बुधवार, 28 दिसंबर 2011

श्री श्यामनंदन मिश्र
अघ्यक्ष, गरीब ब्राह्मण महासंघ, मगध प्रमंडल
प्रवक्ता, शाकद्वीपी ब्राह्मण समिति, बिहार

पत्रांक दिनांक 28.12.2011


प्रेस विज्ञप्ति

सेवा में
ब्यूरो चीफ/सवाददाता

माननीय श्री ताराकांत झा, माननीय श्री अश्विनी कुमार चौबे एवं अन्य अनेक राजनीतिज्ञ अचानक गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण देने के विरुद्ध बोल रहे हैं। यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। वर्तमान सरकार के हम तो आभारी हैं कि गरीब सवर्णों की ओर भी सरकार का ध्यान गया है और गरीब सवर्णों के लिये भी आयोग का गठन हो गया है। ऐसी स्थिति में केवल गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण नहीं दिये जाने का क्या औचित्य है? उससे भी गंभीर बात यह है कि जो स्वयं क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते हैं वे पिछड़े एवं गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण दिये जाने का विरोध केवल चापलूसी की दृष्टि से कर रहे हैं। क्या अन्य सवर्ण जातियों ने आरक्षण न लेने की मांग की है? फिर केवल ब्राह्मण ही क्यों?
हम सभी पिछड़े एवं गरीब ब्राह्मण माननीय मुख्य मंत्री के निर्णय का स्वागत करते हुए स्पष्ट करना चाहते हैं कि ऐसे लोग जो किसी भी पद पर क्यों नहीं आसीन हों वस्तुतः न तो गरीबों के शुभ चिंतक हैं न ही ये हमारा प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः श्रीमान इनकी बातों पर ध्यान न देते हुए पिछड़े एवं गरीब सवर्णों के लिये बने आयोग को आगे बढ़ायें और गरीब ब्राह्मणों को उन्हें आरक्षण पाने के हक से वंचित न करें।
धन्यवाद

श्यामनंदन मिश्र
ग्राम एवं पोस्ट पीरू, हसपुरा, औरंगाबाद,बिहार

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

गरीब ब्रह्मणों को सरकार के द्वारा आरक्षण दिया जाना ठीक नहीं लग रहा है

बिहार के बड़े बड़े नेताओं को गरीब ब्रह्मणों को सरकार के द्वारा आरक्षण दिया जाना ठीक नहीं लग रहा है। मुख्य मंत्री की चापलूसी में उन्हों ने ब्रहृम् णें को आरक्षण देना और ब्राहृमणें द्वारा आरक्षण मांगा जना अनुचित बताया हैं दरसल ये सभी लोग संपन्न एवं क्रीमी लेयर वाले हैं। गरीब ह्राहृमण संघ आदि ने इसकी निंदा की है।
Shri Shyam nandan Mishra, Pravakta, Shakdweepiya brahman Samiti, Bihar

रविवार, 25 दिसंबर 2011

गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए आयोग का गठन

मित्रों,
बिहार सरकार ने गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए आयोग का गठन कर दिया है और विभिन्न प्रमंडलों में सूचना विचार संग्रह करने हेतु आयुक्त/पदाधिकारियों की नियुक्ति भी कर दी है।
कृपया अपने स्तर से समाज के आर्थिक पिछड़ेपन से संबंधित सूचना संकलित कर अपने पंमंडल में नियुक्त आयुक्त को उपलब्ध कराने का कष्ट करें।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

जनेऊ का उपयोग

जनेऊ का उपयोग
वैसे तो मैं ने यह पत्र अपने पुत्र को लिखा है फिर भी जो नहीं जानते हों वे इससे लाभ उठा सकते हैं।
आयुष्मान विष्णु ,
स्वस्थ सानंद रहो।
आज के समय मे जनेऊ पहनने की बात का केवल जाति, वर्ण या समाजिक कारणों से कोई खाश मायने नहीं है। कुछ लोग पुराने सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, या वैश्य) समूह (वर्ण) का होने के कारण परंपरानुसार जनेऊ पहनते है, बिना समझे बूझे कि जनेऊ है क्या और इसका आज की तारीख में क्या उपयोग है ? एक धार्मिक विश्वास, अनजाना भय समाजिक टिप्पणी का डर, अपने को जनेऊ पहनने वालों से श्रेष्ठ समझने की मूर्खता, लोग ये सब कारण तो हैं पर इनका तुम्हारे लिए आज की तारीख में कोई मूल्य नहीं है। जीवन का परिस्कार साधना से होता है, ढांेग से नहीं। साधनाहीन जनेऊ पहनने से न पहचाना ही अच्छा।
ठीक इसके विपरीत कुछ लोग सुधारवादी या नव गौरववादी दृष्टि से जनेऊ पहनते है, जैसे आर्य समाजी एवं अन्य आंदोलनों से प्रभावित लोग, जिन्हे पहले जनेऊ पहनने का समाजिक/धार्मिक अधिकार नहीं था। इस दृष्टि से भी तुम्हे कुछ हासिल नहीं होना है। अब जनेऊ को गंभीरता से लेता ही कौन है?
जनेऊ है क्या ?
यज्ञ + उपवीत= यज्ञोपतीत
यज्ञ के समय पहना जानेवाला
यज्ञ एवं उसके छोटे भाग, जिसे याग कहा जाता है, को संपन्न करने/कराने का अधिकार केवल ‘द्विज’
को था, जिसका दुबारा जन्म हुआ हो।
मतलब
दुबारा जन्म का मतलब है अपनी पुरानी समझ एवं विश्वास से भिन्न एक नई समझ, विश्वास एवं नई पहचान के साथ जीने की शुरुआत। अतः इस पुनर्जन्म क लिए पुरानी पहचान, संपर्क, विश्वास, समझ सबों को तोड़ने का भी उपाय होता है और नई बनाने की तैयारी भी। यह प्रक्रिया शारीरिक और भावनात्मक दोनो ही दृष्टियों से बहुत ही कठोर होती थी।
आज चूँकि केवल खानापूर्ति या भोंढ़ी नकल होती है इसलिए सरलता आ गई है। ऐसी प्रक्रिया अन्य धार्मिक परंपराओं में भी होती है। मुसलमानों में भी हेाता है। मुसलमानों मंे सुन्नतः (लिंग की चमड़ी को काट देना) ईशाईयोें में बपस्तिमा का अनुष्ठान होता है। तांत्रिक स्त्री प्रधान साधना पद्धतियों में गर्भ के आकार के दुर्गम मुख (प्रवेश मार्ग) वाले मंदिरों/कंदराओं में गहन अंधकार में कुछ समय (जितने में वह व्याकुल होकर पुनः शांत हो जाय) तक कम से कम हवा में सांस ले कर जीते की अनुभूति कराई जाती थी, मानो वह गर्भ हो । उदाहरण के लिये अगर किसी को मंगला गौरी मंदिर के भीतर बंद दरवाजे में 24 घंटे रहना हो। इस अवसर पर पुरानी पहचान छूटने की पीड़ा, नए का उत्साह, उत्सुक्ता, संयम का अभ्यास करना पड़ता था, कुछ कुछ स्कूल छोड़कर नए शहर में कॉलेज जाने की तरह।
वैदिक गुरूकुल मंे जाकर विद्या ग्रहण का अवसर ऐसा ही सौभाग्य का अवसर होता था और वापसी में सफलता की खुशी भी उतनी ही गौरवशाली थी। अतः इस अवसर पर उत्सव तो बनता ही था। इसलिए ब्राह्मणों के लिए विवाह से अधिक महत्वपूर्ण जनेऊ का उत्सव था जनेऊ एक बार विवाह कई बार।
अब विद्या का मतलब
गुरूकुल तो रहे नहीं तो अब विद्या का मतलब? तुम्हे स्मरण होगा कि जनेऊ के समय दो बार भिक्षा माँगने का कार्यक्रम हुआ था। एक बार ब्राह्मण गुरू के लिए पुरोहित जी के लिए, दुबारा सोना-चाँदी, जेबरात जो माँ के हिस्से गए थे और वस्त्र, मिठाई आदि तुम्हारे लिए, एक स्नातक को उपहार।
स्नातक मतलब आज का ग्रेजुएट
स्नातक अर्थात जिसने स्नान किया हो। यह स्नान विशेष स्नान है पुनः घर वापसी का स्नान, युवा विवाह योग्य होने की सामाजिक धोषणा का स्नान, लगभग 24 वर्ष पूरा किए जाने के बाद का स्नान, जो विद्या गुरूजी न सिखा सके हों और जो घर-गृहस्थी दांपत्य जीवन जीने के लिए जरूरी हो उसे शीघ्र विभिन्न उपायों से (उपदेश एवं विशेष अनुष्ठान) माँ के नेतृत्व मंे घर स्त्री पुरूषों द्वारा सिखाए जाने के अवसर पर किया गया स्नान। ऐसे स्नातक को उपहार एवं दक्षिणा क्यों न दी जाय? पिछले 4-5 सौ वर्षो में सब गडमड हो गया और सबसे भारी गड़बड़ी यह हो गई कि लोगों ने असली विद्या छोड़ दी और फिर शिक्षा एवं शिक्षक स्वतः समाप्त।
सौभाग्य से हम ऐसे परिवार से आते हैं जहाँ सबों ने न सही लकिन अनेक लोगों ने असली विद्या को सीखने और परम्परा को अपनी समझ एवं सामर्थ से आगे बढ़ाने का काम किया। आपके दादाजी तक संध्या-गायत्री का अनुष्ठान चला और उस माहौल में भी जहाँ अमानवीय कुरीतियों, रूढ़ियों के खिलाफ सुधारवादी आंनदोलन भी चल रहे थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि आज की तारीख में जनेऊ से जुड़ी विद्या प्रमुख है न कि जनेऊ धारण करने की परम्परा। विद्याहीन विद्यालय हो या परम्परा उनकी समाप्ति तय है अतः वास्तविक विद्या और उसे सीखने में जनेऊ की सार्थकता सबसे पहले सीखनी होगी।
पहले संक्षेप में बताई गई बात को पुनः स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ -
जनेऊ है क्या
जनेऊ एक स्केल है, अपने व्यक्तित्व का, अपनी समझ और जिम्मेदारियों का, समझ का, याददायत का और कई अन्य बातों का।
जनेऊ प्रतीक है - इस संसार की बनावट का, और उस संसार से जनेऊ धारण करनेवाले के संबंधों का। चूँकि यह शरीर से चिपका रहता है, और हर महत्वपूर्ण क्रिया में इसका उपयोग करना है अतः यह नजर पडते ही, हाथ लगते ही धारण कर्ता को उसके संदर्भ और व्यक्तित्व को याद दिलाता है।
आज जैसे टाई का अर्थ समझने से अधिक टाई की नॉट-गाँठ का ज्ञान महत्त्वपूर्ण हो गया है उसी प्रकार पिछले सौ-दो सौ वर्षो में यज्ञोपवीत की समझ समाप्त हो गई।
यज्ञोपवीत से जुड़ी सारी बातें एक साथ समझना संभव नही है अतः किश्त दर किश्त बातें स्पष्ट की जाएँगी। ध्यान यह रखना है कि उतना अभ्यास भी होता रहे।
जनेऊ की बनावट और खास बातें
जनेऊ को व्यक्ति, सृष्टि एवं समाज के संबंधों का प्रतीक माना गया है। अतः इसके हर भाग के कई अर्थ एक साथ रहेंगे।
जनेऊ के तीन धागे -
मोटे तौर पर देखने में जनेऊ में तीन धागे होते हैं, उनमें गाँठ होती है। इन तीनों धागों के भीतर भी कई धागे होते हैं। बजारू जनेऊ में धागे की भीतर भी तीन धागे होते है। ये धागे समानांतर एक दूसरे से लिपटे हुए एवं ऐंठे रहते हैं।
परंपरागत जनेऊ ऐसा नहीं होता। दूसरे का जनेऊ दूसरा नहीं बनाता।
परंपरागत जनेऊ का स्वरूप:-
धागा स्वयं तैयार किया गया हो, सूत काटकर उसे स्वयं ऐंठा गया हो और ऐंठने के पहले उसे स्वयं सजाया गया हो। परंपरागत जनेऊ के हर धागे के अंदर फंदा बनाया जाता था और तब उसे ऐंठा जाता था। ऐसे बँटे-ऐंठे धागे से जनेऊ तैयार होता था। हर आदमी के जनेऊ की लंबाई अलग होनी चाहिए और यह तभी संभव है जब वह अपने हाथ की चार ऊगलियों की चौड़ाई में लिपटी एक गिनती भाप (चवा) से 28 या 32 चवे का जनेऊ पहने।
मुख्य तीन धागे प्रतीक हैं -
इस ब्रह्मांड के मुख्य घटक कंपोनंेंट सत, रज, तम रूपी तीन गुणों के।
ये गुण भी बराबर भाग में नहीं हैं अतः इनके भीतर के धागों में से किसी एक को बड़ा छोटा कर धागा बनाया जाता है। इसी तरह ये प्रतीक हैं। शरीर के मूल घटक कफ, वात पित्त के।
इसी तरह पितृ ऋण, ऋषि ऋण, एवं देव ऋण के। आज का हर मनुष्य इन नौ प्रकार की सामग्रियों/सहयोगों से विकसित हुआ है अतः उत्तरदायित्त्वों के बंधनों की सीमाओं/कर्त्तव्यों में बँधा हुआ है।
वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम Modern Science and Technology की मान्यताओं पर आधारित है जो मुलतः ईशाई है। परिणाम यह है कि भारतीय मानस संदेह एवं विरोधी विश्वासों वाला हो गया है। जैसे - क्या पता मरने के बाद पुर्नजन्म होता है या नहीं ? स्वर्ग-नरक तो सभी मानते हैं। ईशाई हो या मुसलमान वे पुर्नजन्म नही मानते।
समान्यतः लग सकता है कि इस विवाद से क्या फर्क पड़ता है? वस्तुतः मानसिक शांति पर प्रभाव पड़ता है रिश्तों पर पड़ता है। भारतीय हिन्दू के लिए दुबारा सुख-दुख भोगने की संभावना है, बचा हुआ काम अगले जन्म में हो सकता है। केवल ब्राह्मणों के लिए अनुकूल संभावनाएँ कम हैं क्योंकि अनेक अच्छी संभावनाएं तो पूरी हो गईं।
हमारे लिए संभावनाएँ हैं -
क. अपना स्तर बनाए रखकर दुबारा पैदा हों।
ख. देवी या देवताओं से भी ऊपर उठकर सीधा ब्रह्म में विलीन होना।
मतलब स्वर्ग से श्रेष्ठ हालत में तो हम हैं ही, सच्चे ब्राह्मण को तो देवता प्रणाम करते हैं। हम तो पूर्ण स्वतंत्रता के अधिकारी हैं। देवता बनाना-बदलना, शास्त्र बदलना, बनाना, बिगाड़ना ये सब हमारे खेल हैं इालिये इनका बंधन तो हमारे ऊपर है ही नहीं। हमें ब्रह्मविद्या अर्थात संपूर्ण ब्रह्माण्ड को समझने एवं उसके साथ खेलने की विद्या आनी चाहिए वह विद्या है ब्रह्मविद्या और उसे सीखने में सहायक है - जनेऊ।
जैसे-जैसे ब्रह्मविद्या की गहराई में उतरोगे वैसे-वैसे जनेऊ का संदर्भ एवं उपयोग समझ में आने लगेगा।
जनेऊ का अशुद्ध होना
इस चिंता से मुक्त हो जाओ कि क्षतिग्रस्त या बहुत पुराना होने के अतिरिक्त जनेऊ में कोई दोष होता है। दोष तो जनेऊ धारक को होता है। नियम पालन न होने से किताब या कलम या पैमाने, नाप जोख के उपकरण या प्रमाण-पत्र कैसे खराब हो जायेंगे ? इसलिए पुरानी असली परंपरा में जनेऊ बदल देना गलती या अशुद्धि का समाधान नही था। इसके लिए नया जनेऊ बनाना, उसे बनाने की प्रक्रिया के साथ जनेऊ के अवयव (Parts) के प्रतीकात्मक अथांर्, उनके आपसी संबंधों को स्मरण करना और अपनी असावधानी के लिए प्रायश्चित (पछतावा) के रूप में उपवास (भोजन त्याग) स्नान, मंत्र जप के साथ नया जनेऊ पहनने का प्रावधान है। बजारू जनेऊ से लाचारी में काम चलाने का मतलब यह नहीं कि यह सारी साधना विधियों में सहायक होगा। इस बार की यात्रा में पूरी दक्षता हासिल कर सदैव स्वयं अपने हाथ से बनाए हुए जनेऊ को ही पहनना है।
आप श्रीमान् अभी साधना के प्रथम चरण में है। आप जब तक कान की जड़ में स्थित नाडी और स्वरशास्त्र (साँस की गति संबंधी शास्त्र) का ज्ञान प्राप्त नहीं करते आपके लिये न कान पर जनेऊ डालने की कोई सार्थकता है न ही न डालने की।
फिलहाल जो कर रहे हो, उतना ही काफी है। बाकी सब पहले की तरह।
तुम्हारे पिता
रवीन्द्र

