शुक्रवार, 25 मार्च 2011

Maga Samskriti Parichaya


इस ब्लाग में प्रवेश के पहले सुनिश्चित कर लें कि आप

1 बालिग हैं
2 भारत की सांस्कृतिक विविधता का आदर करते हैं एवं उसकी पारंपरिक एकता को समझने को तैयार हैं न कि केवल किसी एक वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन को सही मानते है।
3 स्मृतियों (प्राचीन समाजव्यवस्थापरक धर्मग्रंथ) की विविधता के अनुसार समाज व्यवस्था वाले बहुसंख्यक, सनातनी एवं भारत के विविध क्षेत्रों में फैले-बसे लोगों के बारे में जानने जा रहे हैं।
4 सामान्य मनुष्य का जीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के साथ ही चलता है और वास्तविक साधना या संस्कृति इनके साथ जीने की संस्कृति होती है, पूर्ण आदर्शवाद केवल व्यक्तिगत या पाखंड होता है।
5 धर्म, अर्थ एवं काम का सदुपयोग तथा अज्ञान एवं जडता के बंधन से मोक्ष के लिये काम एवं का्रेध की ऊर्जा का अपने जीवन में उपयोग एवं चेतना का ऊर्ध्व विकास ही जीवन की सफलता है।

आप आहत हो सकते हैं यदि आप - किसी नए सुधारवादी संप्रदाय से जुड़े हैं, जैसे - आर्य समाज, आर्य समाज से विकसित अन्य संगठन गायत्री परिवार आदि, मार्क्सवाद, सर्वोदय आदि या ब्रह्म कुमारी आदि इसी प्रकार की धारा। इस ब्लाग का शुभारंभ मग जाति की संस्कृति को प्रकाशित करने के लिये किया गया है। इसके माध्यम ये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जायेगा कि लोगों तक प्रामाणिक जानकारी ही पहुंचे। प्रामाणिक जानकारी केवल गौरवपूर्ण या सुखद नहीं हो सकती, जैसे 100 साल पहले किसी के लिये अंगरेजों का करीबी होना गौरवमय हो सकता था परंतु आज अंगरेजों के भक्त भी इस जानकारी को प्रचारित करने की जगह अपने पूर्वजों को क्रांतिकारी कहा जाना पसंद करते हैं। यह काल प्रवाह का फल है। इसलिये इस ब्लाग को पढ़ने के पहले अपने दिल दिमाग को लचीला, मानवीय, संवेदनशील एवं संभावनाओं की अनंतता को स्वीकार करनेवाला बना कर ही इस ब्लाग में प्रवेश करें। मग संस्कृति रहस्यवाद से भरी पूरी है परंतु आज मगों को भी अपनी परंपरा की जानकारी नहीं है। अनेक प्रकार की तंत्र साधना करने के कारण इनके आचार कई बार समझ से बाहर के लगते हैं क्योंकि रोजी रोटी के लिए स्थान बदलने के कारण समय समय पर काफी अंतर भी आये हैं। मगों के बीच शाकाहार एवं मांसाहार को लेकर काफी उलझनें रहती हैं। लहसुन-प्याज खाएं न खाएं, कौन सा मांस कब खाएं, न खाएं मदिरा पियें न पियें, कब पियें कैसे पियें ये सारी बातें पिछले 500 वर्षों से आपसी विवाद और चर्चा में रही हैं। चर्चा का मतलब ही है कि विवादास्पद, हिंसक (बलि आदि के दृश्य) अश्लील (हंसी- मजाक, गाली-गलौज, छेड़-छाड़) सारी सामग्री सम्मिलित रहती है। तंत्र साधना की कौन सी धारा मगों की अपनी है? कौन बाद में आई? उसे स्वीकार करने पर क्या प्रभाव पड़ा आदि बातें कई बार आपकी धारणा को चोट पहुंचा सकती हैं। यहां आप विशेष रूप से आहत हो सकते हैं क्योंकि इस ब्लाग के उदाहरण वास्तविक , प्रमाण सहित तथा समाज द्वारा स्वीकृत होंगे और आपके आदर्श या धारणा के विपरीत भी हो सकते हैं। डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक ब्लाग लेखक

किसी भी जाति विशेष की संस्कृति को समझने के लिये कुछ बातों की जानकारी जरूरी है-
उस जाति का आवासीय क्षेत्र
उस क्षेत्र की संस्कृति से संबंध
पारंपरिक व्यवसाय
व्यवसाय में परिवर्तन एवं कारण
विवाह एवं संस्कार संबंधी अनुष्ठान
विश्वास एवं उपासना के तौर तरीके
विवाह एवं संपत्ति/उत्तराधिकार संबंधी व्यवहार
खान-पान वेशभूषा पारंपरिक एवं परिवर्तित विशेष आभूषण एवं वस्त्र
शिक्षा का स्वरूप एवं स्तर स्त्री, वृद्ध, बच्चे एवं बीमार के प्रति कर्तब्य का पालन
पारिवारिक सत्ता एवं संगठन
विशेष ज्ञान एवं सामाजिक योगदान
राज्य एवं धर्म सत्ता से संबंध लोकजीवन में भूमिका एवं स्वीकृति

