी व्यवस्थित और दूसरे की टूटी फूटी हो सकती है। इसी परिस्थिति को ध्यान में रखकर विभिन्न कुलों। पुरों। मूलग्रामवाले मग (जो भोजकों से सर्वथा अलग नहीं हैं) की कुल-पूजा एवं इतिहास के संकलन तथा प्रकाशन का कार्य प्रारंभ किया है जिससे लोगों की अपनी परंपरा के ज्ञान एवं पालन में कुछ सुविधा हो सके।
पुर एवं गोत्र को ठीक से समझना जरूरी है। पुर व्यवस्था गाँव के नाम पर आधारित होती ह, जैसे- ‘उरवार शब्द’ का अर्थ है - ‘उर’ गाँव का वासी ‘उर’ वाला। मगध में ‘वार’ ‘आर’ ‘यार’ शब्द गाँव के वासी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। यह प्रयोग मागध कायस्थों (अंबष्ठ) में भी है, जैसे-नंदकुलियार अर्थात नंदकुली गाँव का वासी।
इसी प्रकार चखैयार, रूखैयार, आदि होते हैं। देवकुली गाँव के देवकुलियार ब्राह्मण एवं अम्बष्ठ कायस्थ दोनों ही अपने को देवकुलियार कहते हैं। कायस्थ तो गाँववासी शब्द की उपाधि भी लगाते हैं। शाकद्वीपी ब्राह्मण उपाधि नहीं लगाते।
मग ब्राह्मणों (जिनसे भोजक भाग बना है) का बिहार में प्राचीन वासस्थान मगध क्षेत्र है। मगध का मतलब प्राचीन मगध है अर्थात कर्मनाशा नदी से पूरब किउल से पश्चिम। विस्तार के लिये देखें इसी ब्लाग का मगध /मगही संस्कृति वाला स्वतंत्र पृष्ठ।
मगध के विभिन्न गाँवों के नाम पर पुर की परंपरा चली। कुछ शाखाएँ बाद में आई और कुछ पुरों केे नाम एवं ग्राम आज भी अनिश्चित हैं।
गोत्र संबंधी उलझन
मग गोत्र व्यवस्था को मानते हैं या नहीं इस बात को समझने के लिए जरूरी है कि गोत्र को भी ठीक से समझें। गोत्र पिता एवं गुरु दोनों की परंपरा से निश्चित होता है। ऋषियों के नाम पर चलने वाली गोत्र व्यवस्था विभिन्न वर्णों की विभिन्न जातियों में रहती है। एक ही ऋषि, जैसे कश्यप के गोत्र के लोग किसी भी जाति या कुल में हो सकते हैं। इसके साथ यह भी तय है कि गोत्र रोज-रोज न बदलते हैं, न बनते हैं। किसी खास घटना के बाद ही ऐसा होता है। पिता आधारित गोत्र कभी नहीं बदलता। पितृ प्रधान समाज में पिता के आधार पर संतान का गोत्र निर्धारित होता है। कुछेक अपवाद भी मिलते हैं।
मग अपने पिता के गोत्र का निर्धारण केवल पिता की परंपरा से करते हैं, गुरु के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिए उरवार लोगों का गोत्र हुआ भारद्वाज, उसकी शाखाओं-श्याम उरवार आदि का भी गोत्र हुआ भारद्वाज। पिता की परंपरा की जानकारी के लिए मग पुर अर्थात मूल ग्राम भर पूछेंगे। उससे स्पष्ट हो जाएगा कि सामने वाला व्यक्ति उसकी पितृ परंपरा का है या नहीं। एक होने पर विवाह नहीं होगा। आज भी भिन्न पुर वाले परंतु गाँव में रहने पर विवाह नहीं करते। इस प्रकार पिता आधारित गोत्र व्यवस्था को तो मग मानते हैं। परंतु गुरु आधारित गोत्र व्यवस्था को विवाह में निर्णायक नहीं मानते। इसीलिए गोत्र एक होने पर भी पुर भिन्न होने पर विवाह होते हैं। दरअसल गुरु गोत्र मानने का संबंध गुरुकुल एवं शिक्षा व्यवस्था से था साथ ही इसका संबंध आध्यात्मिक आरोप साधना की परंपरा से था।
आरोप- इस आधार पर मगों पर यह आरोप लगता है कि वे वैदिक गोत्र व्यवस्था को अनिवार्य नहीं मानते। उत्तर- दक्षिण भारत के ब्राह्मण तो सपिण्ड विवाह भी करते हैं। उत्तरी भारत के भी अल्पसंख्यक ब्राह्मणों में ऐसी ही परंपरा है संभवतः पंक्तिपावन ब्राह्मण जो सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करते हैं उनके यहाँ भी केवल पिता का गोत्र माना जाता है।
भगवान बुद्ध के समय क्षत्रिय अपने गोत्र में विवाह करते थे, ब्राह्मणों को इसीलिए वे हीन मानते थे क्योंकि ब्राह्मण अपने गोत्र के बाहर विवाह करते थे।
“खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं ये गोत्तपटिचारिणो।“ अंबट्ठ सुत्त, दीध निकाय
किसी भी पुर की साधना परंपरा के बारे में मतांतर संभव है। यह मतांतर कई कारणों से होता है, जैसे - मूल गाँव से दूर जाने पर वहाँ का भी प्रभाव हो जाता है, कुछ लोग दूर जाने पर भी अपनी परंपरा को याद रखने के लिए लिखित आधार रखते हैं। मैंने मूल ग्राम की चलन को प्रामाणिक माना। कोई जानकारी अधूरी रही और दूसरे गाँव के उसी पुर के लोगों ने पूरा कर दिया तो उसे भी जोड़ लिया। जहाँ केवल लोगों को संदर्भ ज्ञात है पर पद्धति एवं विवरण भूल गए हैं वहाँ शास्त्र एवं परपरानु मोदित अंश को मैं ने ग्रंथों से जोड़ दिया जैसे वरूणार्क पुर वालों की साधना विधि के मंत्र, साधना विधि उनकी है।
उरवार लोगों की पद्धति उर गाँव मे ंन मिलने पर और कालांतर में खपरियाँवा, हजारीबाग में मिलने पर स्रोत विवरण के साथ-जोड़ दिया। तारा की उपासना की पूरी विधि पूर्णाडीह के लोगों से ज्ञात नहीं हो सकी तो उनके द्वारा बताए गए ध्यान मंत्र एवं यंत्र के अनुसार उनके गुरु से पूछकर शाक्त प्रमोद ग्रंथ से पूरा कर दिया। इसी तरह से टूटे-छूटे, भूले-बिसरे अंशों को पूरा करने का प्रयास चल रहा है। पुर एवं गोत्र आम तौर पर लोगों को याद हैं क्योंकि पूजा-पाठ में गोत्र एवं विवाह तथा कुल देवी-देवता के प्रसाद खाने के समय पुर को याद करना पड़ता है। उपवेद, शाखा, सूत्र, ऋषि आदि की जानकारी पत्रिकाओं, पुस्तकों में प्रकाशित सूचियों के आधार पर हैं। प्रमुख सूचियाँ हैं - संज्ञा समिति की स्मारिका में प्रकाशित सूची, पं. समानाथ पाठक ‘नाथ’ की पुस्तक मग दर्पण में प्रकाशित सूची।
दरअसल ये सारी सूचियाँ उत्तर प्रदेश के लोगों ने अपनी याददाश्त के लिए लिखित रूप में सुरक्षित रखी थीं। बनारस, बहराइच एवं बलिया इन तीन जगहों की सूचियाँ चलन र्में आइं। संज्ञा समिति की मूल सूची का संदर्भ मुझे पता नहीं। बनारस वाली सूची की मूल प्रति मैंने मिश्रपोखरा, बनारस स्थित मिश्रा ब्लाक वर्क्स वाले मिश्र जी के पास 1980 में देखी थी। इन सभी सूचियों में दी गई जानकारियेाँ में थोड़ा अंतर है। गाँव के नाम की अशुद्धियाँ मैं ने ठीक कर दी है। अंतर आने पर सभी विकल्प छोड़ दिए हैं। कुछ गाँवों का तो पता लगाना अति कठिन हो गया है, जैसे - श्री मोरियार क्योंकि जब इस पुर के लोगों के ही मूल गाँव के वर्तमान स्थान की जानकारी नहीं है तो मुश्किल तो है ही। सूची में भी स्पष्ट वर्णन नहीं है और न ही इस नाम के किसी गाँव की जानकारी मिलती है। सिरमौरियार की कई गाँवों में आबादी है। मगों से रक्त संबंध कई पीढियों वाला एवं परंपरागत है। इनके मंदिर शिलालेख आदि सभी है। ऐसी समस्या कई पुरों के साथ है। उनका मूल ग्राम पता नहीं चलता संभवतः ये किसी पुराने पुर की शाखा हैं। इस प्रकार मेरी मजबूरी है कि जो गाँव पहचान में है मैं पहले उनके बारे में लिखूँ।
कुलदेवी-देवता की पूजा-आरधना के बारे में भ्रांति/विस्मृति से भी उलझनें आई हैं। पहले कुलदेवी-देवता की नित्य पूजा रसोई घर में ही हो जाती थी। कुल के लोगों के साथ विशेष अवसरों पर अनुष्ठान होते थे। मंत्र, यंत्र, मंडल, गीत, भोग, सगोत्र भोजन (निर्माण एवं ग्रहण) पूर्वक पूजा होती थी। इसके साथ ध्यान, कवच धारण आदि आंतरिक पक्ष की सम्मिलित थे। धीरे-धीरे बातें छूटती र्गइं और पूजा भोग चढ़ाने तक सीमित हो गई । कुछ पुरों में वीर शैव संप्रदाय का भी प्रभाव पड़ा। वे कुल देवी-देवता के साथ कुल पुरुष जैसे-नरियारी वीर तथा बन्दिनी नामक भैरवी की पूजा करते हैं। कुछ लोग देवी-देवता के साथ किसी अन्य स्त्री (दाई माता) जो साधना की संगिनी, भैरवी या आदरयोग्य उपपत्नी रहीं हो, की भी पूजा करते हैं। इन्हीें घरेलू मामलों को समाज में प्रकाशित होने के भय से लोग सच्ची बातें कहना नहीं चाहते।
इस प्रकार यदि आप कोई अंतर है तो समझें कि वह बाद का प्रभाव है। हर परिवार को यह हक है कि वह अपनी आस्था के अनुसार किसी की भी पूजा करे। जब वह अपनी कुल परंपरा को सही दूसरे को गलत, बिना आधार सिद्ध करता है तो यह व्यवहार अनुचित है। लड़कियाँ एक कुल से दूसरे कुल में जाती हैं। लाख गोपनीयता के बाद भी बातें छुपती नहीं हैं।
प्रारूप
सनातनी स्मार्त धर्म के अनुरूप परिचय
पुर- गोत्र- , वेद- उपवेद- पुराना पेशा-
ग्राम देवी भोजन: 5 पीढ़ी पहले
तांत्रिक परंपरा का परिचय (सभी ........ लोगों के लिये)
कुलदेवी - कुलदेव - वर्ग - कुलतीर्थ
साधना पद्धति - कुल का बीज मंत्र साधना क्रम- अघिकार
दायित्त्व -
प्रचलित अन्य विग्रह - पुर आधारित स्वभाव -
अवगुण-
उरवार पुर वालों की कुल साधना परंपरा एवं इतिहास
सनातनी स्मार्त धर्म के अनुरूप परिचय
पुर-उरवार, गोत्र-भारद्वाज, वेद- उपवेद- धनुर्वेद एवं आयुर्वेद
पुराना पेशा- धनुर्वेद एवं आयुर्वेद के साथ खेती सहायक पेशा पौराहित्य
ग्राम देवी प्रसिद्ध यक्षिणी अंधारी, इन्हीं के नाम पर मेरे गांव का नाम अंधारी है।
भोजन: 5 पीढ़ी पहले मांसाहारी अब शाकाहारी, रामानंदी वैष्णव धारा के प्रभाव में
तांत्रिक परंपरा का परिचय (सभी उरवार लोगों के लिये)
कुलदेवी -सिद्धेश्वरी कुलदेव -प्रचंड भैरव सिद्धनाथ वर्ग - विष्णुक्रांता वर्ग
कुलतीर्थ सिद्धनाथ पीठ, बराबर पर्वत
साधना पद्धति - सिद्धेश्वरी पटल
कुल का बीज मंत्र ‘अ’कार, साधना क्रम- संहार क्रम, अर्थात चेतना को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने की विद्या की साधना। क्षुद्र सिद्धियों एवं षट्कर्म की साधना निषिद्ध।
अघिकार तंत्र की सभी सूक्ष्म विद्याओं की साधना का अधिकार न कि किसी एक का संरक्षण या प्रयोग। दायित्त्व - बिना भेदभाव हर तांत्रिक धारा के साधकों की सेवा एवं मार्ग भ्रष्ट लोगों की मनोचिकित्सा
उरवार लोगों में प्रचलित अन्य विग्रह - नरसिंह
पुर आधारित स्वभाव - परिश्रमी, पराक्रमी
अवगुण- क्रोधी, कठोर वक्ता, कभी-कभी कंजूस, धन संचय करने पर भी ताव खाकर संपत्ति नष्ट करने वाला
उरवार
मग ब्राह्मणों की जो प्रचलित गणना हैं उसमें उरवार का नाम प्रथम लिया जाता है। मगध में नाम गणना के क्रम का कोई विषेष महत्त्व नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश में अयोध्या के पश्चिमी जिलें में लोगों ने षटकुल अर्थात ऊपर से छः, दस कुल अर्थात छः के बाद दस और अन्य। इस प्रकार का बंटवारा कर रखा है। शादी विवाह के अवसर पर दस कुलों तक के लोगों को श्रेष्ठ माना जाता है। षटकुल भी दस कुल वालों के यहाँ विवाह करना अच्छा नहीं मानते हैं। यह संकीर्णता उत्तर प्रदेश में भी अब धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। उरवार लोगों का मूल ग्राम ‘‘उर’’ है। यह गया जिले के टेकारी प्रखंड के अंतर्गत स्थित है। वर्तमान में उर गाँव जाने के लिए ‘मऊ’ बाजार से पश्चिम की ओर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। उर और अमरपुर गाँव साथ-साथ बसे हुए हैं।
जनसंख्या एवं समपन्नता की दृष्टि से इस गाँव में भूमिहार ब्राह्मणों की प्रमुखता है किंतु उरवार लोगों की दृष्टि से उनका मूलग्राम बेचिरागी हो गया है। एक अभिशाप की तरह न जाने किन कारणों से मग ब्राह्मणों में सर्वाधिक आबादी वाले उरवार लोगों के मूलग्राम में एक भी उरवार परिवार नहीं है। पास के हसनपुर गाँव में कुछ उरवार परिवार रहते हैं। हसनपुर के लोगों ने मुझे बताया था कि उनकी कुल देवी सिद्धेश्वरी की प्रतिमा उर गाँव में अभी भी विद्वमान है किंतु दुर्भाग्य से मुझे कोई ऐसी प्रतिमा नहीं मिली।
उर गाँव में वर्तमान में विन्यार्क कुल के सात-आठ परिवार रहते हैं। उनसे जानकारी मिली की सिद्धेश्वरी की प्रतिमा गाँव के उत्तरी छोर पर बधार में पीपल के पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी। जिसे ला करके अभी गाँव के पूरब में एक नये पीपल के पेड़ के नीचे मिट्टी के चबूतरे पर रख दिया गया है। वस्तुतः यह प्रतिमा एक उदीच्य शैली की सूर्य प्रतिमा का कमर के नीचे का टुटा हुआ भाग है। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि यहाँ पर कोई सूर्य मंदिर रहा होगा किंतु सिद्धेश्वरी के साथ इस भग्न प्रतिमा का मेल दिखाना कठिन है।
हसनपुर गाँव के लोग इस प्रतिमा को अपनी कुल देवी समझकर अपने गाँव ले जाना चाहते थे। किंतु उर गाँव के लोगों के विरोध के कारण हसनपुर नहीं ले जा सके। गाँव के लोगों का प्रस्ताव था कि उर गाँव में ही सिद्धेश्वरी की प्रतिमा की स्थापना कर मंदिर का निर्माण किया जाय। इस प्रकार उर गाँव में वर्तमान में उपलब्ध किसी घ्वंसावशेष से उरवारों के इतिहास के बारे में कोई बड़ी जानकारी नहीं प्राप्त होती है। गाँव के बीच में स्थित शिव मंदिर में आस-पास से इकट्ठी की हुई कई टूटी-फूटी प्रतिमाएँ हैं। इनमें विष्णु, गौरी, सूर्य तथा गणेश की पालकालीन प्रतिमाएँ हैं। उर गाँव की प्राचीनता स्पष्ट झलकती है । गढ़ पुराने मकान एवं टुटे हुए बर्तनों के टुकड़े इसकी प्राचीनता को स्पष्ट करते हैं। इस परिस्थिति में उरवार की कुल परंपरा की जानकारी के लिए मजबूरी में बाहर बसे हुए उरवार लोगों की मदद लेने पड़ी है।
सोन के पश्चिमी भाग में जो वर्तमान भोजपुर एवं रोहतास जिले का इलाका है। उरवार लोगों की संख्या बहुत अधिक है। विभिन्न गाँवों में पुरोहित के रूप में उरवार तो हैं ही पचरूखिया इनका सबसे बड़ा गाँव है। जहाँ मुख्य आबादी उरवार लोगों की है। पचरूखिया के उरवार परंपरा से शाक्त एवं मांसाहारी हैं। इस गाँव में इनके अतिरिक्त अन्य सवर्ण जातियाँ नहीं हैं। नये दौर में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद श्री राम नरेश मिश्र एवं अन्य के नेतृत्व में गाँव में शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति की है। एक संस्कृत उच्च विद्यालय छात्राओं के लिए अलग से संस्कृत उच्च विद्यालय एवं एक संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना इस गाँव में की गयी हैं जो समपन्न राजकीय एवं अंगीभूत इकाई के रूप में है।
बहुत दिनों तक उरवार लोगों की परंपरा की कोई जानकारी नहीं मिल पाती थी। क्योंकि सूदूर स्थानों पर इन्होनें अपनी उपाधि तथा कुलदेवी देवता को ही बदल लिया है। सर्वाधिक उपाधियाँ उरवार लोग धारण करते हैं जैसे मिश्र,पाठक,ओझा,उपाध्याय एवं वाजपेयी। मिश्र एवं पाठक अधिक प्रचलित उपाधियाँ हैं। हजारीबाग के पास स्थित गाँव खपरियांवा में उरवार लोगों की काफी आबादी है। ये यहाँ नरसिंह भगवान के पुजारी के रूप में हैं। संयोग से वर्तमान उर मे रहनेवाले विन्यार्क लोग भी नरसिंह को अपना कुल देवता मानते हैं। हजारीबाग के मारखम कालेज में संस्कृत के अध्यापक प्रो.रामप्रवेश मिश्र जी ने जानकारी दी की उनके यहाँ उनके पूर्वजों द्वारा प्राकशित सिद्धेश्वरी पूजा पद्धति उपलब्ध है। मैंने इसी पुस्तिका को परंपरा में चलन के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किया है।
सिद्धेश्वरी रूप भगवती का कोई अज्ञात रूप नहीं है। अतः इसकी आराधना अन्य लोगों ने भी की है। दक्षिण भारत की परंपरा के आधार पर इंटरनेट पर भी सिद्धेश्वरी पटल उपलब्ध है। विदेशियों की परंपरागत तंत्र में अभिरुचि के बाद परंपरागत ब्राह्मण जिसे गोपनीय मानते थे वे ग्रंथ आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं केवल भुगतान करना पड़ता है। कुछ तो बिना भुगतान भी उपलब्ध हैं।
इंटरनेट आधारित एक अंगरेजी संस्करण भी दे रहा हूं। शायद किसी उरवार को यह उनके कुल की परंपरा के अनुरूप लगे तो कृपया सूचित करें।
Siddheshwari Sadhana
The Sadhana that is the basis of Sadhanas of the ten Mahavidyas.
Accomplishing which one can gain the capability of successfully accomplishing the Sadhanas of ten Mahavidyas and making one’s life total and successful.
In the Tantra scriptures the ten Mahavidyas are the most important of all deities. But the highest level of Tantra experts consider Siddheshwari Sadhana as the basis of attaining success in Mahavidya Sadhanas. The ten most powerful forms of the Goddess Mother are Mahakali, Tara, Chhinamsta, Dhoomavati, Bagalamukhi, Kamala, Tripur Bhairavi, Bhuvaneshwari, Tripur Sundari and Matangi.
The Sadhana of each Mahavidya is unique and amazing. By accomplishing their Sadhanas every Sadhak can gain material comforts as well as spiritual success in life. Still each Mahavidya Sadhana has some special features and boons.
• Mahakali Sadhana can be accomplished for success in court cases, happiness in family, destroying enmities, banishing problems from state side and even serious ailments.
• Tara Sadhana is accomplished for gain of knowledge, intelligence, victory and totality in life. Also this Sadhana is done to avert untimely death, accidents, financial progress and giving a boost to the business.
• Shodashi Tripur Sundari Sadhana is done to gain courage, manliness, joy and success in Siddhis. It is a unique Sadhana for success in marriage, happiness from spouse, happy married life and gain of virility. It is amazingly effective in riddance from diseases.
• Chhinmasta Sadhana is done to remove problems created by enemies. It is also done to remove problems from business and job.
• Dhoomavati Sadhana is a very powerful and quick acting Sadhana. It is done to gain wealth, defeat the most strong enemy and for riddance from problems.
• Baglamukhi Sadhana is also called Trishakti Sadhana. It combines the powers of Mahakali, Kamala and Bhuvaneshwari. To destroy enmities, gain of respect and for success in life it is an amazing Sadhana.
• Kamala is another form of Goddess Lakshmi. She is the consort of Lord Vishnu and the basic force that runs this world. For riddance of poverty, gain of manliness, increase of wealth and for stability in life this is an amazing Sadhana.
• Tripur Bhairavi Sadhana is done to remove fear from life, develop self confidence, remove physical weakness and neutralize the evil effect of negative powers.
• For success in life Bhuvaneshwari Sadhana is very important. The Goddess bestows joy, fortune, prosperity and wealth when pleased.
• Matangi is the Goddess of eloquence and pleasures. For joy, pleasures, totality and success in family life this is the best Sadhana.
Thus we find that each of the Mahavidya Sadhanas is very important and capable of bringing success and totality in life.
In the present age of stiff competition and complexities Mahavidya Sadhanas play a vital role in bringing stability in life. But attaining success in Mahavidya Sadhanas is very difficult and time consuming activity. This is because even a small mistake in Mahavidya Sadhana can render all effort futile.
Mistakes can occur because the physical and astral body of the Sadhak are generally not in harmony. The cause can be sins of past lives. When one tries a Sadhana, a lot of time and energy is spent in overcoming the negative effect of these sins. And when success seems to be elusive the Sadhak becomes doubtful. The fact is that till these negative effects are not neutralized one cannot attain success in any Sadhana. As soon as the past sins have been neutralized the body and mind of the Sadhak become pure and he attains quick success in the Sadhana.
Success in a Mahavidya Sadhana means raising the level of one’s life and filling it with good fortune. There are very few people who are guided by the Guru into Mahavidya Sadhanas. But the secret of success in these Sadhanas is first accomplishing Siddheshwari Sadhana. It is said that Goddess Siddheshwari is the basic divine energy who has manifested in form of the ten Mahavidyas.
This is why all Tantra scriptures have given so much importance to Siddheshwari Sadhana. It is said that a person cannot be called a Siddha (master in Sadhanas) until he has accomplished Siddheshwari Sadhana.
This Sadhana can be tried on any Thursday.
Siddheshwari Sadhana procedure
Get up early in the morning and have a bath. Then pray to the Guru and offer to the rising sun water in which flowers, red sandal wood paste have been mixed. Then move seven times around the place where water has been poured and pray to the sun to transfer its radiance into your body so that you could succeed in the Siddheshwari Sadhana.
Clean the worship room and spread a white woolen cloth. On it spread a meter long white silk cloth. On its four corners draw four triangles with vermilion. In the centre too draw a triangle. In it make a mark. Divide the hair at the crown of your head into two parts. Tie the right one into a knot.
Then in a straight line draw five other triangles on the left side of cloth. On each make a mound of rice grains. Then chant the following Mantras.
Om Prithvyei Namah, Om Aadhaar Shaktyei Namah, Om Anantaay Namah, Om Koormaay Namah, Om Sheshnaagaay Namah.
Then offer flowers and vermilion on each.
Then take water in the right palm and speaking out your name pledge thus - I (name and surname) am accomplishing this Sadhana for fulfillment of this wish. May I attain to success.
Let the water flow to the ground.
Make another rice mound on a wooden seat placed on your right and on it place a copper tumbler filled with water. On its mouth place five leaves. Tie a coconut in a red cloth and place it over the mouth. Tie Mouli (red thread) around the coconut. -
Before the copper tumbler on the wooden seat make nine more rice mounds and on each place a Nakshatram representing the nine planets chanting thus.
Om Suryaay Namah, Om Chandraay Namah, Om Bhoumaay Namah, Om Buddhaay Namah, Om Brihaspataye Namah, Om Shukraay Namah, Om Shaneishcharaay Namah, Om Raahave Namah, Om Ketave Namah.
Offer vermilion and a flower on each Nakshatram. Light a ghee lamp and incense and offer sweets.
Thereafter place another wooden seat and cover it with white cloth. In its middle draw a mark, triangle, hexagon and circle with red sandal wood paste.
Over it place a Siddheshwari Yantra drawn on a copper plate. This Yantra should be consecrated and Mantra energized. It should be energized with the Mantras devised by Guru Gorakhnath. Having such a Yantra at home is a mark of great fortune. And it can prove to be a great boon even for the future generations.
Thereafter bathe the Yantra with water, milk, curd, honey, sugar and a mixture of all these called Panchamrit. Then bathe with fresh water. Wipe dry with a clean cloth. Place it back on the cloth. Then with red sandalwood paste make 16 marks on the Yantra. Offer red flowers and a sweet made from milk. Also offer cloves and cardamoms. Then pray to the Goddess Siddheshwari thus.
Udyanmaartand Kaanti Vigalit Kaaveri Krishnna Vastraavritaangeem Dandam Lingam Karaabjeir-varmath Bhuvanam Sand-dhateem Trinetraam. Naanaa Ratneir Vibhaanteem Smit Mukh Kamalosevitaam Deva-sarveih. Bhaaryaa Raagyeem Namodbhoot Sarasij-tanum Maashraye Eeshwareetvaam.
Chanting thus offer flowers on the Yantra.
Then propitiate the Goddess Siddheshwari chanting thus.
Om Ayeim Hreem Shreem Siddheshwaree Sarvajan Manohaarinnee Dusht Mukh Stambhini Sarva StreePurush Karshinni Shatru Bhaagyam Trotaya Trotaya Sarva Shatroon Bhanjaya Bhanjaya Sarva Shatroon Dalaya Dalaya, Nirdalaya Nirdalaya, Stambhaya Stambhaya, Uchchaataya Uchchaataya Sarva Jan Vasham Kuru Kuru Swaahaa Devi Siddheshwari Ihaagachh Ih Tishtth Mam Manovaanchhit Kaamanaa Siddhyartham Mam Saparivaaram Raksh Raksh Siddhim Dehi Dehi Namah.
Chant this Mantra three times and welcome the Goddess in to your house. Then offer the coconut fruit on the Yantra. Take water in the right palm and chant thus.
Om Asya Shree Siddheshwaree Kavachasya Vashishtth Rishih Siddheshwaree Devataa Sakal Kaaryaarth Siddhaye Jape Viniyogah.
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Siddheshwari Sadhana
The Sadhana that is the basis of Sadhanas of the ten Mahavidyas.