शनिवार, 10 सितंबर 2011

मग-भोजक संगठनों की अंदरूनी हालात Post1

मग-भोजक लोगों के अनेक संगठन बनते बिगड़ते रहे हैं। इन संगठनों की अंदरूनी हालात चाहे जो भी हो उनके द्वारा व्यक्त विचारों से भी बहुत कुछ जाना जा सकता है। मैं ने उनसे पूछ कर उनके द्वारा प्रकाशित सामग्री बिना अपनी टिप्पणी के स्कैंड रूप में डालने का सिलसिला इस बार से शुरू किया है। एकाध पृष्ठ मुखपृष्ठ पर और शेष इसी ब्लाग के ‘‘संगठन एवं राजनीति’’ नामक स्वतंत्र पृष्ठ पर क्लिक कर और स्कैंड पृष्ठ पर डबल क्लिक कर पढ़ें


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गुरुवार, 8 सितंबर 2011

गया जी श्राद्ध में मग ब्राह्मणों की भूमिका

सामान्यतः
मग ब्राह्मण पूरे भारत में विभिन्न मंदिरों में पुजारी का काम करते हैं। सूर्य मंदिर का पुजारी, भोग लगाने वाला भोजक कहा जानेवाला धीरे-धीरे वैदिक एवं जैन दोनों मंदिरों का पुजारी बनता चला गया। अन्य ब्राह्मण विभिन्न मंदिरों के पुजारी होने पर मग ब्राह्मणों का उतना विरोध कर नहीं पाते क्यांेकि मंदिर बनाने वाले राजा या सेठ की ताकत भी उसके पीछे रहती है।
पुरोहिती, यज्ञ में भाग लेना और श्राद्ध में मग ब्राह्मणों की भूमिका बार-बार झगडे़ का रूप लेती है क्योंकि यह समाज आधारित विकेन्द्रित और व्यापक वर्चस्व का क्षेत्र होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उडी़सा के कई किस्से मशहूर हैं। फिर भी आज की तारीख में समाज में लगभग सभी जगह अन्य ब्राह्मणों की तरह मग ब्राह्मणों को स्थान मिलता है।
उत्तर भारतीय ग्रंथों का विशेष उपबंध
श्राद्ध सूर्यास्त के बाद नहीं हो सकता फिर भी अगर बिलंब हो जाय तो क्या करं?
इसका समाधान यह निकाला गया है कि सूर्यवंशी शाकद्वीपी ब्राह्मण को सामने बिठाकर श्राद्ध पूजा करें। बिहार में यह घटना दरभंगा नरेश के यहाँ हुई।

गया श्राद्ध में
गया में प्रवेश के पूर्व पश्चिम एवं उत्तर से आने वाले लोग दो-तीन स्थानांे पर पुनपुन नदी में प्रवेश कर पहला तर्पण आदि कार्य पूरा करते हैं। इन तीनों स्थानों पर मग ब्राह्मण ही पंडा एवं पुरोहित दोनो हैं, चाहे वह स्थान पुनपुन घाट(जम्होर) हो या पुनपुन घाट (पटना जिला) या देवहरा (गोह)।
गया तीर्थ क्षेत्र में भी मातंगवापी क्षेत्र एवं वेदी के पंडे भग ब्राह्मण हैं।
इनके अतिरिक्त अनेक मग ब्राह्मण पंरंपरानुसार गया क्षेत्र मे पिंडदान कराने में आचार्य का काम करते हैं, कुछ स्वतंत्र ढंग से तो कुछ पंडों के कर्मचारी की तरह। इस प्रकार गया श्राद्ध में आज भी इनकी प्रभावी भूमिका है।
गया श्राद्ध के विषय में विस्तृत जानकारी के लिये पढे़ं -
http://gayashraadha.blogspot.com/

रविवार, 21 अगस्त 2011

विभिन्न वेबसाइटों की डायरेक्टरी

श्री राजेश चन्द्र मिश्र , पूर्णिया , बिहार ने विभिन्न वेबसाइटों की डायरेक्टरी बनाई है। यह आप लोगों की सुविधा हेतु पुष्ठ आदानप्रदान पर उपलब्ध कराई गई है।

मग-भोजकों की कई पत्रिकाएं निकलती हैं। इनमें इस बार खाश क्या है? यह बताने का भी प्रयास किया जायेगा। यह सामग्री भी पठनीय पृष्ठ पर मिलेगी । यह पृष्ठ लगातार नई जानकारियों के साथ संपादित होता रहेगा।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

पठनीय

मग/भोजक ब्राह्मणों ने अपने बारे में काफी साहित्य प्रकाशित किया है और आज भी वे करते ही हैं, जैसे पुस्तकें, स्मारिकाएं, पत्र-पत्रिकाएं, वेबसाइट, सोसल ग्रूप, वैवाहिकी आदि।
क्या आप जानते हैं कि मगों के बारे में जानने के लिये जितना मग उत्सुक नहीं रहते उससे अधिक अन्य लोग उत्सुक रहते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में मग ब्राह्मण तंत्र परंपरा के वाहक हैं। इस बात में एक हद तक सच्चाई भी है।
कुछ लोग मगों को गैर ब्राह्मण तो कुछ नीच ब्राह्मण साबित करने में लगे रहते हैं। कुछ लोग तटस्थ ऐतिहासिक दृष्टि से भी लिखते हैं। अतः इन सामग्रियों को भी पढ़ना चाहिये। लोगों की सुविधा हेतु मैं ने इस दृष्टि से पठनीय नाम से यह एक स्वतंत्र पृष्ठ बनाया है।
इस पृष्ठ में ऐसी अनेक जानकारियां संक्षिप्त परामर्श के साथ दी जायेंगी जहां परामर्श जरूरी होगा। आपके पास भी यदि कोई ऐसी सूचना हो तो भेजें उसे सम्मिलित किया जायेगा।

जानकारियों का यह सिलसिला निरंतर जारी रहेगा।

शनिवार, 6 अगस्त 2011

प्रिय पाठकगण,

इस ब्लाग का आकार बड़ा होता जा रहा है। कुछ पाठक कई बार इस ब्लाग पर आ चुके होते हैं। उन्हें नई पोस्ट की प्रतीक्षा रहती है। यदि आप चाहते हैं कि आपको नई पोस्ट की सूचना इमेल से दी जाय तो कृपया अपना इमेल टिप्पणियों के माध्यम से भेजें या सदस्य बनें।

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

आदान प्रदान पेज पर विस्तार से देखें

श्री राजेश मिश्र एवं राजेन्द्र पाठक, पूर्णिया एवं सुधांश्ुजी रांची ने सामग्री/चित्र भेजे हैं। आपके लिये प्रस्तुत है। इसे संगठन एवं आदान प्रदान पेज पर विस्तार से देखें।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

मग एवं भोजक शृंखला 1

श्री सुनील मिश्र ने मांग की है कि मग एवं भोजकों के बारे में स्पष्टीकरण दिया जाय। मैं मगध में रहता हूं मगों के बारे में ही अधिक जानता हूं इसलिये इस बार जैसलमेर के प्रसिद्धवि़ान श्री नंद किशोर शर्मा जी का विस्तृत आलेख उनकी अनुमति से प्रस्तुत कर रहा हूं।

आलेख के पृष्ठों की स्कैंड प्रतियां पोस्टेड हैं।










श्री नंद किशोर शर्मा जी का विस्तृत आलेख

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

चर्चा में अवश्य शामिल हों

मैं ने यह ब्लाग जानकारी देने तथा चर्चा करने दोनों के लिये खुला रखा है। अब तक किसी भी टिप्पणी को मैं ने हटाया नही। चर्चा में आपके भाग लेने से ही इसका पूरी सार्थकता होगी । अतः अवश्य चर्चा में शामिल हों