अतः इस ब्लाग में मग जाति एवं उसके परिवेश तथा उस परिवेश में विकसित संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी दी जायेगी। आप के पास भी अगर कोई ऐसी सूचना हो तो मुझे भेज सकते हैं। वह सूचना आपके इमेल नाम के साथ दर्ज की जा सकती है।

मग/भोजकों के इतिहास एवं परंपरा के स्रोत


मग एवं भोजक इन दो नामों से शाकद्वीपीय ब्राह्मण जाने जाते हैं पुराणों के वर्णनों के अनुसार कुछ लोग अन्य नामों की भी संभावना व्यक्त करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में ये दोनांे नाम ही मुख्यतः प्रचलित हैं । लोगों को शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के इतिहास के विषय में जिज्ञासा होती है किन्तु इतिहास के मूल स्त्रोतों के विषय में जानकारी न होने से आधी-अधूरी सूचनाओं या परम्परागत विश्वास पर ही संतोष करना पड़ता है । संक्षेप में:- इतिहास या पूर्व परम्परा को जानने की दो पद्धतियाँ हैं -- (क) सूचना-प्रधान, भावना-निरपेक्ष इतिहास की दृष्टि, जिसमें अनूकूल प्रतिकूल सभी सामग्री स्वीकृत होती है । (ख) भावना एवं श्रद्धा-प्रधान-पुराण-दृष्टि, जिसमें उपयोगी सामग्री को सुन्दर ढंग से श्रद्धापूर्वक संजोया जाता है।‘पुरा नवं भवतीति पुराणं’। जिस धारा में पुरानी बातें नई हो जाएं उसे पुराण कहते हैं। ’इतिहास-पुराणाभ्याम् वेदं समुपबंृहयेत्’ यह हमारी समन्वय- प्रधान भारतीय दृष्टि है फिर भी ऐतिहासिक अध्ययनों एवं पौराणिक विश्वासों में कई बार अंतर पाया जाता है । पुराण सप्रयोजन लोकसापेक्ष एवं भविष्योन्मुखी होता है । इसी कारण उसे श्रद्धेय एवं अनुकरणीय माना गया है । ऐतिहासिक तथ्य हमारे विवेक में वृद्धि करते हैं। अतः दोनों दृष्टियों का अपना महत्त्व है । ऐतिहासिक तथ्य कभी-कभी हमारी जड़ता पर चोट करते हैं, नकारात्मक सूचनाएँ पीड़ा पहुँचाती हैं फिर भी उन्हे साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए क्योंकि सत्य का कोई विकल्प नहीं होता । सावधानी- दोनों दृष्टियों की अपनी अध्ययन पद्धति होती है । दोनों को एक साथ मिलाने से भ्रम एवं अज्ञान फैलता है। अतः दोनांे निष्कर्षाें को एक साथ मिलाना नहीं चाहिए ।

इतिहास-दृष्टि एवं उसके स्रोत:-
भारतीय समाज में अनेक प्रजातियों का सम्मिश्रण हुआ है और वर्णाश्रम व्यवस्था में सभी गलपच गये हैं। इतिहास की खोज करनेवाले विविध सूचनाओं के आधार पर पूर्वस्थिति की आधी या पूरी कल्पना करते हैं। ग्रंथ, शिलालेख, स्तम्भलेख, अवशेष, यात्रावृत्तांत आदि स्रोतों से सूचनाएँ संकलित की जाती हैं । मन्दिरोें के शिल्प से, राजाओं के दान से प्रमाणिक सूचनाएँ मिलती हैं । मग-भोजकों के बारे में भी विविध सूर्यमंदिरों, मूर्तियों के शिल्पविधान, शिलालेख एवं स्तम्भलेखों से प्रामाणिक जानकारी मिलती है । पहले प्रकाशित ग्रंथों को देखना चाहिए फिर अन्य सामग्रियों का अध्ययन किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए कुछ सूचनाएँ दी जा रही हैंः- सभी सूर्यमंदिर खासतौर पर देव वरूणार्क (भोजपुर, बिहार), देव एवं उमगा (औरंगाबाद, बिहार)के मंदिर । वरूणार्क मंदिर के साथ जुड़े स्तंभलेख एंव शिलालेख । सूर्य की उदीच्य एवं प्रतीच्य (भारतीय एवं यूनानी प्रभाववाली) शैली की प्रतिमाएँ । सूर्य-प्रतिमा में घोड़ों की संख्या का क्रमिक विकास । मगध एवं काशी क्षेत्र में द्वादशादित्य । मगों के मूल ग्राम, उनके द्वारा लिखित ग्रंथ एवं वर्तमान तक की कडियाँ, क्रांतिकारी, शहीद आदि । ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं । मगों के विषय में उनके शक, मंगोल, मध्य एशियाई, यूनानी, इरानी आदि होने की संभावना पर आधारित पुस्तकें भी मिलेंगी । इन सबों का सावधानी से अध्ययन करना चाहिए ।