Accomplishing which one can gain the capability of successfully accomplishing the Sadhanas of ten Mahavidyas and making one’s life total and successful.
In the Tantra scriptures the ten Mahavidyas are the most important of all deities. But the highest level of Tantra experts consider Siddheshwari Sadhana as the basis of attaining success in Mahavidya Sadhanas. The ten most powerful forms of the Goddess Mother are Mahakali, Tara, Chhinamsta, Dhoomavati, Bagalamukhi, Kamala, Tripur Bhairavi, Bhuvaneshwari, Tripur Sundari and Matangi.
The Sadhana of each Mahavidya is unique and amazing. By accomplishing their Sadhanas every Sadhak can gain material comforts as well as spiritual success in life. Still each Mahavidya Sadhana has some special features and boons.
• Mahakali Sadhana can be accomplished for success in court cases, happiness in family, destroying enmities, banishing problems from state side and even serious ailments.
• Tara Sadhana is accomplished for gain of knowledge, intelligence, victory and totality in life. Also this Sadhana is done to avert untimely death, accidents, financial progress and giving a boost to the business.
• Shodashi Tripur Sundari Sadhana is done to gain courage, manliness, joy and success in Siddhis. It is a unique Sadhana for success in marriage, happiness from spouse, happy married life and gain of virility. It is amazingly effective in riddance from diseases.
• Chhinmasta Sadhana is done to remove problems created by enemies. It is also done to remove problems from business and job.
• Dhoomavati Sadhana is a very powerful and quick acting Sadhana. It is done to gain wealth, defeat the most strong enemy and for riddance from problems.
• Baglamukhi Sadhana is also called Trishakti Sadhana. It combines the powers of Mahakali, Kamala and Bhuvaneshwari. To destroy enmities, gain of respect and for success in life it is an amazing Sadhana.
• Kamala is another form of Goddess Lakshmi. She is the consort of Lord Vishnu and the basic force that runs this world. For riddance of poverty, gain of manliness, increase of wealth and for stability in life this is an amazing Sadhana.
• Tripur Bhairavi Sadhana is done to remove fear from life, develop self confidence, remove physical weakness and neutralize the evil effect of negative powers.
• For success in life Bhuvaneshwari Sadhana is very important. The Goddess bestows joy, fortune, prosperity and wealth when pleased.
• Matangi is the Goddess of eloquence and pleasures. For joy, pleasures, totality and success in family life this is the best Sadhana.
Thus we find that each of the Mahavidya Sadhanas is very important and capable of bringing success and totality in life.
In the present age of stiff competition and complexities Mahavidya Sadhanas play a vital role in bringing stability in life. But attaining success in Mahavidya Sadhanas is very difficult and time consuming activity. This is because even a small mistake in Mahavidya Sadhana can render all effort futile.
Mistakes can occur because the physical and astral body of the Sadhak are generally not in harmony. The cause can be sins of past lives. When one tries a Sadhana, a lot of time and energy is spent in overcoming the negative effect of these sins. And when success seems to be elusive the Sadhak becomes doubtful. The fact is that till these negative effects are not neutralized one cannot attain success in any Sadhana. As soon as the past sins have been neutralized the body and mind of the Sadhak become pure and he attains quick success in the Sadhana.
Success in a Mahavidya Sadhana means raising the level of one’s life and filling it with good fortune. There are very few people who are guided by the Guru into Mahavidya Sadhanas. But the secret of success in these Sadhanas is first accomplishing Siddheshwari Sadhana. It is said that Goddess Siddheshwari is the basic divine energy who has manifested in form of the ten Mahavidyas.
This is why all Tantra scriptures have given so much importance to Siddheshwari Sadhana. It is said that a person cannot be called a Siddha (master in Sadhanas) until he has accomplished Siddheshwari Sadhana.
This Sadhana can be tried on any Thursday.
Siddheshwari Sadhana procedure
Get up early in the morning and have a bath. Then pray to the Guru and offer to the rising sun water in which flowers, red sandal wood paste have been mixed. Then move seven times around the place where water has been poured and pray to the sun to transfer its radiance into your body so that you could succeed in the Siddheshwari Sadhana.
Clean the worship room and spread a white woolen cloth. On it spread a meter long white silk cloth. On its four corners draw four triangles with vermilion. In the centre too draw a triangle. In it make a mark. Divide the hair at the crown of your head into two parts. Tie the right one into a knot.
Then in a straight line draw five other triangles on the left side of cloth. On each make a mound of rice grains. Then chant the following Mantras.
Om Prithvyei Namah, Om Aadhaar Shaktyei Namah, Om Anantaay Namah, Om Koormaay Namah, Om Sheshnaagaay Namah.
Then offer flowers and vermilion on each.
Then take water in the right palm and speaking out your name pledge thus - I (name and surname) am accomplishing this Sadhana for fulfillment of this wish. May I attain to success.
Let the water flow to the ground.
Make another rice mound on a wooden seat placed on your right and on it place a copper tumbler filled with water. On its mouth place five leaves. Tie a coconut in a red cloth and place it over the mouth. Tie Mouli (red thread) around the coconut. -
Before the copper tumbler on the wooden seat make nine more rice mounds and on each place a Nakshatram representing the nine planets chanting thus.
Om Suryaay Namah, Om Chandraay Namah, Om Bhoumaay Namah, Om Buddhaay Namah, Om Brihaspataye Namah, Om Shukraay Namah, Om Shaneishcharaay Namah, Om Raahave Namah, Om Ketave Namah.
Offer vermilion and a flower on each Nakshatram. Light a ghee lamp and incense and offer sweets.
Thereafter place another wooden seat and cover it with white cloth. In its middle draw a mark, triangle, hexagon and circle with red sandal wood paste.
Over it place a Siddheshwari Yantra drawn on a copper plate. This Yantra should be consecrated and Mantra energized. It should be energized with the Mantras devised by Guru Gorakhnath. Having such a Yantra at home is a mark of great fortune. And it can prove to be a great boon even for the future generations.
Thereafter bathe the Yantra with water, milk, curd, honey, sugar and a mixture of all these called Panchamrit. Then bathe with fresh water. Wipe dry with a clean cloth. Place it back on the cloth. Then with red sandalwood paste make 16 marks on the Yantra. Offer red flowers and a sweet made from milk. Also offer cloves and cardamoms. Then pray to the Goddess Siddheshwari thus.
Udyanmaartand Kaanti Vigalit Kaaveri Krishnna Vastraavritaangeem Dandam Lingam Karaabjeir-varmath Bhuvanam Sand-dhateem Trinetraam. Naanaa Ratneir Vibhaanteem Smit Mukh Kamalosevitaam Deva-sarveih. Bhaaryaa Raagyeem Namodbhoot Sarasij-tanum Maashraye Eeshwareetvaam.
Chanting thus offer flowers on the Yantra.
Then propitiate the Goddess Siddheshwari chanting thus.
Om Ayeim Hreem Shreem Siddheshwaree Sarvajan Manohaarinnee Dusht Mukh Stambhini Sarva StreePurush Karshinni Shatru Bhaagyam Trotaya Trotaya Sarva Shatroon Bhanjaya Bhanjaya Sarva Shatroon Dalaya Dalaya, Nirdalaya Nirdalaya, Stambhaya Stambhaya, Uchchaataya Uchchaataya Sarva Jan Vasham Kuru Kuru Swaahaa Devi Siddheshwari Ihaagachh Ih Tishtth Mam Manovaanchhit Kaamanaa Siddhyartham Mam Saparivaaram Raksh Raksh Siddhim Dehi Dehi Namah.
Chant this Mantra three times and welcome the Goddess in to your house. Then offer the coconut fruit on the Yantra. Take water in the right palm and chant thus.
Om Asya Shree Siddheshwaree Kavachasya Vashishtth Rishih Siddheshwaree Devataa Sakal Kaaryaarth Siddhaye Jape Viniyogah.
Thereafter chant the Siddheshwari Kavach 21 times. After each chanting offer flowers on the Yantra along with a Siddheshwari Gutika.
Sansaar Taarinni Siddhaa Poorvasyaam Paatu Maam Sadaa, Brahmaanni Paatu Chaagneyaam Dakshinne Dakshinn Priyaa.1.
Neikrityaam Chand Mundaa Cha Paatu Maam Sarvatah Sadaa Triroopaa Saamtaa Devi. Prateechyaam Paatu Maam Sadaa.2.
Vaayavyaam Tripuraa Paatu Hyutare Rudranaayikaa, Eeshaane Padam Netraa Cha Paatu Oordhva Trilingakaa.3.
Daksh Paarshave Mahaa Maayaa Vaam Paarshave Har Priyaa Mastakam Paatu Me Devi. Sadaa Siddhaa Manoharaa.4.
Bhaalam Me Paatu Rudraanee Netre Bhuvan Sundaree, Sarvatah Paatu Me Vaakyam Sadaa Tripur Sundaree.5.
Shamshaane Bheiravee Paatu Skandhou Me Sarvatah Swayam, Ugra Paarshavou Mahaa Braahmee Hastou Rakshatu Chaambikaa.6.
Hridayam Paatu Vajraangee Nimna Naabhirnabhastale, Agatah Parameshaanee Paramaanand Vigrahaa. 7.
Prishtthatah Kumudaa Paatu Sarvatah Sarvadaa Vataat, Gopaneeyam Sadaa Devi Na Kasmeichit Prakaashayet.8.
Ya Kashchit Rinnu Yaadev Tat Kavacham Bheiravoditam Sangraame Sanjayet Shatrum Maatang Miv Kesharee.9.
Na Shastraanni Na Cha Astraanni Tad Dehe Pravishanti Vei, Shamshaane Praantare Durge Ghore Nigad Bandhane.1O.
Noukaayaam Giri Durge Cha Sankate Praann Sanshaye Mantra Tantra Bhaye Praapte Vish Vanhi Bhayeshu Cha.11.
Durgati Santraaseth Ghoraam Prayaati Kamalaapadam, Vandhyaa Vaa Kaak Vandhyaa Vaa Mrit-vatsaa Cha Yaanganaa.12.
Shrutvaa Stotram Labhet Putraam Na Sa Dhanam Chir Jeevatam Gurou Mantrou Tathaa Deve Vandane Yasya Sotamaa.13.
Dheeryasya Samataa Meti Tasya Siddhirna Sanshayah.14.
After this chant the following verses for seeking forgiveness of the Goddess for any mistakes committed in Sadhana.
Apraadh Sahastraanni Kriyante Aharnisham Bhayaa Daaso Yamitee Maam Matvaa Shamasva Parameshwari. Aavaahanam Na Jaanaami Na Jaanaami Visarjanam Poojaam Cheiv Na Jaanaami Shamasva Parameshwari. Mantra Heenam Kriyaa Heenam Bhakti Heenam Sooreshwaree Yatpoojitam Mayaa Devi Paripoornnam Tadastu Me. Agyaan Dwismrite Bhraantyaa Yanyoon-madhikam Kritam Tansarvam Shamyataam Devi Praseed Parameshwari. Siddheshwari Jaganmaatah Sachidaanand Vigrahe Grihaanaarchaayimaam Preetyei Praseed Parameshwari. Guhyaati Guhya Goptvaa Tvam Grihaanaa-smatkritam Japam Siddhirbhavatu Me Devi Tvat-prasaadaat-sureshwari.
These verse are chanted in order to neutralize the sins of one’s life. Chanting them makes the mind and body pure and then one is able to concentrate fully in Mahavidya Sadhanas. Through this Sadhana all wishes of a Sadhak’s life can be fulfilled. It is a fact that this Sadhana is very rare and effective. Accomplishing it means opening the doors of good fortune in life. After Sadhana tie all Sadhana articles in a cloth and drop the packet in a river or pond.
उरवार पुर का सिद्धेश्वरी पटल
श्री सिद्धेश्वरी-पटलः
स्वस्ति-वाचनादि कर्म करके अर्ध्य-स्थापन करें। यथा- ‘पृथिव्यै नमः, आधार-शक्तये नमः, अनन्ताय नमः, कूर्माय नमः, शेषनागाय नमः’ - इन मन्त्रों से अपने वाम-भाग में एक त्रिकोण-मण्डल बनाकर उसके मध्य मं पंचोपचारों से पृथ्वी का पूजन करंे। इसी मण्डल के ऊपर अर्ध्य-पात्र स्थापित करें। अब यथा-विधि संकल्प करें। संकल्प के अन्त में यह वाक्य जोड़ लें -
‘सर्वाभीष्ट-फलावाप्ति-कामः कलश-स्थापन, गण-पत्यादि-प´्च-देवता, सूर्यादि-नव-ग्रह- दश-दिग्पाल-देवता-पूजन-पूर्वकं श्रीसिद्धेश्वरी-पूजनमहं करिष्ये।’
तब कलश-स्थापन कर प´्च-देवताओं और नव-ग्रहादि का पूजन करें। पश्चात् विल्व-पीठ के ऊपर श्री सिद्धेश्वरी देवी के ‘पूजा-यन्त्र’ को लिखे। ‘पूजा-यन्त्र’ लिखने की विधि है कि जटामासी और रक्त-चन्दन से विल्व-काष्ठ से बने पीढ़े को लीपे। फिर रक्त-चन्दन से दाड़िम की लेखनी द्वारा उस पीढ़े के मध्य भाग में यन्त्र बनावें। यथा - 1 विन्दु, 2 त्रिकोण, 3 षट्-कोण, 4 वृत्त, 5 प्रष्ट-दल कमल और 6 वृत्त।
पीढ़े के ऊपर एक नूतन पीत वस्त्र बिछावें। कपडे़ के ऊपर शुद्ध घी से सोलह रेखायें नीचे से ऊपर की ओर खींचे। इन रेखाओं के मध्य में सिन्दूर लगावें और उनके ऊपर सोलह पान की पत्तियाँ बिछावें, सोलहों स्थानों में अक्षत और अक्षतों पर सोलह पैसे, सोलह सुपाड़ियाँ, सोलह लौंगे तथा इलाइचियां रखकर पूजन प्रारम्भ करें। पहले हाथ में फूल और अक्षत लेकर निम्न प्रकार की सिद्धेश्वरी देवी का ध्यान पढ़ें -
उद्यन्मार्तण्ड-कान्तिं विगलित-कवरीं कृष्ण-वस्त्रावृता›ं़ा, दण्डं लि›ं़. कराब्जैर्वरमथ भुवनं सन्दधतीं त्रि-नेत्राम्। नाना-रत्नैर्विभातां स्मित-मुख-कमलां सेवितां देव-सर्वै-र्माया-राज्ञीं नमोऽभूत् स-रवि-कल-तनुमाश्रये ईश्वरीं त्वाम्।।
इस प्रकार ध्यान कर हाथ में लिए फूलाक्षत को अपने सिर पर चढ़ा ले। इसके बाद ‘¬ शंखाय नमः’ इस मन्त्र से शंख-पात्र स्थापित करे। उसमें जल, अक्षत, पुष्प और सुपाड़ी (कसैली) डाले। तदनन्तर हाथ में पुष्पाक्षत लेकर भगवती का ध्यान करते हुए निम्न मन्त्र से उनका आवाहनादि करे -
¬ ऐं ह्रीं श्रीं कान्हेश्वरी सर्व-जन-मनोसारिणी, सर्व-मुख-स्तम्भिनी, सर्व-स्त्री-पुरूषाकर्षिणी वन्दी-शंखेनात्रोदय त्रोटय सर्व-शत्रूणां भंजय-भंजय द्वेषिं दलय दलय निर्दलय निर्दलय सर्व-शत्रूणां स्तम्भय स्तम्भय मोहनास्त्रेण द्वेषिं उच्चाटय उच्चाटय सर्व-वशं कुरू कुरू स्वाहा। देवि सर्व-सिद्धेश्वरि कामिनी-गणेश्वरि! इहागच्छ इह तिष्ठ ममोपकल्पितं पूजां गृहाण, मम सपरिवारं रक्ष रक्ष नमः।
हाथ में लिए पुष्पाक्षत को पीढ़े पर रख दे। तब हाथ में जह लेकर नीचे लिखा विनियोग पढ़कर जल छोड़ दे-
अस्य श्रीकुल-देवी जगतो निवासिनी श्रीसिद्धेश्वरी विजयीरितं मया राज्ञीति शक्ति स्याद् विनियोगः।
पुनः पुष्पाक्षत लेकर ध्यान करे-
विषाय संस्मरेद् वन्ंिदं रत्न-सिंहासन-स्थिताम् ।
यज्ञ-भागं गृहाण त्वं प्रष्टाभिः शक्तिभिः सह ।।
सन्तोय-पाथोद-समान-कान्तिममित-पीयूपं करि-तुण्ड-हस्ताम।
सुरासुराराधित-पाद-पह्मां भजामि देवीं भव-बन्ध-मुक्त्यै।।
आसन-(पुष्प लेकर) आसनं गृहाण चार्वा›ि. चण्डिके सर्व-म›ले, भजस्व जगतां मातः स्थानं मे देहि चण्डिके! इदं पुष्पासनं जयन्तीत्यादि ह्रीं देव्यै नमः।
स्वागत-(पुष्प लेकर) मेनानन्द-करीं देवीं सर्वेषां त्राण-कारिणीम्। जय दुर्गे नमस्तुभ्यं स्वागतं तव जायताम्। कुल-देव्याः तव स्वागतम्।
पाद्य-(जल देवे) पाद्यं गृहाण महादेवि सर्व-दुःखापहारिणि! त्रायस्व वरदे देवि! नमस्ते शंकर-प्रिये! इदं पाद्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
अर्घ्य- पुष्पाक्षत-समायुक्तं विल्वपत्रं तथा परे। शोभनं शंख-पात्रस्थं गृहाणार्घ्यं कुलेश्वरि! इदं अर्घ्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आचमन- गृहाणाचमनीयं त्वं मया भक्त्या निवेदितम्। इदं आचमनीयं ह्रीं कुल-देेव्यै नमः।
स्नान-इमं आपो मया देवि! स्नानार्थमर्पितं त्वयि। स्नानं कुरू महामाये! प्रीत्या शान्तिं प्रयच्छ मे। इदं स्नानीयं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
गात्र-मार्जन-वस्त्र-शरीर-प्रोक्षणमिदं बहु-तन्तु-विनिर्मितम, मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! इदं शरीर-प्रोक्षण-वस्त्रं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
परिधानवस्त्र- तन्तु-शतान-संयुक्तं रंजितं राग-वस्तुना, मया निवेदितं भक्त्या वासस्ते परिधार्यताम्। इदं परिधान-वस्त्रं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आभरण- दिव्य-रत्न-समायुक्तं वह्नि-भानु-सम-प्रभम्। गात्राणि तव शोभार्थं प्रलंकारैः सुरेश्वरि! इदं अलंकरणं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
गन्ध (चन्दन)- शरीरं ते न जानामि चेष्टां चैव महेश्वरि! मया निवेदितान् गन्धान् प्रति-गृह्ण विलिप्यताम्। एष गन्धः ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पुष्प- पुष्पं मनोहरं दिव्यं सुगन्धि-गन्ध-योजितम्। गृह्यमद्भुतमाघ्रेयं देवि! त्वं प्रति-गृह्यताम््््। इदं पुष्पं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पुष्पमाला- ग्रथिता विमला माला नाना पुष्प-समुद्-भवा। कण्ठे ते शोभिता नित्यं लम्बमाना सुरेश्वरि! इदं पुष्पमालां ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
सिन्दूर- सिन्दूरं गिरि-कन्येत्थं जवारागति रात्रिणम। सीमन्ते शोभतां नित्यं भक्त्या ते परमेश्वरि! इदं सिन्दूरं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
रक्तचन्दन- नाना-देश-समुद्भूतं रक्तोत्पल-सम-प्रभम। सिन्दूरारूणसंकाशं गृह्यतां रक्त-चन्दनम् ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
विल्व-पत्र- प्रमृतोद्भवं श्री-वृक्षं शंकरस्य सदा प्रियं, विल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि! एतानि विल्व-पत्राणि ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
धूप- वनस्पति-रसोत्पन्नो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः। आघ्रेयः सर्व-देवानां धूपोऽयं प्रति-गृह्यताम्। एष धूपः ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
प्रज्वलित-षोडश-दीप- अग्निर्ज्योति रविर्ज्योतिश्चन्द्र-ज्योतिस्तथैव च। ज्योतिषामुत्तमो देवि! दीपोऽयं प्रति- गृह्यताम्। एष दीपं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
नैवेद्य- ‘फट्’ मन्त्र से जल द्वारा नैवैद्य का प्रोक्षण करे, उसे धेनु-मुद्रा दिखाकर उस पर ‘ह्रीं’ बीज का जप करे। तब निवेदन करे-मिष्ठान्नं घृतसंयुक्तं शर्करादुग्धयोजितम्। मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! अन्नं चतुर्विधं स्वादुः रसैः षड्भिः समन्वितम्। मया निवेदितं भक्त्या नैवैद्यं प्रति-गृह्यताम्। एतन्नैवेद्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पेय जल- जलं सुशीतलं देवि! सुस्वादु सुमनोहरं, कर्पूर-वासितं दिव्यं पानीयं प्रतिगृह्यताम्। इदं पानार्थ-जलं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आचमनीय- मन्दाकिन्यास्तु यद्-वारि सर्व-पाप-हरं शुभम्। गृहाणाचमनीयं त्वं मया भक्त्या निवेदितम्। इदं पुनराचमनीयं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
ताम्बूल- नागवल्ली-दलैर्युक्तं कर्पूरादि-सुवासितम्। मया निवेदित भक्त्या ताम्बूलं प्रतिगृह्यतां। इदं ताम्बूलं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
फल- फल-मूलानि सर्वाणि रम्यारम्यानि यानि च। मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! एतानि फल-मूलानि ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
रक्त-चन्दन-युत विल्व-पत्र- चन्दनेन समालिप्तं कुंकुमेना-भिरंजितं विल्व-पत्रं समर्पितं, दुर्गेऽहं शरणागतम्।
पुष्पांजलि-त्रय- सेवन्तिका-वकुल-चम्पक-पाटलाब्जैः पुन्नाग-जाति-करवीर-रसाल-पुष्पैः। कुन्द-प्रवाल-तुलसी-दल-मालतीभिस्त्वां पूजयामि जगदीश्वरि! मे प्रसीद। एतानि पुष्पानि सांगोपांगायै सपरिवारायै सायुधायै सशक्तिकायै ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
प्रणाम- मंगलां शोभनां शुद्धां निष्कलां परमां कलाम्। विश्वेश्वरीं विश्व-मातां चण्डिकां प्रणमाम्यहम्। सिद्धेश्वरि! नमस्तुभ्यं वरदे सुर-सेविते, कृपया पश्य मामम्बे! शरणागत-वत्सले!
अंगपूजा- नाम-मन्त्रों से पुष्पाक्षत प्रदान करे। प्रत्येक नाम के आदि में ‘¬’ और न्त में ‘नमः’ जोड़ ले। यथा- ¬ कालिकायै नमः। सिद्धेश्वर्यै। तारायै, भगवत्यै, बगलामुख्यै, कु´्जिकायै, शीतलायै, त्रिपुण्यै, मात्रिकायै, लक्ष्म्यै, दिगीशायै।
मध्ये- ऐं ह्रीं श्रीं हिलि वन्दी-देव्यै नमः। सम्मोहिन्यै नमः। मोहिन्यै, वस्वादिषडंगेभ्यो, ब्रह्मणेभ्यो, विष्णवेभ्यो, शिवायै, उर्वश्यै, मंजुघोषायै, सहजन्यै, सुकेशिन्यै, तिलोत्तमायै, गुप्तव्यै, सिद्धकन्याभ्यो, किन्नरीभ्यो, नाग-कन्याभ्यो, ब्रह्माण्यै, वैष्णव्यै, इष्ट-शान्तये, गुणाय, क्रिया-शान्त्यै, ज्ञान-शक्तये, रजोगुणायै, तमोगुणायै।
स्नान के लिए जल देकर चन्दन, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य प्रदान करे।
अष्ट-शक्ति-पूजा- पूर्ववत् नाम-मन्त्रों से पुष्पाक्षत प्रदान करे- ह्रीङ्कार्येभ्यो नमः। खेचरीभ्यो, चण्डाख्यायै, अक्षोहिण्यै, ह्रीङ्कार्यै, क्षेमकार्य्यै, पंच-भैरवीभ्यो, सिद्धेश्वर्य्यै, तारायै, भगवत्यै, बगलामुख्यै, कुंजिकायै, शीतलायै, त्रिपुण्यै, मातृ-वृकायै, लक्ष्म्यै, दिगीशायै।
मध्ये-ऐं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि वन्दी-देव्यै नमः। ¬ संमोहिन्यै नमः। मोहिन्यै, विमोहिन्यै, वस्वादि-षडङ्गेभ्यो, ब्रह्मणेभ्यो, विष्णवेभ्यो, शिवायै, उर्वश्यै, मेनकायै, रम्भायै, घृताच्यै, मंजुघोषायै, सहजन्यै, सुकेशिन्यै, महा-भैरवीभ्यो, इन्द्राण्यै, प्रसिताङ्गायै, संहारिण्यै, छिन्नमस्तिकायै।
स्नान हेतु जल देकर चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य प्रदान करे।
नरियारी में वीर-देवता-पूजन- अग्निकोण में त्रिकोण मण्डल बनकर नरियारि वीर-देवता का पंचोपचारों से पूजन करे। पुष्पाक्षत लेकर-
¬ नरियारी-वीर-देवता सांगायै सायुधायै सशक्ति-कायै इहागच्छ, इह तिष्ठ, मत्कल्पितां पूजां गृहाण।
यह कहकर पुष्पाक्षत नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः। इदं चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं नैवेद्यं, पानार्थाचमनीयं जलं। मुख-वासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः। दक्षिणां समर्पयामि नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः।
इन मन्त्रों से क्रमशः पूजाकर नरियारी-वीर-देवता के दीपक से अखण्ड-दीप को जलाकर दोनों हाथों से झट नरियारी-वीर-देवता के दीप को बुझा दे और प्रणाम करे। तब अखण्ड-दीप को स्पर्श कर संकल्प करे -
अमुक-गोत्रोत्पन्नोऽहं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फल-प्राप्त्यर्थं समस्त-परिवारस्याभ्युदयार्थ श्रीसिद्धेश्वरी-प्रीतये अखण्ड-दीप-दानं करिष्ये।
फौंट की समस्या का ठीक से समाधान नहीं हो पा रहा है। शुद्ध पाठ के लिये इमेल करें
पंचहाय/ वरुणार्क कुल
वरुणार्क/पंचहाय पुर वालों का परिचय
मग/भोजक सूर्यवंशी होने पर भी विविध कुलों में विभक्त हैं। उनमें कुल पूजा की दृष्टि से जो सौर हैं, उनमें भी सूर्य के विविध रूपों की पूजा होती है। सूर्य के विग्रह कई प्रकार के हैं। उनमें पाँच अश्वोंवाले सूर्य की पूजा करने वाले पंचहाय हैं। इनके कुलदेवता के रूप में वरुणार्क सूर्य की पूजा होती हैं अतः पंचहाय एवं वरुणार्क दो नामोंवाले पुरों की सूचना उपलब्ध होती है, जिनका मूलग्राम एक है। निम्न तालिका से यह बात स्पष्ट हो जायेगी
वैदिक निगम दृष्टि से
1 पुर पंचहाय
2 आस्पद मिश्र, पांडेय, पाठक
3 गोत्र कंौडिन्य
4 प्रवर कंौडिन्य, अंगिरस, दैवत-3
5 वेद सामवेद
6 उपवेद गन्धर्व वेद
7 शाखा माध्यन्दिनी
8 सूत्र गोभिल
9 छन्द जगती
10 शिखा वाम
11 पाद वाम
12 देवता विष्णु
परंपरागत
1 पुर वरुणार्क
2 आस्पद मिश्र
3 गोत्र कंौडिन्य
4 प्रवर कंौडिन्य, वत्स, मित्रावरुण-3
5 वेद सामवेद
6 उपवेद गन्धर्व
7 शाखा कौथुकी
8 सूत्र गोभिल
9 छन्द जगती
10 शिखा वाम
11 पाद वाम
12 देवता विष्णु
पौराणिक/धार्मिक व्यवस्था के अनुसार कर्मनाशा से ंिकउल नदी के बीच या काशी और अंगदेश (मुंगेर भागलपुर का इलाका) के मध्य का भाना गया है। मगध के ही किसी न किसी गाँव को विविध पुर (मूलग्राम) वाले अपना मूलस्थान मानतें हैं और उस ग्राम या नगर के निवासी को अपना सगोत्र मानकर उसके यहाँ विवाह शादी नहीं करते।
पंचहाय का मूलग्राम (पुर) वर्तमान देव चन्दा (देववरुणार्क) गाँव है, जो वर्तमान भोजपुर जिले के पीरो अनुमंडल में है। अब यहाँ तक जाने की पूरी व्यवस्था है।
विशेष विवरण और इतिहास आगे निबंध रूप में वर्णित है।
वरुणार्क देवता को ध्यान में रखकर सांब पुराण को आधार मानकर शास्त्र सम्मत कुलपूजा विधि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। नयी सूचनाओं प्रस्तावों का स्वागत है।
आगम दृष्टि से सौर तंत्र परंपरा के अनुसार परिचय
1. आदित्य/अर्क - अर्क
2. आम्नाय -
3. वार्षिक पूजा की तिथि -
4. पुराण , उपपुराण या अन्य परंपरानुमोदित ग्रंथ, जिसके
आधार पर पूजाविधियाँ प्रचलित हैं। - सांब पुराण
5. मूलविग्रह एवं भित्तिचित्र - वरुणार्क- मानवाकृति एवं
पंचाश्वरथ पर आरूढ़
6. कुलगीत ,देशी बोली में - यथाप्रचलित
7. मंत्र - ¬ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो.........