उरवार पर नई बात

मैं उरवार पर कुछ अधिक लिख देता हूं । ऐसा इसलिये नहीं कि मैं उरवार हूं। संयोग से उरवार पर नई नई सामग्री मिल जाती है।
कुछ ही दिनों पहले मिली जानकारी के अनुसार मैं आपका ध्यान पश्चिम एशिया के उन विवरणों की ओर ले जाना चाहता हँू, जिनका संबंध ऊर, ऊरू से बनता प्रतीत होता है।
जीवंत इतिहास की दृष्टि से तो गया जिले के उर गांव से काम चल जाता है परंतु सवाल बचा रह जाता है कि ये उरवार या ऊरवार जो भी कहें किस स्मृति को ढोये जा रहे हैं। संस्कृत एवं वैदिक धारा के अनुसार सोचें तो तो 3 शब्द करीबी हैं-
उर अर्थात् हृदय छाती सीना
उरु अर्थात् विस्तृत उन्नत स्थान
ऊरु शब्द का अर्थ होता है घ्ुाटने से जंधा तक का भाग
पालि भाषा एवं बौद्ध परंपरा के अनुसार भी उरु अर्थात् विस्तृत उन्नत स्थान
पालि साहित्य में उरुबिल्व क्षेत्र उरुबेला की खूब चर्चा आती है। वर्तमान समझ के अनुसार यह बोधगया के पास का धर्मारण्य है। सिद्धनाथ मंदिर के आसपास के क्षेत्र में ओर एवं बेला गांव हैं परंतु स्मृति परंारा के अनुसार ओर को नहीं टेकारी के ऊर गांव को लोग उरवार लोगों का मूल ग्राम मानते हैं। यह गांव बड़ा उन्नत या श्रेष्ठ था या नहीं कहना मुश्किल है क्योंकि यह तो उजड़ चुका अब उर-बिसुनपुर नाम से नया बसा है।
भोजक लोगों के लिये यह जानना भले ही बेमतलब का हो कि इस उर गांव के पीछे क्यों पड़ें परंतु मगों का तो आरंभ ही उरवार से होगा।
प्राचीन इतिहास एवं पश्चिम एशिया के पुराने संदर्भों को खोजनेवाले भारतीय विद्वानों में भगवत शरण उपाघ्याय प्रसिद्ध हैं।
उनके अनुसार ‘‘उरुक एक नगर है, जिसे एरिख कहते हैं, आजकल वही वर्का कहलाता है।’’ ..............
श्री उपाघ्याय के अनुसार मग ब्राह्मण वहीं के रहने वाले हैं। कुछ भी हो, मामला विचारणीय है। संभव है कि मग ब्राह्मण उसी ऊर की याद समेटे आज तक जी रहे हों।
विस्तुत जानकारी के लिये पढें - भारतीय जन जीवन: चिंतन के दर्पण में, लेखक भगवत शरण उपाघ्याय । संक्षिप्त विवरण प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की पत्रिका आजकल अंक जुलाई 2011 में भी मिलेगा।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

आपका शरमाना अच्छा नहीं लगता

मित्रो, इधर बहुत दिनों से मैं ने कोई नई सामग्री ब्लाग पर नहीं डाली। सोचा, आकार बहुत बड़ा हो गया है तो लोग जरा पढ़ तो लें, लेकिन एक बात जंची नहीं। 1000 से अधिक लोग आए, देखे और चले गये। कुछ ही लोगों ने अपनी राय दी। यह क्या? अगर गडबडी है तो बताइये तो सही। सामग्री बहुत है, यह तो बताइये कि आप क्या चाहते हैं?
चुपके-चुपके आपका झांकना अच्छा नहीं लगता,
ब्लाग यह है आपका तो शरमाना अच्छा नहीं लगता।
रवीन्द्र कुमार पाठक

रविवार, 1 मई 2011

तंत्र समझ में कैसे आए?

तंत्र पर विस्तृत सामग्री मेरे दूसरे ब्लाग तंत्र परिचय पर मिलेगी । मग संस्कृति संबंधी सूचनाएं ही काफी हो जाती हैं। मगों की अपनी कोई विशेष बात होगी तो उसे इसी ब्लाग पर रखा जायेगा।

तंत्र समझ में कैसे आए?

यह प्रश्न लोगों के मन में कई बार उठता है क्योंकि तंत्र शास्त्र को गोपनीय माना गया है और लिखा कहा गया है - ‘गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरित पार्वती’। हे पार्वती अपनी योनि की तरह इसे प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए। ऐसी गोपनीयता के बावजूद आज हजारों पुस्तकें/निबंध प्रकाशित हो रहे हैं जो न तो गोपनीयता की नीति अपनाते हैं न स्पष्टता की, उल्टे अलूलजलूल बातों को विस्मयकारी ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
@के पूरब तय किया गया कि विवाह के पूर्व कम से कम प्रायोगिक रूप से इतनी शिक्षा तो समाज के हर युवा-युवती को किसी न किसी प्रकार दे दी जाय चाहे वह किसी भी जाति का हो। ऐसे प्रायोगिक केन्द्रों को नए शिरे से बसाया गया राजाओं ने मदद की। यह सबकुछ व्यवस्थित रूप से पाँच सौ वर्षो में किया गया। समानांतर ढंग से इसका तीव्र विरोध भी हुआ। सामंजस्य एवं समन्वय भी हुआ। जजमानी प्रथा इसका एक उदाहरण है। मजेदार किंतु सच बात यह है कि आज भी अनेक तांत्रिक अनुष्ठान सामाजिक स्तर पर दुहराए भी जाते हैं परंतु कुछेक समझदार लोगों को छोड़कर अनुष्ठान में सम्मिलित अन्य लोग यह समझ नहीं पाते कि दरअसल इसका मतलब क्या हुआ और इसका वास्तविक लाभ क्या है?
इस नासमझी के कारण लोग जहाँ मन में आता है संशोधन करते हैं और कुछ बेवजह लकीर पीटते हैं। संस्कृत के प्रकांड पंडितों, पी॰एच॰डी॰ डिग्री वालों से लेकर निरक्षर सबका हाल इस मामले में एक है।
मैं इस सामाजिक अभ्यासवाले तंत्र पर मुख्य रूप में लिख रहा हूँ क्योंकि इसके अनुष्ठान बहुत कम गोपनीय स्तर पर होते हैं। इसे सुविधापूर्वक जाना-समझा जा सकता है। इसके बाद बाकी जानना या न जानना आपकी इच्छा। इसलिये इस ब्लाग में अनेक प्रकार के परंपरागत अनुष्ठानों पर सामग्री आएगी। आप यदि अपनी जिज्ञासा/प्रश्न सामने लाएँगे तो मुझे भी लिखने में सुविधा होगी।

संध्या भाषा/दुहरे अर्थोवाली अभिव्यक्ति:-
तंत्र के अनेक विषय दुहरे अर्थोंवाली भाषा में लिखे गए हैं। अतः पहले उन्हें डिकोड करना पड़ता है। इसे पारिभाषिक रूप से यंत्रोद्धार, शापोद्धार एवं मंत्रोंद्धार (वैदिक परंपरा में) कहते हैं। इसके अपने तरीके हैं। बौद्ध तंत्र में बाकायदा एक डिकोडिंग अध्याय (पटल) बनाया जाता था और उसे किसी दूसरी किताब के बंडल के साथ बाँध कर हस्तालिखित ग्रंथों के ग्रंथागार में बाँध दिया जाता था। केवल अपनी बुरुपरंपरा या संप्रदाय के लोगों को असली बात बताई जाती थी।
इस विषय पर आगे अगले किश्त में पढे़ं -

तंत्र समझ में कैसे आए ? किश्त-दो।
(वैदिक एवं तांत्रिक वर्णनों को समझने का सही तरीका)

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

परंपरागत परिचय है क्या?

परंपरागत परिचय है क्या?

आज अनेक लोग परंपरागत परिचय के संदर्भों को ही नहीं समझ पाते। स्थान परिवर्तन, किसी तथ्य को सामाजिक/पारिवारिक कारण से छुपाने, विस्मृति या किसी उद्देश्य से बदल देने के कारण परिचय में जो अंतर आए हैं, वे उसे क्या समझेंगे?
अतः इस बार परिचय के संदर्भों पर ही यथासंभव प्रकाश डाला जा रहा है। इस आलेख में उन बातों को नहीं शामिल किया गया है, जो पूर्ववर्ती दो आलेखों (संदेशों) में ब्लाग पर उपलब्ध हैं। अतः दोनों को मिलाकर पढ़ें।
ऋषि एवं गोत्र
गोत्र पर लिखा जा चुका है। राजस्थान में मूलग्राम (जिसकी पहचान वह समूह स्मृति में रखे हुए है) को ही लोग गोत्र मानने लगे हैं। विवाह आदि में उसी आधार पर निर्णय करते हैं। बिहार उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ में पुर एवं गोत्र दोनों की स्मृति है और पूछा भी जाता है। राजस्थान की अलग व्यवस्था है। श्री नंदकिशोर शर्मा जी ने इा पर विस्तार से लिखा है। उनके आलेख टंकित हो रहे हैं। उनकी सहमति संशोधन के बाद यथाशीघ्र उपलब्ध कराये जायेंगे।
ऋषि - किसी भी साधना एवं उसके लिए आवश्यक मंत्र एवं विधियों के आदि प्रवर्तक को ऋषि कहा जाता है। साधना एवं मंत्र की अनेकता के कारण ऋषियों की अनेकता है। कुछ ऋषि केवल वैदिक मंत्रों के ऋषि होते हैं, कुछ वैदिक, तांत्रिक दोनों मंत्रों एवं साधना विधियों के। बाद में बीज मंत्रों एवं वर्णमाला रूपी मंत्रों के भी ऋषियों की मान्यता आई है। उन्हें उस वर्णसंबंधी साधना का आदि प्रवर्तक तो माना जा सकता है वर्ण का नहीं क्योंकि वर्ण और अक्षर अनादि हैं।
वशिष्ठ ऋषि वैदिक, तांत्रिक, वामाचार-दक्षिणाचार सभी प्रकार की विधियों एवं साधना परंपराओं में स्वीकृत हैं। तारा जैसी देवी को सनातनी परंपरा में लाने का श्रेय वशिष्ठ को दिया या है। सामान्य कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर यह बात अटपटी लगेगी, किंतु भारतीय काल दृष्टि ही भिन्न है। यहाँ वर्तमान, भूत भविष्य तीनों कालों में साधना के द्वारा हस्तक्षेप की संभावना मानी जाती है। इस विषय पर काल दृष्टि वाले आगामी आलेख में पढ़ने को मिलेगा।
रेखीय दृष्टि से अर्थात् अतीत-वर्तमान-और भविष्य, जिसकी पुनरावृत्ति संभव नहीं है (जैसा ईशाई और मुसलमान मानते हैं) वशिष्ठ, व्यास एवं अन्य ऋषि-मुनियों के नाम पर कुल परंपरा चलती है और नई विधियांे/गं्रथों को उनके नाम पर ही समर्पित कर स्वीकार किया जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में समझें कि आपके कुल गोत्र की साधना परंपरा मुख्यतः किस ऋषि की परंपरा में हैं।
प्रवर - ऋषियों के आपसी संगठन, निकटता एवं भाईचारे के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। पहले कुछ भारतीय ब्राह्मण एक प्रवर के भीतर भी विवाह नहीं करते थे।
आस्पद/उपाधि मिश्र, पाठक, पाण्डेय आदि कई बातों पर आधारित हैं, जैसे - साधना, अध्ययन की परंपरा, उसकी शैली राजा द्वारा दी गई उपाधि आदि। ये बदलती रहती हैं।
मंत्र - साधना के लिए जपे जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समूह वाक्यांश या वाक्यों को मंत्र कहते हैं। मंत्र मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - वैदिक वाक्य रूपी एवं तांत्रिक-ध्वनि रूपी बीज मंत्र। बाद में पौराणिक श्लोकों, स्तोत्रों आदि का भी प्रयोग मंत्र रूप में होने लगा।
वेद - पहले तीन वेद होते थे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, एवं सामवेद, बाद में चौथा अथर्ववेद भी जुड़ा इस प्रकार चार वेद हुए। हर ब्राह्मण की जिम्मेवारी होती थी कि वह कम से कम किसी एक वेद के किसी एक भाग या शैली विशेष को कंठस्थ रखे।
शिखा - (शिर की चोटी)
वेद को कंटस्थ कर पाठ करने की अपनी शैली होती थी और उसके अनुरूप शिर के बाल की चोटी बनानी पड़ती थी। जैसे आज माथे पर संप्रदाय विशेष के अनुरूप तिलक लगाया जाता है उसी तरह पहले चोटी भी रखी जाती थी। इसी आधार पर बांई तरफ या दाहिनी तरफ की (झुकाव के अनुसार) चोटी बनानी पड़ती थी।
उपवेद (रोजी-रोटी संबंधी अन्य उपयोगी विधाएं) चार वेदों के आधार पर विद्या कई शाखाएँ विकसित हुईं, उन्हें उपवेद कहा गया। मगों में प्रचलित उपवेद हैं - आयुर्वेद - ये ग्रंथ वैदिक संस्कृत भाषा में नहीं हैं। उसके बाद की सामान्य संस्कृत (लौकिक संस्कृत) में है। इसी तरह गंधर्वर्वेद - संगीत की विभिन्न विधाओं को कहा जाता है। धनुर्वेद - युद्ध कला संबंधी विधा है।
ये विधाएँ रोजी-रोटी के अन्य साधनों के रूप स्वीकृत हुईं, परंतु यज्ञ एवं वेद की शिक्षा तक सीमित ब्राह्मण इसे नीचा मानते थे। फिर भी राज्याश्रय के कारण उपर्युक्तों तीनों विधाओं के साथ वेदांग, ज्योतिष, लक्षण विद्या एवं वास्तु विद्या को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली।
छन्द - छन्द किसी पद्य/वाक्यांश को गाने के तौर-तरीके एवं उसकी सजावट को निर्धारित करता है। वर्णों की संख्या, स्वर की मात्रा, आरोह-अवरोह, यति, विराम, आदि बातों का समावेश छंद में होता हैं। मंत्रों के छन्द भी निर्धारित रहते हैं।
आम्नाय:- पुर के संदर्भ में यह मगों का आंतरिक वर्गीकरण बतानेवाला तकनीकी शब्द है। वार, आर और अर्क ये तीनों शब्दांश स्थानवाची पहले शब्द के साथ जुड़ते हैं, जैसे - ‘उरवार’। ‘उरवार‘ में उर-गाँव का नाम है, वार एक विशेष वर्गीकरण का द्योतक है। इसका अर्थ हुआ वार ग्रुप का सदस्य जो उर ग्राम का मूल वासी है। इसी प्रकार ‘आर’ प्रत्यय भी रहने वाला अर्थ को व्यक्त करता है। ‘अर्क’ का शाब्दिक अर्थ होता है- सूर्य। पुण्यार्क का मतलब हुआ सूर्य की एक विशेष प्रतिमा की पूजा करने वाला जिसका नाम पुण्यार्क है। साथ ही इसका अर्थ यह भी हुआ कि पुण्यार्क सूर्य के मंदिर के नाम पर बसे गाँव पुण्यार्क का रहने वाला। इसी अर्थ के कारण ‘अर्क’ आम्नाय वालों का पुर नाम के साथ सार्थकता है।
कुलदेवी देवता -
इस विषय पर विस्तार से मैं ने इसी ब्लॉग में लिखा हैं। संक्षेप में यह समझें कि मग ब्राह्मण कई बार विष्णु या सूर्य के किसी प्रसिद्ध मंदिर के पुजारी तो होते थे किंतु घरेलू साधना में शिव या शक्ति के किसी अन्य रूप की आराधना करते थे। कई बार मंदिर के देवता एवं कुल देवता एक होते थे।
पुरों की संख्या में वृद्धि -
आरंभ में 72 पुर माने गए। बाद में विभिन्न पुरों की मान्यता भी हुई। बाद वाले पुरों में कुछ के गाँव/स्थान का तो पता चलता है, कुछ का पता नहीं चलता। इनकी संख्या 105 के आसपाल हो गई। यह सब क कैसे हुआ, इस पर मैं अभी कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, संभावनाएँ अनेक हैं। अधिकांश गाँव तो दक्षिण बिहार (मगध क्षेत्र) में हैं किंतु कुछ पुरों का मूल स्थान उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में भी पाया जाता है। गाजीपुर, बलिया, सीवान में भी कुछ ऐसे पुर वाले मूल ग्रामों का उल्लेख पुरवाली सूचियों में हैं।
दुखद यह है कि मगध के लोगों ने ऐसी सूची बनाई ही नहीं। उन्हें लगता होगा कि हमलोग तो जानते ही हैं, सूची क्यों बनाएँ? पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं में प्रचलित सूचियाँ उत्तर प्रदेश की सूचियों की नकल हैं। कुछ लोगों ने स्रोत का जिक्र किया है। संज्ञा समिति जैसे स्थानीय संगठन ने जो सूची छापी है, वह भी बनारस से प्राप्त है।
पता नहीं उसे राजस्थान की परंपरा से कैसे जोड़ दिया है क्योंकि जैसलमेर के पंडित नंद किशोर शर्मा जैसे प्रख्यात विद्धान और शोधकर्ता ने जो तथ्य परक जानकारी अपने पुस्तकों में दी है, उसका इस सूची से कोई मेले नहीं है। यह सूची तो पुराना बिहार, उत्तर-प्रदेश एवं मध्यप्रदेश के लिए है।
ये सूचियाँ प्रायः स्मृति पंरपरा पर आधारित हैं। इसलिए गाँव के नाम कुछ बदले-बदले से लगते हैं। मैं उन्हें संभावित क्षेत्र में जा कर एवं वहाँ के लोगों से पूछ कर ठीक करने का प्रयास कर रहा हूँ। इसमें आप लोगों की मदद की जरूरत है। विभिन्न स्थानों की सूची में मिलान कर रहा हूँ। अगर आप इनके बारे में या किसी एकाध के बारे में भी जानते हों, तो सूचित करें। चित्र, वीडियो, आदि भेजें। इस सूचना को आपकी जिम्मेवारी पर आपके नाम के साथ प्रस्तुत किया जाएगा।
विश्वजित मिश्र ने सूचियों की तुलना कर उसे अद्यतन करने की जिम्मेवारी ली है। जिन मामलों में जानकारी पक्की हो जायेगी उसे प्रकाशित कर दिया जायेगा।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