पुराण-दृष्टि
भारतीय संस्कृति अत्यंत प्राचीन संस्कृति है । इस संस्कृति को समझने के लिए गंगा की उपमा दी जाती है। जैसे गंगा नदी में अनेकों नदियाँ आकर मिल जाती हैं और गंगा के जल को अपने जल से न केवल परिमाण की दृष्टि से बढ़ाती हैं बल्कि अपने गुण धर्मो से भी उसे भरती रहती हैं । अनेक प्रकार की नदियाँ मिलती हैं और अंत में जाकर सभी नदियाँ सागर में विलीन हो जाती हैं । यदि गंगा के प्रारंभ पर ध्यान दिया जाय तो ऐसा लगेगा कि नदी से उसकी सहायक नदियाँ ही बड़ी हैं । फिर इसे गंगा ही क्यों माना जाए ? भारतीय संस्कृति इस बहस में नहीं पड़ती । गंगा की जो पुण्य पताका है, जो श्रेष्ठता है, लोग उसका लाभ उठाना, तुलना करने से अधिक आवश्यक और उचित समझते हैं । गंगोत्री से गंगा सागर तक सर्वत्र गंगा एक है । हाँ, उसके नाम जाह्नवी, भागीरथी आदि भी हैं और यदि कोई गंगा को कई नामों से पुकारता है तो गंगा में स्नान करनेवालों को कोई आपत्ति नहीं है । चूँकि सांस्कृतिक समन्वय में, उसके मौलिक अवयवों में, मूलभूत रूप में पहचान पाना अत्यंत कठिन होता है इसलिए ज्ञानमार्गी या बुद्धिवादी विचारक कभी-कभी बेचैन हो जाते हैं। बुद्धिवादी विचारकों को विशेषकर तब अधिक बेचैनी होती है जब समन्वयवादी संस्कृति में स्वीकृत विस्मृति के सिद्धांत के कारण कुछ कड़ियाँ टूटी रहती हैं। बहुत लंबे समय से इसीलिए पुराणों की प्रामाणिकता एवं अप्रामाणिकता का शास्त्रार्थ चल रहा है। जो लोग धार्मिक हैं वे इस शास्त्रार्थ में नहीं पड़ते। आधुनिक भारतीय मन विभिन्न दृष्टिकोणों के टकराव से व्यथित है और थककर मान लेता है कि ‘धर्मस्य तत्त्वं निहिंत गुहायां महाजनो येन गतः स पंथा’ श्रेष्ठ लोगांे के जीवन को प्रमाण मानने के विरूद्ध मैं भी नहीं हूँ किंतु यदि कुछ रास्ते उपलब्ध हैं तो सदैव अपने विवेक को त्याग देना उचित नहीं है । यदि इस बात पर ध्यान दें कि किन-किन दृष्टियों से लोग न केवल पुराणों को अपितु संपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक सामग्री को देख रहे हैं तो हमारे अनेक प्रश्न स्वयं उत्तर से पूर्ण हो जाएंगे। मैं यहाँ पहले उन दृष्टियों की चर्चा कर रहा हूँ।