8. मंडल - महामंडल- वारुण्यमंडल
9. यंत्र - अज्ञात
10 कुलपूजा का अधिकार एवं उत्तराधिकार - अज्ञात
11. कोई अन्य महत्त्वपूर्ण सूचना , यदि हो तो-
मूलस्थान में अपने घर का दरवाजा एक ही ओर खुलनेवाला बनाते हैं। शिलालेख के अनुसार भोजक।
वरुणार्क की पूजा विधि
सांब पुराण के अनुसार वरुणार्क की पूजा विधि एवं अन्य सूचनाएँ निम्न हैं। -
वरुणार्क की व्युत्पत्ति , निष्पत्ति और परिभाषा-
वरान्विवृण्वतोदेवान्वरदोहिवरार्थिनाम्।।
धातुर्वृ´्वरणेप्रोक्तस्तेनासौवरुणः स्मृतः।।
साम्ब पुराण, अध्याय ......
बारह आदित्य एवं उनके नाम निम्न हैं -
ततः स चसहस्रांशुरव्यक्तः पुरुषः स्वयम्।।
कृत्वाद्वादशधात्मानमदित्यामुदपद्यत।।5।।
इंद्रोधाताथपर्जन्यः पूषात्वष्टाऽर्यमाभगः।।
विवस्वान्विष्णुरंशुश्चचवरुणोमित्रएवच।।6।।
आभिर्द्वादशभिस्तेनसूर्येणपरमात्मना।।
सर्वं जगदिदंव्याप्तमूर्तिभिस्तुनराधिप।।7।।
तस्य या प्रथमा मूर्तिरादित्यस्येन्द्रसंज्ञिता।।
स्थितासादेवराजत्वेदेवानामनुशासनी।।8।।
द्वितीयार्कस्य या मूर्तिर्नाम्नाधातेतिकीर्तिता।।
स्थिताप्रजापतित्वेसाविविधाः सृजते प्रजाः।।9।।
तृतोयार्कस्ययामूर्तिः पर्जन्यइतिविश्रुता।।
मेघे व्यवस्थिता सा तु वर्षते च गभस्तिभिः।।10।।
चतुर्थी तस्य या मूर्तिर्नाम्ना पूषेति विश्रुता।।
अन्ने व्यवस्थिता सा तु प्रजाः पुष्णाति नित्यशः।।11।।
पंचमी तस्य या मूर्तिर्नाम्नात्वष्टेति विश्रुता।।
स्थिता वनस्पतौ सा तु ओषधीषु च सर्वशः।।12।।
मूर्तिः षष्ठी रवेर्या तु अर्यमा इति विश्रुता।।
वायोः संचरणार्था सा देहेष्वेव समाश्रिता।।13।।
भानोर्या सप्तमी मूर्तिर्नाम्ना भग इति श्रुता।।
भूमौ व्यवस्थिता सा तु शरीरेषु च देहिनाम्।।14।।
मूर्तिर्याचाष्टमीवास्य विवस्वानितिविश्रुता।।
अग्नौव्यवस्थितासा तुपचत्यन्नंशरीरिणाम्।।15।।
नवमी मित्रभानोर्यामूर्तिविष्णुश्चनामतः।।
प्रादुर्भवतिसानित्यंदेवानामरिसूदनी।।16।।
दशमीतस्यया मूर्तिरंशुमानितिविश्रुता।।
वायौप्रतिष्ठितासातुप्रह्लादयतिवै प्रजाः।।17।।
मूर्तिस्त्वेकादशीयातुभानोर्वरुणसंज्ञिता।।
साजीवयतिवैकृत्स्नं जगदप्सुप्रतिष्ठितम््।।18।।
अपांस्थानंसमुद्रस्तुवरुणोप्सुप्रतिष्ठितः।।
तस्माद्वैप्रोच्यतेनाम्नासागरोवरुणालयः।।19।।
मूर्तिर्याद्वादशी भानोर्नामतोमित्रसंज्ञिता।।
लोकानां सा हितार्थाय स्थिता चंद्रसरित्तटे।।20।।
वायुभक्षस्तपस्तेपेस्थितोमैत्रेणचक्षुषा।।21।।
अनुगृह्णन्सदाभक्तान्वरैर्नानाविधैस्तुसः।।
एवमाद्यमिदंस्नानं पश्चात्सांबेन निर्मितम्।।22।।
तत्रमित्रस्थितोयस्मात्तस्मान्मित्रवनंस्मृतम्।।
एवं द्वादशभिस्तेन सवित्रा परमात्मना।।23।।
एवंद्वादशादित्यंजगज्ज्ञात्वातुमानवः।।
नित्यंश्रुत्वा पठित्वा च सूर्य लोके महीयते।।24।।
इति श्रीसाम्बपुराणे द्वादशमूर्त्युपाख्यानंनाम चतुर्थोऽध्यायः।।4।। साम्ब पुराण, अध्याय -4
अन्यत्र भी इसी प्रकार कहा गया है-
।।नारदउवाच।।
अथादित्यस्यनामानि सामान्यानीहद्वादश।।
द्वादशापिपृथक्त्वेन तानि वक्ष्याम्यशेषतः।।1।।
आदित्यः सवितासूर्यो मिहिरोर्कः प्रभाकरः।।
मार्तंडोभास्करोभानुश्चित्रभानुर्दिवाकरः।।2।।
रविर्द्वादशकश्चैव ज्ञेयः सामान्यनामभिः।।
विष्णुर्द्धाताभगः पूषामित्रेन्द्रौवरुणोयमः।।3।।
विवस्वानंशुमांस्त्वष्टापर्जन्योद्वादशः स्मृतः।।
इत्येतेद्वादशादित्याः पृथक्त्वेनप्रकीर्तिताः।।4।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
बारह आदित्यों का वर्गीकरण कर तदनुसार बारह मासों के साथ उन्हें जोड़ा गया है-
उतिष्ठन्ति सदाह्येतेमासैर्द्वादशभिः क्रमात्।।
विष्णुस्तपति चैत्रेतुवैशाखेचार्यमातथा।।5।।
विवस्वा´्ज्येष्ठमासेतुआषाढेचांशुमान्स्मृतः।।
पर्जन्यः श्रावणेमासेवरुणः प्रौष्ठसंज्ञके।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
चंद्रमा की सोलह कलाएँ मानी गयी हैं और उसी अनुसार बारह आदित्यों के द्वारा सोलह कलाओं का पान करना भी माना गया है। वरुणार्क पंचमी कला का पान करते हैं। अतः वरुणार्क के लिये पंचमी तिथि का विशेष महत्त्व है।
कलाः षोडससोमस्यशुक्लेेवर्द्धयते रविः।।
अमृतानामतः कृष्णे पीयंते दैवतैः क्रमात्।।12।।
प्रथमांपिबतेवह्निर्द्वितीयांतुरविः कलाम्।।
विश्वेदेवास्तृतीयांतु चतुर्थीं तु प्रजापतिः।।13।।
पंचमीं वरुणश्चापि षष्टीं पिबति वासवः।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
दिन के तीन मुख्य भागों के साथ वरुणार्क का संबंध निम्न रूप में स्पष्ट किया गया है कि किस समय किसकी पूजा करनी चाहिये।
त्रिकालंतु रवेः पूजा कर्त्तव्यासूर्यदर्शनात्।।
अर्धोदिते ख मथ्यस्थे भानोर्वास्तंगते तथा।।19।।
मिहिराय च पूर्वाहृेमध्याहृे ज्वलनायच।।
अर्धोद्यन्मंडलेदेयानीचाह्नेवरुणायच।।20।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
वरुणार्क के लिए अपराह्न में अर्घ्यदान करना चाहिए। वैसे भी गंधर्ववेद के अभ्यासी लोेगों के लिए यह सुविधाजनक ही हैं।
पूजा के मंत्र जैसे आवाहन आदि के मंत्र प्रचलित मंत्र ही हैं।
एहिसूर्यसहस्रांशोतेजोराशेजगत्पते।।
अनुकंपयमांभक्त्या गृहाणार्घं दिवाकर।।24।
अनेनावाहनंकृत्वा जानुभ्यां संस्थितः क्षितौ।।
रवेर्निवेदयेदर्घ्यमादित्यहृदयंजपेत्।।25।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
इस प्रकार आदित्यहृदय को परंपरागत स्तोत्र माना जा सकता है।
वरुण के विशिष्ट मंत्र निम्न हैं।
ऊँ नमोवरुणाय, ऊँ आकृष्णेनरजसावर्त्तमानोनिवेशयन्नमृतंमर्त्यंच।।
हिरण्मयेन सविता रथेनादेवो याति भुवनानि पश्यन्।।35।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
भारतीय परंपरा में किसी भी देवता की पूजा के लिए और विशेष कर दीक्षा प्राप्त करने के लिए मंडल का बहुत महत्त्व है। सर्वतोभद्र आदि अनेक मंडल बनते हैं। सूर्य के मंडल का नाम महामंडल है। इस महामंडल के साथ ही वरुण का अपना मंडल भी होता है, जिसका विस्तृत वर्णन साम्ब पुराण के 39 अध्याय में है। यहाँ विस्तार के भय से वर्णन नहीं किया जा रहा है।
सांबं प्रति महाबाहो यदुक्त्तंभास्करेणतु।।
तन्महामंडलंनामतत्त्वं मंत्रविभूषितम्।।6।।
यथाव्यवस्थितात्स्थानाद्भूमिं निष्क्रम्य शोधयेत्।।
याम्यंमाहेन्द्रंवारुण्यंकौबेरंचयथा ....................
साम्ब पुराण, अध्याय......
जो लोग इस सामान्य सूचना के अतिरिक्त अपनी परंपरा एवं पूजा विधि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना चाहते है उन्हें साम्ब पुराण संपूर्ण एवं भविष्य पुराण के भविष्योत्तर खंड तथा ब्राह्मपर्व का अध्ययन करना चाहिए। साम्ब पुराण में मोक्ष रूपी श्रेय तीन पुरुषार्थ रूपी प्रिय और अनिष्ट निवारण के लिए अभिचार आदि षट्कर्मो की भी प्रणाली बतायी गयी है। और उसके भले बुरे परिणामों से भी सावधान किया गया है।
सावधान
कुछ लोगों ने सौर पूजा के वर्चस्व से चिढ़ कर उन्हें नीचा दिखाने के लिए अनेक प्रकार के उपाय किये है और मनमानी टिप्पणियाँ की हैं। उनके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। सौर पुराण नाम से एक उपपुराण प्राप्त होता है। देखने में तो लगता है कि सूर्य या उनके उपासक लोगों का यह पुराण होगा लेकिन वस्तुतः यह एक शैव पुराण है, जिसमें सूर्य का शिव में अंतरभाव करके काशी विश्वनाथ के एक मात्र माहात्म्य को स्थापित किया गया है। ऐसी पुस्तकों से कोई सूचना तो नहीं ही मिलती है उल्टे अनेक भ्रम विकसित होते हैं।
अपनी परंपरा के लिए प्रचलित पारंपरिक श्रद्धा भविष्यपुराण एवं सांबपुराण के प्रति ही है। पहले सांब पुराण भी दुर्लभ हो गया था किंतु अब यह हिन्दी अनुवाद के साथ चौखंबा प्रकाशन, वाराणसी से उपलब्ध है।
देव वरुणार्कः भोजपुर का एक प्राचीन तीर्थ पंचहाय एवं वरुणार्क पुरवालों का मूलस्थान
देव वरुणार्क भोजपुर का एक प्राचीन ऐतिहासिक पुण्यतीर्थ है, जो काल के थपेड़ों से परवर्ती कालों में धूमिल एवं विस्मृत सा होता गया। आध्यात्मिक दृष्टि से तो इसका महत्त्व अन्य विख्यात सूर्यमन्दिरों के समान है ही, ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक दृष्टि से भी इसका अपना विशेष स्थान है। यह इतिहास की अनेेक कड़ियों को जोड़ता है। देव वरुणार्क के ध्वस्त सूर्यमन्दिर के निकट ही गुप्तकालीन एक स्तम्भलेख मिला है, जिसमेें गुप्त-नरेशों की आनुवंशीय परम्परा के साथ साथ भगवदादित्य की अर्चना-परम्परा का उल्लेेख है। पौराणिक दृष्टि से यह स्थल सूर्यवंशी शासन का करूषक्षेत्र, चन्द्रवंशी-परम्परा का मल्लक्षेत्र एवं काशिराज तथा मगधाधिपतियों का भी क्षेत्र रहा है। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार, देव वरुणार्क एवं पार्श्ववर्त्ती अन्य मन्दिरों का निर्माण राजा वरूण तथा उनके चतुर्भुज एवं कर्णजित् नाम के भाइयों ने कराया था, जो कि ‘चेरो’ राजा थे।
भारतीय संस्कृृृति में भगवान् सूर्य की आराधना की परम्परा वैदिक काल से आज तक अनवरत रूप से चली आ रही है। ऋग्वेद के सविता और मित्र जैसी प्राकृतिक शक्तियों के रूप में प्रतिष्ठित आराध्यदेव पौराणिक काल में सूर्य-प्रतिमा का विधिवत् रूप धारण कर लेते हैं।
योऽ सावात्मा ज्ञानशक्तिरेक एव सनातनः ।
स द्वितीयं यदा चैच्छत् तदा तेजः समुत्थितम् ।।
लीनीभूतस्य तस्याशु तेजोऽभूच्छरीरकम् ।
पृथ्क्त्वेन रविः सोऽथ कीर्त्त्यते वेदवाादिभिः ।।
(वराहपुराण, 26/2-5)
पौराणिक युग में सूर्य-प्रतिमा केवल देवालयों तक ही सीमित रही गुहस्थों के लिए शास्त्रों में आदित्य की अर्चना हेतु प्रत्यक्ष मूर्त्ति का ही निर्देश है। फिर भी, तान्त्रिक प्रभाव के कारण परवर्त्ती युग में ताम्रपत्र आदि पर सूूर्यचक्र के अंकन की परम्परा विकसित हुई।1
सूर्य -सम्बन्धी देवालयों के निर्माण में भारतीय संस्कृति के स्वर्णयुग-गुप्तकाल का सर्वश्रेष्ठ काल है। प्रस्तुत ‘देव वरुणार्क’ मन्दिर भी इतिहासविदों के मत से न्यूनतम मगध के उत्तरकालीन गुप्तवंश से चतुर्थ शती पूर्व का है।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, उक्त स्थान पर भगवान् वरूणार्क का मन्दिर (ध्वस्त रूप में) उपलब्ध है। उक्त देव ‘वरुणार्क स्थल बिहार-प्रान्तीय भोजपुर जिले के वर्त्तमान देव (चन्दा) ग्राम में स्थित है। इसकी दूरी हावड़ा-दिल्ली मेन लाइन के स्टेशन आरा से 26 मील दक्षिण है। यहाँ आरा-सासाराम रोड के ‘पीरो’ मोड़ से पूरब की ओर मुड़कर बस द्वारा कुरमुरी आना पड़ता है, जहाँ से इसकी अवस्थिति दो मील-दक्षिण है।
भगवान् सूर्य के पावन-स्थल होने के साथ ही साथ यह स्थान ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक दृष्टि से भी समानरूपेण महत्त्व रखता है मन्दिर के ध्वंसावशेष के निकट ही गुप्तकालीन एक स्तम्भलेख उपलब्ध है जिसमें गुप्तनरेशों की आनुवंशिक परम्परा के साथ-साथ भगवदादित्य की पूजार्चन-परम्परा का भी समानान्तर उल्लेख है।
पौराणिक दृष्टिकोण से यह सूर्यवंशी शासन का ‘करूषक्षेत्र’, चन्द्रवंशीय परम्परा का ‘मल्लक्षेत्र’ एवं काशिराज तथा मगध के अधिपतियों का भी क्षेत्र रहा है। यहाँ के स्तम्भलेखों पर उत्कीर्ण मौखरि-नरेशों केे नाम उनके आधिपत्य और मन्दिर के प्रति संरक्षण-भावना के सूचक हैं। 1 यहाँ की जनश्रुतियों के अनुसार, ‘वरुणार्क्र’ एवं पार्श्ववर्ती अन्य मन्दिरों का निमार्ण राजा ‘वरुण’ तथा उनके अन्य दो भाई ‘वरुणार्क एवं कर्णजित्’ ने कराया, जो चेरों के राजा थे। 2 शिक्षित समाज भी इसे ‘जीवितगुप्त’ (द्वितीय) एवं ‘अवन्तिवर्मन्’ के स्तम्भलेखो के आधार पर दैवी रचना न सही पर न्यूनतम उत्तर गुप्तकालीन तो अवश्य मानता है।
वर्तमान स्थिति:
उक्त मन्दिर का ध्वंसावशेष एक आयताकार (उत्तर -दक्षिण 106’ पूर्व-पश्चिम 140’ ) उँचे टीले पर अवस्थित है। प्र्रधान मन्दिर जिसका निमार्ण (जीणोद्धार)भी अभी पूर्ण नहीं हुआ है, टीले की दक्षिणी सीमा से 25’ की दूरी एवं पश्चिमी छोर से 65’ की दूरी पर अवस्थित है, जो ऊपर की ओर धटता चला गया है। ऊँचाई करीब 50’ है जिसपर अभी कलश भी स्थापित नहीं हो पाया है। मन्दिर का द्वार पूरब की ओर है, जिसमें लकड़ी का छड़दार एक ही ओर मुड़ने वाला किवाड़ है। द्वार का चौखट पत्थर एर्वं इंट का बना हुआ है। गर्भगृह की पश्चिमी दीवार से सटे हुए पाँच चबूतरे बने हुए है , जिनपर पाँच मूर्त्तियाँ रखी हुई हैं। इनमें भी बीच का चबूतरा पार्श्ववर्ती चबूतरांे से दुगना उँचा है। मन्दिर बाहर से तो चतुष्कोणात्मक रूप में सिकुड़ता है, पर भीतरी बनावट आधुनिक सामान्य संरचनाओं जैसी है।
इस नवीन मन्दिर से सटेे पूरब की ओर एक ऊँचा वेदिकाकार पूरब-पश्चिम की ओर 30’ लम्बा भाग है, जो सभा-भवन का ध्वस्त अवशेष है। इस वेदिका के दक्षिणी छोर पर औसत 21’ ऊँची ध्वस्त भित्ति भी है, जिसके सहारे कई प्राचीन मूर्त्तियाँ पड़ी हुई हैं।
नवीन मन्दिर के समानान्तर टीले के उत्तरी छोर पर प्राचीन मन्दिर का ध्वस्त अवशेष खड़ा है। मन्दिर प्रवेशद्वार सहित पूरब से अर्द्ध्र-ध्वस्त है। इसकी ऊपरवाली मंजिल की दीवार थोड़ी-सी बची है। पश्चिम की दीवार आधी से अधिक ऊँचाई तक खड़ी है, केवल वज्रलेप छूट गया है। उ़त्तर और दक्षिण की ओर से भी आधे से अधिक ही अंश वर्त्तमान है। मन्दिर तीन प्रकार की ईटों एवं प्रस्तर-खण्डों से बना है। ईटें प्रधान रूप से दो प्रकार की हैं (क) आयताकार फलक की आकृतिवाली एवं (ख) अर्द्धवृत्ताकार। ‘क’ आकृति की कुछ ईटों को ही काटकर आवश्यकतानुसार उन्हें त्रिकोणात्मक या अन्य आकृतियाँ दी गई हैं। मन्दिर करीब 401 ऊँचा है, जिसकी पश्चिमी भुजा पूर्णरूपेण 201 है। मन्दिर आधी ऊँचाई (करीब पहली मंजिल) तक तीन ओर से 11 कोणों का बना है, जिनमें 5कोण आधी ऊँचाई तक ही समाप्त हो जाते हैं। मन्दिर के भीतर किंचित् मध्यम आकार का और कई लघुं आकार के हैं ये सर्भी इंटों के बने हैं।
सबसे विशाल मन्दिर बाहर से 42’ वर्गाकार है, जिसके अन्दर 7’, 1’’ वर्गाकृति का एक कक्ष है, जिसमें पूर्वाभिमुख 4’, 3’’ चौड़े वृत्ताकार ईटों से बने क्रमशः एक दूसरे से छोटे एवं परस्पर उभरे हुए करीब 23 वृत्त हैं। ये वृत्त चतुष्कोणों पर दो भित्तियों के ऊपर तिरछे रखे हुए 4 शिलाखण्डों पर टिके हुए हैं, जिनकी लम्बाई 31-311, चौड़ाई 11-111 एवं मोटाई 91 है। इन वृत्तों से बने अर्द्धवृत्त एवं प्रधानर्भिित्त के बीच गारे के साथ ईंट के टुकड़े भरे हुुए हैं। ग्रामीणों के कथनानुसार, मन्दिर एवं सभा-भवन सन् 1934 ई0 के भूकम्प में धराशायी हुए।
फर्श के उत्तरी-पूर्वी छोर पर 597 वर्गफीट का एक कक्ष नहर-विभाग के किसी पदाधिकारी द्वारा संग्रहालय हेतु बनवाया गया है, जिसमें बनी पीठिकाओं को तोड़कर ग्रामीणों ने इसे एक बड़े कक्ष का रूप दे रखा है। इसी पदाधिकारी ने मन्दिर के ध्वस्त प्रांगण एवं सभा-भवन आदि स्थानों से उखड़वाकर पंक्तिबद्ध रूप में भवन के सम्मुख छह और पीछे दो स्तम्भों को गड़वा दिया है यह कार्य और भी आगे बढ़ता , किन्तु दुर्भाग्यवश उक्त पदाधिकारी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण मूर्त्तियों को संग्रहालय मेें नहीं रखवाया जा सका।
फर्श के दक्षिण-पूर्वी कोण पर शिव का एक पक्का मन्दिर है और उसके समीप ही दक्षिण में ईट का बना एक खपड़ैल कमरा है, जिसमें विभिन्न स्थानों से मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। लोग इसे ‘काली मन्दिर’ कहते हैं। इसी खपडै़ल कमरे से पूर्व 321 की दूरी पर एक ग्रामीण (विद्यार्थी साव) के ठीक दरवाजे पर एक एकाश्मीय स्तम्भ है, जिसपर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। इन्हें किसी ने नवग्रह (केतु को छोड़कर), तो किसी ने लोकपाल आदि माना है।
इन प्रत्यक्ष उपलब्धियों के अतिरिक्त कई अन्य विषय एवं सामग्री प्रचलित मान्यताओं एवं विश्वासों के कारण अज्ञात बनी हुई हैं। इस फर्श के नीचे एक तहखाना और एक सुरंग भी है, जिसकी जानकारी कतिपय ग्रामीण ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को नहीं है। परम्परागत विश्वासों के कारण अनिष्ट की आशंका से कोई भी उनकी गोपनीयता भंग नहीं करना चाहता। यद्यपि नवीन मन्दिर के निर्माण के समय हुई खुदाई में लोेेगों को एक सुरंग का पता चल गया है। यहाँ का वास्तविक विग्रह एवं अन्य सामग्री इसी तहखाने में छिपाई गई है। कार्तिक शुक्ल-षष्ठी एवं चैत्र शुक्ल-षष्ठी के सूर्यव्रत (जो बिहार में अत्यन्त लोकप्रिय है) के अवसर पर मन्दिर के संरक्षक ब्राह्मण-परिवार में, अशौच के नहीं होने पर, आधी रात में पूरी निगरानी के साथ पर्दा डालकर मूर्ति को निकाला जाता है। तत्पश्चात् विधिवत् पूजार्चा के बाद सर्वसाधारण के लिए उसका दर्शन सुलभ हो पाता है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, तहखाने मेें छिपाई गई (पालकालीन) मृर्त्ति काले पत्थर की बनी करीब 51-61 ऊँची एवं 31 चौड़ी है। मूर्त्ति के वस्त्रोपवेष्टित रहने के कारण प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण के आधार पर यह कहना कठिन है कि इसके अधिष्ठातृदेव कौन है। जनसामान्य इसे ‘बनारख बाबा’ के नाम से जानता है।
एलेक्जेण्डर कनिंघम ने सन् 1828 ई0 के आसपास इस स्थल का निरीक्षण किया था तथा उसका विवरण प्रकाशित कराया था। उस समय उक्त स्थल वर्त्तमान काल की अपेक्षा कुछ अच्छी स्थिति में था। उसके अनुसार देव वरुणार्क के प्रधान अवशेष गाँव के पश्चिम में एक ऊँचे आयताकार फर्श पर एक दूसरे से सटे हुए अवस्थित हैं। फर्श का माप 1361×1071 है। सीढ़ी के बहुत ही समीप दक्षिण-पूर्वी कोण पर एक अत्यन्त रुचिर एकाश्मीय स्तम्भ है और उत्तरी-पूर्वी छोर पर स्थित एकाश्मीय स्तम्भ के समीप ही एक छोटा-सा गुम्बद एवं अन्य मन्दिर के ध्वंसावशेष है। इन दोनों स्तम्भों के बीच से ठीक प्रधान मन्दिर के प्रवेशद्वार के सम्मुख पूर्व की ओर गाँव से होकर एक सीधा रास्ता सुन्दर पोखरे तक जाता है।
बुकानन ने उक्त चित्रित एकाश्मीय स्तम्भ ;डवदवसपजीद्ध को ज्ीम उवेज बनतपवने तमउंपदेश् की संज्ञा दी है। वस्तुतः यह स्तम्भ अपने काल की दृष्टि से अत्यन्त रुचिर एवं महत्त्वपूर्ण है, जबकि इन्द्र, यम, वरूण, कुबेर जैसे देवों की आराधना होती थी। यह स्तम्भ अपने स्तम्भ-शीर्ष के साथ 8’-9’’ ऊँचा एवं आधारस्थान पर 15’’ मोटा है। बहुत से गुप्तकालीन फलकों की तरह इस वर्गाकार फलक का भी निम्नार्द्ध 4’’ चौड़ा और 20’’ ऊँचा अलंकृत है। मेरे विचार से, ये शिव, पार्वती, भैरव और गणेश की प्रतिमाएँ हैं। ऊपरी चौकोर वर्गाकार छोर के चारों ओर इन्द्र, वरुण, कुबेर एवं यम, इन चतुर्दिक्पालों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। फलक के अष्टकोणात्मक भाग पर केतु को छोड़कर शेष 8 ग्रहों की प्रतिमाएँ हैं। इस सम्बन्ध में बुकानन की कल्पना है कि इस फलक की रचना उस समय हुई होगी, जब केतु का (तारे के रूप मेें ) पता नहीं हुआ होगा: क्योंकि यह कहना उचित नहीं है कि जो शिल्पी अष्टकोणों पर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण कर सकता है, वह क्या नवकोणों का निर्माण नहीं कर सकता था ? ये प्रतिमाएं पूर्व से दक्षिण की ओर क्रमशः इस प्रकार हैं: सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्र, बुध एव वृहस्पति। इस सम्बध में कनिंघम को संशय था, चूँकि इन प्रतिमाओं में राहु को छोड़कर, जिसका कि कबन्ध-मात्र शेष है, केवल कुछ ग्राह्म वस्तुओं एवं कुछ हस्तमुद्राओं का ही अन्तर है, अतः सम्भव है कि प्रतिमाएँ अष्टदिक्पालों की हों। उनके अनुसार, पूर्व से दक्षिण की ओर ये प्रतिमाएँ इस प्रकार होनी चाहिए: इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरूण, वायु, कुबेर एवं शिव।
यहाँ प्रधान रूप से दो विशाल मन्दिर है, इनके अतिरिक्त एक प्रवेशद्वार के सामने 25’21) माप का, आधार के लिए प्रयुक्त 4 स्तम्भों से युक्त एक विस्तृत कक्ष है। यह कक्ष मन्दिर की दीवार से जुड़ा न होने एवं अन्य कई कारणों से परवर्त्ती योग प्रतीत होता है। इन्हीं चार स्तम्भों में एक पर 19 पंक्तियों में ‘आदित्यसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘जीवितगुप्त’ (द्वितीय) का लेख अंकित है।
बाहर से मन्दिर की दीवार की संरचना बीच से उभरते हुए कई छोटे-छोटे कोणों वाली है। भीतरी तौर पर चतुष्कोणों पर पत्थर रखकर वर्गाकृति को अष्टकोणात्मक, पुनः उसे दुहराकर षोडशकोणात्मक एवं पुनः इसी पूरी प्रक्रिया को दुहराकर, अन्तिम रिक्ति चक्रांकित शिलापट्ट द्वारा पूरी की गई है।
इसकी ऊपरी मंजिल की छत पुरानी हिन्दू-शैली के अनुरूप ही चार कोणों से उठते हुए मेहराबों के आकार में बनी हुई थी इसका अधिकांश तो ध्वस्त ही है, पर ध्वंसावशेष की कुछ झुकी हुई ईटें छत के नतोदर भाग को स्पष्ट करती हैं। मन्दिर के अन्दर यद्यपि चतुर्भुज विष्णु की मूर्त्ति है, तथापि जैसा कि स्तम्भलेख में लिखा है, इस मन्दिर के प्रधानदेव वरूणासी ग्राम के भट्टार्क (सूर्य) हैं।
सम्मुखवर्त्ती कक्ष में मूर्त्तियाँ दीवार के किनारे टिकाई गई हैं और कुछ मूर्त्तियों को ब्राह्मणों ने तहखाने में गाड़ रखा है, जिसे कृपाकर मेरी (अर्थात् कनिंधम) जाँच के लिए इन्होंने खोल दिया। श्याम-शैल से बनी प्रधान मूर्त्तियाँ इस प्रकार हैं: गणेश 2, हरगौरी
दूसरा मन्दिर बाहर से 20’ वर्गाकृति का है, जिसके अन्दर 8’, 1’’ भुजावाला कक्ष है। बाहर से दीवारों की संरचना प्रथम मन्दिर के अनुसार है। भीतर से चतुष्कोणों पर शिलाफलक रखकर उन्हें अष्टाकोणात्मक बनाया गया है। जिसके ऊपर एक दूसरे ढेँ़कनेवाली ईटों के 26 वृत्त है, जों क्रमशः संकुचित हैं। शेष छोटी-सी रिक्ति एक शिलाफलक के द्वारा बन्द कर दी गई है। आकार में यह बहुत हद तक नीचे से ऊपर की ओर सिकुड़ते हुए अर्द्धवृत्त की तरह है, जिसकी ऊँचाई एवं अर्द्धव्यास 4’ है। ऊपरी कक्ष (दूसरी मंजिल) पूर्व से पूरी तरह ध्वस्त है, पर पश्चिमी दीवार के आधार पर निश्चित है कि कमरा 9’, 3’’ चौड़ा है।