बी.एन. मिश्र जी ने तंत्र एवं मग संस्कृति के प्रयोगिक बातों को नई पीढ़ी को सिखाने का आग्रह रखा है। मग लोग तंत्र साधना के लिये जाने जाते हैं। अतः उनका कर्तब्य बनता है कि कम से कम लोकोपयोगी एवं समाज में स्वीकृत प्रायोगिक विधियों को स्पष्ट करें और पुनः पहलं अपने लोगों को सिखाएं। गूढ़ एवं रहस्यमय पक्षेंा की बात बाद में करे। इससे तंत्र सीखने में भय या लोक निंदा की दुविधा भी नहीं रहेगी और स्वतः लोगों की अभिरुचि बढ़ेगी। अंगरेजी पढ़े और इंटरनेट पर बैठने वाले भी अपनी परंपरा के लिये न तो विदेशियों के चंगुल में फंसेंगे न अघ्यात्मविराधियों या धूर्तों के शिकार होंगे। अभी भी परंपरा पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है। महिलाओं की कृपा एवं अंगरेजभक्त संस्कृत पंडितों की अरुचि के करण बच गई हैं। अब इनका बचना मुश्किल है क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्राप्त महिलाएं पुरुषों से कम अहंकारिणी नहीं हैं।
इसलिये मैं ने चुनचुन कर लोक पंरपरा में प्रचलित अनुष्ठानों एवं व्रतों की जानकारी रखना शुरू किया है ताकि अगर किसी को जानने सीखने में रुचि हो तो उसकी मदद की जा सके या जानकार लोग भी झेंप छोड़ कर इन अनुष्ठानों को अपन घर में पूरा करायंे, इसे फालतू न समझें
पंच कोश परिचय
पंचकोश परिचय के बिना सच पूछिए तो सनातन धर्मीय जीवन शैली संभव ही नहीं है। बौद्ध एवं जैन पद्धति से जीने के लिए भी नामांतर से ही सही कुछ न कुछ सीखना जरूरी है।
पंच कोश का यहाँ तात्पर्य है - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश की अपने व्यक्तित्व में पहचान एवं उसकी कार्यप्रणाली की समझ तथा उसके अनुसार जीवन में सफल होना। यह व्यावहारिक ज्ञान किसी सिद्ध-संत के लिए उपयोगी हो, ऐसी बात नहीं है। यह तो सभी गृहस्थों के दैनिक जीवन के लिए उपयोगी है।
उत्तर भारत में इसे अनिवार्य माना गया। कम से कम तीन कोश अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय की कार्य प्रणाली जो नहीं समझे, उसे विवाह का अधिकार ही नहीं है। यहां तक तो समाज के द्वारा निर्धारित अनिवार्य एवं व्यावहारिक/प्रायोगिक शिक्षा थी, और औरत-मर्द दोनों के लिए जरूरी थी। इसलियेे इसके प्रशिक्षण की जिम्मेवारी मुख्यतः औरतों को दी गयी। सभी मर्द भी उनके नेतृत्व में खुलकर ही क्या बढ़-चढ़ कर इस प्रक्रिया में सीखने-सिखाने में भाग लेते थे। आज भी प्रशिक्षण देने वाले अनुष्ठानों की खाना पूर्ति तो होती है पर वास्तविक शिक्षा जरा सी गलती सी चूक जा रही है।
इस अनुष्ठान को सवर्णों में जनेऊ एवं विवाह दोनों समय एवं असवर्णो में केवल विवाह के समय अवश्य किया जाता है। यह है, हल्दी एवं बार-बार चुमावन का अनुष्ठान। तांत्रिक दृष्टि से चुमावन संपूर्णता देने वाला अक्षताभिषेक है, जो सभी अभिषेकों का अंत एवं श्रेष्ठतम माना जाता है। समाज में यह सर्वमान्य गैर ब्रांडेड अर्थात संप्रदाय के प्रभाव से मुक्त रूप से स्वीकृत है। इसलिये संस्कृत के मूर्ख पंडित एवं कर्मकांडी इससे चिढते हैं।
इस अनुष्ठान के पूरा होते ही वर या वधू या वटुक जो भी हो योग साधना में वर्णित धारणा, प्रत्याहार एवं तंत्र में वर्णित न्यास तथा कवच को समझने एवं उसका वास्तविक अभ्यास की पात्रता अर्जित कर लेता है। सामाजिक स्वीकृति तथा बड़ों के संरक्षण में किये जाने के कारण इसका कोई भी दुष्परिणाम नहीं होता। इसे सीखने की न्यूनतम उम्र 9 साल है।
आज तो हर प्रक्रिया का समापन मंदिर में देवता के दर्शन एवं पाठ से पूरा कर लिया जाता है। न्यास, कवच, अर्गला, सभी मंत्रों का केवल शाब्दिक उच्चारण मात्र से क्या होगा? यह तो कक्षा एक नहीं, नर्ससी की पढ़ाई हुई।
स्नायु तंतुओं की संवेदना, संरचना को महसूस करना, मन में पड़ने वाले प्रभाव को स्वीकार करना, फिर तटस्थ होना, फिर उसे नियंत्रित करना, असली शिक्षा तो यह है। एकांत, अकेली साधना में जिस अनुभव को प्राप्त करने में कई वर्षों का समय लगता, उसे परिवार के लोग अपने संरक्षण में मात्र हफ्ते-दस दिन में जबरन सिखा देते थे।
ऐसे अनेक अनुष्ठान हैं, जिन्हंे सामाजिक स्वीकृति है। तंत्र के नाम पर अंधानुकरण या ठगी से बेहतर है कि पहले समाज में स्वीकृत अनुष्ठानों में जीवन फँूकने का काम किया जाये। विस्तार भय से अब लिखना बंद कर रहा हूँ। शिक्षण-प्रशिक्षण के अभिक्रम या चुनौती के लिए तैयार हूँ। आरंभ में मात्र 10-15 विवाहित जोड़ों की जरूरत है, जो अगली पीढ़ी को सिखा सकें, फिर तो बाबा रामदेव की कपाल भाँति से भी दु्रतगति से यह प्रक्रिया समाज में बढ़ेगी। देहात में आज भी घर-घर में होती ही है। मुश्किल यह है कि देहात के लोग शहर के लोगों की नकल करते हैं, अशिक्षित शिक्षित की और असवर्ण सवर्णों की। इसलिये शिक्षित तथा अभिभावक की उम्रवाले ब्राह्मणों को इस काम के लिये आगे आकर समूह बना कर पारिवारिक एवं संस्थागत स्तर पर प्रशिक्षण देना चाहिए। औरतों में भी शिक्षा के प्रसार के कारण अब उनका भी खुला सहयोग मिलेगा। चंूकि इस प्रशिक्षण में घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों का नेतृत्व मान्य होगा अतः स्पष्ट है कि उनकी अभिरुचि अधिक रहेगी। यह तो पहली कड़ी है, आगे भी ऐसी जानकारियां उपलब्ध होती रहेंगी।
ये सभी जानकारियां इस ब्लाग के स्वतंत्र पृष्ठ - सीखने लायक पर क्रमशः उपलब्ध होंगी।

मखपा की प्रतिमाएं एवं मंदिर







मखपा की प्रतिमाएं एवं मंदिर

मखपा, टेकारी, गया, बिहार महावराह एवं वाराही की प्रतिमा एवं मंदिर के चित्र दिये जा रहे हैं।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

आदान-प्रदान: आपके सुझाव एवं जानकारियां

कुछ ब्लाग पाठकों ने पत्राचार करना एवं जानकारियां देना शुरू कर दिया है। इस आदान-प्रदान से कई सभी लाभान्वित हों इसलिये इसे एक स्वतंत्र पृष्ठ पर रखा जा रहा है।
इस बार बिलसैयां पुर पर विश्वपति मिश्र का पत्राचार दिया जा रहा है।