आधुनिक भैातिकवादी दृष्टि-
इस दृष्टि से पुराण अनेक उलटी पुलटी अंधविश्वासपूर्ण सूचनाओं के भंडार हैं। अतः उन्हें पढ़ने या उनमंे से कुछ खोज निकालने का प्रयास मूर्खतापूर्ण है। इस दृष्टि के लोग या तो विदेशी शासक रहे हैं या आधुनिक धर्मनिरपेक्षतावादी लोग । यह दृष्टि बिना जाने विशेषज्ञ बनने की दृष्टि है, जो असत्य पर आधारित है और जिसका, प्रस्थानविंदु भी मूर्खतापूर्ण है। अतः इसे सही दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता।
किवंदती प्रधान दृष्टि-
इस दृष्टिकोण के लोग किंवदंतियों, श्रुति परंपरा से इधर उधर से कई सूचनाओं के आधार पर धर्म, संस्कृति या किसी भी ग्रंथ के बारे में अपनी स्वयंभू धारणाएं विकसित कर लेेते हैं । इन स्वयंभू धारणाओं के पीछे वे इस तरह पागल हो जाते हैं कि सत्य के लेशमात्र को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते यदि वह सत्य उनकी धारणा के विपरीत हो । इस दृष्टि में बहुत ही धार्मिक संकीर्णता होती है, सर्वज्ञता का दंभ होता है । उपासना की भ्रष्ट विधिविहीन, भावहीन पद्धतियाँ होती हैं और उससे भी अधिक संकीर्णता तथा कलह की प्रवृत्ति होती है । असत्य एवं मूर्खता पर आधारित होने के कारण इस दृष्टिकोण को भी स्वीकार करना उचित नहीं हैे ।
धर्मविरोधी दृष्टि-
मार्क्सवादी या इनके समतुल्य अनेक लोगों को धर्म से ही घृणा र्है आैर उसका खंडन या निंदा करना ही इन लोगों का लक्ष्य होता है । दुराग्रहपूर्ण एवं असत्य होने के कारण इस दृष्टि को भी सही दृष्टि नहीं माना जा सकता है ।

सांप्रदायिक दृष्टि -
इसे संकीर्णता या कूपमंडूकता की दृष्टि भी कहा जा सकता है । भारतवर्ष में विभिन्न स्थानों एवं काल खंडांे में अनेक देवी-देवताओं की उपासना तथा पूजा की विधियाँ विकसित र्हुइं। अपने आराध्य एवं उनकी पूजाविधि के प्रति समर्पित होना बहुत अच्छी बात है लेकिन इस अनन्त ब्रह्नमांड में केवल किसी एक देवता या उसकी पूजा विधि को सर्वानुकरणीय स्थापित करना तथा अन्य देवताओं, उनके भक्तों, उनकी जीवन शैली आदि का विरोध अर्द्धसत्य पर आधारित अल्पज्ञता वाली दृष्टि है । इसीलिए छोटे समूह में भले ही इस दृष्टि को जितना भी रिक्त स्थान मिल गया हो भारतीय लोेक संस्कृति ने अंततः ऐसी संकीर्णता को नकार दिया है ।

समन्वयवादी दृष्टि-
दृष्टि समन्वयवादी है। वह इस ब्रह्मांड में अनेक देवताओं के होने की बात स्वीकारती है । इन्द्र, वरुण, अग्नि, रूद्र, जैसे प्राचीन देवी देवताओं के साथ संतोषी माता एवं अन्य देवताओं की पूजा को भी यह स्वीकार लेती है । संक्ष्ेाप में, इसे सुविधा के लिए हम स्मार्तदृष्टि कह सकते हैं । यही कारण है कि कभी कभी एक ही उत्सव विभिन्न लोंगों के लिए विभिन्न समयों पर संम्पन्न होते हैं। पंचांग में वैष्णवानां और स्मार्तानां ऐसा उल्लेख करना पड़ता है । इसी समन्यवादी दृष्टि का विकास पुराण परंपरा में हुआ है जिसकी आगे चर्चा की जाएगी । प्राचीन भारतीय पंरपरा में भी पुराण की समन्वयात्मक प्रकृति के विरूद्ध अनेक दार्शनिक एवं संप्रदायवादी आचार्य विभिन्न कालख्रडों में खडे हुए हैं । आधुनिक इतिहास लेखन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि पंरपरागत इतिहास दृष्टि से भी यहाँ इतिहास एवं पुराण शब्दों के साथ जुड़ी हुई धाराओं की चर्चा की जाएगी । इतिहास में घृणा उत्पन्न करानेवाली सामग्री का वर्चस्व होता है। लोगों में झगड़ा करानेवाले राजनीतिज्ञों के लिए ऐसी सूचनाएँ बहुत उपयोगी होती हैं लेकिन लोक कल्याण में इस दृष्टि का कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं हुआ है । आप उपासना पद्धतियों की खोज में या संस्कृति के सूत्रों को जोड़ने में लगे हों तो पुराणांे के अध्ययन से पता चलेगा कि किस प्रकार भारत वर्ष में प्रत्यक्ष विग्रह वाले भगवान भास्कर की प्रतिमा के निर्माण एवं उनकी पूजा की पंरपरा विकसित हुई । और यदि भक्तजन अपनी सूर्योपासना में भविष्य , सांब पुराण आदि की मदद लेंगे तो उन्हें भगवान् भास्कर की कृपा का प्रसाद भी अवश्य प्राप्त होगा ।