मन्दिर का प्रवेशद्वार ठीक पूर्व की ओर है, जिससे होकर उदीयमान सूर्य की किरण विग्रह पर पड़ती है। प्रधान विग्रह की वास्तविक पीठिका काले पत्थर की बनी 3’8’’ लम्बी एवं 2’ ऊँची है, जिसमें सूर्य के सप्ताश्व उत्कीर्ण हैं। इस पीठिका के ऊपर ईंट की बनी एक छोटी सी पीठिका है, जिस पर 2’ ऊँची मूर्त्ति स्थापित है। बुकानन के समय में इस मूर्त्ति को ‘कुमारी’ के नाम से जाना जाता था, पर यह स्पष्टतः मुकुटपुष्प-युक्त पुरुषाकृति है।
तीसरा मन्दिर बाहर से 8’- 6’’ वर्गाकृतिवाला है एवं भीतर से 3’-10’’ भुजावाला है। इसके अन्दर दो हाथोंवाली एक नारी-मूर्त्ति प्रतिष्ठित है, जिसे अबतक पहचाना नहीं जा सका है।
मन्दिर के दक्षिणी-पूूर्वीं छोर पर बिना छत का एक कमरा है, जिसके बीच में अज्ञातनाम लिंग है। चारों ओर दीवारों के सहारे आसपास के विभिन्न स्थानों से कई मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। उदाहरणार्थ विष्णु, हरगौरी, दुर्गा, कंकाली, पुरूषासीन, घोड़े पर सवार राजा नीचे वादकों के साथ (ऊपरी भाग ध्वस्त) आदि। सभा-भवन से दक्षिण-पूर्व एक गोल गुम्बदाकार छतवाला शिवमन्दिर है। इसी प्रकार भारतीय खपड़ैल-शैली के बने दो कक्ष और भी हैं।
इस सम्पूर्ण टीले की ईटों से बनी एक चारदीवारी है, जिसका प्रवेश प्रधान मन्दिर के सामने ठीक पूर्व की ओर है। पहले विस्तृत सीढ़ियांॅ भी थीं, जो आज सामान्य रूप में हैं। कनिंघम के पूर्वाेक्त विवरण तथा अन्य दूसरे स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन से निम्नांकित तथ्यों की जानकारी मिलती है -
सभा-भवन के स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार, ‘ आदित्यदसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘सवितृगुप्त’ (जीवितगुप्त द्वितीय) के द्वारा ‘वरुण-वासी भट्टार्क’ (सूर्य) के मन्दिर को कुछ दान दिया गया था, यदि कनिंघम का पठन हर्ष सं0 152 सही है, तो इस (लेख) का काल पूर्व से पूरी तरह ध्वस्त है, पर पश्चिमी दीवार के आधार पर निश्चित है कि कमरा 9’, 3’’ चौड़ा है।
मन्दिर का प्रवेशद्वार ठीक पूर्व की ओर है, जिससे होकर उदीयमान सूर्य की किरण विग्रह पर पड़ती है। प्रधान विग्रह की वास्तविक पीठिका काले पत्थर की बनी 3’8’’ लम्बी एवं 2’ ऊँची है, जिसमें सूर्य के सप्ताश्व उत्कीर्ण हैं। इस पीठिका के ऊपर ईंट की बनी एक छोटी सी पीठिका है, जिस पर 2’ ऊँची मूर्त्ति स्थापित है। बुकानन के समय में इस मूर्त्ति को ‘कुमारी’ के नाम से जाना जाता था, पर यह स्पष्टतः मुकुटपुष्प-युक्त पुरुषाकृति है।
तीसरा मन्दिर बाहर से 8’- 6’’ वर्गाकृतिवाला है एवं भीतर से 3’-10’’ भुजावाला है। इसके अन्दर दो हाथोंवाली एक नारी-मूर्त्ति प्रतिष्ठित है, जिसे अबतक पहचाना नहीं जा सका है।
मन्दिर के दक्षिणी-पूूर्वीं छोर पर बिना छत का एक कमरा है, जिसके बीच में अज्ञातनाम लिंग है। चारों ओर दीवारों के सहारे आसपास के विभिन्न स्थानों से कई मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। उदाहरणार्थ विष्णु, हरगौरी, दुर्गा, कंकाली, पुरूषासीन, घोड़े पर सवार राजा नीचे वादकों के साथ (ऊपरी भाग ध्वस्त) आदि। सभा-भवन से दक्षिण-पूर्व एक गोल गुम्बदाकार छतवाला शिवमन्दिर है। इसी प्रकार भारतीय खपड़ैल-शैली के बने दो कक्ष और भी हैं।
इस सम्पूर्ण टीले की ईटों से बनी एक चारदीवारी है, जिसका प्रवेश प्रधान मन्दिर के सामने ठीक पूर्व की ओर है। पहले विस्तृत सीढ़ियांॅ भी थीं, जो आज सामान्य रूप में हैं। कनिंघम के पूर्वाेक्त विवरण तथा अन्य दूसरे स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन से निम्नांकित तथ्यों की जानकारी मिलती है -
सभा-भवन के स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार, ‘ आदित्यदसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘सवितृगुप्त’ (जीवितगुप्त द्वितीय) के द्वारा ‘वरुण-वासी भट्टार्क’ (सूर्य) के मन्दिर को कुछ दान दिया गया था, यदि कनिंघम का पठन हर्ष सं0 152 सही है, तो इस (लेख) का काल 606$152 758 ई0 -सन् होगा और इसके आधार पर ही राजा ‘वरूण’ तथा उनके दो भाइयों -चतुर्भुज और ‘कर्णजित्’ द्वारा मन्दिर की स्थापना में थोड़ा भी सत्यांश मान लिया जाय, तो मन्दिर उक्त तिथि से कम से कम 3-4 शती पूर्वकालीन होेगा।
ध्वस्त मन्दिर एवं कनिंघम के वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट है कि मन्दिर की शैली-प्रधानरूपेण उत्तरभारतीय है, जिसमें उड़ीसा की शैली से कई अर्थो में समानता है। जैसे: मन्दिर का एक से अधिक मंजिलोंवाला होना, बाहर की ओर दीवारों के उभरे हुए कोण, ‘कोणार्क’ मन्दिर की तरह प्रधान मन्दिर के आगेे एक लम्बा कक्ष आदि।
मन्दिर की बाहरी संरचना न केवल ‘कोणार्कं’ अपितु भुवनेश्वर के ‘लिंगराज’ और ‘अनन्तदेव’ के मन्दिर से भी कुछ साम्य रखती है। इसी तरह ‘लक्ष्मण-मन्दिर’ के पार्श्ववर्त्ती मन्दिरों से भी इसकी समानता है। इतना ही नहीं, खजुराहो इत्यादि सभी प्राचीन मन्दिरों की संरचना ही समकालीन न होने पर भी परस्पर साम्य रखती है। ध्यातव्य है कि ‘कोणार्क’ में भी एकाश्मीय स्तम्भ पर नवग्रह-प्रतिमाओं का अंकन है।
‘देव वरुणार्क’ प्रधान रूप से सूर्य का स्थल है, फिर भी समन्वयात्मक संस्कृति का उसपर ऐसा प्रभाव है कि विभिन्न राजाओं ने वहाँ अन्य मन्दिरों का भी निमार्ण कराकर अनेक विग्रहों की स्थापना की। इसका प्रमाण स्तम्भ-लेखों मेें उत्कीर्ण राजाओं के विशेषण हैं जैसे
‘परम भागवत श्रीआदित्यसेनदेवः’।
‘परम माहेश्वर परम भट्टारक श्रीदेवगुप्त’।
‘परम भट्टारक .....श्रीविष्णुगुप्तदेवः’।
मन्दिर के विषय में तबतक निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, जबतक कि तहखाने में पड़ी मूर्त्तियों का पता नहीं चल जाता। दुर्भाग्य है कि षष्ठीव्रत के समय भी एकाध बार जब वास्तविक विग्रह को बाहर निकाला गया, किसी ने चित्र नहीं खींचा, न ही गवेषणात्मक दृष्टि से देखा। दुर्भाग्यवश, इतने महत्त्वपूर्ण पक्ष का वर्णन कनिंघम ने भी पर्याप्त रूप से नहीं किया है। ‘जीवितगुप्त’ एवं ‘अवन्तिवर्मन्’ के स्तम्भलेखों के अतिरिक्त कुछ परवर्त्ती काल के भी नागरी में लिखे स्तम्भलेख हैं, जिनके गवेषणात्मक अध्ययन से भी इस परम्परा का पता चल सकता है वैसे प्राचीन मन्दिरों में अनेक तहखाने पाये जाते है एवं मूत्तियों को तहखाने में रखने की परम्परा भी है, जैसे पुरी के मन्दिर की मूर्त्तियाँ। विदेशियों के आक्रमणों एवं मूर्त्तिभंजकों से सुरक्षा हेतु ही इस प्रकार की व्यवस्था की गई होगी। इन आधारों पर तथा इस क्षेत्र में अवस्थित जैन एवं बौद्धधर्म के कतिपय प्रधान केन्द्रों के आधार पर स्थानीय विद्वान् यह भी अनुमान करते हैं कि ईसवी की प्रथम शती या उससे पूर्व स्थित इस स्थल पर जैन एवं बौद्ध मूर्त्तियाँ भी रही होंगी, जिन्हें सम्भवतः पौराणिक काल में छिपाकर तहखाने में रख दिया होगा। इनकी खोज अभी शेष है। वारूणी (सूर्य की ) मूर्त्ति की पूजा का विधान आधी रात में होने एवं तहखाने पर पड़नेवाली सूर्य आदि नवग्रहों की छाया, किरण आदि के विषय में ज्याोतिर्विदोें द्वारा गम्भीर अध्ययन अपेक्षित है।
मेरे दृष्टिकोण से तहखाने में छिपाने का कारण मूर्त्तिभंजकों के भय के अतिरिक्त यदि कुछ अन्य कारण होते, तो इनका उल्लेख भी कहीं न कहीं, कठोर धार्मिक अन्धपरम्परा के अतिरिक्त अवश्य मिलता। कुछ विद्वान् इसे वास्तविक मन्दिर न मानकर वास्तविक मन्दिर को पोखरे (जलाशय) के समीप अवस्थ्ािित मानते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि पोखरे के वास्तविक क्षेत्रफल (जो स्पष्ट है) को ध्यान में रखा जाय, तो यह मन्दिर भी पोखरे से बहुत दूर नहीं है।
भोजक ब्राह्मणों के आधिपत्य में रहने के कारण बी0 पी0 श्रीवास्तव जैसे विद्वान् उसमें यूनानी प्रभाव की छाया देखते हैं। इनके अनुसार, इन ब्राह्मणों की आराध्य प्रतिमाओं एवं भारतीय परम्परा की प्रतिमाओं में भेद है। यूनानियों की तरह सूर्य के प्रतीक के रूप में चक्र या आभावृत्त को मान्यता नहीं देने के बाद भी ये परवर्त्ती यूनानी सूर्य की मानवाकृति को तो स्वीकार करते है, पर इन्हें कभी सप्ताश्वरथारूढ वरुण आदि के साथ नहीं प्रस्तुत करते।1 फिर भी, निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि सूर्य-मन्दिर के पर्यवेक्षक के रूप में इस पौराणिक मान्यता के साथ -
सर्वमायतनार्थ तु गृहक्षेत्रादिकं च यत्।
यन्मदीयं भवेत्कि´्चित्ग्रामे वा नगरे क्वचित्।।
तस्य सर्वस्य राजेन्द्र मदीयस्य समन्ततः।
अधिपाः भोजकाः सर्वे नान्ये विप्रादयो नृप।।
(भविष्यपुराण, अ0 11735-36)
एकाधिकार रहने पर भी, देशकाल के प्रभाव से ही सही, अन्य सम्प्रदायों एवं शैलियां के प्रति यहाँ के पर्यवेक्षक असहिष्णु नहीं रहे मन्दिर, स्तम्भ आदि के अवशेष एवं गाँव में गढ़ के अवशेष इत्यादि के अतिरिक्त गाँव से दो फर्लांग की दूरी पर बहनेवाली ‘बनास’ नदी भी कम महत्व नहीं रखती है।
इन स्पष्ट या अर्द्धस्पष्ट परम्पराओं के अतिरिक्त कुछ ही समय पहले वर्त्तमान ऊँचे फर्श से पूर्व (कुआँ बनाने के लिए) हुई खुदाई में करीब 30’ की गहराई पर प्रस्तरयुक्त भूमि मिली; इस आधार पर यह अनुमान अनुचित नहीं कि इस स्थल पर कम से कम दो संस्कृतियाँ अवश्य दबी पड़ी हैं।
सूर्य-प्रतिमा का शास्त्रीय विवेचन:
यद्यपि यहाँ का वास्तविक विग्रह तहखाने में छिपाया हुआ है, तथापि अन्य ध्वस्त या अर्द्धध्वस्त प्रतिमाओं का विवेचन भारतीय शिल्पशास्त्र के अनुसार निम्नांकित रूप में है:-
यहाँ प्रधानरूपेण सूर्य की छह स्पष्ट प्रतिमाएँ हैं, जो कृष्णशैल काला ग्रेनाइट पत्थर), श्यामशैल (नीला ग्रेनाइट पत्थर) एवं सैकतशैल (बालू पत्थर) की बनी है। तीन मूर्तियों की संरचना तो ‘विष्णुधर्मोत्तर ’ या ‘मत्स्यपुराण’ के अनुकूल है, जिनमें एक तो मेरे विचार से गुप्तकालीन है, और दूसरी मूर्त्ति उससे भी प्राचीन है।
यहाँ उपनब्ध प्रतिमाओं का मूर्ति-शास्त्रीय निरूपण आगे किया गया है। मत्स्यपुराण के अनुसार:-
रथस्थं कारयेद्देवं पद्महस्तं सुलोचनम्।
सप्ताश्व´्चैव चक्र´्च रथं तस्य प्रकल्पयेत्।।
मुकुटेन विचित्रेण पद्मगर्भसमप्रभम् ।
नानाभरणभूषाभ्यां भुजाभ्यां धृतपुष्करम्।।
स्कन्धस्थे पुष्करे ते तु लीलयेव धृते सदा।
चोलकाच्छन्न्वपुषं क्वचिच्चित्रेषुु दर्शयेत् ।।
वस्त्रयुग्मसमोपेतं चरणौ तेजसावृतौ।। (मत्स्य0 पु0, 260।-4)
इन दो मूर्त्तियों के अतिरिक्त सभी मूर्त्तियाँ, जो बालू-पत्थर की बनी हैं, ‘बृहत्संहिता’ के वर्णन के अनुसार हैं, जिनमें दण्ड तथा पिंगल के साथ होते हुए भी सारथी अरूण के साथ सप्ताश्वरथ का अभाव है
‘बृहत्संहिता’ मे बताया गया है:-
कुर्यादुदीच्यवेषं गूढं पादादुरो यावत्।
विभ्राणः स्वकररुहे बाहुभ्यां पंकजे मुकुटधारी।।
कुण्डलभूषितवदनः प्रलम्बहारो वियद्गवृत्तः।
कमलोदरद्युतिमुखः क´्चुकगुतः स्मितप्रसन्नमुखः।।
रत्नोज्ज्वलप्रभामण्डलश्च कर्तुः शुभकरोऽर्कः।। बृहत्संहिता, 57।46-48
इन दोनो मूत्तियों के अतिरिक्त, एक मूर्ति में म्यान-संहित तलवार भी घुटने तक लटकती हुई चित्रित की गई है। पूर्वविवरणानुसार, सूर्य-मन्दिर में एक सप्ताश्वरथयुक्त विशाल पीठिका भी थी। इसी प्रकार, अन्य शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थ भी दोनों प्रकार की मूर्त्तियों का विधान करते हैंं। जैसे:-
अपराजितपृच्छा के अनुसार:-
‘सप्ताश्वरथ आदित्यः ................।’
एवं रूपमण्डन के अनुसार ः
‘सप्ताश्वरथ आदित्यः ................।’
दूसरी ओर रूपमण्डन का ही विधान है कि:
सर्वलक्षणसंयुक्तं सर्वाभरणभूषितम्।
द्विभुज´्चैकवक्त्रं च श्वेतपंकजधृत्करम् ।।
केवल उदीच्यवेष का ही अन्तर है, अर्थात् जूता और चोलक (कोट) का विधान उसमें नहीं है।
सूर्य-मन्दिर के पूर्व जो एक छोटा-सा मन्दिर है, जिसकी नारी-प्रतिमा का नााम कनिंघम एव बुकानन दोनों ही नहीं बता सके साम्बपुराण की स्थान-विधि, अ0 29 के अनुसार, मेरी दृष्टि से उसे महाश्वेता का ही मन्दिर होना चाहिए। साम्बपुराण में बताया गया है कि: पिंगलो दक्षिणे भानोर्वामतोदण्डनायकः।
श्रीमहाश्वेतयोस्थानं पुरस्तादंशुमालिनः।। (29-17)
अतः निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि ‘देव वरुणार्क’ एक अतिप्राचीन ऐतिहासिक तीर्थस्थान है, जो विभिन्न युगों की उथल-पुथल, ह्रास-विकास एवं विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों से प्रभावित होता रहा है। आज भी यह न केवल ऐेतिहासिक या पुरातात्त्विक अनुसन्धान की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है, अपितु दक्षिणबिहार के तीन देवों - देव (उमगा), देव, (मार्कण्डेय), देव (वरुणार्क) - में भी प्रधानता रखता है। यहाँ गुप्तकालीन प्रतिमाएँ यदि भावाभिव्यंजन की असीम-प्रतिभा से मन्त्रमुग्ध कर देती है, तो काले पत्थर पर उत्कीर्ण कला की अलंकृत-प्रधान पालकालीन प्रतिमाएँ अपनी सूक्ष्मता से बरबस ध्यान आकृष्ट कर लेती हैं। एक ही देवता की विभिन्न शिलाओं पर विभिन्न शैलियों में बनी प्रतिमाएँ स्पष्ट करती हैं कि इस क्षेत्र में यह मन्दिर अति प्राचीन काल से विभिन्न युगों का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है। इतना अवश्य है कि आवागमन की सुविधा सेे रहित(जहाँ अब सुविधा हो गयी है) निरे देहाती क्षेत्र में होने के कारण इसका आजतक न तो पर्याप्त गवेषणात्मक अध्ययन ही हो पाया है और न पुरातत्त्व विभाग की ओर से इसकी सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था ही हो सकी है।
यहनिबंध 1978 में लिख गया है। उसके बाद कुछ परिवत््रन भी हुए हैं।
हाल ही में प्राप्त सूचना के अनुसार अब बनारख बाबा की प्रतिमा को गांव के अन्य विजातीय लोगों ने जमीन के अंदर से बाहर निकाल दिया है। चूंकि मैं इघर इस गांव में नहीं गया अतः प्रतिमा के बारे में जानकारी देखने के बाद दूंगा।
इस शृंखला में विभिन्न पुरों के इतिहास, वर्तमान स्थिति एवं उनकी साधना परंपरा के साथ-साथ उनकी विशिष्ट प्रवृत्तियों का यथा संभव विस्तृत विवरण उपलब्ध कराया जायेगा। यदि कोई नई सूचना मिलती है तो उसे भी सहर्ष जोड़ा जायेगा। आपके पास यदि कोई सूचना है तो मुझे इमेल करें।
यह प्रक्रिया लगातार जारी रहेगी। इसलिये इस पेज को नई जानकारी के लिये बार-बार देखना होगा।
भूमिका
मनुष्य का अपने इतिहास से लगाव होता है। उसका इतिहास उसके वर्तमान को प्रभावित करता है, जिज्ञासा के स्तर पर और सामाजिक दशा के स्तर पर। वह स्वयं अपनी पहचान करता है और दूसरे भी पहचानते हैं।
भारतवर्ष में अनेक संस्कृतियाँ विकसित हुईं और विविध रूपों में मुख्य धारा का भाग बनती गयीं। सहज सामयिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन हुए। स्वैच्छिक परिवर्तन में विस्मृति का प्रभाव पड़ा लोग अपना इतिहास भूल गये और आक्रमण, राज्य सत्ता के दबाव आदि बाह्य कारणांें से इनकी ऐतिहासिक कड़ियाँ टूट गयीं।
इतिहास काल के प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है। इस प्रवाह में जो चीजें दीर्घजीवी होती हैं, वे संस्कृति और परंपरा का रूप ग्रहण करती हैं। यह परंपरा अतीत से वर्तमान को जोड़ती एवं प्रभावित करती रहती है क्योंकि यह जीवंत होती है। इसे जाना, समझा ही नहीं जिया एवं भोगा जाता है।
आज भी भारत परिवारों एवं कुलों का देश है। हर व्यक्ति की पारिवारिक परंपरा होती है, जिसे कुल परंपरा भी कहते हैं।
मगध में रहनेवाले शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की भी अपनी कुल परंपराएँ हैं, कुल देवियाँ है, कुलदेवता हैं और उनका अपना इतिहास है। पिछले सौ दो सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति के विकास के साथ देशी ज्ञान, भाषा, संस्कृति सबकी उपेक्षा एवं अवहेलना होती रही। इसके दुष्परिणाम स्वरूप अनेक लोग जो अपनी परंपरा, संस्कृति के घटकों को पहचानना चाहते हैं वे भी लुप्त होती सूचनाओं के कारण उन्हें जान-पहचान नहीं पाते। बीच बीच में इसे व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता रहा है। कई छोटी छोटी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं।
हमारी पहचान समाज में वैदिक एवं तांत्रिक दोनों क्षेत्रों में रही है। ऐसी दशा में स्वभाविक जिज्ञासा उभरती है कि हमारी पहचान क्या है? हम वैदिक एवं तांत्रिक धारा से किस व्यवस्था के अंतर्गत जुड़ते हैं। जुड़ाव समाज व्यवस्था के अंतर्गत होना चाहिए। बिना किसी आधार या व्यवस्था के मनमानी बातों की प्रमाणिकता नहीं होती।
वैदिक परंपरा के अनुसार गोत्र, प्रवर, वेद आदि की दृष्टि से कई सूचियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनका बार बार पुनर्मुद्रण होता रहता है।
इससे भिन्न हमारी कुलपूजा परंपरा है, जिसके अंतर्गत कोई विशेष कुल अपनी कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करता है। कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा अनेक घरों में प्रायः स्त्री के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है। कुल देवी-देवता के माहात्म्य को तो लोग स्वीकार करते हैं किंतु उसकी पूजा-विधि की रक्षा पर ध्यान नहीं देते। कुछ लोगों को यह जानकर अटपटा सा लग सकता है कि अनेक (कुलों में) पुरों में कुलदेवी के रूप में भगवती शक्ति के ही किसी रूप या विग्रह की पूजा होती है भले ही हम अपने को सूर्य का वंशज मानते हों। इसके विपरीत अनेक कुलों में भगवान सूर्य के ही किसी रूप या विग्रह की पूजा होती है। अतः यह कहना ठंीक नहीं है कि इस बिरादरी ने अपने घर से, कुल-स्थान से सूर्य को हटा दिया है।
कुल-पूजा में तंत्र का प्रभाव अधिक है और यहाँ प्रायः स्त्रियों का वर्चस्व होता है लेकिन अपने अज्ञान के कारण यह मान लेना उचित नहीं है कि कुल-पूजा की विधि, शास्त्र से संबंध और बड़ी व्यवस्था की मर्यादा नहीं होती।
एक ही कुल के दो स्थानों पर बसे लोगों में से एक की जानकारी व्यवस्थित और दूसरे की टूटी फूटी हो सकती है। इसी परिस्थिति को ध्यान में रखकर विभिन्न कुलों। पुरों। मूलग्रामवाले मग (जो भोजकों से सर्वथा अलग नहीं हैं) की कुल-पूजा एवं इतिहास के संकलन तथा प्रकाशन का कार्य प्रारंभ किया है जिससे लोगों की अपनी परंपरा के ज्ञान एवं पालन में कुछ सुविधा हो सके।
पुर एवं गोत्र
पुर एवं गोत्र को ठीक से समझना जरूरी है। पुर व्यवस्था गाँव के नाम पर आधारित होती ह, जैसे- ‘उरवार शब्द’ का अर्थ है - ‘उर’ गाँव का वासी ‘उर’ वाला। मगध में ‘वार’ ‘आर’ ‘यार’ शब्द गाँव के वासी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। यह प्रयोग मागध कायस्थों (अंबष्ठ) में भी है, जैसे-नंदकुलियार अर्थात नंदकुली गाँव का वासी।
इसी प्रकार चखैयार, रूखैयार, आदि होते हैं। देवकुली गाँव के देवकुलियार ब्राह्मण एवं अम्बष्ठ कायस्थ दोनों ही अपने को देवकुलियार कहते हैं। कायस्थ तो गाँववासी शब्द की उपाधि भी लगाते हैं। शाकद्वीपी ब्राह्मण उपाधि नहीं लगाते।
मग ब्राह्मणों (जिनसे भोजक भाग बना है) का बिहार में प्राचीन वासस्थान मगध क्षेत्र है। मगध का मतलब प्राचीन मगध है अर्थात कर्मनाशा नदी से पूरब किउल से पश्चिम। विस्तार के लिये देखें इसी ब्लाग का मगध /मगही संस्कृति वाला स्वतंत्र पृष्ठ।
मगध के विभिन्न गाँवों के नाम पर पुर की परंपरा चली। कुछ शाखाएँ बाद में आई और कुछ पुरों केे नाम एवं ग्राम आज भी अनिश्चित हैं।
गोत्र संबंधी उलझन
मग गोत्र व्यवस्था को मानते हैं या नहीं इस बात को समझने के लिए जरूरी है कि गोत्र को भी ठीक से समझें। गोत्र पिता एवं गुरु दोनों की परंपरा से निश्चित होता है। ऋषियों के नाम पर चलने वाली गोत्र व्यवस्था विभिन्न वर्णों की विभिन्न जातियों में रहती है। एक ही ऋषि, जैसे कश्यप के गोत्र के लोग किसी भी जाति या कुल में हो सकते हैं। इसके साथ यह भी तय है कि गोत्र रोज-रोज न बदलते हैं, न बनते हैं। किसी खास घटना के बाद ही ऐसा होता है। पिता आधारित गोत्र कभी नहीं बदलता। पितृ प्रधान समाज में पिता के आधार पर संतान का गोत्र निर्धारित होता है। कुछेक अपवाद भी मिलते हैं।
मग अपने पिता के गोत्र का निर्धारण केवल पिता की परंपरा से करते हैं, गुरु के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिए उरवार लोगों का गोत्र हुआ भारद्वाज, उसकी शाखाओं-श्याम उरवार आदि का भी गोत्र हुआ भारद्वाज। पिता की परंपरा की जानकारी के लिए मग पुर अर्थात मूल ग्राम भर पूछेंगे। उससे स्पष्ट हो जाएगा कि सामने वाला व्यक्ति उसकी पितृ परंपरा का है या नहीं। एक होने पर विवाह नहीं होगा। आज भी भिन्न पुर वाले परंतु गाँव में रहने पर विवाह नहीं करते। इस प्रकार पिता आधारित गोत्र व्यवस्था को तो मग मानते हैं। परंतु गुरु आधारित गोत्र व्यवस्था को विवाह में निर्णायक नहीं मानते। इसीलिए गोत्र एक होने पर भी पुर भिन्न होने पर विवाह होते हैं। दरअसल गुरु गोत्र मानने का संबंध गुरुकुल एवं शिक्षा व्यवस्था से था साथ ही इसका संबंध आध्यात्मिक आरोप साधना की परंपरा से था।