पूरी सामग्री आदान-प्रदान: आपके सुझाव एवं जानकारियां पृष्ठ पर देखें

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

विशेषज्ञ: इनसे भी पूछें/जानें

विशेषज्ञ: इनसे भी पूछें/जानें

मग ब्राह्मणों में विद्वान एवं विशेषज्ञ व्यक्तियों की कमी नहीं है। वे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं।मेरी जानकार की भी सीमा है। मैं ने पहले भी वादा किया है कि केवल प्रमाणिक सूचना दी जाएगी अतः मैं केवल उन्हीं लोगों का नाम दम रहा हूं जो जानकार हों भले ही वे हमें पसंद नहीं करते हों। तंत्र, आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र का व्यवसाय करने वालों लोगों के दावे की परीक्षा करना मेरा काम नहीं है। अतः उनकी सूची नहीं दी जा रही है। यहां केवल उन्हीं लागों की सूची दी जा रही है और आगे भी दी जा सकती है जिन्होंने मग जाति की समाज व्यवस्था, संस्कृति इतिहास, साधना, संगठन आदि विषयों पर चिंतन, शोध, अघ्ययन आदि का काम किया है। संभव है कि इस सूची में उल्लिखित लोग संस्कृत के विद्वान न हों या किसी दूसरे पेशे के हों। केवल संस्कृत पढ़ने से या कर्मकांडी होने से कोई संस्कृति कर जानकार नहीं होता। यह रुचि एवं लंबे अघ्ययन से संभव है।
मग संस्कृति को कौतूहलपूर्ण, रहस्यमय, बाहरी, विदेशी आदि मानकर भारतीय अभारतीय दोनो लोगों ने काफी काम किया है। कुछ लोगों ने सौम्य और कुछ लोगों ने अभद्र ढंग से भी निष्कर्ष निकाले हैं। कुछ पूर्णतः पूर्वाग्रही हैं। मैं अकेले ही सारा निष्कर्ष निकालूं तो यह सही नहीं होगा, कोई सर्वज्ञ थोड़े ही हूं।
मग संस्कृति पर कई लोगों ने अध्ययन किया है। कई लोगों ने इटरनेट पर समूह चर्चा भी की है। कुछ लोग वेबसाइट भी चलाते हैं। कुछ परंपरागत साधक एवं पंडित हैं, कुछ शोधकर्ता है। ये सभी मग जाति के लोग हैं। इनके मन में अपनी जाति के प्रति अधिक लगाव होना सहज है और गौरवशाली पक्ष का ही ये सहज रूप से समर्थन करेंगे। मेरी जानकारी में जैसे-जैसे इस तरह के विशेषज्ञ आएँगे मैं उनका पता देता जाऊँगा और सूची बढ़ती जाएगी।
कुछ लोग अन्य जातियों के हैं, उन्होंने भी शोध अध्ययन किया है। विशेषकर जो भारतीय हैं और किसी न किसी ब्राह्मण जाति-उपजाति से संबद्ध हैं उनके अध्ययन एवं निष्कर्ष पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है, भले ही वे अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हों। इनमें से एक प्रो॰ बैद्यनाथ सरस्वती के साथ काम करने/सीखने का मेरा निजी अनुभव है।
आपके मन में यदि कोई प्रश्न आता है तो आप उनसे भी पूछ सकते हैं। जो उत्तर सही लगे आप स्वीकार करें।
मग विशेषज्ञ (जन्म से)
सर्व श्री
1 नंदकिशोर शर्मा, मरु सांस्कृतिक संग्रहालय, गडसीसर, जैसलमेर, राजस्थान
2 बी॰एन॰मिश्र,
गाँव - हरदियाँ, जि-भोजपुर, बिहार, वर्तमान में-भोपाल मध्यप्रदेश
B-329 Sarvadharam Colony
Kolar Road, Bhopal (MP),India
Phone: 9827363363
E-mail: mishrabn50@gmail.com


गैर मग विशेषज्ञ (जन्म से)
1 डॉ॰ मंजु गीता राय
2 प्रो॰ बैद्यनाथ सरस्वती
एन॰के॰बोस मेमोरियल, फाउंडेशन,
शिवाला, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पुस्तक – Brahmanic Ritual Traditions यह पुस्तक E.book के रूप में भी Google पर भी उपलब्ध
पूरी जानकारी के लिये विशेषज्ञ वाला पृष्ठ देखें

यह ब्लॉग बंद क्यों न कर दिया जाय?

यह ब्लॉग बंद क्यों न कर दिया जाय?
मेरे अज्ञात, सुंदर से सुन्दर संबोधनों से अलंकरणीय, प्रशंसनीय, आदरणीय पाठकगण।
क्या आपको विश्वास नहीं है कि मैं अभी जीवित हूँ? यह ब्लॉग मेरी प्रेतात्मा ने नहीं लिखा है। अगर विश्वास है तो मेरा अपराध क्या है?
मैं एक नया ब्लाग लेखक हूँ। तो क्या हुआ, आप कौन शुकदेव की भाँति परम ज्ञानी की तरह पैदा हुए थे? अगर ऐसा ही हो तो क्षमा करेंगे और अवश्य बताएंगे।
मग संस्कृति के आलेख एक जाति विशेष के लिए हैं, तो मैं ने कब इसे छुपाया है? शीर्षक साफ है, लेकिन क्या इस विषय को कोई पूछने वाला नहीं है या आप पढ़कर चुपचाप निकल जाते हैं? मैंने तो अभी तक आपसे कोई अर्थ सहयोग नहीं माँगा तो फिर इतना लो बताइए कि यह ब्लाग कैसा लगा?
आप अगर सलाह देंगे तो शिरोधार्य होगा? निंदा करेंगे तो सुधार किया जाएगा? लेकिन इस तरह उपेक्षा करेंगे तो मुझे लगेगा कि मैं ने कोई गलत काम तो नहीं किया?
वैसे भी मैं थोड़ा अल्पबुद्धि आदमी हूँ। बचपन से ही खुद ही रूठता हूँ, खुद ही मानता हूँ। मुझे पूछता कौन है कि मनाए भला? लेकिन इस बार मामला ऐसा नहीं है। मैं भी जीवन के 51वें वसंत का रस ले रहा हूँ।
यह कौन सा न्याय है कि मैं बार-बार सामग्री डालता रहूँ, पेज सजाता रहूँ और आप हैं कि 10-20 शब्द टिप्पणी बाक्स में लिखने में शरमा रहे हैं। कोई मेल भी नहीं करते।
अपने फेस में कोई आकर्षण है नहीं कि फेसबुक पर जाऊँ, चोंच लड़ाने आया नहीं कि Twitter बनूँ। जिस खंूटे से घरवालों ने बाँध दिया उसी को उखाड़ कर घूम रहा हूँ परंतु खूँटा नहीं छोड़ा।
आपका उत्तर मेरी उर्जा होगी, सलाह दिशा निर्देशन करेगी और शिकायत से तो लगेगा कि आप मेरे असली शुमेच्छु हैं। रही किसी जानकारी की माँग तो अपना पक्का वादा है कि मैं इसमें कोई कंजूसी नहीं करूँगा जरा पूछ कर तो देखिए। आपका नजरें चुराकर निकल जाना बड़ा दर्द देता है।
एक बात और मैं एक बार फिर रूठने की हिम्मत जूटा रहा हूँ। अब जब तक आप लोग नहीं कहते और अब तक के पोस्ट इत्मीनान से पढ़ नहीं लेते मैं ही चुप हो जाता हूँ। और कितना बक-बक करूँ।
आगे आपकी जैसी मर्जी

रवीन्द्र कुमार पाठक

रविवार, 24 अप्रैल 2011

संभावित अनुशासन

संभावित अनुशासन

सम्मानित/प्रिय पाठकगण,
मैं एक नया ब्लाग लेखक हूँ। मुझे बताया गया है कि ब्लाग लिखने का भी अपना एक मर्यादित अनुशासन होता है। ब्लाग एक वार्ता है। इसमें लेखक की अभिव्यक्ति पर पाठकों की प्रतिक्रिया आती है, लोग प्रश्न पूछते हैं। कोई नया या पुराना सदस्य या स्वंय ब्लाग का लेखक उत्तर देता है या सवाल पूछता है। निष्कर्ष कि ब्लाग का मकसद संवाद है, इकतरफा प्रलाप नहीं है कि जो भी मन में आए इंटरनेटी आकाश में प्रदूषण फैलाते रहें।
यह सुनकर मैं डर गया हूँ। वैसे भी मैं प्रदूषण विरोधी आदमी हूँ। केवल लाचारी वाली गंदगी पैदा करता हूँ। समय, ऊर्जा सबकी खपत होती ही है, तो सोचा कि मैं भी अनुशासन में आ जाऊँ।
’ आगे से मैं निम्न प्रकार से अनुशासित रहने का प्रयास करूँगा:-
’ भारी भरकम सामग्री मुख्य पेज पर नहंी मिलेगी। उसके लिए संबद्ध पृष्ठ देखें। वहीं पर टिप्पणी करें।
’ पाठकों से निवेदन के पुराने अंश ‘पाठकों’ से पृष्ठ पर मिलेंगे
’ मुख पृष्ठ पर संक्षिप्त सामग्री और चर्चाएँ रहेंगी।
’ प्रश्न और उसके उत्तर रहेंगे।
’ चित्र एवं वीडियो क्लिप एक स्वतंत्र पृष्ठ “दृश्य श्रव्य” पर मिलेंगे।
अगर किसी अन्य बात से या मेरे प्रयास से आपको सुविधा हो तो बताइएगा।
हाँ टिप्पणियों की कड़की में मैंने word verification हटा दिया है, अब तो पधारो हे टिप्पणीकार! प्रश्नकर्ता!
रवीन्द्र कुमार पाठक
विशेष सूचना:- अगर किसी को विभिन्न पुरों का एक साथ परिचय देनेवाले चार्ट चाहिए तो इमेल से माँगे। उनका आकार इतना लंबा-चौड़ा हो जाता है कि ब्लाग के पेज पर ठीक से उभर नहीं पाता है। ऐसे चार्ट इमेल द्वारा भेजे जाएँगें। इसी प्रकार की समस्या वीडियों के साथ है, अच्छी क्वालिटी वाली वीडियो सी॰डी॰ द्वारा डाक से भेजी जा सकती है। मेरे पास जो इंटरनेट कनेक्शन है वह बड़ी फाइल अपलोड नहीं कर पाता। कोई अन्य सरल उपाय हो तो आप ही बताएँ।
रवीन्द्र कुमार पाठक

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

उरवार आदि पुरों के लिये सिद्धेश्वरी पटल

श्री सिद्धेश्वरी-पटलः

स्वस्ति-वाचनादि कर्म करके अर्ध्य-स्थापन करें। यथा- ‘पृथिव्यै नमः, आधार-शक्तये नमः, अनन्ताय नमः, कूर्माय नमः, शेषनागाय नमः’ - इन मन्त्रों से अपने वाम-भाग में एक त्रिकोण-मण्डल बनाकर उसके मध्य मं पंचोपचारों से पृथ्वी का पूजन करंे। इसी मण्डल के ऊपर अर्ध्य-पात्र स्थापित करें। अब यथा-विधि संकल्प करें। संकल्प के अन्त में यह वाक्य जोड़ लें -
‘सर्वाभीष्ट-फलावाप्ति-कामः कलश-स्थापन, गण-पत्यादि-प´्च-देवता, सूर्यादि-नव-ग्रह- दश-दिग्पाल-देवता-पूजन-पूर्वकं श्रीसिद्धेश्वरी-पूजनमहं करिष्ये।’
तब कलश-स्थापन कर प´्च-देवताओं और नव-ग्रहादि का पूजन करें। पश्चात् विल्व-पीठ के ऊपर श्री सिद्धेश्वरी देवी के ‘पूजा-यन्त्र’ को लिखे। ‘पूजा-यन्त्र’ लिखने की विधि है कि जटामासी और रक्त-चन्दन से विल्व-काष्ठ से बने पीढ़े को लीपे। फिर रक्त-चन्दन से दाड़िम की लेखनी द्वारा उस पीढ़े के मध्य भाग में यन्त्र बनावें। यथा - 1 विन्दु, 2 त्रिकोण, 3 षट्-कोण, 4 वृत्त, 5 प्रष्ट-दल कमल और 6 वृत्त।
पीढ़े के ऊपर एक नूतन पीत वस्त्र बिछावें। कपडे़ के ऊपर शुद्ध घी से सोलह रेखायें नीचे से ऊपर की ओर खींचे। इन रेखाओं के मध्य में सिन्दूर लगावें और उनके ऊपर सोलह पान की पत्तियाँ बिछावें, सोलहों स्थानों में अक्षत और अक्षतों पर सोलह पैसे, सोलह सुपाड़ियाँ, सोलह लौंगे तथा इलाइचियां रखकर पूजन प्रारम्भ करें। पहले हाथ में फूल और अक्षत लेकर निम्न प्रकार की सिद्धेश्वरी देवी का ध्यान पढ़ें -
उद्यन्मार्तण्ड-कान्तिं विगलित-कवरीं कृष्ण-वस्त्रावृता›ं़ा, दण्डं लि›ं़. कराब्जैर्वरमथ भुवनं सन्दधतीं त्रि-नेत्राम्। नाना-रत्नैर्विभातां स्मित-मुख-कमलां सेवितां देव-सर्वै-र्माया-राज्ञीं नमोऽभूत् स-रवि-कल-तनुमाश्रये ईश्वरीं त्वाम्।।
इस प्रकार ध्यान कर हाथ में लिए फूलाक्षत को अपने सिर पर चढ़ा ले। इसके बाद ‘¬ शंखाय नमः’ इस मन्त्र से शंख-पात्र स्थापित करे। उसमें जल, अक्षत, पुष्प और सुपाड़ी (कसैली) डाले। तदनन्तर हाथ में पुष्पाक्षत लेकर भगवती का ध्यान करते हुए निम्न --------------------------संपूर्ण श्री सिद्धेश्वरी-पटलः के लिये पुर परिचय वाला पृष्ठ देखें
फौंट की समस्या का ठीक से समाधान नहीं हो पा रहा है। शुद्ध पाठ के लिये इमेल करें