आरोप- इस आधार पर मगों पर यह आरोप लगता है कि वे वैदिक गोत्र व्यवस्था को अनिवार्य नहीं मानते। उत्तर- दक्षिण भारत के ब्राह्मण तो सपिण्ड विवाह भी करते हैं। उत्तरी भारत के भी अल्पसंख्यक ब्राह्मणों में ऐसी ही परंपरा है संभवतः पंक्तिपावन ब्राह्मण जो सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करते हैं उनके यहाँ भी केवल पिता का गोत्र माना जाता है।
भगवान बुद्ध के समय क्षत्रिय अपने गोत्र में विवाह करते थे, ब्राह्मणों को इसीलिए वे हीन मानते थे क्योंकि ब्राह्मण अपने गोत्र के बाहर विवाह करते थे।
“खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं ये गोत्तपटिचारिणो।“ अंबट्ठ सुत्त, दीध निकाय
किसी भी पुर की साधना परंपरा के बारे में मतांतर संभव है। यह मतांतर कई कारणों से होता है, जैसे - मूल गाँव से दूर जाने पर वहाँ का भी प्रभाव हो जाता है, कुछ लोग दूर जाने पर भी अपनी परंपरा को याद रखने के लिए लिखित आधार रखते हैं। मैंने मूल ग्राम की चलन को प्रामाणिक माना। कोई जानकारी अधूरी रही और दूसरे गाँव के उसी पुर के लोगों ने पूरा कर दिया तो उसे भी जोड़ लिया। जहाँ केवल लोगों को संदर्भ ज्ञात है पर पद्धति एवं विवरण भूल गए हैं वहाँ शास्त्र एवं परपरानु मोदित अंश को मैं ने ग्रंथों से जोड़ दिया जैसे वरूणार्क पुर वालों की साधना विधि के मंत्र, साधना विधि उनकी है।
उरवार लोगों की पद्धति उर गाँव मे ंन मिलने पर और कालांतर में खपरियाँवा, हजारीबाग में मिलने पर स्रोत विवरण के साथ-जोड़ दिया। तारा की उपासना की पूरी विधि पूर्णाडीह के लोगों से ज्ञात नहीं हो सकी तो उनके द्वारा बताए गए ध्यान मंत्र एवं यंत्र के अनुसार उनके गुरु से पूछकर शाक्त प्रमोद ग्रंथ से पूरा कर दिया। इसी तरह से टूटे-छूटे, भूले-बिसरे अंशों को पूरा करने का प्रयास चल रहा है। पुर एवं गोत्र आम तौर पर लोगों को याद हैं क्योंकि पूजा-पाठ में गोत्र एवं विवाह तथा कुल देवी-देवता के प्रसाद खाने के समय पुर को याद करना पड़ता है। उपवेद, शाखा, सूत्र, ऋषि आदि की जानकारी पत्रिकाओं, पुस्तकों में प्रकाशित सूचियों के आधार पर हैं। प्रमुख सूचियाँ हैं - संज्ञा समिति की स्मारिका में प्रकाशित सूची, पं. समानाथ पाठक ‘नाथ’ की पुस्तक मग दर्पण में प्रकाशित सूची।
दरअसल ये सारी सूचियाँ उत्तर प्रदेश के लोगों ने अपनी याददाश्त के लिए लिखित रूप में सुरक्षित रखी थीं। बनारस, बहराइच एवं बलिया इन तीन जगहों की सूचियाँ चलन र्में आइं। संज्ञा समिति की मूल सूची का संदर्भ मुझे पता नहीं। बनारस वाली सूची की मूल प्रति मैंने मिश्रपोखरा, बनारस स्थित मिश्रा ब्लाक वर्क्स वाले मिश्र जी के पास 1980 में देखी थी। इन सभी सूचियों में दी गई जानकारियेाँ में थोड़ा अंतर है। गाँव के नाम की अशुद्धियाँ मैं ने ठीक कर दी है। अंतर आने पर सभी विकल्प छोड़ दिए हैं। कुछ गाँवों का तो पता लगाना अति कठिन हो गया है, जैसे - श्री मोरियार क्योंकि जब इस पुर के लोगों के ही मूल गाँव के वर्तमान स्थान की जानकारी नहीं है तो मुश्किल तो है ही। सूची में भी स्पष्ट वर्णन नहीं है और न ही इस नाम के किसी गाँव की जानकारी मिलती है। सिरमौरियार की कई गाँवों में आबादी है। मगों से रक्त संबंध कई पीढियों वाला एवं परंपरागत है। इनके मंदिर शिलालेख आदि सभी है। ऐसी समस्या कई पुरों के साथ है। उनका मूल ग्राम पता नहीं चलता संभवतः ये किसी पुराने पुर की शाखा हैं। इस प्रकार मेरी मजबूरी है कि जो गाँव पहचान में है मैं पहले उनके बारे में लिखूँ।
कुलदेवी-देवता की पूजा-आरधना के बारे में भ्रांति/विस्मृति से भी उलझनें आई हैं। पहले कुलदेवी-देवता की नित्य पूजा रसोई घर में ही हो जाती थी। कुल के लोगों के साथ विशेष अवसरों पर अनुष्ठान होते थे। मंत्र, यंत्र, मंडल, गीत, भोग, सगोत्र भोजन (निर्माण एवं ग्रहण) पूर्वक पूजा होती थी। इसके साथ ध्यान, कवच धारण आदि आंतरिक पक्ष की सम्मिलित थे। धीरे-धीरे बातें छूटती र्गइं और पूजा भोग चढ़ाने तक सीमित हो गई । कुछ पुरों में वीर शैव संप्रदाय का भी प्रभाव पड़ा। वे कुल देवी-देवता के साथ कुल पुरुष जैसे-नरियारी वीर तथा बन्दिनी नामक भैरवी की पूजा करते हैं। कुछ लोग देवी-देवता के साथ किसी अन्य स्त्री (दाई माता) जो साधना की संगिनी, भैरवी या आदरयोग्य उपपत्नी रहीं हो, की भी पूजा करते हैं। इन्हीें घरेलू मामलों को समाज में प्रकाशित होने के भय से लोग सच्ची बातें कहना नहीं चाहते।
इस प्रकार यदि आप कोई अंतर है तो समझें कि वह बाद का प्रभाव है। हर परिवार को यह हक है कि वह अपनी आस्था के अनुसार किसी की भी पूजा करे। जब वह अपनी कुल परंपरा को सही दूसरे को गलत, बिना आधार सिद्ध करता है तो यह व्यवहार अनुचित है। लड़कियाँ एक कुल से दूसरे कुल में जाती हैं। लाख गोपनीयता के बाद भी बातें छुपती नहीं हैं।
प्रारूप
सनातनी स्मार्त धर्म के अनुरूप परिचय
पुर- गोत्र- , वेद- उपवेद- पुराना पेशा-
ग्राम देवी भोजन: 5 पीढ़ी पहले
तांत्रिक परंपरा का परिचय (सभी ........ लोगों के लिये)
कुलदेवी - कुलदेव - वर्ग - कुलतीर्थ
साधना पद्धति - कुल का बीज मंत्र साधना क्रम- अघिकार
दायित्त्व -
प्रचलित अन्य विग्रह - पुर आधारित स्वभाव -
अवगुण-
उरवार पुर वालों की कुल साधना परंपरा एवं इतिहास
सनातनी स्मार्त धर्म के अनुरूप परिचय
पुर-उरवार, गोत्र-भारद्वाज, वेद- उपवेद- धनुर्वेद एवं आयुर्वेद
पुराना पेशा- धनुर्वेद एवं आयुर्वेद के साथ खेती सहायक पेशा पौराहित्य
ग्राम देवी प्रसिद्ध यक्षिणी अंधारी, इन्हीं के नाम पर मेरे गांव का नाम अंधारी है।
भोजन: 5 पीढ़ी पहले मांसाहारी अब शाकाहारी, रामानंदी वैष्णव धारा के प्रभाव में
तांत्रिक परंपरा का परिचय (सभी उरवार लोगों के लिये)
कुलदेवी -सिद्धेश्वरी कुलदेव -प्रचंड भैरव सिद्धनाथ वर्ग - विष्णुक्रांता वर्ग
कुलतीर्थ सिद्धनाथ पीठ, बराबर पर्वत
साधना पद्धति - सिद्धेश्वरी पटल
कुल का बीज मंत्र ‘अ’कार, साधना क्रम- संहार क्रम, अर्थात चेतना को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने की विद्या की साधना। क्षुद्र सिद्धियों एवं षट्कर्म की साधना निषिद्ध।
अघिकार तंत्र की सभी सूक्ष्म विद्याओं की साधना का अधिकार न कि किसी एक का संरक्षण या प्रयोग। दायित्त्व - बिना भेदभाव हर तांत्रिक धारा के साधकों की सेवा एवं मार्ग भ्रष्ट लोगों की मनोचिकित्सा
उरवार लोगों में प्रचलित अन्य विग्रह - नरसिंह
पुर आधारित स्वभाव - परिश्रमी, पराक्रमी
अवगुण- क्रोधी, कठोर वक्ता, कभी-कभी कंजूस, धन संचय करने पर भी ताव खाकर संपत्ति नष्ट करने वाला
उरवार
मग ब्राह्मणों की जो प्रचलित गणना हैं उसमें उरवार का नाम प्रथम लिया जाता है। मगध में नाम गणना के क्रम का कोई विषेष महत्त्व नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश में अयोध्या के पश्चिमी जिलें में लोगों ने षटकुल अर्थात ऊपर से छः, दस कुल अर्थात छः के बाद दस और अन्य। इस प्रकार का बंटवारा कर रखा है। शादी विवाह के अवसर पर दस कुलों तक के लोगों को श्रेष्ठ माना जाता है। षटकुल भी दस कुल वालों के यहाँ विवाह करना अच्छा नहीं मानते हैं। यह संकीर्णता उत्तर प्रदेश में भी अब धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। उरवार लोगों का मूल ग्राम ‘‘उर’’ है। यह गया जिले के टेकारी प्रखंड के अंतर्गत स्थित है। वर्तमान में उर गाँव जाने के लिए ‘मऊ’ बाजार से पश्चिम की ओर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। उर और अमरपुर गाँव साथ-साथ बसे हुए हैं।
जनसंख्या एवं समपन्नता की दृष्टि से इस गाँव में भूमिहार ब्राह्मणों की प्रमुखता है किंतु उरवार लोगों की दृष्टि से उनका मूलग्राम बेचिरागी हो गया है। एक अभिशाप की तरह न जाने किन कारणों से मग ब्राह्मणों में सर्वाधिक आबादी वाले उरवार लोगों के मूलग्राम में एक भी उरवार परिवार नहीं है। पास के हसनपुर गाँव में कुछ उरवार परिवार रहते हैं। हसनपुर के लोगों ने मुझे बताया था कि उनकी कुल देवी सिद्धेश्वरी की प्रतिमा उर गाँव में अभी भी विद्वमान है किंतु दुर्भाग्य से मुझे कोई ऐसी प्रतिमा नहीं मिली।
उर गाँव में वर्तमान में विन्यार्क कुल के सात-आठ परिवार रहते हैं। उनसे जानकारी मिली की सिद्धेश्वरी की प्रतिमा गाँव के उत्तरी छोर पर बधार में पीपल के पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी। जिसे ला करके अभी गाँव के पूरब में एक नये पीपल के पेड़ के नीचे मिट्टी के चबूतरे पर रख दिया गया है। वस्तुतः यह प्रतिमा एक उदीच्य शैली की सूर्य प्रतिमा का कमर के नीचे का टुटा हुआ भाग है। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि यहाँ पर कोई सूर्य मंदिर रहा होगा किंतु सिद्धेश्वरी के साथ इस भग्न प्रतिमा का मेल दिखाना कठिन है।
हसनपुर गाँव के लोग इस प्रतिमा को अपनी कुल देवी समझकर अपने गाँव ले जाना चाहते थे। किंतु उर गाँव के लोगों के विरोध के कारण हसनपुर नहीं ले जा सके। गाँव के लोगों का प्रस्ताव था कि उर गाँव में ही सिद्धेश्वरी की प्रतिमा की स्थापना कर मंदिर का निर्माण किया जाय। इस प्रकार उर गाँव में वर्तमान में उपलब्ध किसी घ्वंसावशेष से उरवारों के इतिहास के बारे में कोई बड़ी जानकारी नहीं प्राप्त होती है। गाँव के बीच में स्थित शिव मंदिर में आस-पास से इकट्ठी की हुई कई टूटी-फूटी प्रतिमाएँ हैं। इनमें विष्णु, गौरी, सूर्य तथा गणेश की पालकालीन प्रतिमाएँ हैं। उर गाँव की प्राचीनता स्पष्ट झलकती है । गढ़ पुराने मकान एवं टुटे हुए बर्तनों के टुकड़े इसकी प्राचीनता को स्पष्ट करते हैं। इस परिस्थिति में उरवार की कुल परंपरा की जानकारी के लिए मजबूरी में बाहर बसे हुए उरवार लोगों की मदद लेने पड़ी है।
सोन के पश्चिमी भाग में जो वर्तमान भोजपुर एवं रोहतास जिले का इलाका है। उरवार लोगों की संख्या बहुत अधिक है। विभिन्न गाँवों में पुरोहित के रूप में उरवार तो हैं ही पचरूखिया इनका सबसे बड़ा गाँव है। जहाँ मुख्य आबादी उरवार लोगों की है। पचरूखिया के उरवार परंपरा से शाक्त एवं मांसाहारी हैं। इस गाँव में इनके अतिरिक्त अन्य सवर्ण जातियाँ नहीं हैं। नये दौर में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद श्री राम नरेश मिश्र एवं अन्य के नेतृत्व में गाँव में शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति की है। एक संस्कृत उच्च विद्यालय छात्राओं के लिए अलग से संस्कृत उच्च विद्यालय एवं एक संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना इस गाँव में की गयी हैं जो समपन्न राजकीय एवं अंगीभूत इकाई के रूप में है।
बहुत दिनों तक उरवार लोगों की परंपरा की कोई जानकारी नहीं मिल पाती थी। क्योंकि सूदूर स्थानों पर इन्होनें अपनी उपाधि तथा कुलदेवी देवता को ही बदल लिया है। सर्वाधिक उपाधियाँ उरवार लोग धारण करते हैं जैसे मिश्र,पाठक,ओझा,उपाध्याय एवं वाजपेयी। मिश्र एवं पाठक अधिक प्रचलित उपाधियाँ हैं। हजारीबाग के पास स्थित गाँव खपरियांवा में उरवार लोगों की काफी आबादी है। ये यहाँ नरसिंह भगवान के पुजारी के रूप में हैं। संयोग से वर्तमान उर मे रहनेवाले विन्यार्क लोग भी नरसिंह को अपना कुल देवता मानते हैं। हजारीबाग के मारखम कालेज में संस्कृत के अध्यापक प्रो.रामप्रवेश मिश्र जी ने जानकारी दी की उनके यहाँ उनके पूर्वजों द्वारा प्राकशित सिद्धेश्वरी पूजा पद्धति उपलब्ध है। मैंने इसी पुस्तिका को परंपरा में चलन के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किया है।
सिद्धेश्वरी रूप भगवती का कोई अज्ञात रूप नहीं है। अतः इसकी आराधना अन्य लोगों ने भी की है। दक्षिण भारत की परंपरा के आधार पर इंटरनेट पर भी सिद्धेश्वरी पटल उपलब्ध है। विदेशियों की परंपरागत तंत्र में अभिरुचि के बाद परंपरागत ब्राह्मण जिसे गोपनीय मानते थे वे ग्रंथ आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं केवल भुगतान करना पड़ता है। कुछ तो बिना भुगतान भी उपलब्ध हैं।
इंटरनेट आधारित एक अंगरेजी संस्करण भी दे रहा हूं। शायद किसी उरवार को यह उनके कुल की परंपरा के अनुरूप लगे तो कृपया सूचित करें।
Siddheshwari Sadhana
The Sadhana that is the basis of Sadhanas of the ten Mahavidyas.
Accomplishing which one can gain the capability of successfully accomplishing the Sadhanas of ten Mahavidyas and making one’s life total and successful.
In the Tantra scriptures the ten Mahavidyas are the most important of all deities. But the highest level of Tantra experts consider Siddheshwari Sadhana as the basis of attaining success in Mahavidya Sadhanas. The ten most powerful forms of the Goddess Mother are Mahakali, Tara, Chhinamsta, Dhoomavati, Bagalamukhi, Kamala, Tripur Bhairavi, Bhuvaneshwari, Tripur Sundari and Matangi.
The Sadhana of each Mahavidya is unique and amazing. By accomplishing their Sadhanas every Sadhak can gain material comforts as well as spiritual success in life. Still each Mahavidya Sadhana has some special features and boons.
• Mahakali Sadhana can be accomplished for success in court cases, happiness in family, destroying enmities, banishing problems from state side and even serious ailments.
• Tara Sadhana is accomplished for gain of knowledge, intelligence, victory and totality in life. Also this Sadhana is done to avert untimely death, accidents, financial progress and giving a boost to the business.
• Shodashi Tripur Sundari Sadhana is done to gain courage, manliness, joy and success in Siddhis. It is a unique Sadhana for success in marriage, happiness from spouse, happy married life and gain of virility. It is amazingly effective in riddance from diseases.
• Chhinmasta Sadhana is done to remove problems created by enemies. It is also done to remove problems from business and job.
• Dhoomavati Sadhana is a very powerful and quick acting Sadhana. It is done to gain wealth, defeat the most strong enemy and for riddance from problems.
• Baglamukhi Sadhana is also called Trishakti Sadhana. It combines the powers of Mahakali, Kamala and Bhuvaneshwari. To destroy enmities, gain of respect and for success in life it is an amazing Sadhana.
• Kamala is another form of Goddess Lakshmi. She is the consort of Lord Vishnu and the basic force that runs this world. For riddance of poverty, gain of manliness, increase of wealth and for stability in life this is an amazing Sadhana.
• Tripur Bhairavi Sadhana is done to remove fear from life, develop self confidence, remove physical weakness and neutralize the evil effect of negative powers.
• For success in life Bhuvaneshwari Sadhana is very important. The Goddess bestows joy, fortune, prosperity and wealth when pleased.
• Matangi is the Goddess of eloquence and pleasures. For joy, pleasures, totality and success in family life this is the best Sadhana.
Thus we find that each of the Mahavidya Sadhanas is very important and capable of bringing success and totality in life.
In the present age of stiff competition and complexities Mahavidya Sadhanas play a vital role in bringing stability in life. But attaining success in Mahavidya Sadhanas is very difficult and time consuming activity. This is because even a small mistake in Mahavidya Sadhana can render all effort futile.
Mistakes can occur because the physical and astral body of the Sadhak are generally not in harmony. The cause can be sins of past lives. When one tries a Sadhana, a lot of time and energy is spent in overcoming the negative effect of these sins. And when success seems to be elusive the Sadhak becomes doubtful. The fact is that till these negative effects are not neutralized one cannot attain success in any Sadhana. As soon as the past sins have been neutralized the body and mind of the Sadhak become pure and he attains quick success in the Sadhana.
Success in a Mahavidya Sadhana means raising the level of one’s life and filling it with good fortune. There are very few people who are guided by the Guru into Mahavidya Sadhanas. But the secret of success in these Sadhanas is first accomplishing Siddheshwari Sadhana. It is said that Goddess Siddheshwari is the basic divine energy who has manifested in form of the ten Mahavidyas.
This is why all Tantra scriptures have given so much importance to Siddheshwari Sadhana. It is said that a person cannot be called a Siddha (master in Sadhanas) until he has accomplished Siddheshwari Sadhana.
This Sadhana can be tried on any Thursday.
Siddheshwari Sadhana procedure
Get up early in the morning and have a bath. Then pray to the Guru and offer to the rising sun water in which flowers, red sandal wood paste have been mixed. Then move seven times around the place where water has been poured and pray to the sun to transfer its radiance into your body so that you could succeed in the Siddheshwari Sadhana.
Clean the worship room and spread a white woolen cloth. On it spread a meter long white silk cloth. On its four corners draw four triangles with vermilion. In the centre too draw a triangle. In it make a mark. Divide the hair at the crown of your head into two parts. Tie the right one into a knot.
Then in a straight line draw five other triangles on the left side of cloth. On each make a mound of rice grains. Then chant the following Mantras.
Om Prithvyei Namah, Om Aadhaar Shaktyei Namah, Om Anantaay Namah, Om Koormaay Namah, Om Sheshnaagaay Namah.
Then offer flowers and vermilion on each.
Then take water in the right palm and speaking out your name pledge thus - I (name and surname) am accomplishing this Sadhana for fulfillment of this wish. May I attain to success.
Let the water flow to the ground.
Make another rice mound on a wooden seat placed on your right and on it place a copper tumbler filled with water. On its mouth place five leaves. Tie a coconut in a red cloth and place it over the mouth. Tie Mouli (red thread) around the coconut. -
Before the copper tumbler on the wooden seat make nine more rice mounds and on each place a Nakshatram representing the nine planets chanting thus.
Om Suryaay Namah, Om Chandraay Namah, Om Bhoumaay Namah, Om Buddhaay Namah, Om Brihaspataye Namah, Om Shukraay Namah, Om Shaneishcharaay Namah, Om Raahave Namah, Om Ketave Namah.
Offer vermilion and a flower on each Nakshatram. Light a ghee lamp and incense and offer sweets.
Thereafter place another wooden seat and cover it with white cloth. In its middle draw a mark, triangle, hexagon and circle with red sandal wood paste.
Over it place a Siddheshwari Yantra drawn on a copper plate. This Yantra should be consecrated and Mantra energized. It should be energized with the Mantras devised by Guru Gorakhnath. Having such a Yantra at home is a mark of great fortune. And it can prove to be a great boon even for the future generations.
Thereafter bathe the Yantra with water, milk, curd, honey, sugar and a mixture of all these called Panchamrit. Then bathe with fresh water. Wipe dry with a clean cloth. Place it back on the cloth. Then with red sandalwood paste make 16 marks on the Yantra. Offer red flowers and a sweet made from milk. Also offer cloves and cardamoms. Then pray to the Goddess Siddheshwari thus.
Udyanmaartand Kaanti Vigalit Kaaveri Krishnna Vastraavritaangeem Dandam Lingam Karaabjeir-varmath Bhuvanam Sand-dhateem Trinetraam. Naanaa Ratneir Vibhaanteem Smit Mukh Kamalosevitaam Deva-sarveih. Bhaaryaa Raagyeem Namodbhoot Sarasij-tanum Maashraye Eeshwareetvaam.
Chanting thus offer flowers on the Yantra.
Then propitiate the Goddess Siddheshwari chanting thus.
Om Ayeim Hreem Shreem Siddheshwaree Sarvajan Manohaarinnee Dusht Mukh Stambhini Sarva StreePurush Karshinni Shatru Bhaagyam Trotaya Trotaya Sarva Shatroon Bhanjaya Bhanjaya Sarva Shatroon Dalaya Dalaya, Nirdalaya Nirdalaya, Stambhaya Stambhaya, Uchchaataya Uchchaataya Sarva Jan Vasham Kuru Kuru Swaahaa Devi Siddheshwari Ihaagachh Ih Tishtth Mam Manovaanchhit Kaamanaa Siddhyartham Mam Saparivaaram Raksh Raksh Siddhim Dehi Dehi Namah.
Chant this Mantra three times and welcome the Goddess in to your house. Then offer the coconut fruit on the Yantra. Take water in the right palm and chant thus.
Om Asya Shree Siddheshwaree Kavachasya Vashishtth Rishih Siddheshwaree Devataa Sakal Kaaryaarth Siddhaye Jape Viniyogah.
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Siddheshwari Sadhana
The Sadhana that is the basis of Sadhanas of the ten Mahavidyas.
Accomplishing which one can gain the capability of successfully accomplishing the Sadhanas of ten Mahavidyas and making one’s life total and successful.
In the Tantra scriptures the ten Mahavidyas are the most important of all deities. But the highest level of Tantra experts consider Siddheshwari Sadhana as the basis of attaining success in Mahavidya Sadhanas. The ten most powerful forms of the Goddess Mother are Mahakali, Tara, Chhinamsta, Dhoomavati, Bagalamukhi, Kamala, Tripur Bhairavi, Bhuvaneshwari, Tripur Sundari and Matangi.
The Sadhana of each Mahavidya is unique and amazing. By accomplishing their Sadhanas every Sadhak can gain material comforts as well as spiritual success in life. Still each Mahavidya Sadhana has some special features and boons.
• Mahakali Sadhana can be accomplished for success in court cases, happiness in family, destroying enmities, banishing problems from state side and even serious ailments.
• Tara Sadhana is accomplished for gain of knowledge, intelligence, victory and totality in life. Also this Sadhana is done to avert untimely death, accidents, financial progress and giving a boost to the business.
• Shodashi Tripur Sundari Sadhana is done to gain courage, manliness, joy and success in Siddhis. It is a unique Sadhana for success in marriage, happiness from spouse, happy married life and gain of virility. It is amazingly effective in riddance from diseases.
• Chhinmasta Sadhana is done to remove problems created by enemies. It is also done to remove problems from business and job.
• Dhoomavati Sadhana is a very powerful and quick acting Sadhana. It is done to gain wealth, defeat the most strong enemy and for riddance from problems.
• Baglamukhi Sadhana is also called Trishakti Sadhana. It combines the powers of Mahakali, Kamala and Bhuvaneshwari. To destroy enmities, gain of respect and for success in life it is an amazing Sadhana.
• Kamala is another form of Goddess Lakshmi. She is the consort of Lord Vishnu and the basic force that runs this world. For riddance of poverty, gain of manliness, increase of wealth and for stability in life this is an amazing Sadhana.
• Tripur Bhairavi Sadhana is done to remove fear from life, develop self confidence, remove physical weakness and neutralize the evil effect of negative powers.
• For success in life Bhuvaneshwari Sadhana is very important. The Goddess bestows joy, fortune, prosperity and wealth when pleased.
• Matangi is the Goddess of eloquence and pleasures. For joy, pleasures, totality and success in family life this is the best Sadhana.
Thus we find that each of the Mahavidya Sadhanas is very important and capable of bringing success and totality in life.
In the present age of stiff competition and complexities Mahavidya Sadhanas play a vital role in bringing stability in life. But attaining success in Mahavidya Sadhanas is very difficult and time consuming activity. This is because even a small mistake in Mahavidya Sadhana can render all effort futile.
Mistakes can occur because the physical and astral body of the Sadhak are generally not in harmony. The cause can be sins of past lives. When one tries a Sadhana, a lot of time and energy is spent in overcoming the negative effect of these sins. And when success seems to be elusive the Sadhak becomes doubtful. The fact is that till these negative effects are not neutralized one cannot attain success in any Sadhana. As soon as the past sins have been neutralized the body and mind of the Sadhak become pure and he attains quick success in the Sadhana.
Success in a Mahavidya Sadhana means raising the level of one’s life and filling it with good fortune. There are very few people who are guided by the Guru into Mahavidya Sadhanas. But the secret of success in these Sadhanas is first accomplishing Siddheshwari Sadhana. It is said that Goddess Siddheshwari is the basic divine energy who has manifested in form of the ten Mahavidyas.
This is why all Tantra scriptures have given so much importance to Siddheshwari Sadhana. It is said that a person cannot be called a Siddha (master in Sadhanas) until he has accomplished Siddheshwari Sadhana.
This Sadhana can be tried on any Thursday.
Siddheshwari Sadhana procedure
Get up early in the morning and have a bath. Then pray to the Guru and offer to the rising sun water in which flowers, red sandal wood paste have been mixed. Then move seven times around the place where water has been poured and pray to the sun to transfer its radiance into your body so that you could succeed in the Siddheshwari Sadhana.
Clean the worship room and spread a white woolen cloth. On it spread a meter long white silk cloth. On its four corners draw four triangles with vermilion. In the centre too draw a triangle. In it make a mark. Divide the hair at the crown of your head into two parts. Tie the right one into a knot.
Then in a straight line draw five other triangles on the left side of cloth. On each make a mound of rice grains. Then chant the following Mantras.
Om Prithvyei Namah, Om Aadhaar Shaktyei Namah, Om Anantaay Namah, Om Koormaay Namah, Om Sheshnaagaay Namah.
Then offer flowers and vermilion on each.
Then take water in the right palm and speaking out your name pledge thus - I (name and surname) am accomplishing this Sadhana for fulfillment of this wish. May I attain to success.
Let the water flow to the ground.
Make another rice mound on a wooden seat placed on your right and on it place a copper tumbler filled with water. On its mouth place five leaves. Tie a coconut in a red cloth and place it over the mouth. Tie Mouli (red thread) around the coconut. -
Before the copper tumbler on the wooden seat make nine more rice mounds and on each place a Nakshatram representing the nine planets chanting thus.
Om Suryaay Namah, Om Chandraay Namah, Om Bhoumaay Namah, Om Buddhaay Namah, Om Brihaspataye Namah, Om Shukraay Namah, Om Shaneishcharaay Namah, Om Raahave Namah, Om Ketave Namah.
Offer vermilion and a flower on each Nakshatram. Light a ghee lamp and incense and offer sweets.
Thereafter place another wooden seat and cover it with white cloth. In its middle draw a mark, triangle, hexagon and circle with red sandal wood paste.
Over it place a Siddheshwari Yantra drawn on a copper plate. This Yantra should be consecrated and Mantra energized. It should be energized with the Mantras devised by Guru Gorakhnath. Having such a Yantra at home is a mark of great fortune. And it can prove to be a great boon even for the future generations.
Thereafter bathe the Yantra with water, milk, curd, honey, sugar and a mixture of all these called Panchamrit. Then bathe with fresh water. Wipe dry with a clean cloth. Place it back on the cloth. Then with red sandalwood paste make 16 marks on the Yantra. Offer red flowers and a sweet made from milk. Also offer cloves and cardamoms. Then pray to the Goddess Siddheshwari thus.
Udyanmaartand Kaanti Vigalit Kaaveri Krishnna Vastraavritaangeem Dandam Lingam Karaabjeir-varmath Bhuvanam Sand-dhateem Trinetraam. Naanaa Ratneir Vibhaanteem Smit Mukh Kamalosevitaam Deva-sarveih. Bhaaryaa Raagyeem Namodbhoot Sarasij-tanum Maashraye Eeshwareetvaam.
Chanting thus offer flowers on the Yantra.
Then propitiate the Goddess Siddheshwari chanting thus.
Om Ayeim Hreem Shreem Siddheshwaree Sarvajan Manohaarinnee Dusht Mukh Stambhini Sarva StreePurush Karshinni Shatru Bhaagyam Trotaya Trotaya Sarva Shatroon Bhanjaya Bhanjaya Sarva Shatroon Dalaya Dalaya, Nirdalaya Nirdalaya, Stambhaya Stambhaya, Uchchaataya Uchchaataya Sarva Jan Vasham Kuru Kuru Swaahaa Devi Siddheshwari Ihaagachh Ih Tishtth Mam Manovaanchhit Kaamanaa Siddhyartham Mam Saparivaaram Raksh Raksh Siddhim Dehi Dehi Namah.
Chant this Mantra three times and welcome the Goddess in to your house. Then offer the coconut fruit on the Yantra. Take water in the right palm and chant thus.
Om Asya Shree Siddheshwaree Kavachasya Vashishtth Rishih Siddheshwaree Devataa Sakal Kaaryaarth Siddhaye Jape Viniyogah.
Thereafter chant the Siddheshwari Kavach 21 times. After each chanting offer flowers on the Yantra along with a Siddheshwari Gutika.
Sansaar Taarinni Siddhaa Poorvasyaam Paatu Maam Sadaa, Brahmaanni Paatu Chaagneyaam Dakshinne Dakshinn Priyaa.1.
Neikrityaam Chand Mundaa Cha Paatu Maam Sarvatah Sadaa Triroopaa Saamtaa Devi. Prateechyaam Paatu Maam Sadaa.2.
Vaayavyaam Tripuraa Paatu Hyutare Rudranaayikaa, Eeshaane Padam Netraa Cha Paatu Oordhva Trilingakaa.3.
Daksh Paarshave Mahaa Maayaa Vaam Paarshave Har Priyaa Mastakam Paatu Me Devi. Sadaa Siddhaa Manoharaa.4.
Bhaalam Me Paatu Rudraanee Netre Bhuvan Sundaree, Sarvatah Paatu Me Vaakyam Sadaa Tripur Sundaree.5.
Shamshaane Bheiravee Paatu Skandhou Me Sarvatah Swayam, Ugra Paarshavou Mahaa Braahmee Hastou Rakshatu Chaambikaa.6.
Hridayam Paatu Vajraangee Nimna Naabhirnabhastale, Agatah Parameshaanee Paramaanand Vigrahaa. 7.
Prishtthatah Kumudaa Paatu Sarvatah Sarvadaa Vataat, Gopaneeyam Sadaa Devi Na Kasmeichit Prakaashayet.8.
Ya Kashchit Rinnu Yaadev Tat Kavacham Bheiravoditam Sangraame Sanjayet Shatrum Maatang Miv Kesharee.9.
Na Shastraanni Na Cha Astraanni Tad Dehe Pravishanti Vei, Shamshaane Praantare Durge Ghore Nigad Bandhane.1O.
Noukaayaam Giri Durge Cha Sankate Praann Sanshaye Mantra Tantra Bhaye Praapte Vish Vanhi Bhayeshu Cha.11.
Durgati Santraaseth Ghoraam Prayaati Kamalaapadam, Vandhyaa Vaa Kaak Vandhyaa Vaa Mrit-vatsaa Cha Yaanganaa.12.
Shrutvaa Stotram Labhet Putraam Na Sa Dhanam Chir Jeevatam Gurou Mantrou Tathaa Deve Vandane Yasya Sotamaa.13.
Dheeryasya Samataa Meti Tasya Siddhirna Sanshayah.14.
After this chant the following verses for seeking forgiveness of the Goddess for any mistakes committed in Sadhana.
Apraadh Sahastraanni Kriyante Aharnisham Bhayaa Daaso Yamitee Maam Matvaa Shamasva Parameshwari. Aavaahanam Na Jaanaami Na Jaanaami Visarjanam Poojaam Cheiv Na Jaanaami Shamasva Parameshwari. Mantra Heenam Kriyaa Heenam Bhakti Heenam Sooreshwaree Yatpoojitam Mayaa Devi Paripoornnam Tadastu Me. Agyaan Dwismrite Bhraantyaa Yanyoon-madhikam Kritam Tansarvam Shamyataam Devi Praseed Parameshwari. Siddheshwari Jaganmaatah Sachidaanand Vigrahe Grihaanaarchaayimaam Preetyei Praseed Parameshwari. Guhyaati Guhya Goptvaa Tvam Grihaanaa-smatkritam Japam Siddhirbhavatu Me Devi Tvat-prasaadaat-sureshwari.
These verse are chanted in order to neutralize the sins of one’s life. Chanting them makes the mind and body pure and then one is able to concentrate fully in Mahavidya Sadhanas. Through this Sadhana all wishes of a Sadhak’s life can be fulfilled. It is a fact that this Sadhana is very rare and effective. Accomplishing it means opening the doors of good fortune in life. After Sadhana tie all Sadhana articles in a cloth and drop the packet in a river or pond.
उरवार पुर का सिद्धेश्वरी पटल
श्री सिद्धेश्वरी-पटलः
स्वस्ति-वाचनादि कर्म करके अर्ध्य-स्थापन करें। यथा- ‘पृथिव्यै नमः, आधार-शक्तये नमः, अनन्ताय नमः, कूर्माय नमः, शेषनागाय नमः’ - इन मन्त्रों से अपने वाम-भाग में एक त्रिकोण-मण्डल बनाकर उसके मध्य मं पंचोपचारों से पृथ्वी का पूजन करंे। इसी मण्डल के ऊपर अर्ध्य-पात्र स्थापित करें। अब यथा-विधि संकल्प करें। संकल्प के अन्त में यह वाक्य जोड़ लें -
‘सर्वाभीष्ट-फलावाप्ति-कामः कलश-स्थापन, गण-पत्यादि-प´्च-देवता, सूर्यादि-नव-ग्रह- दश-दिग्पाल-देवता-पूजन-पूर्वकं श्रीसिद्धेश्वरी-पूजनमहं करिष्ये।’
तब कलश-स्थापन कर प´्च-देवताओं और नव-ग्रहादि का पूजन करें। पश्चात् विल्व-पीठ के ऊपर श्री सिद्धेश्वरी देवी के ‘पूजा-यन्त्र’ को लिखे। ‘पूजा-यन्त्र’ लिखने की विधि है कि जटामासी और रक्त-चन्दन से विल्व-काष्ठ से बने पीढ़े को लीपे। फिर रक्त-चन्दन से दाड़िम की लेखनी द्वारा उस पीढ़े के मध्य भाग में यन्त्र बनावें। यथा - 1 विन्दु, 2 त्रिकोण, 3 षट्-कोण, 4 वृत्त, 5 प्रष्ट-दल कमल और 6 वृत्त।
पीढ़े के ऊपर एक नूतन पीत वस्त्र बिछावें। कपडे़ के ऊपर शुद्ध घी से सोलह रेखायें नीचे से ऊपर की ओर खींचे। इन रेखाओं के मध्य में सिन्दूर लगावें और उनके ऊपर सोलह पान की पत्तियाँ बिछावें, सोलहों स्थानों में अक्षत और अक्षतों पर सोलह पैसे, सोलह सुपाड़ियाँ, सोलह लौंगे तथा इलाइचियां रखकर पूजन प्रारम्भ करें। पहले हाथ में फूल और अक्षत लेकर निम्न प्रकार की सिद्धेश्वरी देवी का ध्यान पढ़ें -
उद्यन्मार्तण्ड-कान्तिं विगलित-कवरीं कृष्ण-वस्त्रावृता›ं़ा, दण्डं लि›ं़. कराब्जैर्वरमथ भुवनं सन्दधतीं त्रि-नेत्राम्। नाना-रत्नैर्विभातां स्मित-मुख-कमलां सेवितां देव-सर्वै-र्माया-राज्ञीं नमोऽभूत् स-रवि-कल-तनुमाश्रये ईश्वरीं त्वाम्।।
इस प्रकार ध्यान कर हाथ में लिए फूलाक्षत को अपने सिर पर चढ़ा ले। इसके बाद ‘¬ शंखाय नमः’ इस मन्त्र से शंख-पात्र स्थापित करे। उसमें जल, अक्षत, पुष्प और सुपाड़ी (कसैली) डाले। तदनन्तर हाथ में पुष्पाक्षत लेकर भगवती का ध्यान करते हुए निम्न मन्त्र से उनका आवाहनादि करे -
¬ ऐं ह्रीं श्रीं कान्हेश्वरी सर्व-जन-मनोसारिणी, सर्व-मुख-स्तम्भिनी, सर्व-स्त्री-पुरूषाकर्षिणी वन्दी-शंखेनात्रोदय त्रोटय सर्व-शत्रूणां भंजय-भंजय द्वेषिं दलय दलय निर्दलय निर्दलय सर्व-शत्रूणां स्तम्भय स्तम्भय मोहनास्त्रेण द्वेषिं उच्चाटय उच्चाटय सर्व-वशं कुरू कुरू स्वाहा। देवि सर्व-सिद्धेश्वरि कामिनी-गणेश्वरि! इहागच्छ इह तिष्ठ ममोपकल्पितं पूजां गृहाण, मम सपरिवारं रक्ष रक्ष नमः।
हाथ में लिए पुष्पाक्षत को पीढ़े पर रख दे। तब हाथ में जह लेकर नीचे लिखा विनियोग पढ़कर जल छोड़ दे-
अस्य श्रीकुल-देवी जगतो निवासिनी श्रीसिद्धेश्वरी विजयीरितं मया राज्ञीति शक्ति स्याद् विनियोगः।
पुनः पुष्पाक्षत लेकर ध्यान करे-
विषाय संस्मरेद् वन्ंिदं रत्न-सिंहासन-स्थिताम् ।
यज्ञ-भागं गृहाण त्वं प्रष्टाभिः शक्तिभिः सह ।।
सन्तोय-पाथोद-समान-कान्तिममित-पीयूपं करि-तुण्ड-हस्ताम।
सुरासुराराधित-पाद-पह्मां भजामि देवीं भव-बन्ध-मुक्त्यै।।
आसन-(पुष्प लेकर) आसनं गृहाण चार्वा›ि. चण्डिके सर्व-म›ले, भजस्व जगतां मातः स्थानं मे देहि चण्डिके! इदं पुष्पासनं जयन्तीत्यादि ह्रीं देव्यै नमः।
स्वागत-(पुष्प लेकर) मेनानन्द-करीं देवीं सर्वेषां त्राण-कारिणीम्। जय दुर्गे नमस्तुभ्यं स्वागतं तव जायताम्। कुल-देव्याः तव स्वागतम्।
पाद्य-(जल देवे) पाद्यं गृहाण महादेवि सर्व-दुःखापहारिणि! त्रायस्व वरदे देवि! नमस्ते शंकर-प्रिये! इदं पाद्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
अर्घ्य- पुष्पाक्षत-समायुक्तं विल्वपत्रं तथा परे। शोभनं शंख-पात्रस्थं गृहाणार्घ्यं कुलेश्वरि! इदं अर्घ्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आचमन- गृहाणाचमनीयं त्वं मया भक्त्या निवेदितम्। इदं आचमनीयं ह्रीं कुल-देेव्यै नमः।
स्नान-इमं आपो मया देवि! स्नानार्थमर्पितं त्वयि। स्नानं कुरू महामाये! प्रीत्या शान्तिं प्रयच्छ मे। इदं स्नानीयं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
गात्र-मार्जन-वस्त्र-शरीर-प्रोक्षणमिदं बहु-तन्तु-विनिर्मितम, मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! इदं शरीर-प्रोक्षण-वस्त्रं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
परिधानवस्त्र- तन्तु-शतान-संयुक्तं रंजितं राग-वस्तुना, मया निवेदितं भक्त्या वासस्ते परिधार्यताम्। इदं परिधान-वस्त्रं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आभरण- दिव्य-रत्न-समायुक्तं वह्नि-भानु-सम-प्रभम्। गात्राणि तव शोभार्थं प्रलंकारैः सुरेश्वरि! इदं अलंकरणं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
गन्ध (चन्दन)- शरीरं ते न जानामि चेष्टां चैव महेश्वरि! मया निवेदितान् गन्धान् प्रति-गृह्ण विलिप्यताम्। एष गन्धः ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पुष्प- पुष्पं मनोहरं दिव्यं सुगन्धि-गन्ध-योजितम्। गृह्यमद्भुतमाघ्रेयं देवि! त्वं प्रति-गृह्यताम््््। इदं पुष्पं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पुष्पमाला- ग्रथिता विमला माला नाना पुष्प-समुद्-भवा। कण्ठे ते शोभिता नित्यं लम्बमाना सुरेश्वरि! इदं पुष्पमालां ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
सिन्दूर- सिन्दूरं गिरि-कन्येत्थं जवारागति रात्रिणम। सीमन्ते शोभतां नित्यं भक्त्या ते परमेश्वरि! इदं सिन्दूरं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
रक्तचन्दन- नाना-देश-समुद्भूतं रक्तोत्पल-सम-प्रभम। सिन्दूरारूणसंकाशं गृह्यतां रक्त-चन्दनम् ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
विल्व-पत्र- प्रमृतोद्भवं श्री-वृक्षं शंकरस्य सदा प्रियं, विल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि! एतानि विल्व-पत्राणि ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
धूप- वनस्पति-रसोत्पन्नो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः। आघ्रेयः सर्व-देवानां धूपोऽयं प्रति-गृह्यताम्। एष धूपः ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
प्रज्वलित-षोडश-दीप- अग्निर्ज्योति रविर्ज्योतिश्चन्द्र-ज्योतिस्तथैव च। ज्योतिषामुत्तमो देवि! दीपोऽयं प्रति- गृह्यताम्। एष दीपं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
नैवेद्य- ‘फट्’ मन्त्र से जल द्वारा नैवैद्य का प्रोक्षण करे, उसे धेनु-मुद्रा दिखाकर उस पर ‘ह्रीं’ बीज का जप करे। तब निवेदन करे-मिष्ठान्नं घृतसंयुक्तं शर्करादुग्धयोजितम्। मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! अन्नं चतुर्विधं स्वादुः रसैः षड्भिः समन्वितम्। मया निवेदितं भक्त्या नैवैद्यं प्रति-गृह्यताम्। एतन्नैवेद्यं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
पेय जल- जलं सुशीतलं देवि! सुस्वादु सुमनोहरं, कर्पूर-वासितं दिव्यं पानीयं प्रतिगृह्यताम्। इदं पानार्थ-जलं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
आचमनीय- मन्दाकिन्यास्तु यद्-वारि सर्व-पाप-हरं शुभम्। गृहाणाचमनीयं त्वं मया भक्त्या निवेदितम्। इदं पुनराचमनीयं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
ताम्बूल- नागवल्ली-दलैर्युक्तं कर्पूरादि-सुवासितम्। मया निवेदित भक्त्या ताम्बूलं प्रतिगृह्यतां। इदं ताम्बूलं ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
फल- फल-मूलानि सर्वाणि रम्यारम्यानि यानि च। मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि! एतानि फल-मूलानि ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
रक्त-चन्दन-युत विल्व-पत्र- चन्दनेन समालिप्तं कुंकुमेना-भिरंजितं विल्व-पत्रं समर्पितं, दुर्गेऽहं शरणागतम्।
पुष्पांजलि-त्रय- सेवन्तिका-वकुल-चम्पक-पाटलाब्जैः पुन्नाग-जाति-करवीर-रसाल-पुष्पैः। कुन्द-प्रवाल-तुलसी-दल-मालतीभिस्त्वां पूजयामि जगदीश्वरि! मे प्रसीद। एतानि पुष्पानि सांगोपांगायै सपरिवारायै सायुधायै सशक्तिकायै ह्रीं कुल-देव्यै नमः।
प्रणाम- मंगलां शोभनां शुद्धां निष्कलां परमां कलाम्। विश्वेश्वरीं विश्व-मातां चण्डिकां प्रणमाम्यहम्। सिद्धेश्वरि! नमस्तुभ्यं वरदे सुर-सेविते, कृपया पश्य मामम्बे! शरणागत-वत्सले!
अंगपूजा- नाम-मन्त्रों से पुष्पाक्षत प्रदान करे। प्रत्येक नाम के आदि में ‘¬’ और न्त में ‘नमः’ जोड़ ले। यथा- ¬ कालिकायै नमः। सिद्धेश्वर्यै। तारायै, भगवत्यै, बगलामुख्यै, कु´्जिकायै, शीतलायै, त्रिपुण्यै, मात्रिकायै, लक्ष्म्यै, दिगीशायै।
मध्ये- ऐं ह्रीं श्रीं हिलि वन्दी-देव्यै नमः। सम्मोहिन्यै नमः। मोहिन्यै, वस्वादिषडंगेभ्यो, ब्रह्मणेभ्यो, विष्णवेभ्यो, शिवायै, उर्वश्यै, मंजुघोषायै, सहजन्यै, सुकेशिन्यै, तिलोत्तमायै, गुप्तव्यै, सिद्धकन्याभ्यो, किन्नरीभ्यो, नाग-कन्याभ्यो, ब्रह्माण्यै, वैष्णव्यै, इष्ट-शान्तये, गुणाय, क्रिया-शान्त्यै, ज्ञान-शक्तये, रजोगुणायै, तमोगुणायै।
स्नान के लिए जल देकर चन्दन, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य प्रदान करे।
अष्ट-शक्ति-पूजा- पूर्ववत् नाम-मन्त्रों से पुष्पाक्षत प्रदान करे- ह्रीङ्कार्येभ्यो नमः। खेचरीभ्यो, चण्डाख्यायै, अक्षोहिण्यै, ह्रीङ्कार्यै, क्षेमकार्य्यै, पंच-भैरवीभ्यो, सिद्धेश्वर्य्यै, तारायै, भगवत्यै, बगलामुख्यै, कुंजिकायै, शीतलायै, त्रिपुण्यै, मातृ-वृकायै, लक्ष्म्यै, दिगीशायै।
मध्ये-ऐं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि वन्दी-देव्यै नमः। ¬ संमोहिन्यै नमः। मोहिन्यै, विमोहिन्यै, वस्वादि-षडङ्गेभ्यो, ब्रह्मणेभ्यो, विष्णवेभ्यो, शिवायै, उर्वश्यै, मेनकायै, रम्भायै, घृताच्यै, मंजुघोषायै, सहजन्यै, सुकेशिन्यै, महा-भैरवीभ्यो, इन्द्राण्यै, प्रसिताङ्गायै, संहारिण्यै, छिन्नमस्तिकायै।
स्नान हेतु जल देकर चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य प्रदान करे।
नरियारी में वीर-देवता-पूजन- अग्निकोण में त्रिकोण मण्डल बनकर नरियारि वीर-देवता का पंचोपचारों से पूजन करे। पुष्पाक्षत लेकर-
¬ नरियारी-वीर-देवता सांगायै सायुधायै सशक्ति-कायै इहागच्छ, इह तिष्ठ, मत्कल्पितां पूजां गृहाण।
यह कहकर पुष्पाक्षत नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः। इदं चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं नैवेद्यं, पानार्थाचमनीयं जलं। मुख-वासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः। दक्षिणां समर्पयामि नरियारी-वीर-देवताभ्यो नमः।
इन मन्त्रों से क्रमशः पूजाकर नरियारी-वीर-देवता के दीपक से अखण्ड-दीप को जलाकर दोनों हाथों से झट नरियारी-वीर-देवता के दीप को बुझा दे और प्रणाम करे। तब अखण्ड-दीप को स्पर्श कर संकल्प करे -
अमुक-गोत्रोत्पन्नोऽहं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फल-प्राप्त्यर्थं समस्त-परिवारस्याभ्युदयार्थ श्रीसिद्धेश्वरी-प्रीतये अखण्ड-दीप-दानं करिष्ये।
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पंचहाय/ वरुणार्क कुल
वरुणार्क/पंचहाय पुर वालों का परिचय
मग/भोजक सूर्यवंशी होने पर भी विविध कुलों में विभक्त हैं। उनमें कुल पूजा की दृष्टि से जो सौर हैं, उनमें भी सूर्य के विविध रूपों की पूजा होती है। सूर्य के विग्रह कई प्रकार के हैं। उनमें पाँच अश्वोंवाले सूर्य की पूजा करने वाले पंचहाय हैं। इनके कुलदेवता के रूप में वरुणार्क सूर्य की पूजा होती हैं अतः पंचहाय एवं वरुणार्क दो नामोंवाले पुरों की सूचना उपलब्ध होती है, जिनका मूलग्राम एक है। निम्न तालिका से यह बात स्पष्ट हो जायेगी
वैदिक निगम दृष्टि से
1 पुर पंचहाय
2 आस्पद मिश्र, पांडेय, पाठक
3 गोत्र कंौडिन्य
4 प्रवर कंौडिन्य, अंगिरस, दैवत-3
5 वेद सामवेद
6 उपवेद गन्धर्व वेद
7 शाखा माध्यन्दिनी
8 सूत्र गोभिल
9 छन्द जगती
10 शिखा वाम
11 पाद वाम
12 देवता विष्णु
परंपरागत
1 पुर वरुणार्क
2 आस्पद मिश्र
3 गोत्र कंौडिन्य
4 प्रवर कंौडिन्य, वत्स, मित्रावरुण-3
5 वेद सामवेद
6 उपवेद गन्धर्व
7 शाखा कौथुकी
8 सूत्र गोभिल
9 छन्द जगती
10 शिखा वाम
11 पाद वाम
12 देवता विष्णु
पौराणिक/धार्मिक व्यवस्था के अनुसार कर्मनाशा से ंिकउल नदी के बीच या काशी और अंगदेश (मुंगेर भागलपुर का इलाका) के मध्य का भाना गया है। मगध के ही किसी न किसी गाँव को विविध पुर (मूलग्राम) वाले अपना मूलस्थान मानतें हैं और उस ग्राम या नगर के निवासी को अपना सगोत्र मानकर उसके यहाँ विवाह शादी नहीं करते।
पंचहाय का मूलग्राम (पुर) वर्तमान देव चन्दा (देववरुणार्क) गाँव है, जो वर्तमान भोजपुर जिले के पीरो अनुमंडल में है। अब यहाँ तक जाने की पूरी व्यवस्था है।
विशेष विवरण और इतिहास आगे निबंध रूप में वर्णित है।
वरुणार्क देवता को ध्यान में रखकर सांब पुराण को आधार मानकर शास्त्र सम्मत कुलपूजा विधि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। नयी सूचनाओं प्रस्तावों का स्वागत है।
आगम दृष्टि से सौर तंत्र परंपरा के अनुसार परिचय
1. आदित्य/अर्क - अर्क
2. आम्नाय -
3. वार्षिक पूजा की तिथि -
4. पुराण , उपपुराण या अन्य परंपरानुमोदित ग्रंथ, जिसके
आधार पर पूजाविधियाँ प्रचलित हैं। - सांब पुराण
5. मूलविग्रह एवं भित्तिचित्र - वरुणार्क- मानवाकृति एवं
पंचाश्वरथ पर आरूढ़
6. कुलगीत ,देशी बोली में - यथाप्रचलित
7. मंत्र - ¬ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो.........