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना’

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना’ मगध रहस्यविद्या की विधियों के आविष्कार की भूमि रहा है। इसने गोपनीय मानी जाने वाली विधियों को जनसुलभ बनाया है, भले ही वे काल के प्रवाह में पुनः लुप्त या गुप्त हो गई हैं। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों को समझे बिना यहाँ के मूर्ति शिल्प, अनुष्ठान एवं कई अन्य विधियों को समझ पाना संभव नहीं है। हरगौरी की पालकालीन प्रतिमाएँ हर गाँव मुहल्ले में मिलती हैं जिसमें गौरी शिव के आलिंगन मंे उनकी एक जाँघ पर बैठी हुई होती हैं। शिव का बायाँ हाथ गौरी के बाएँ स्तन पर रहता है। इतना हीं नहीं नग्न शिव का लिंग ऊपर की ओर खड़े रूप में चित्रित रहता है। दिगंबर जैन नंगे घूमते रहते हैं। मगध जैनियों एवं विशेषकर दिगंबर जैनों का क्षेत्र है। उनके यहाँ उच्च साधना में नग्नता ही दिव्यत्व है। बौद्ध परंपरा की दृष्टि से भी युगनद्ध संभोगकालीन रूप ही दिव्यतम रूप है जिसका चित्रण तिब्बती थंका में रहता है। मगध के भी कई मंदिरों में खजुराहों की भाँति आकृतियाँ बनी हुई हैं। बौद्ध तांत्रिकों ने इस साधना को विविध नामों से पुकारा है जिसके ‘वसंततिलक योग’ एवं ‘बोधिचित्त का उत्पाद’ ये दो अधिक प्रचलित नाम हैं। काम ऊर्जा को संचित-संप्रेषित करने के कुछ अनुष्ठान आज भी स्त्रियों के द्वारा अनुष्ठित --------


पूरे आलेख के लिये देखें तंत्र रहस्य वाला पृष्ठ।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

डाकिनी एवं नाड़ी विद्या

डाकिनी एवं नाड़ी विद्या
मगों का आयुर्वेदज्ञ होना और तांत्रिक होना दोनो बातें प्रख्यात हैं। इसी तरह यह भी माना जाता है कि नाडी विद्या आयुर्वेद में मगों का मूल योगदान है। डाकिनी और डायन तो अपने ही बदनाम है। जरा सच तो जानिए कि दुकानदारी, मूर्खता और कमजोर औरतों को सताने के लिये भारत में क्या क्या उपाय किये गये। ऐसा वातावरण बनाया गया कि डर के मारे कोई अपने को योग्य व्यक्ति घोषित ही नहीं कर सके, चाहे वह औरत हो या मर्द।
सुनने में ये दोनों शब्द रहस्यात्मक लगते हैं। डाकिनी शब्द तो रहस्यात्मक है ही नाड़ी शब्द भी कम रहस्यात्मक नहीं है। योग, तंत्र आयुर्वेद सभी जगह नाड़ी शब्द का प्रयोग होता है। वहाँ भी इनका अर्थ पूर्ण स्पष्ट नहीं है। योग एवं तंत्र में सुषुम्ना आदि अति सूक्ष्म एवं केवल अनुभवात्मक हैं.....................
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सोमवार, 11 अप्रैल 2011

मगों की तांत्रिक संस्कृति को समझने के पूर्व

मगों की तांत्रिक संस्कृति को समझने के पूर्वमग संस्कृति को समझने के पूर्व आपके दिलोदिमाग में निम्न रूप से लचीलापन का होना जरूरी है -
मग संस्कृति तांत्रिक परंपरा की वाहिका रही है। अतः जैसे तंत्र के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण दोनों रहता है वैसे ही मगों के प्रति भी आकर्षण (तंत्र का लाभ उठाने के लिए) और विकर्षण (अति रहस्यवाद एवं पाखंड में धोखा खाने एवं रहस्यविद्या के अल्पज्ञान के कारण) भी प्रबल रहा है। बंगाल, मिथिला एवं अन्य तंत्र परंपरा वाले ब्राह्मण मगों के प्रति ईर्ष्यालु रहे किंतु उड़ीसा के साथ मैत्री संबंध रहा। आज उड़ीसा में भी विरोध हो गया है।
शाकद्वीपी/मग नाम सुनते ही ज्योतिष एंव तंत्र की बात करनेवाला गैर मग व्यक्ति डर जाता है कि यह तो गूढ रहस्य वाले कुल का है क्योंकि अधिकांश अन्य लोग वास्तविक तंत्र साधना न पहले जानते थे न आज जानते हैं। जानकार लोगों के बीच मगों के प्रति आज भी प्रेम एवं आदर दोनों उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से रहस्यविद् होने की जगह तंत्र की दुकान चलाने वाले अनेक लोग ......
पूरी सामग्री पढ़ने के लिये तंत्र रहस्य वाले पेज में जायं।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

भयावह एवं गोपनीय सूचना हेतु पूरा परिचय दें



भयावह एवं गोपनीय सूचना हेतु पूरा परिचय दें
यह ब्लाग मग-भोजकों को तथ्यात्मक जानकारी देने के उद्देश्य से चलाया जा रहा है। तथ्य हमेशा शुभ एवं सुखद नहीं होते, कुछ गोपनीय भी होते हैं अतः सूचना पाने के लिए आपको प्रमाणित करना होगा कि आप मग ब्राह्मण हैं और तंत्र संबंधी जानकारी के लिए आपका बालिग तथा निर्भीक होना जरूरी है। बलि आदि के दृश्य आपको क्षुब्ध कर सकते हैं और तथ्य आप की पूर्व धारणा को तोड़ सकते हैं।
आगे बढ़ने एवं जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वयं को मेरे इमेल ravindrakumarpathak@gmail.com पर पूरा परिचय भेजें। मुझे विश्वास होने पर मैं आपको अपने पास उपलब्ध पूरी जानकारी भेज दूंगा। रवीन्द्र कुमार पाठक
निम्न जाकारियां उपलब्ध करायें
नाम पिता का नाम उपाधि
वय Age पुर, गोत्र, मूल ग्राम/शाखा, फोन/मो. नं॰, इमेल, कुल देवी-देवता का नाम
समाज में आपको किस रूप में जाना जाता है - सकलदीपी, भोजक, सेवग, याचक अन्य (नाम दें)
मांसाहारी/शाकाहारी (कितनी पीढ़ियों से ..............)
वैवाहिक स्थिति - अविवाहित/विवाहित तो कब
खानदानी व्यवसाय - क्षेत्र
आपका वर्तमान व्यवसाय
मातृकुल -
पुर- गोत्र मूल ग्राम/शाखा
कुल देवी - देवता का नाम
खानदानी व्यवसाय क्षेत्र
ससुराल का पुर, गोत्र, पता
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आपकी सूचनाओं की जाँच कर इमेल के द्वारा आपको सूचित किया जाएगा।

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मग संस्कृति की दुविधाएँ/उलझनें