8. मंडल - महामंडल- वारुण्यमंडल
9. यंत्र - अज्ञात
10 कुलपूजा का अधिकार एवं उत्तराधिकार - अज्ञात
11. कोई अन्य महत्त्वपूर्ण सूचना , यदि हो तो-
मूलस्थान में अपने घर का दरवाजा एक ही ओर खुलनेवाला बनाते हैं। शिलालेख के अनुसार भोजक।
वरुणार्क की पूजा विधि
सांब पुराण के अनुसार वरुणार्क की पूजा विधि एवं अन्य सूचनाएँ निम्न हैं। -
वरुणार्क की व्युत्पत्ति , निष्पत्ति और परिभाषा-
वरान्विवृण्वतोदेवान्वरदोहिवरार्थिनाम्।।
धातुर्वृ´्वरणेप्रोक्तस्तेनासौवरुणः स्मृतः।।
साम्ब पुराण, अध्याय ......
बारह आदित्य एवं उनके नाम निम्न हैं -
ततः स चसहस्रांशुरव्यक्तः पुरुषः स्वयम्।।
कृत्वाद्वादशधात्मानमदित्यामुदपद्यत।।5।।
इंद्रोधाताथपर्जन्यः पूषात्वष्टाऽर्यमाभगः।।
विवस्वान्विष्णुरंशुश्चचवरुणोमित्रएवच।।6।।
आभिर्द्वादशभिस्तेनसूर्येणपरमात्मना।।
सर्वं जगदिदंव्याप्तमूर्तिभिस्तुनराधिप।।7।।
तस्य या प्रथमा मूर्तिरादित्यस्येन्द्रसंज्ञिता।।
स्थितासादेवराजत्वेदेवानामनुशासनी।।8।।
द्वितीयार्कस्य या मूर्तिर्नाम्नाधातेतिकीर्तिता।।
स्थिताप्रजापतित्वेसाविविधाः सृजते प्रजाः।।9।।
तृतोयार्कस्ययामूर्तिः पर्जन्यइतिविश्रुता।।
मेघे व्यवस्थिता सा तु वर्षते च गभस्तिभिः।।10।।
चतुर्थी तस्य या मूर्तिर्नाम्ना पूषेति विश्रुता।।
अन्ने व्यवस्थिता सा तु प्रजाः पुष्णाति नित्यशः।।11।।
पंचमी तस्य या मूर्तिर्नाम्नात्वष्टेति विश्रुता।।
स्थिता वनस्पतौ सा तु ओषधीषु च सर्वशः।।12।।
मूर्तिः षष्ठी रवेर्या तु अर्यमा इति विश्रुता।।
वायोः संचरणार्था सा देहेष्वेव समाश्रिता।।13।।
भानोर्या सप्तमी मूर्तिर्नाम्ना भग इति श्रुता।।
भूमौ व्यवस्थिता सा तु शरीरेषु च देहिनाम्।।14।।
मूर्तिर्याचाष्टमीवास्य विवस्वानितिविश्रुता।।
अग्नौव्यवस्थितासा तुपचत्यन्नंशरीरिणाम्।।15।।
नवमी मित्रभानोर्यामूर्तिविष्णुश्चनामतः।।
प्रादुर्भवतिसानित्यंदेवानामरिसूदनी।।16।।
दशमीतस्यया मूर्तिरंशुमानितिविश्रुता।।
वायौप्रतिष्ठितासातुप्रह्लादयतिवै प्रजाः।।17।।
मूर्तिस्त्वेकादशीयातुभानोर्वरुणसंज्ञिता।।
साजीवयतिवैकृत्स्नं जगदप्सुप्रतिष्ठितम््।।18।।
अपांस्थानंसमुद्रस्तुवरुणोप्सुप्रतिष्ठितः।।
तस्माद्वैप्रोच्यतेनाम्नासागरोवरुणालयः।।19।।
मूर्तिर्याद्वादशी भानोर्नामतोमित्रसंज्ञिता।।
लोकानां सा हितार्थाय स्थिता चंद्रसरित्तटे।।20।।
वायुभक्षस्तपस्तेपेस्थितोमैत्रेणचक्षुषा।।21।।
अनुगृह्णन्सदाभक्तान्वरैर्नानाविधैस्तुसः।।
एवमाद्यमिदंस्नानं पश्चात्सांबेन निर्मितम्।।22।।
तत्रमित्रस्थितोयस्मात्तस्मान्मित्रवनंस्मृतम्।।
एवं द्वादशभिस्तेन सवित्रा परमात्मना।।23।।
एवंद्वादशादित्यंजगज्ज्ञात्वातुमानवः।।
नित्यंश्रुत्वा पठित्वा च सूर्य लोके महीयते।।24।।
इति श्रीसाम्बपुराणे द्वादशमूर्त्युपाख्यानंनाम चतुर्थोऽध्यायः।।4।। साम्ब पुराण, अध्याय -4
अन्यत्र भी इसी प्रकार कहा गया है-
।।नारदउवाच।।
अथादित्यस्यनामानि सामान्यानीहद्वादश।।
द्वादशापिपृथक्त्वेन तानि वक्ष्याम्यशेषतः।।1।।
आदित्यः सवितासूर्यो मिहिरोर्कः प्रभाकरः।।
मार्तंडोभास्करोभानुश्चित्रभानुर्दिवाकरः।।2।।
रविर्द्वादशकश्चैव ज्ञेयः सामान्यनामभिः।।
विष्णुर्द्धाताभगः पूषामित्रेन्द्रौवरुणोयमः।।3।।
विवस्वानंशुमांस्त्वष्टापर्जन्योद्वादशः स्मृतः।।
इत्येतेद्वादशादित्याः पृथक्त्वेनप्रकीर्तिताः।।4।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
बारह आदित्यों का वर्गीकरण कर तदनुसार बारह मासों के साथ उन्हें जोड़ा गया है-
उतिष्ठन्ति सदाह्येतेमासैर्द्वादशभिः क्रमात्।।
विष्णुस्तपति चैत्रेतुवैशाखेचार्यमातथा।।5।।
विवस्वा´्ज्येष्ठमासेतुआषाढेचांशुमान्स्मृतः।।
पर्जन्यः श्रावणेमासेवरुणः प्रौष्ठसंज्ञके।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
चंद्रमा की सोलह कलाएँ मानी गयी हैं और उसी अनुसार बारह आदित्यों के द्वारा सोलह कलाओं का पान करना भी माना गया है। वरुणार्क पंचमी कला का पान करते हैं। अतः वरुणार्क के लिये पंचमी तिथि का विशेष महत्त्व है।
कलाः षोडससोमस्यशुक्लेेवर्द्धयते रविः।।
अमृतानामतः कृष्णे पीयंते दैवतैः क्रमात्।।12।।
प्रथमांपिबतेवह्निर्द्वितीयांतुरविः कलाम्।।
विश्वेदेवास्तृतीयांतु चतुर्थीं तु प्रजापतिः।।13।।
पंचमीं वरुणश्चापि षष्टीं पिबति वासवः।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
दिन के तीन मुख्य भागों के साथ वरुणार्क का संबंध निम्न रूप में स्पष्ट किया गया है कि किस समय किसकी पूजा करनी चाहिये।
त्रिकालंतु रवेः पूजा कर्त्तव्यासूर्यदर्शनात्।।
अर्धोदिते ख मथ्यस्थे भानोर्वास्तंगते तथा।।19।।
मिहिराय च पूर्वाहृेमध्याहृे ज्वलनायच।।
अर्धोद्यन्मंडलेदेयानीचाह्नेवरुणायच।।20।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
वरुणार्क के लिए अपराह्न में अर्घ्यदान करना चाहिए। वैसे भी गंधर्ववेद के अभ्यासी लोेगों के लिए यह सुविधाजनक ही हैं।
पूजा के मंत्र जैसे आवाहन आदि के मंत्र प्रचलित मंत्र ही हैं।
एहिसूर्यसहस्रांशोतेजोराशेजगत्पते।।
अनुकंपयमांभक्त्या गृहाणार्घं दिवाकर।।24।
अनेनावाहनंकृत्वा जानुभ्यां संस्थितः क्षितौ।।
रवेर्निवेदयेदर्घ्यमादित्यहृदयंजपेत्।।25।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
इस प्रकार आदित्यहृदय को परंपरागत स्तोत्र माना जा सकता है।
वरुण के विशिष्ट मंत्र निम्न हैं।
ऊँ नमोवरुणाय, ऊँ आकृष्णेनरजसावर्त्तमानोनिवेशयन्नमृतंमर्त्यंच।।
हिरण्मयेन सविता रथेनादेवो याति भुवनानि पश्यन्।।35।।
साम्ब पुराण, अध्याय......
भारतीय परंपरा में किसी भी देवता की पूजा के लिए और विशेष कर दीक्षा प्राप्त करने के लिए मंडल का बहुत महत्त्व है। सर्वतोभद्र आदि अनेक मंडल बनते हैं। सूर्य के मंडल का नाम महामंडल है। इस महामंडल के साथ ही वरुण का अपना मंडल भी होता है, जिसका विस्तृत वर्णन साम्ब पुराण के 39 अध्याय में है। यहाँ विस्तार के भय से वर्णन नहीं किया जा रहा है।
सांबं प्रति महाबाहो यदुक्त्तंभास्करेणतु।।
तन्महामंडलंनामतत्त्वं मंत्रविभूषितम्।।6।।
यथाव्यवस्थितात्स्थानाद्भूमिं निष्क्रम्य शोधयेत्।।
याम्यंमाहेन्द्रंवारुण्यंकौबेरंचयथा ....................
साम्ब पुराण, अध्याय......
जो लोग इस सामान्य सूचना के अतिरिक्त अपनी परंपरा एवं पूजा विधि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना चाहते है उन्हें साम्ब पुराण संपूर्ण एवं भविष्य पुराण के भविष्योत्तर खंड तथा ब्राह्मपर्व का अध्ययन करना चाहिए। साम्ब पुराण में मोक्ष रूपी श्रेय तीन पुरुषार्थ रूपी प्रिय और अनिष्ट निवारण के लिए अभिचार आदि षट्कर्मो की भी प्रणाली बतायी गयी है। और उसके भले बुरे परिणामों से भी सावधान किया गया है।
सावधान
कुछ लोगों ने सौर पूजा के वर्चस्व से चिढ़ कर उन्हें नीचा दिखाने के लिए अनेक प्रकार के उपाय किये है और मनमानी टिप्पणियाँ की हैं। उनके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। सौर पुराण नाम से एक उपपुराण प्राप्त होता है। देखने में तो लगता है कि सूर्य या उनके उपासक लोगों का यह पुराण होगा लेकिन वस्तुतः यह एक शैव पुराण है, जिसमें सूर्य का शिव में अंतरभाव करके काशी विश्वनाथ के एक मात्र माहात्म्य को स्थापित किया गया है। ऐसी पुस्तकों से कोई सूचना तो नहीं ही मिलती है उल्टे अनेक भ्रम विकसित होते हैं।
अपनी परंपरा के लिए प्रचलित पारंपरिक श्रद्धा भविष्यपुराण एवं सांबपुराण के प्रति ही है। पहले सांब पुराण भी दुर्लभ हो गया था किंतु अब यह हिन्दी अनुवाद के साथ चौखंबा प्रकाशन, वाराणसी से उपलब्ध है।
देव वरुणार्कः भोजपुर का एक प्राचीन तीर्थ पंचहाय एवं वरुणार्क पुरवालों का मूलस्थान
देव वरुणार्क भोजपुर का एक प्राचीन ऐतिहासिक पुण्यतीर्थ है, जो काल के थपेड़ों से परवर्ती कालों में धूमिल एवं विस्मृत सा होता गया। आध्यात्मिक दृष्टि से तो इसका महत्त्व अन्य विख्यात सूर्यमन्दिरों के समान है ही, ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक दृष्टि से भी इसका अपना विशेष स्थान है। यह इतिहास की अनेेक कड़ियों को जोड़ता है। देव वरुणार्क के ध्वस्त सूर्यमन्दिर के निकट ही गुप्तकालीन एक स्तम्भलेख मिला है, जिसमेें गुप्त-नरेशों की आनुवंशीय परम्परा के साथ साथ भगवदादित्य की अर्चना-परम्परा का उल्लेेख है। पौराणिक दृष्टि से यह स्थल सूर्यवंशी शासन का करूषक्षेत्र, चन्द्रवंशी-परम्परा का मल्लक्षेत्र एवं काशिराज तथा मगधाधिपतियों का भी क्षेत्र रहा है। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार, देव वरुणार्क एवं पार्श्ववर्त्ती अन्य मन्दिरों का निर्माण राजा वरूण तथा उनके चतुर्भुज एवं कर्णजित् नाम के भाइयों ने कराया था, जो कि ‘चेरो’ राजा थे।
भारतीय संस्कृृृति में भगवान् सूर्य की आराधना की परम्परा वैदिक काल से आज तक अनवरत रूप से चली आ रही है। ऋग्वेद के सविता और मित्र जैसी प्राकृतिक शक्तियों के रूप में प्रतिष्ठित आराध्यदेव पौराणिक काल में सूर्य-प्रतिमा का विधिवत् रूप धारण कर लेते हैं।
योऽ सावात्मा ज्ञानशक्तिरेक एव सनातनः ।
स द्वितीयं यदा चैच्छत् तदा तेजः समुत्थितम् ।।
लीनीभूतस्य तस्याशु तेजोऽभूच्छरीरकम् ।
पृथ्क्त्वेन रविः सोऽथ कीर्त्त्यते वेदवाादिभिः ।।
(वराहपुराण, 26/2-5)
पौराणिक युग में सूर्य-प्रतिमा केवल देवालयों तक ही सीमित रही गुहस्थों के लिए शास्त्रों में आदित्य की अर्चना हेतु प्रत्यक्ष मूर्त्ति का ही निर्देश है। फिर भी, तान्त्रिक प्रभाव के कारण परवर्त्ती युग में ताम्रपत्र आदि पर सूूर्यचक्र के अंकन की परम्परा विकसित हुई।1
सूर्य -सम्बन्धी देवालयों के निर्माण में भारतीय संस्कृति के स्वर्णयुग-गुप्तकाल का सर्वश्रेष्ठ काल है। प्रस्तुत ‘देव वरुणार्क’ मन्दिर भी इतिहासविदों के मत से न्यूनतम मगध के उत्तरकालीन गुप्तवंश से चतुर्थ शती पूर्व का है।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, उक्त स्थान पर भगवान् वरूणार्क का मन्दिर (ध्वस्त रूप में) उपलब्ध है। उक्त देव ‘वरुणार्क स्थल बिहार-प्रान्तीय भोजपुर जिले के वर्त्तमान देव (चन्दा) ग्राम में स्थित है। इसकी दूरी हावड़ा-दिल्ली मेन लाइन के स्टेशन आरा से 26 मील दक्षिण है। यहाँ आरा-सासाराम रोड के ‘पीरो’ मोड़ से पूरब की ओर मुड़कर बस द्वारा कुरमुरी आना पड़ता है, जहाँ से इसकी अवस्थिति दो मील-दक्षिण है।
भगवान् सूर्य के पावन-स्थल होने के साथ ही साथ यह स्थान ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक दृष्टि से भी समानरूपेण महत्त्व रखता है मन्दिर के ध्वंसावशेष के निकट ही गुप्तकालीन एक स्तम्भलेख उपलब्ध है जिसमें गुप्तनरेशों की आनुवंशिक परम्परा के साथ-साथ भगवदादित्य की पूजार्चन-परम्परा का भी समानान्तर उल्लेख है।
पौराणिक दृष्टिकोण से यह सूर्यवंशी शासन का ‘करूषक्षेत्र’, चन्द्रवंशीय परम्परा का ‘मल्लक्षेत्र’ एवं काशिराज तथा मगध के अधिपतियों का भी क्षेत्र रहा है। यहाँ के स्तम्भलेखों पर उत्कीर्ण मौखरि-नरेशों केे नाम उनके आधिपत्य और मन्दिर के प्रति संरक्षण-भावना के सूचक हैं। 1 यहाँ की जनश्रुतियों के अनुसार, ‘वरुणार्क्र’ एवं पार्श्ववर्ती अन्य मन्दिरों का निमार्ण राजा ‘वरुण’ तथा उनके अन्य दो भाई ‘वरुणार्क एवं कर्णजित्’ ने कराया, जो चेरों के राजा थे। 2 शिक्षित समाज भी इसे ‘जीवितगुप्त’ (द्वितीय) एवं ‘अवन्तिवर्मन्’ के स्तम्भलेखो के आधार पर दैवी रचना न सही पर न्यूनतम उत्तर गुप्तकालीन तो अवश्य मानता है।
वर्तमान स्थिति:
उक्त मन्दिर का ध्वंसावशेष एक आयताकार (उत्तर -दक्षिण 106’ पूर्व-पश्चिम 140’ ) उँचे टीले पर अवस्थित है। प्र्रधान मन्दिर जिसका निमार्ण (जीणोद्धार)भी अभी पूर्ण नहीं हुआ है, टीले की दक्षिणी सीमा से 25’ की दूरी एवं पश्चिमी छोर से 65’ की दूरी पर अवस्थित है, जो ऊपर की ओर धटता चला गया है। ऊँचाई करीब 50’ है जिसपर अभी कलश भी स्थापित नहीं हो पाया है। मन्दिर का द्वार पूरब की ओर है, जिसमें लकड़ी का छड़दार एक ही ओर मुड़ने वाला किवाड़ है। द्वार का चौखट पत्थर एर्वं इंट का बना हुआ है। गर्भगृह की पश्चिमी दीवार से सटे हुए पाँच चबूतरे बने हुए है , जिनपर पाँच मूर्त्तियाँ रखी हुई हैं। इनमें भी बीच का चबूतरा पार्श्ववर्ती चबूतरांे से दुगना उँचा है। मन्दिर बाहर से तो चतुष्कोणात्मक रूप में सिकुड़ता है, पर भीतरी बनावट आधुनिक सामान्य संरचनाओं जैसी है।
इस नवीन मन्दिर से सटेे पूरब की ओर एक ऊँचा वेदिकाकार पूरब-पश्चिम की ओर 30’ लम्बा भाग है, जो सभा-भवन का ध्वस्त अवशेष है। इस वेदिका के दक्षिणी छोर पर औसत 21’ ऊँची ध्वस्त भित्ति भी है, जिसके सहारे कई प्राचीन मूर्त्तियाँ पड़ी हुई हैं।
नवीन मन्दिर के समानान्तर टीले के उत्तरी छोर पर प्राचीन मन्दिर का ध्वस्त अवशेष खड़ा है। मन्दिर प्रवेशद्वार सहित पूरब से अर्द्ध्र-ध्वस्त है। इसकी ऊपरवाली मंजिल की दीवार थोड़ी-सी बची है। पश्चिम की दीवार आधी से अधिक ऊँचाई तक खड़ी है, केवल वज्रलेप छूट गया है। उ़त्तर और दक्षिण की ओर से भी आधे से अधिक ही अंश वर्त्तमान है। मन्दिर तीन प्रकार की ईटों एवं प्रस्तर-खण्डों से बना है। ईटें प्रधान रूप से दो प्रकार की हैं (क) आयताकार फलक की आकृतिवाली एवं (ख) अर्द्धवृत्ताकार। ‘क’ आकृति की कुछ ईटों को ही काटकर आवश्यकतानुसार उन्हें त्रिकोणात्मक या अन्य आकृतियाँ दी गई हैं। मन्दिर करीब 401 ऊँचा है, जिसकी पश्चिमी भुजा पूर्णरूपेण 201 है। मन्दिर आधी ऊँचाई (करीब पहली मंजिल) तक तीन ओर से 11 कोणों का बना है, जिनमें 5कोण आधी ऊँचाई तक ही समाप्त हो जाते हैं। मन्दिर के भीतर किंचित् मध्यम आकार का और कई लघुं आकार के हैं ये सर्भी इंटों के बने हैं।
सबसे विशाल मन्दिर बाहर से 42’ वर्गाकार है, जिसके अन्दर 7’, 1’’ वर्गाकृति का एक कक्ष है, जिसमें पूर्वाभिमुख 4’, 3’’ चौड़े वृत्ताकार ईटों से बने क्रमशः एक दूसरे से छोटे एवं परस्पर उभरे हुए करीब 23 वृत्त हैं। ये वृत्त चतुष्कोणों पर दो भित्तियों के ऊपर तिरछे रखे हुए 4 शिलाखण्डों पर टिके हुए हैं, जिनकी लम्बाई 31-311, चौड़ाई 11-111 एवं मोटाई 91 है। इन वृत्तों से बने अर्द्धवृत्त एवं प्रधानर्भिित्त के बीच गारे के साथ ईंट के टुकड़े भरे हुुए हैं। ग्रामीणों के कथनानुसार, मन्दिर एवं सभा-भवन सन् 1934 ई0 के भूकम्प में धराशायी हुए।
फर्श के उत्तरी-पूर्वी छोर पर 597 वर्गफीट का एक कक्ष नहर-विभाग के किसी पदाधिकारी द्वारा संग्रहालय हेतु बनवाया गया है, जिसमें बनी पीठिकाओं को तोड़कर ग्रामीणों ने इसे एक बड़े कक्ष का रूप दे रखा है। इसी पदाधिकारी ने मन्दिर के ध्वस्त प्रांगण एवं सभा-भवन आदि स्थानों से उखड़वाकर पंक्तिबद्ध रूप में भवन के सम्मुख छह और पीछे दो स्तम्भों को गड़वा दिया है यह कार्य और भी आगे बढ़ता , किन्तु दुर्भाग्यवश उक्त पदाधिकारी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण मूर्त्तियों को संग्रहालय मेें नहीं रखवाया जा सका।
फर्श के दक्षिण-पूर्वी कोण पर शिव का एक पक्का मन्दिर है और उसके समीप ही दक्षिण में ईट का बना एक खपड़ैल कमरा है, जिसमें विभिन्न स्थानों से मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। लोग इसे ‘काली मन्दिर’ कहते हैं। इसी खपडै़ल कमरे से पूर्व 321 की दूरी पर एक ग्रामीण (विद्यार्थी साव) के ठीक दरवाजे पर एक एकाश्मीय स्तम्भ है, जिसपर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। इन्हें किसी ने नवग्रह (केतु को छोड़कर), तो किसी ने लोकपाल आदि माना है।
इन प्रत्यक्ष उपलब्धियों के अतिरिक्त कई अन्य विषय एवं सामग्री प्रचलित मान्यताओं एवं विश्वासों के कारण अज्ञात बनी हुई हैं। इस फर्श के नीचे एक तहखाना और एक सुरंग भी है, जिसकी जानकारी कतिपय ग्रामीण ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को नहीं है। परम्परागत विश्वासों के कारण अनिष्ट की आशंका से कोई भी उनकी गोपनीयता भंग नहीं करना चाहता। यद्यपि नवीन मन्दिर के निर्माण के समय हुई खुदाई में लोेेगों को एक सुरंग का पता चल गया है। यहाँ का वास्तविक विग्रह एवं अन्य सामग्री इसी तहखाने में छिपाई गई है। कार्तिक शुक्ल-षष्ठी एवं चैत्र शुक्ल-षष्ठी के सूर्यव्रत (जो बिहार में अत्यन्त लोकप्रिय है) के अवसर पर मन्दिर के संरक्षक ब्राह्मण-परिवार में, अशौच के नहीं होने पर, आधी रात में पूरी निगरानी के साथ पर्दा डालकर मूर्ति को निकाला जाता है। तत्पश्चात् विधिवत् पूजार्चा के बाद सर्वसाधारण के लिए उसका दर्शन सुलभ हो पाता है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, तहखाने मेें छिपाई गई (पालकालीन) मृर्त्ति काले पत्थर की बनी करीब 51-61 ऊँची एवं 31 चौड़ी है। मूर्त्ति के वस्त्रोपवेष्टित रहने के कारण प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण के आधार पर यह कहना कठिन है कि इसके अधिष्ठातृदेव कौन है। जनसामान्य इसे ‘बनारख बाबा’ के नाम से जानता है।
एलेक्जेण्डर कनिंघम ने सन् 1828 ई0 के आसपास इस स्थल का निरीक्षण किया था तथा उसका विवरण प्रकाशित कराया था। उस समय उक्त स्थल वर्त्तमान काल की अपेक्षा कुछ अच्छी स्थिति में था। उसके अनुसार देव वरुणार्क के प्रधान अवशेष गाँव के पश्चिम में एक ऊँचे आयताकार फर्श पर एक दूसरे से सटे हुए अवस्थित हैं। फर्श का माप 1361×1071 है। सीढ़ी के बहुत ही समीप दक्षिण-पूर्वी कोण पर एक अत्यन्त रुचिर एकाश्मीय स्तम्भ है और उत्तरी-पूर्वी छोर पर स्थित एकाश्मीय स्तम्भ के समीप ही एक छोटा-सा गुम्बद एवं अन्य मन्दिर के ध्वंसावशेष है। इन दोनों स्तम्भों के बीच से ठीक प्रधान मन्दिर के प्रवेशद्वार के सम्मुख पूर्व की ओर गाँव से होकर एक सीधा रास्ता सुन्दर पोखरे तक जाता है।
बुकानन ने उक्त चित्रित एकाश्मीय स्तम्भ ;डवदवसपजीद्ध को ज्ीम उवेज बनतपवने तमउंपदेश् की संज्ञा दी है। वस्तुतः यह स्तम्भ अपने काल की दृष्टि से अत्यन्त रुचिर एवं महत्त्वपूर्ण है, जबकि इन्द्र, यम, वरूण, कुबेर जैसे देवों की आराधना होती थी। यह स्तम्भ अपने स्तम्भ-शीर्ष के साथ 8’-9’’ ऊँचा एवं आधारस्थान पर 15’’ मोटा है। बहुत से गुप्तकालीन फलकों की तरह इस वर्गाकार फलक का भी निम्नार्द्ध 4’’ चौड़ा और 20’’ ऊँचा अलंकृत है। मेरे विचार से, ये शिव, पार्वती, भैरव और गणेश की प्रतिमाएँ हैं। ऊपरी चौकोर वर्गाकार छोर के चारों ओर इन्द्र, वरुण, कुबेर एवं यम, इन चतुर्दिक्पालों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। फलक के अष्टकोणात्मक भाग पर केतु को छोड़कर शेष 8 ग्रहों की प्रतिमाएँ हैं। इस सम्बन्ध में बुकानन की कल्पना है कि इस फलक की रचना उस समय हुई होगी, जब केतु का (तारे के रूप मेें ) पता नहीं हुआ होगा: क्योंकि यह कहना उचित नहीं है कि जो शिल्पी अष्टकोणों पर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण कर सकता है, वह क्या नवकोणों का निर्माण नहीं कर सकता था ? ये प्रतिमाएं पूर्व से दक्षिण की ओर क्रमशः इस प्रकार हैं: सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्र, बुध एव वृहस्पति। इस सम्बध में कनिंघम को संशय था, चूँकि इन प्रतिमाओं में राहु को छोड़कर, जिसका कि कबन्ध-मात्र शेष है, केवल कुछ ग्राह्म वस्तुओं एवं कुछ हस्तमुद्राओं का ही अन्तर है, अतः सम्भव है कि प्रतिमाएँ अष्टदिक्पालों की हों। उनके अनुसार, पूर्व से दक्षिण की ओर ये प्रतिमाएँ इस प्रकार होनी चाहिए: इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरूण, वायु, कुबेर एवं शिव।
यहाँ प्रधान रूप से दो विशाल मन्दिर है, इनके अतिरिक्त एक प्रवेशद्वार के सामने 25’21) माप का, आधार के लिए प्रयुक्त 4 स्तम्भों से युक्त एक विस्तृत कक्ष है। यह कक्ष मन्दिर की दीवार से जुड़ा न होने एवं अन्य कई कारणों से परवर्त्ती योग प्रतीत होता है। इन्हीं चार स्तम्भों में एक पर 19 पंक्तियों में ‘आदित्यसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘जीवितगुप्त’ (द्वितीय) का लेख अंकित है।
बाहर से मन्दिर की दीवार की संरचना बीच से उभरते हुए कई छोटे-छोटे कोणों वाली है। भीतरी तौर पर चतुष्कोणों पर पत्थर रखकर वर्गाकृति को अष्टकोणात्मक, पुनः उसे दुहराकर षोडशकोणात्मक एवं पुनः इसी पूरी प्रक्रिया को दुहराकर, अन्तिम रिक्ति चक्रांकित शिलापट्ट द्वारा पूरी की गई है।
इसकी ऊपरी मंजिल की छत पुरानी हिन्दू-शैली के अनुरूप ही चार कोणों से उठते हुए मेहराबों के आकार में बनी हुई थी इसका अधिकांश तो ध्वस्त ही है, पर ध्वंसावशेष की कुछ झुकी हुई ईटें छत के नतोदर भाग को स्पष्ट करती हैं। मन्दिर के अन्दर यद्यपि चतुर्भुज विष्णु की मूर्त्ति है, तथापि जैसा कि स्तम्भलेख में लिखा है, इस मन्दिर के प्रधानदेव वरूणासी ग्राम के भट्टार्क (सूर्य) हैं।
सम्मुखवर्त्ती कक्ष में मूर्त्तियाँ दीवार के किनारे टिकाई गई हैं और कुछ मूर्त्तियों को ब्राह्मणों ने तहखाने में गाड़ रखा है, जिसे कृपाकर मेरी (अर्थात् कनिंधम) जाँच के लिए इन्होंने खोल दिया। श्याम-शैल से बनी प्रधान मूर्त्तियाँ इस प्रकार हैं: गणेश 2, हरगौरी
दूसरा मन्दिर बाहर से 20’ वर्गाकृति का है, जिसके अन्दर 8’, 1’’ भुजावाला कक्ष है। बाहर से दीवारों की संरचना प्रथम मन्दिर के अनुसार है। भीतर से चतुष्कोणों पर शिलाफलक रखकर उन्हें अष्टाकोणात्मक बनाया गया है। जिसके ऊपर एक दूसरे ढेँ़कनेवाली ईटों के 26 वृत्त है, जों क्रमशः संकुचित हैं। शेष छोटी-सी रिक्ति एक शिलाफलक के द्वारा बन्द कर दी गई है। आकार में यह बहुत हद तक नीचे से ऊपर की ओर सिकुड़ते हुए अर्द्धवृत्त की तरह है, जिसकी ऊँचाई एवं अर्द्धव्यास 4’ है। ऊपरी कक्ष (दूसरी मंजिल) पूर्व से पूरी तरह ध्वस्त है, पर पश्चिमी दीवार के आधार पर निश्चित है कि कमरा 9’, 3’’ चौड़ा है।
मन्दिर का प्रवेशद्वार ठीक पूर्व की ओर है, जिससे होकर उदीयमान सूर्य की किरण विग्रह पर पड़ती है। प्रधान विग्रह की वास्तविक पीठिका काले पत्थर की बनी 3’8’’ लम्बी एवं 2’ ऊँची है, जिसमें सूर्य के सप्ताश्व उत्कीर्ण हैं। इस पीठिका के ऊपर ईंट की बनी एक छोटी सी पीठिका है, जिस पर 2’ ऊँची मूर्त्ति स्थापित है। बुकानन के समय में इस मूर्त्ति को ‘कुमारी’ के नाम से जाना जाता था, पर यह स्पष्टतः मुकुटपुष्प-युक्त पुरुषाकृति है।
तीसरा मन्दिर बाहर से 8’- 6’’ वर्गाकृतिवाला है एवं भीतर से 3’-10’’ भुजावाला है। इसके अन्दर दो हाथोंवाली एक नारी-मूर्त्ति प्रतिष्ठित है, जिसे अबतक पहचाना नहीं जा सका है।
मन्दिर के दक्षिणी-पूूर्वीं छोर पर बिना छत का एक कमरा है, जिसके बीच में अज्ञातनाम लिंग है। चारों ओर दीवारों के सहारे आसपास के विभिन्न स्थानों से कई मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। उदाहरणार्थ विष्णु, हरगौरी, दुर्गा, कंकाली, पुरूषासीन, घोड़े पर सवार राजा नीचे वादकों के साथ (ऊपरी भाग ध्वस्त) आदि। सभा-भवन से दक्षिण-पूर्व एक गोल गुम्बदाकार छतवाला शिवमन्दिर है। इसी प्रकार भारतीय खपड़ैल-शैली के बने दो कक्ष और भी हैं।
इस सम्पूर्ण टीले की ईटों से बनी एक चारदीवारी है, जिसका प्रवेश प्रधान मन्दिर के सामने ठीक पूर्व की ओर है। पहले विस्तृत सीढ़ियांॅ भी थीं, जो आज सामान्य रूप में हैं। कनिंघम के पूर्वाेक्त विवरण तथा अन्य दूसरे स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन से निम्नांकित तथ्यों की जानकारी मिलती है -
सभा-भवन के स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार, ‘ आदित्यदसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘सवितृगुप्त’ (जीवितगुप्त द्वितीय) के द्वारा ‘वरुण-वासी भट्टार्क’ (सूर्य) के मन्दिर को कुछ दान दिया गया था, यदि कनिंघम का पठन हर्ष सं0 152 सही है, तो इस (लेख) का काल पूर्व से पूरी तरह ध्वस्त है, पर पश्चिमी दीवार के आधार पर निश्चित है कि कमरा 9’, 3’’ चौड़ा है।
मन्दिर का प्रवेशद्वार ठीक पूर्व की ओर है, जिससे होकर उदीयमान सूर्य की किरण विग्रह पर पड़ती है। प्रधान विग्रह की वास्तविक पीठिका काले पत्थर की बनी 3’8’’ लम्बी एवं 2’ ऊँची है, जिसमें सूर्य के सप्ताश्व उत्कीर्ण हैं। इस पीठिका के ऊपर ईंट की बनी एक छोटी सी पीठिका है, जिस पर 2’ ऊँची मूर्त्ति स्थापित है। बुकानन के समय में इस मूर्त्ति को ‘कुमारी’ के नाम से जाना जाता था, पर यह स्पष्टतः मुकुटपुष्प-युक्त पुरुषाकृति है।
तीसरा मन्दिर बाहर से 8’- 6’’ वर्गाकृतिवाला है एवं भीतर से 3’-10’’ भुजावाला है। इसके अन्दर दो हाथोंवाली एक नारी-मूर्त्ति प्रतिष्ठित है, जिसे अबतक पहचाना नहीं जा सका है।
मन्दिर के दक्षिणी-पूूर्वीं छोर पर बिना छत का एक कमरा है, जिसके बीच में अज्ञातनाम लिंग है। चारों ओर दीवारों के सहारे आसपास के विभिन्न स्थानों से कई मूर्त्तियाँ संगृहीत हैं। उदाहरणार्थ विष्णु, हरगौरी, दुर्गा, कंकाली, पुरूषासीन, घोड़े पर सवार राजा नीचे वादकों के साथ (ऊपरी भाग ध्वस्त) आदि। सभा-भवन से दक्षिण-पूर्व एक गोल गुम्बदाकार छतवाला शिवमन्दिर है। इसी प्रकार भारतीय खपड़ैल-शैली के बने दो कक्ष और भी हैं।
इस सम्पूर्ण टीले की ईटों से बनी एक चारदीवारी है, जिसका प्रवेश प्रधान मन्दिर के सामने ठीक पूर्व की ओर है। पहले विस्तृत सीढ़ियांॅ भी थीं, जो आज सामान्य रूप में हैं। कनिंघम के पूर्वाेक्त विवरण तथा अन्य दूसरे स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन से निम्नांकित तथ्यों की जानकारी मिलती है -
सभा-भवन के स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार, ‘ आदित्यदसेनदेव’ के प्रपौत्र ‘सवितृगुप्त’ (जीवितगुप्त द्वितीय) के द्वारा ‘वरुण-वासी भट्टार्क’ (सूर्य) के मन्दिर को कुछ दान दिया गया था, यदि कनिंघम का पठन हर्ष सं0 152 सही है, तो इस (लेख) का काल 606$152 758 ई0 -सन् होगा और इसके आधार पर ही राजा ‘वरूण’ तथा उनके दो भाइयों -चतुर्भुज और ‘कर्णजित्’ द्वारा मन्दिर की स्थापना में थोड़ा भी सत्यांश मान लिया जाय, तो मन्दिर उक्त तिथि से कम से कम 3-4 शती पूर्वकालीन होेगा।
ध्वस्त मन्दिर एवं कनिंघम के वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट है कि मन्दिर की शैली-प्रधानरूपेण उत्तरभारतीय है, जिसमें उड़ीसा की शैली से कई अर्थो में समानता है। जैसे: मन्दिर का एक से अधिक मंजिलोंवाला होना, बाहर की ओर दीवारों के उभरे हुए कोण, ‘कोणार्क’ मन्दिर की तरह प्रधान मन्दिर के आगेे एक लम्बा कक्ष आदि।
मन्दिर की बाहरी संरचना न केवल ‘कोणार्कं’ अपितु भुवनेश्वर के ‘लिंगराज’ और ‘अनन्तदेव’ के मन्दिर से भी कुछ साम्य रखती है। इसी तरह ‘लक्ष्मण-मन्दिर’ के पार्श्ववर्त्ती मन्दिरों से भी इसकी समानता है। इतना ही नहीं, खजुराहो इत्यादि सभी प्राचीन मन्दिरों की संरचना ही समकालीन न होने पर भी परस्पर साम्य रखती है। ध्यातव्य है कि ‘कोणार्क’ में भी एकाश्मीय स्तम्भ पर नवग्रह-प्रतिमाओं का अंकन है।
‘देव वरुणार्क’ प्रधान रूप से सूर्य का स्थल है, फिर भी समन्वयात्मक संस्कृति का उसपर ऐसा प्रभाव है कि विभिन्न राजाओं ने वहाँ अन्य मन्दिरों का भी निमार्ण कराकर अनेक विग्रहों की स्थापना की। इसका प्रमाण स्तम्भ-लेखों मेें उत्कीर्ण राजाओं के विशेषण हैं जैसे
‘परम भागवत श्रीआदित्यसेनदेवः’।
‘परम माहेश्वर परम भट्टारक श्रीदेवगुप्त’।
‘परम भट्टारक .....श्रीविष्णुगुप्तदेवः’।
मन्दिर के विषय में तबतक निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, जबतक कि तहखाने में पड़ी मूर्त्तियों का पता नहीं चल जाता। दुर्भाग्य है कि षष्ठीव्रत के समय भी एकाध बार जब वास्तविक विग्रह को बाहर निकाला गया, किसी ने चित्र नहीं खींचा, न ही गवेषणात्मक दृष्टि से देखा। दुर्भाग्यवश, इतने महत्त्वपूर्ण पक्ष का वर्णन कनिंघम ने भी पर्याप्त रूप से नहीं किया है। ‘जीवितगुप्त’ एवं ‘अवन्तिवर्मन्’ के स्तम्भलेखों के अतिरिक्त कुछ परवर्त्ती काल के भी नागरी में लिखे स्तम्भलेख हैं, जिनके गवेषणात्मक अध्ययन से भी इस परम्परा का पता चल सकता है वैसे प्राचीन मन्दिरों में अनेक तहखाने पाये जाते है एवं मूत्तियों को तहखाने में रखने की परम्परा भी है, जैसे पुरी के मन्दिर की मूर्त्तियाँ। विदेशियों के आक्रमणों एवं मूर्त्तिभंजकों से सुरक्षा हेतु ही इस प्रकार की व्यवस्था की गई होगी। इन आधारों पर तथा इस क्षेत्र में अवस्थित जैन एवं बौद्धधर्म के कतिपय प्रधान केन्द्रों के आधार पर स्थानीय विद्वान् यह भी अनुमान करते हैं कि ईसवी की प्रथम शती या उससे पूर्व स्थित इस स्थल पर जैन एवं बौद्ध मूर्त्तियाँ भी रही होंगी, जिन्हें सम्भवतः पौराणिक काल में छिपाकर तहखाने में रख दिया होगा। इनकी खोज अभी शेष है। वारूणी (सूर्य की ) मूर्त्ति की पूजा का विधान आधी रात में होने एवं तहखाने पर पड़नेवाली सूर्य आदि नवग्रहों की छाया, किरण आदि के विषय में ज्याोतिर्विदोें द्वारा गम्भीर अध्ययन अपेक्षित है।
मेरे दृष्टिकोण से तहखाने में छिपाने का कारण मूर्त्तिभंजकों के भय के अतिरिक्त यदि कुछ अन्य कारण होते, तो इनका उल्लेख भी कहीं न कहीं, कठोर धार्मिक अन्धपरम्परा के अतिरिक्त अवश्य मिलता। कुछ विद्वान् इसे वास्तविक मन्दिर न मानकर वास्तविक मन्दिर को पोखरे (जलाशय) के समीप अवस्थ्ािित मानते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि पोखरे के वास्तविक क्षेत्रफल (जो स्पष्ट है) को ध्यान में रखा जाय, तो यह मन्दिर भी पोखरे से बहुत दूर नहीं है।
भोजक ब्राह्मणों के आधिपत्य में रहने के कारण बी0 पी0 श्रीवास्तव जैसे विद्वान् उसमें यूनानी प्रभाव की छाया देखते हैं। इनके अनुसार, इन ब्राह्मणों की आराध्य प्रतिमाओं एवं भारतीय परम्परा की प्रतिमाओं में भेद है। यूनानियों की तरह सूर्य के प्रतीक के रूप में चक्र या आभावृत्त को मान्यता नहीं देने के बाद भी ये परवर्त्ती यूनानी सूर्य की मानवाकृति को तो स्वीकार करते है, पर इन्हें कभी सप्ताश्वरथारूढ वरुण आदि के साथ नहीं प्रस्तुत करते।1 फिर भी, निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि सूर्य-मन्दिर के पर्यवेक्षक के रूप में इस पौराणिक मान्यता के साथ -
सर्वमायतनार्थ तु गृहक्षेत्रादिकं च यत्।
यन्मदीयं भवेत्कि´्चित्ग्रामे वा नगरे क्वचित्।।
तस्य सर्वस्य राजेन्द्र मदीयस्य समन्ततः।
अधिपाः भोजकाः सर्वे नान्ये विप्रादयो नृप।।
(भविष्यपुराण, अ0 11735-36)
एकाधिकार रहने पर भी, देशकाल के प्रभाव से ही सही, अन्य सम्प्रदायों एवं शैलियां के प्रति यहाँ के पर्यवेक्षक असहिष्णु नहीं रहे मन्दिर, स्तम्भ आदि के अवशेष एवं गाँव में गढ़ के अवशेष इत्यादि के अतिरिक्त गाँव से दो फर्लांग की दूरी पर बहनेवाली ‘बनास’ नदी भी कम महत्व नहीं रखती है।
इन स्पष्ट या अर्द्धस्पष्ट परम्पराओं के अतिरिक्त कुछ ही समय पहले वर्त्तमान ऊँचे फर्श से पूर्व (कुआँ बनाने के लिए) हुई खुदाई में करीब 30’ की गहराई पर प्रस्तरयुक्त भूमि मिली; इस आधार पर यह अनुमान अनुचित नहीं कि इस स्थल पर कम से कम दो संस्कृतियाँ अवश्य दबी पड़ी हैं।
सूर्य-प्रतिमा का शास्त्रीय विवेचन:
यद्यपि यहाँ का वास्तविक विग्रह तहखाने में छिपाया हुआ है, तथापि अन्य ध्वस्त या अर्द्धध्वस्त प्रतिमाओं का विवेचन भारतीय शिल्पशास्त्र के अनुसार निम्नांकित रूप में है:-
यहाँ प्रधानरूपेण सूर्य की छह स्पष्ट प्रतिमाएँ हैं, जो कृष्णशैल काला ग्रेनाइट पत्थर), श्यामशैल (नीला ग्रेनाइट पत्थर) एवं सैकतशैल (बालू पत्थर) की बनी है। तीन मूर्तियों की संरचना तो ‘विष्णुधर्मोत्तर ’ या ‘मत्स्यपुराण’ के अनुकूल है, जिनमें एक तो मेरे विचार से गुप्तकालीन है, और दूसरी मूर्त्ति उससे भी प्राचीन है।
यहाँ उपनब्ध प्रतिमाओं का मूर्ति-शास्त्रीय निरूपण आगे किया गया है। मत्स्यपुराण के अनुसार:-
रथस्थं कारयेद्देवं पद्महस्तं सुलोचनम्।
सप्ताश्व´्चैव चक्र´्च रथं तस्य प्रकल्पयेत्।।
मुकुटेन विचित्रेण पद्मगर्भसमप्रभम् ।
नानाभरणभूषाभ्यां भुजाभ्यां धृतपुष्करम्।।
स्कन्धस्थे पुष्करे ते तु लीलयेव धृते सदा।
चोलकाच्छन्न्वपुषं क्वचिच्चित्रेषुु दर्शयेत् ।।
वस्त्रयुग्मसमोपेतं चरणौ तेजसावृतौ।। (मत्स्य0 पु0, 260।-4)
इन दो मूर्त्तियों के अतिरिक्त सभी मूर्त्तियाँ, जो बालू-पत्थर की बनी हैं, ‘बृहत्संहिता’ के वर्णन के अनुसार हैं, जिनमें दण्ड तथा पिंगल के साथ होते हुए भी सारथी अरूण के साथ सप्ताश्वरथ का अभाव है
‘बृहत्संहिता’ मे बताया गया है:-
कुर्यादुदीच्यवेषं गूढं पादादुरो यावत्।
विभ्राणः स्वकररुहे बाहुभ्यां पंकजे मुकुटधारी।।
कुण्डलभूषितवदनः प्रलम्बहारो वियद्गवृत्तः।
कमलोदरद्युतिमुखः क´्चुकगुतः स्मितप्रसन्नमुखः।।
रत्नोज्ज्वलप्रभामण्डलश्च कर्तुः शुभकरोऽर्कः।। बृहत्संहिता, 57।46-48
इन दोनो मूत्तियों के अतिरिक्त, एक मूर्ति में म्यान-संहित तलवार भी घुटने तक लटकती हुई चित्रित की गई है। पूर्वविवरणानुसार, सूर्य-मन्दिर में एक सप्ताश्वरथयुक्त विशाल पीठिका भी थी। इसी प्रकार, अन्य शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थ भी दोनों प्रकार की मूर्त्तियों का विधान करते हैंं। जैसे:-
अपराजितपृच्छा के अनुसार:-
‘सप्ताश्वरथ आदित्यः ................।’
एवं रूपमण्डन के अनुसार ः
‘सप्ताश्वरथ आदित्यः ................।’
दूसरी ओर रूपमण्डन का ही विधान है कि:
सर्वलक्षणसंयुक्तं सर्वाभरणभूषितम्।
द्विभुज´्चैकवक्त्रं च श्वेतपंकजधृत्करम् ।।
केवल उदीच्यवेष का ही अन्तर है, अर्थात् जूता और चोलक (कोट) का विधान उसमें नहीं है।
सूर्य-मन्दिर के पूर्व जो एक छोटा-सा मन्दिर है, जिसकी नारी-प्रतिमा का नााम कनिंघम एव बुकानन दोनों ही नहीं बता सके साम्बपुराण की स्थान-विधि, अ0 29 के अनुसार, मेरी दृष्टि से उसे महाश्वेता का ही मन्दिर होना चाहिए। साम्बपुराण में बताया गया है कि: पिंगलो दक्षिणे भानोर्वामतोदण्डनायकः।
श्रीमहाश्वेतयोस्थानं पुरस्तादंशुमालिनः।। (29-17)
अतः निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि ‘देव वरुणार्क’ एक अतिप्राचीन ऐतिहासिक तीर्थस्थान है, जो विभिन्न युगों की उथल-पुथल, ह्रास-विकास एवं विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों से प्रभावित होता रहा है। आज भी यह न केवल ऐेतिहासिक या पुरातात्त्विक अनुसन्धान की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है, अपितु दक्षिणबिहार के तीन देवों - देव (उमगा), देव, (मार्कण्डेय), देव (वरुणार्क) - में भी प्रधानता रखता है। यहाँ गुप्तकालीन प्रतिमाएँ यदि भावाभिव्यंजन की असीम-प्रतिभा से मन्त्रमुग्ध कर देती है, तो काले पत्थर पर उत्कीर्ण कला की अलंकृत-प्रधान पालकालीन प्रतिमाएँ अपनी सूक्ष्मता से बरबस ध्यान आकृष्ट कर लेती हैं। एक ही देवता की विभिन्न शिलाओं पर विभिन्न शैलियों में बनी प्रतिमाएँ स्पष्ट करती हैं कि इस क्षेत्र में यह मन्दिर अति प्राचीन काल से विभिन्न युगों का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है। इतना अवश्य है कि आवागमन की सुविधा सेे रहित(जहाँ अब सुविधा हो गयी है) निरे देहाती क्षेत्र में होने के कारण इसका आजतक न तो पर्याप्त गवेषणात्मक अध्ययन ही हो पाया है और न पुरातत्त्व विभाग की ओर से इसकी सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था ही हो सकी है।
यहनिबंध 1978 में लिख गया है। उसके बाद कुछ परिवत््रन भी हुए हैं।
हाल ही में प्राप्त सूचना के अनुसार अब बनारख बाबा की प्रतिमा को गांव के अन्य विजातीय लोगों ने जमीन के अंदर से बाहर निकाल दिया है। चूंकि मैं इघर इस गांव में नहीं गया अतः प्रतिमा के बारे में जानकारी देखने के बाद दूंगा।
17 टिप्पणियां:
संकलनइतना अच्छा है की वर्णन नहीं किया जा सकता परन्तु विषय वस्तु में रूचि रखने वालो की संख्या कितनी है कह पाना मुश्किल है फिर भी मेरा यह परेश होगा की रूचि रखने वाले लोगो को उपलब्ध कराया जा सके
पाठक जी
आपका प्रयास सराहनीये ही नहीं प्रशंसनीय है ...इस सार्थक पहल की मैं खुले दिल से प्रशंसा करता हूँ...गिने चुने लोग ही होगे जो इतना कुछ जानकारी अपने समाज ,कुल के बारे में रखते हों....ऐसा लगता है ज्ञान का अतल समुद्र समेटा है मग ब्राह्मणों से सम्बंधित.....इस सार्थक जानकारी किताब रूप देने की जरुरत है ...
भवतु
पढ़कर बहुत अच्छा लगा। लग रहा है देव वरुणार्क की यात्रा पर निकल ही पड़ूँ।
https://www.facebook.com/pages/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0-Pur-Extension/560216777414462?notif_t=page_new_likes
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किसी तरह आप तक पहुंचने की कड़ी मिली उन को कोटिशः नमन।आप श्री को भी हार्दिक अभिवादन।मैं पिरो से दक्षिण लहठान गांव का निवासी हूँ एवम कश्यप गोत्रीय पंचहाय पुर वाला हूँ।मेरे लिए यह निबंध मेरे जन्म प्रमाण पत्र से भी अधिक मूल्यवान संपत्ति है और जिन्होंने यह उपलब्ध कराईं है वे तो महान संत ही हैं।
अद्भुत आख्यान ।अपने मग संस्कृति को जानने के लिए अनुपम कृति ।धन्यवाद साझा करने के लिए ।
अद्भुत आख्यान ।अपने मग संस्कृति को जानने के लिए अनुपम कृति ।धन्यवाद साझा करने के लिए ।
Dhanyavad, Anya puron par bhi saamagree hai. Vah bhi dekh sakatee hain.
sabhi Bhai bandhuo ko pranam in sari lekho ko padh ke mujhe apne kul our jati ke baare me jankari mili iske liye mai aapki jitni prasansa karu utni kam hai apka bahut bahut Dhanyabad
क्या sakdipi ब्राह्मणों को महादेव की पूजा वार्जित है ।हमको बताये।
सिर्फ़ urwar की चर्चा है, कुल 72 पुर है जिसकी जानकारी अगर हो तो दीजिये, 7677483366 WHATSAPP 9431216966 कॉल
Bhojak ya shakdipiya bhramin ke no chahiye Pune me
समाज के लिए इतनी अच्छी जानकारी के लिए हृदयतल से साधुवाद
समाज के लिए इतनी अच्छी जानकारी के लिए हृदयतल से साधुवाद
धिरज कुमार मिश्र
मखपवार की भी कुछ जानकारियां दें।
मैं पँड़रीयार पुर का हूँ. आपके गवेषणात्मक आलेख में उरवार और देव.वरुणार्क कुल की बातें विस्तार से बताई गयी हैं. साधुवाद!
विभिन्न पुरों की कुलदेवियों की जानकारी मिलती तो अच्छ होता.
गुगल पर एकबार दिखा था. पर अब गायब है.
कुलदेवता/देवी की पूजा तो होती है, कईअवसरों पर.
पर उनका शुभ नाम जानना एक साँस्कृतिक आवश्यकता है.
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