डॉ॰ रवीन्द्र कुमार पाठक
सूर्यवंशी और सूर्यपूजक होने के बावजूद मग संस्कृति को समझना आज की तारीख में कठिन है। यह कई उलझनों, दुविधाओं एवं सामाजिक उतार-चढ़ाव के बीच विकसित हुआ है। अतः सीधे-सरल रूप में मग संस्कृति की ऐतिहासिक एवं वर्तमान संस्कृति को नहीं समझा सकता है। इसे समझने के लिए जरूरी है कि आज से आरंभ कर क्रमशः इतिहास एवं परंपरा की पिछली परतों का अवलोकन किया जाय। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि पूजा-पाठ, अनुष्ठान, संस्कार के प्रायोगिक पक्षों को भी समझा जाय और उसकी समीक्षा तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक संदर्भो में की जाय। आगे कुछ बिंदु रखे जा रहे हैं, जिससे मुख्य उलझनों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट होगा -
1. जंबूद्वीप में बसने के बाद भी शाकद्वीप की याद समेटे रखना। भारत में अनेक आर्य-अनार्य जातियाँ आई किंतु सबों ने जंबूद्वीपीय भारतीय पहचान को स्वीकार कर अपनी पुरानी पहचान समाप्त कर ली। शाकद्वीपीय ब्राह्यण अभी भी दोनो पहचान रखने की उलझन में हैं।
2. उपासना की अनेकविध शैलियाँ - सूर्य के साक्षात् वंशज मानने पर भी मग, भोजक, सेवग आदि ने अपनी कुल-देवी, कुल-देवता के रूप में सूर्य के विविध रूपों के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं को स्थान दिया और इस कारण इनका सूर्य-वंशज एवं सूर्य-पूजक होने का दावा भी उलझन में पड़ गया। शिव एवं शक्ति के विविध रूपों के अतिरिक्त इन्होनें विभिन्न यक्षों एवं याक्षीणियों की न केवल उपासना शुरू की बल्कि उन्हें अपनी कुल देवी-देवता के रूप में स्वीकार कर लिया।
सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी, तारा, चँवरी, भल्लिनी, अन्धारी आदि देवियों एवं यक्षिणियों की उपासना आज भी हो रही है। उलझन तब और बढ़ जाती है जब सूर्य आदि मंदिरों के पुजारी दूसरों को तो पूजा एवं उसके अनेक शुभ फलों का उपदेश देते हैं परंतु अपनी कुल पंरपरा में उन देवी-देवताओं की उपासना नही करते। ऐसा करना इनके लिये संभव भी नहीं है क्योंकि जब जिस देवता की आराधना की सामाजिक चलन बढ़ी इन ब्राह्मणों ने कहीं मुख्य विग्रह के साथ तो कहीं मुख्य विग्रह को हटाकर नए देवता या देवी की पूजा शुरू कर दी। ऐसा आचरण अनेक मंदिरों में मिलता है। इस अनुचित व्यवहार की न तो शास्त्रीय संगति हो सकती है न इसका गौरव गाया जा सकता है। अतः लोगों ने भक्तों एवं यजमानों को धोखा देने के उद्देश्य से अनेक झूठी कथाएं प्रचारित कीं। किसी भी मंदिर का अपना स्थापत्य एवं विग्रह ही नहीं होता उसके साथ जुड़ी पूरी साधना पद्धति होती है। मंदिर का स्थापत्य बदले बिना वह साधना पद्धति भी वस्तुतः संभव नहीं होती। बच जाता है केवल दर्शन, चढावा एवं साधना विहीन भक्ति।
भक्तिकाल में लाचारी वश केवल भक्ति से काम चलाया गया लेकिन सौर तंत्र हो या शैव-शाक्त, उसे एवं उसकी संस्कृति के साथ समाज व्यवस्था को समझे बिना परिवर्तन को भी नहीं समझा जा सकता। एक नए सामाजिक आंदोलन की उलझन से इसे समझा सकता है। तारा बौद्ध परंपरा एवं सनातनी परंपरा दोनों में ही मुख्यतः वामाचार से चक्रपूजा आदि अनुष्ठानों से पूजी जानेवाली देवी हैं। मगध के मग, कोइरी और भूमिहार जातियां परंपरा से इनके भक्त हैं। भूमिहारों में रामानुज वैष्णव संप्रदाय का जोरदार आंदोलन/प्रचलन हाल के दिनों में बढ़ा है। केसपा, टेकारी, गया के तारा मंदिर पर उन्होंने कब्जा तो जमा लिया पर तारा तो शव पर ही आरूढ़ रहेंगी तो पैर कपड़े से एक दिये, इतने से काम नहीं चला तो ऊर्ध्चपुंड रामानुज वैष्णव संप्रदाय वाला तिलक लगा लिया। आज के भूमिहार तो इस बात को जानते हैं परंतु पर कल इसकी कैसी व्याख्या होगी? यह तो स्वामी सहजानंद एवं अन्य के द्वारा प्रवर्तित भूमिहार आंदोलन के कारण ही हुआ है। इस बात को ध्यन में रखने पर सारी बातें समझ में आ जायेंगी। चाहे मजबूरी हो या लालच, इसी प्रकार का काम मग लोगों ने भी अतीत काल में खूब किया जिसे समझने के लिये तटस्थ होना जरूरी है।
मंदिर का पुजारी निुयक्त होने पर आराध्यदेव की आराधना में कंजूसी करने एवं स्वयं उनका भाग उपभोग में लाने के कारण भोजक एवं देवलक शब्द का प्रयोग ंिनंदात्मक अर्थों में होने लगा। आरंभ में भोजक शब्द प्रशंसात्मक था, जिसे लोगों ने स्वयं निंदात्मक बनाया। बिहार उत्तर प्रदेश में पहले मग एवं भोजक दोनों शब्दों का प्रयोग हेाता था। मग मंदिरों की सेवा से न जुड़कर स्वयं साधना एवं पौरोहित्य का काम करते थे। ज्योतिष एवं आयुर्वेद की साधना साथ-साथ थी। स्वाभाविक रूप से शास्त्र एवं साधना में प्रवीण होना इनकी सामाजिक स्वीकृति एवं संरक्षण के लिए अनिवार्य था क्योंकि मंदिरों की जागीर इनके पास नहीं थी। थोड़ी टीका-टिप्पणी के बावजूद आपस में रक्त संबंध होते थे क्योंकि रक्त संबंध तो मंदिर एवं जागीर के पहले से ही चल रहे थे। छोटे-छोटे रजवाड़ों एवं जंमीदारों की कलह में बिहार के मंदिरों के राज्य समाप्त हो गए और जंमीदारों ने उस संपति पर कब्जा कर लिया। राजस्थान में जैन मंदिरों के पुजारी होने के विपरीत बिहार में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जैन मंदिर में पुजारी का काम नही करते किंतु अन्य मंदिरों में पुजारी का काम करते हैं।
पुजारी का काम करने के साथ साधना, स्वाध्याय एवं तपस्या की सुविधा थी किंतु तप, साधना, स्वाध्याय को छोड़कर इन लोगों ने विलासिता, राजकीय भोग, अकर्मण्यता, शास्त्रों से विमुखता और अंत में अनेक प्रकार के अवगुणों के प्रति रुचि बढ़ाई।
किसी भी प्रभावशाली समाज में गुण एवं अवगुण दोनों ही होते हैं। अगर कुछ लोग मेधा से प्रखर एवं परिश्रमी होते हैं, तो कुछ लोग आरामतलब एवं दूसरों के श्रम पर निर्भर होने की कोशिश करते ही हैं। शाकद्वीपीय ब्राह्मण अपनी प्रखर मेधा, विद्वत्ता, रहस्य विद्याओं-तंत्र, ज्योतिष एवं आयुर्वेद के लिए विख्यात हैं तो दूसरी तरफ आलस्य पाखंड एवं कलह के लिए भी कुख्यात हैं। शाकद्वीपीय मग संस्कृति को ठीक से समझने के लिए इस बिरादरी के दोनों पक्षों का तटस्थ विवेचन जरूरी है। इसमें पक्षपात करने से आत्मक ल्याण या लोकोपकार की सामग्र्री नहीं प्राप्त हो सकती।
मैं ने लगभग 30 साल तक इस पंरपरा को वास्तविक स्तर पर समझने का प्रयास किया तो एक से एक अद्भुत जानकारियाँ मिलीं। मगधवासी मग (पुर - उरवार- गोत्र भारद्वाज) होने के कारण मेरी जानकारी मुख्यतः दक्षिण बिहार पर आधारित है। अन्य क्षेत्रों - झारखण्ड, उतर प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में लोग यहीं से जाकर बसे हैं और आज भी बिना हिचक रिश्तेदारियाँ हो रही हैं। राजस्थान तथा उड़ीसा के कुछ स्थानों की मैं ने यात्रा की है और वहाँ से प्रकाशित साहित्य पढ़ने तथा विद्वानों से चर्चा करने का प्रयास किया है। चूँकि राजस्थान एवं गुजरात से अलग अन्य प्रदेश के मग ब्राह्यणों की पहचान एवं आजीविका मंदिर के पुजारी से अधिक पुरोहित के रूप में रही है और शास्त्र पढ़ने की लंबी परंपरा रही है अतः यहाँ की संस्कृति से सीखने लायक पुरानी बातें निकल सकती हैं। अन्य प्रदेश के लोगों में संगठन भावना आधुनिक शिक्षा व्यवसाय में आने की वृृति प्रबल है अतः उनके ये गुण अनुकरणीय हैं। अवगुण की समझ ही काफी है, ताकि उनसे बचा जा सके, उनकी चर्चा से क्या लाभ ?
इससे मग संस्कृति को समझने एवं कुछ रहस्यों को खोलने की स्थिति में मैं आ सका। अब हिम्मत कर तथ्य को सामने लाने का कार्य शेष रह गया है। हिम्मत कहने का मतलब है कि समाज में व्याप्त, पाखंड, अंधानुकरण एवं अन्य कुरीतियों के विरूद्ध बोलना साथ ही तथ्यपरक वास्तविक इतिहास, तंत्र साधना के रहस्य, लोकोपकारी प्राचीन विद्याओं को गोपनीयता के बाहर लाना क्योंकि अनावश्यक गोपनीयता पाखंड को प्रश्रय देती है। इस शृंखला में मैं ने निम्न विषयों का चुनाव किया है-
’ सौर तंत्र एवं सनातनी स्मार्त परंपरा
’ सौर तंत्र का भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष
’ सौर तंत्र का शैव-शाक्त तंत्र में समावेश/संबंध
’ सूर्य मंदिर एवं उनसे जुड़ी सामाजिक व्यवस्था
’ शिलालेखीय इतिहास
’ आयुर्वेद का उत्थान एवं पतन
’ आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न (पुस्तक रूप में प्रकाशित)
’ मगों के द्वारा आत्मसात की गई तंत्रोक्त देवी-देवता एवं उनकी उपासना शैली।
’ वाममार्गी, चीनाचार एवं कौल परंपरा का अनुकरण
’ वाममार्गी साधना के शुभाशुभ प्रभाव
’ पाखंड एवं कृतघ्नता की विवशता या चालाकी?
’ क्रांतिकारी आंदोलनों में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की भागीदारी
’ विभिन्न पुरों के कुल देवी-देवताओं की सामाजिक साधना।
’ गोपनीयता के कारण एवं पाखंड की आवश्यकता।
’ ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को ठगते-ठगते अंधकार एवं तिरस्कार के नरक की यात्रा
’ उत्थान के समकालीन प्रयास एवं जातीय संगठन
’ विभिन्न पुर के लोगों की प्राचीन शास्त्रविहित साधना परंपरा एवं वर्तमान स्थिति।
’ मग एवं बौद्ध साधना परंपरा
’ मग-भोजक एवं जैन
’ उतर भारत के अन्य ब्राह्मण एवं मग-भोजकों का संबंध
’ ग्राम एवं गोत्र व्यवस्था
’ मग-भोजकों में व्याप्त हीन भावना एवं निराकरण
’ मग-भोजकों पर प्रमुख आक्षेप एवं उत्तर
’ भारतीय संस्कृति में विलय एवं वर्चस्व के स्वीकृत तरीके
’ ब्राह्मणों की मौखिक एवं लिखित शास्त्र की परंपरा
’ मगों के यहाँ पांडुलिपियों की प्रचुरता का कारण
’ हर्षवर्धन एवं गुप्तकालीन आव्रजन-प्रव्रजन
’ शाकद्वीप एवं जंबुद्वीप की भौगोलिक स्थिति
’ महाश्वेता
’ समानांतर सूर्यवंश की स्थापना
’ मगध, कायस्थ, विश्वकर्मा, यम, यमांतक, यमांतक क्रोधराज की साधना
’ ब्रह्मा, मय एवं विश्वकर्मा
’ समाज को भ्रम में डालने के प्रयास
’ दिशाहीन एवं कुंठाग्रस्त संगठन

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

Maga Samskriti Parichaya


इस ब्लाग में प्रवेश के पहले सुनिश्चित कर लें कि आप

1 बालिग हैं
2 भारत की सांस्कृतिक विविधता का आदर करते हैं एवं उसकी पारंपरिक एकता को समझने को तैयार हैं न कि केवल किसी एक वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन को सही मानते है।
3 स्मृतियों (प्राचीन समाजव्यवस्थापरक धर्मग्रंथ) की विविधता के अनुसार समाज व्यवस्था वाले बहुसंख्यक, सनातनी एवं भारत के विविध क्षेत्रों में फैले-बसे लोगों के बारे में जानने जा रहे हैं।
4 सामान्य मनुष्य का जीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के साथ ही चलता है और वास्तविक साधना या संस्कृति इनके साथ जीने की संस्कृति होती है, पूर्ण आदर्शवाद केवल व्यक्तिगत या पाखंड होता है।
5 धर्म, अर्थ एवं काम का सदुपयोग तथा अज्ञान एवं जडता के बंधन से मोक्ष के लिये काम एवं का्रेध की ऊर्जा का अपने जीवन में उपयोग एवं चेतना का ऊर्ध्व विकास ही जीवन की सफलता है।

आप आहत हो सकते हैं यदि आप - किसी नए सुधारवादी संप्रदाय से जुड़े हैं, जैसे - आर्य समाज, आर्य समाज से विकसित अन्य संगठन गायत्री परिवार आदि, मार्क्सवाद, सर्वोदय आदि या ब्रह्म कुमारी आदि इसी प्रकार की धारा। इस ब्लाग का शुभारंभ मग जाति की संस्कृति को प्रकाशित करने के लिये किया गया है। इसके माध्यम ये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जायेगा कि लोगों तक प्रामाणिक जानकारी ही पहुंचे। प्रामाणिक जानकारी केवल गौरवपूर्ण या सुखद नहीं हो सकती, जैसे 100 साल पहले किसी के लिये अंगरेजों का करीबी होना गौरवमय हो सकता था परंतु आज अंगरेजों के भक्त भी इस जानकारी को प्रचारित करने की जगह अपने पूर्वजों को क्रांतिकारी कहा जाना पसंद करते हैं। यह काल प्रवाह का फल है। इसलिये इस ब्लाग को पढ़ने के पहले अपने दिल दिमाग को लचीला, मानवीय, संवेदनशील एवं संभावनाओं की अनंतता को स्वीकार करनेवाला बना कर ही इस ब्लाग में प्रवेश करें। मग संस्कृति रहस्यवाद से भरी पूरी है परंतु आज मगों को भी अपनी परंपरा की जानकारी नहीं है। अनेक प्रकार की तंत्र साधना करने के कारण इनके आचार कई बार समझ से बाहर के लगते हैं क्योंकि रोजी रोटी के लिए स्थान बदलने के कारण समय समय पर काफी अंतर भी आये हैं। मगों के बीच शाकाहार एवं मांसाहार को लेकर काफी उलझनें रहती हैं। लहसुन-प्याज खाएं न खाएं, कौन सा मांस कब खाएं, न खाएं मदिरा पियें न पियें, कब पियें कैसे पियें ये सारी बातें पिछले 500 वर्षों से आपसी विवाद और चर्चा में रही हैं। चर्चा का मतलब ही है कि विवादास्पद, हिंसक (बलि आदि के दृश्य) अश्लील (हंसी- मजाक, गाली-गलौज, छेड़-छाड़) सारी सामग्री सम्मिलित रहती है। तंत्र साधना की कौन सी धारा मगों की अपनी है? कौन बाद में आई? उसे स्वीकार करने पर क्या प्रभाव पड़ा आदि बातें कई बार आपकी धारणा को चोट पहुंचा सकती हैं। यहां आप विशेष रूप से आहत हो सकते हैं क्योंकि इस ब्लाग के उदाहरण वास्तविक , प्रमाण सहित तथा समाज द्वारा स्वीकृत होंगे और आपके आदर्श या धारणा के विपरीत भी हो सकते हैं। डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक ब्लाग लेखक

किसी भी जाति विशेष की संस्कृति को समझने के लिये कुछ बातों की जानकारी जरूरी है-
उस जाति का आवासीय क्षेत्र
उस क्षेत्र की संस्कृति से संबंध
पारंपरिक व्यवसाय
व्यवसाय में परिवर्तन एवं कारण
विवाह एवं संस्कार संबंधी अनुष्ठान
विश्वास एवं उपासना के तौर तरीके
विवाह एवं संपत्ति/उत्तराधिकार संबंधी व्यवहार
खान-पान वेशभूषा पारंपरिक एवं परिवर्तित विशेष आभूषण एवं वस्त्र
शिक्षा का स्वरूप एवं स्तर स्त्री, वृद्ध, बच्चे एवं बीमार के प्रति कर्तब्य का पालन
पारिवारिक सत्ता एवं संगठन
विशेष ज्ञान एवं सामाजिक योगदान
राज्य एवं धर्म सत्ता से संबंध लोकजीवन में भूमिका एवं स्वीकृति

अतः इस ब्लाग में मग जाति एवं उसके परिवेश तथा उस परिवेश में विकसित संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी दी जायेगी। आप के पास भी अगर कोई ऐसी सूचना हो तो मुझे भेज सकते हैं। वह सूचना आपके इमेल नाम के साथ दर्ज की जा सकती है।

मग/भोजकों के इतिहास एवं परंपरा के स्रोत


मग एवं भोजक इन दो नामों से शाकद्वीपीय ब्राह्मण जाने जाते हैं पुराणों के वर्णनों के अनुसार कुछ लोग अन्य नामों की भी संभावना व्यक्त करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में ये दोनांे नाम ही मुख्यतः प्रचलित हैं । लोगों को शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के इतिहास के विषय में जिज्ञासा होती है किन्तु इतिहास के मूल स्त्रोतों के विषय में जानकारी न होने से आधी-अधूरी सूचनाओं या परम्परागत विश्वास पर ही संतोष करना पड़ता है । संक्षेप में:- इतिहास या पूर्व परम्परा को जानने की दो पद्धतियाँ हैं -- (क) सूचना-प्रधान, भावना-निरपेक्ष इतिहास की दृष्टि, जिसमें अनूकूल प्रतिकूल सभी सामग्री स्वीकृत होती है । (ख) भावना एवं श्रद्धा-प्रधान-पुराण-दृष्टि, जिसमें उपयोगी सामग्री को सुन्दर ढंग से श्रद्धापूर्वक संजोया जाता है।‘पुरा नवं भवतीति पुराणं’। जिस धारा में पुरानी बातें नई हो जाएं उसे पुराण कहते हैं। ’इतिहास-पुराणाभ्याम् वेदं समुपबंृहयेत्’ यह हमारी समन्वय- प्रधान भारतीय दृष्टि है फिर भी ऐतिहासिक अध्ययनों एवं पौराणिक विश्वासों में कई बार अंतर पाया जाता है । पुराण सप्रयोजन लोकसापेक्ष एवं भविष्योन्मुखी होता है । इसी कारण उसे श्रद्धेय एवं अनुकरणीय माना गया है । ऐतिहासिक तथ्य हमारे विवेक में वृद्धि करते हैं। अतः दोनों दृष्टियों का अपना महत्त्व है । ऐतिहासिक तथ्य कभी-कभी हमारी जड़ता पर चोट करते हैं, नकारात्मक सूचनाएँ पीड़ा पहुँचाती हैं फिर भी उन्हे साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए क्योंकि सत्य का कोई विकल्प नहीं होता । सावधानी- दोनों दृष्टियों की अपनी अध्ययन पद्धति होती है । दोनों को एक साथ मिलाने से भ्रम एवं अज्ञान फैलता है। अतः दोनांे निष्कर्षाें को एक साथ मिलाना नहीं चाहिए ।

इतिहास-दृष्टि एवं उसके स्रोत:-
भारतीय समाज में अनेक प्रजातियों का सम्मिश्रण हुआ है और वर्णाश्रम व्यवस्था में सभी गलपच गये हैं। इतिहास की खोज करनेवाले विविध सूचनाओं के आधार पर पूर्वस्थिति की आधी या पूरी कल्पना करते हैं। ग्रंथ, शिलालेख, स्तम्भलेख, अवशेष, यात्रावृत्तांत आदि स्रोतों से सूचनाएँ संकलित की जाती हैं । मन्दिरोें के शिल्प से, राजाओं के दान से प्रमाणिक सूचनाएँ मिलती हैं । मग-भोजकों के बारे में भी विविध सूर्यमंदिरों, मूर्तियों के शिल्पविधान, शिलालेख एवं स्तम्भलेखों से प्रामाणिक जानकारी मिलती है । पहले प्रकाशित ग्रंथों को देखना चाहिए फिर अन्य सामग्रियों का अध्ययन किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए कुछ सूचनाएँ दी जा रही हैंः- सभी सूर्यमंदिर खासतौर पर देव वरूणार्क (भोजपुर, बिहार), देव एवं उमगा (औरंगाबाद, बिहार)के मंदिर । वरूणार्क मंदिर के साथ जुड़े स्तंभलेख एंव शिलालेख । सूर्य की उदीच्य एवं प्रतीच्य (भारतीय एवं यूनानी प्रभाववाली) शैली की प्रतिमाएँ । सूर्य-प्रतिमा में घोड़ों की संख्या का क्रमिक विकास । मगध एवं काशी क्षेत्र में द्वादशादित्य । मगों के मूल ग्राम, उनके द्वारा लिखित ग्रंथ एवं वर्तमान तक की कडियाँ, क्रांतिकारी, शहीद आदि । ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं । मगों के विषय में उनके शक, मंगोल, मध्य एशियाई, यूनानी, इरानी आदि होने की संभावना पर आधारित पुस्तकें भी मिलेंगी । इन सबों का सावधानी से अध्ययन करना चाहिए ।

पुराण-दृष्टि
भारतीय संस्कृति अत्यंत प्राचीन संस्कृति है । इस संस्कृति को समझने के लिए गंगा की उपमा दी जाती है। जैसे गंगा नदी में अनेकों नदियाँ आकर मिल जाती हैं और गंगा के जल को अपने जल से न केवल परिमाण की दृष्टि से बढ़ाती हैं बल्कि अपने गुण धर्मो से भी उसे भरती रहती हैं । अनेक प्रकार की नदियाँ मिलती हैं और अंत में जाकर सभी नदियाँ सागर में विलीन हो जाती हैं । यदि गंगा के प्रारंभ पर ध्यान दिया जाय तो ऐसा लगेगा कि नदी से उसकी सहायक नदियाँ ही बड़ी हैं । फिर इसे गंगा ही क्यों माना जाए ? भारतीय संस्कृति इस बहस में नहीं पड़ती । गंगा की जो पुण्य पताका है, जो श्रेष्ठता है, लोग उसका लाभ उठाना, तुलना करने से अधिक आवश्यक और उचित समझते हैं । गंगोत्री से गंगा सागर तक सर्वत्र गंगा एक है । हाँ, उसके नाम जाह्नवी, भागीरथी आदि भी हैं और यदि कोई गंगा को कई नामों से पुकारता है तो गंगा में स्नान करनेवालों को कोई आपत्ति नहीं है । चूँकि सांस्कृतिक समन्वय में, उसके मौलिक अवयवों में, मूलभूत रूप में पहचान पाना अत्यंत कठिन होता है इसलिए ज्ञानमार्गी या बुद्धिवादी विचारक कभी-कभी बेचैन हो जाते हैं। बुद्धिवादी विचारकों को विशेषकर तब अधिक बेचैनी होती है जब समन्वयवादी संस्कृति में स्वीकृत विस्मृति के सिद्धांत के कारण कुछ कड़ियाँ टूटी रहती हैं। बहुत लंबे समय से इसीलिए पुराणों की प्रामाणिकता एवं अप्रामाणिकता का शास्त्रार्थ चल रहा है। जो लोग धार्मिक हैं वे इस शास्त्रार्थ में नहीं पड़ते। आधुनिक भारतीय मन विभिन्न दृष्टिकोणों के टकराव से व्यथित है और थककर मान लेता है कि ‘धर्मस्य तत्त्वं निहिंत गुहायां महाजनो येन गतः स पंथा’ श्रेष्ठ लोगांे के जीवन को प्रमाण मानने के विरूद्ध मैं भी नहीं हूँ किंतु यदि कुछ रास्ते उपलब्ध हैं तो सदैव अपने विवेक को त्याग देना उचित नहीं है । यदि इस बात पर ध्यान दें कि किन-किन दृष्टियों से लोग न केवल पुराणों को अपितु संपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक सामग्री को देख रहे हैं तो हमारे अनेक प्रश्न स्वयं उत्तर से पूर्ण हो जाएंगे। मैं यहाँ पहले उन दृष्टियों की चर्चा कर रहा हूँ।

आधुनिक भैातिकवादी दृष्टि-
इस दृष्टि से पुराण अनेक उलटी पुलटी अंधविश्वासपूर्ण सूचनाओं के भंडार हैं। अतः उन्हें पढ़ने या उनमंे से कुछ खोज निकालने का प्रयास मूर्खतापूर्ण है। इस दृष्टि के लोग या तो विदेशी शासक रहे हैं या आधुनिक धर्मनिरपेक्षतावादी लोग । यह दृष्टि बिना जाने विशेषज्ञ बनने की दृष्टि है, जो असत्य पर आधारित है और जिसका, प्रस्थानविंदु भी मूर्खतापूर्ण है। अतः इसे सही दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता।
किवंदती प्रधान दृष्टि-
इस दृष्टिकोण के लोग किंवदंतियों, श्रुति परंपरा से इधर उधर से कई सूचनाओं के आधार पर धर्म, संस्कृति या किसी भी ग्रंथ के बारे में अपनी स्वयंभू धारणाएं विकसित कर लेेते हैं । इन स्वयंभू धारणाओं के पीछे वे इस तरह पागल हो जाते हैं कि सत्य के लेशमात्र को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते यदि वह सत्य उनकी धारणा के विपरीत हो । इस दृष्टि में बहुत ही धार्मिक संकीर्णता होती है, सर्वज्ञता का दंभ होता है । उपासना की भ्रष्ट विधिविहीन, भावहीन पद्धतियाँ होती हैं और उससे भी अधिक संकीर्णता तथा कलह की प्रवृत्ति होती है । असत्य एवं मूर्खता पर आधारित होने के कारण इस दृष्टिकोण को भी स्वीकार करना उचित नहीं हैे ।
धर्मविरोधी दृष्टि-
मार्क्सवादी या इनके समतुल्य अनेक लोगों को धर्म से ही घृणा र्है आैर उसका खंडन या निंदा करना ही इन लोगों का लक्ष्य होता है । दुराग्रहपूर्ण एवं असत्य होने के कारण इस दृष्टि को भी सही दृष्टि नहीं माना जा सकता है ।

सांप्रदायिक दृष्टि -
इसे संकीर्णता या कूपमंडूकता की दृष्टि भी कहा जा सकता है । भारतवर्ष में विभिन्न स्थानों एवं काल खंडांे में अनेक देवी-देवताओं की उपासना तथा पूजा की विधियाँ विकसित र्हुइं। अपने आराध्य एवं उनकी पूजाविधि के प्रति समर्पित होना बहुत अच्छी बात है लेकिन इस अनन्त ब्रह्नमांड में केवल किसी एक देवता या उसकी पूजा विधि को सर्वानुकरणीय स्थापित करना तथा अन्य देवताओं, उनके भक्तों, उनकी जीवन शैली आदि का विरोध अर्द्धसत्य पर आधारित अल्पज्ञता वाली दृष्टि है । इसीलिए छोटे समूह में भले ही इस दृष्टि को जितना भी रिक्त स्थान मिल गया हो भारतीय लोेक संस्कृति ने अंततः ऐसी संकीर्णता को नकार दिया है ।

समन्वयवादी दृष्टि-
दृष्टि समन्वयवादी है। वह इस ब्रह्मांड में अनेक देवताओं के होने की बात स्वीकारती है । इन्द्र, वरुण, अग्नि, रूद्र, जैसे प्राचीन देवी देवताओं के साथ संतोषी माता एवं अन्य देवताओं की पूजा को भी यह स्वीकार लेती है । संक्ष्ेाप में, इसे सुविधा के लिए हम स्मार्तदृष्टि कह सकते हैं । यही कारण है कि कभी कभी एक ही उत्सव विभिन्न लोंगों के लिए विभिन्न समयों पर संम्पन्न होते हैं। पंचांग में वैष्णवानां और स्मार्तानां ऐसा उल्लेख करना पड़ता है । इसी समन्यवादी दृष्टि का विकास पुराण परंपरा में हुआ है जिसकी आगे चर्चा की जाएगी । प्राचीन भारतीय पंरपरा में भी पुराण की समन्वयात्मक प्रकृति के विरूद्ध अनेक दार्शनिक एवं संप्रदायवादी आचार्य विभिन्न कालख्रडों में खडे हुए हैं । आधुनिक इतिहास लेखन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि पंरपरागत इतिहास दृष्टि से भी यहाँ इतिहास एवं पुराण शब्दों के साथ जुड़ी हुई धाराओं की चर्चा की जाएगी । इतिहास में घृणा उत्पन्न करानेवाली सामग्री का वर्चस्व होता है। लोगों में झगड़ा करानेवाले राजनीतिज्ञों के लिए ऐसी सूचनाएँ बहुत उपयोगी होती हैं लेकिन लोक कल्याण में इस दृष्टि का कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं हुआ है । आप उपासना पद्धतियों की खोज में या संस्कृति के सूत्रों को जोड़ने में लगे हों तो पुराणांे के अध्ययन से पता चलेगा कि किस प्रकार भारत वर्ष में प्रत्यक्ष विग्रह वाले भगवान भास्कर की प्रतिमा के निर्माण एवं उनकी पूजा की पंरपरा विकसित हुई । और यदि भक्तजन अपनी सूर्योपासना में भविष्य , सांब पुराण आदि की मदद लेंगे तो उन्हें भगवान् भास्कर की कृपा का प्रसाद भी अवश्य प्राप्त होगा ।