बुधवार, 27 अप्रैल 2011

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

नई पीढ़ी के सीखने लायक लोकसम्मत तांत्रिक/स्मार्त विधियां

बी.एन. मिश्र जी ने तंत्र एवं मग संस्कृति के प्रयोगिक बातों को नई पीढ़ी को सिखाने का आग्रह रखा है। मग लोग तंत्र साधना के लिये जाने जाते हैं। अतः उनका कर्तब्य बनता है कि कम से कम लोकोपयोगी एवं समाज में स्वीकृत प्रायोगिक विधियों को स्पष्ट करें और पुनः पहलं अपने लोगों को सिखाएं। गूढ़ एवं रहस्यमय पक्षेंा की बात बाद में करे। इससे तंत्र सीखने में भय या लोक निंदा की दुविधा भी नहीं रहेगी और स्वतः लोगों की अभिरुचि बढ़ेगी। अंगरेजी पढ़े और इंटरनेट पर बैठने वाले भी अपनी परंपरा के लिये न तो विदेशियों के चंगुल में फंसेंगे न अघ्यात्मविराधियों या धूर्तों के शिकार होंगे। अभी भी परंपरा पूरी तरह लुप्त नहीं हुई है। महिलाओं की कृपा एवं अंगरेजभक्त संस्कृत पंडितों की अरुचि के करण बच गई हैं। अब इनका बचना मुश्किल है क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्राप्त महिलाएं पुरुषों से कम अहंकारिणी नहीं हैं।
इसलिये मैं ने चुनचुन कर लोक पंरपरा में प्रचलित अनुष्ठानों एवं व्रतों की जानकारी रखना शुरू किया है ताकि अगर किसी को जानने सीखने में रुचि हो तो उसकी मदद की जा सके या जानकार लोग भी झेंप छोड़ कर इन अनुष्ठानों को अपन घर में पूरा करायंे, इसे फालतू न समझें
पंच कोश परिचय
पंचकोश परिचय के बिना सच पूछिए तो सनातन धर्मीय जीवन शैली संभव ही नहीं है। बौद्ध एवं जैन पद्धति से जीने के लिए भी नामांतर से ही सही कुछ न कुछ सीखना जरूरी है।
पंच कोश का यहाँ तात्पर्य है - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश की अपने व्यक्तित्व में पहचान एवं उसकी कार्यप्रणाली की समझ तथा उसके अनुसार जीवन में सफल होना। यह व्यावहारिक ज्ञान किसी सिद्ध-संत के लिए उपयोगी हो, ऐसी बात नहीं है। यह तो सभी गृहस्थों के दैनिक जीवन के लिए उपयोगी है।
उत्तर भारत में इसे अनिवार्य माना गया। कम से कम तीन कोश अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय की कार्य प्रणाली जो नहीं समझे, उसे विवाह का अधिकार ही नहीं है। यहां तक तो समाज के द्वारा निर्धारित अनिवार्य एवं व्यावहारिक/प्रायोगिक शिक्षा थी, और औरत-मर्द दोनों के लिए जरूरी थी। इसलियेे इसके प्रशिक्षण की जिम्मेवारी मुख्यतः औरतों को दी गयी। सभी मर्द भी उनके नेतृत्व में खुलकर ही क्या बढ़-चढ़ कर इस प्रक्रिया में सीखने-सिखाने में भाग लेते थे। आज भी प्रशिक्षण देने वाले अनुष्ठानों की खाना पूर्ति तो होती है पर वास्तविक शिक्षा जरा सी गलती सी चूक जा रही है।
इस अनुष्ठान को सवर्णों में जनेऊ एवं विवाह दोनों समय एवं असवर्णो में केवल विवाह के समय अवश्य किया जाता है। यह है, हल्दी एवं बार-बार चुमावन का अनुष्ठान। तांत्रिक दृष्टि से चुमावन संपूर्णता देने वाला अक्षताभिषेक है, जो सभी अभिषेकों का अंत एवं श्रेष्ठतम माना जाता है। समाज में यह सर्वमान्य गैर ब्रांडेड अर्थात संप्रदाय के प्रभाव से मुक्त रूप से स्वीकृत है। इसलिये संस्कृत के मूर्ख पंडित एवं कर्मकांडी इससे चिढते हैं।
इस अनुष्ठान के पूरा होते ही वर या वधू या वटुक जो भी हो योग साधना में वर्णित धारणा, प्रत्याहार एवं तंत्र में वर्णित न्यास तथा कवच को समझने एवं उसका वास्तविक अभ्यास की पात्रता अर्जित कर लेता है। सामाजिक स्वीकृति तथा बड़ों के संरक्षण में किये जाने के कारण इसका कोई भी दुष्परिणाम नहीं होता। इसे सीखने की न्यूनतम उम्र 9 साल है।
आज तो हर प्रक्रिया का समापन मंदिर में देवता के दर्शन एवं पाठ से पूरा कर लिया जाता है। न्यास, कवच, अर्गला, सभी मंत्रों का केवल शाब्दिक उच्चारण मात्र से क्या होगा? यह तो कक्षा एक नहीं, नर्ससी की पढ़ाई हुई।
स्नायु तंतुओं की संवेदना, संरचना को महसूस करना, मन में पड़ने वाले प्रभाव को स्वीकार करना, फिर तटस्थ होना, फिर उसे नियंत्रित करना, असली शिक्षा तो यह है। एकांत, अकेली साधना में जिस अनुभव को प्राप्त करने में कई वर्षों का समय लगता, उसे परिवार के लोग अपने संरक्षण में मात्र हफ्ते-दस दिन में जबरन सिखा देते थे।
ऐसे अनेक अनुष्ठान हैं, जिन्हंे सामाजिक स्वीकृति है। तंत्र के नाम पर अंधानुकरण या ठगी से बेहतर है कि पहले समाज में स्वीकृत अनुष्ठानों में जीवन फँूकने का काम किया जाये। विस्तार भय से अब लिखना बंद कर रहा हूँ। शिक्षण-प्रशिक्षण के अभिक्रम या चुनौती के लिए तैयार हूँ। आरंभ में मात्र 10-15 विवाहित जोड़ों की जरूरत है, जो अगली पीढ़ी को सिखा सकें, फिर तो बाबा रामदेव की कपाल भाँति से भी दु्रतगति से यह प्रक्रिया समाज में बढ़ेगी। देहात में आज भी घर-घर में होती ही है। मुश्किल यह है कि देहात के लोग शहर के लोगों की नकल करते हैं, अशिक्षित शिक्षित की और असवर्ण सवर्णों की। इसलिये शिक्षित तथा अभिभावक की उम्रवाले ब्राह्मणों को इस काम के लिये आगे आकर समूह बना कर पारिवारिक एवं संस्थागत स्तर पर प्रशिक्षण देना चाहिए। औरतों में भी शिक्षा के प्रसार के कारण अब उनका भी खुला सहयोग मिलेगा। चंूकि इस प्रशिक्षण में घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों का नेतृत्व मान्य होगा अतः स्पष्ट है कि उनकी अभिरुचि अधिक रहेगी। यह तो पहली कड़ी है, आगे भी ऐसी जानकारियां उपलब्ध होती रहेंगी।
ये सभी जानकारियां इस ब्लाग के स्वतंत्र पृष्ठ - सीखने लायक पर क्रमशः उपलब्ध होंगी।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

अफ़सोस तो इसी बात का है की कोई बतानेवाला ही न रहा मंदिर और कर्मकांड तो अध्यात्म का क ख ग है हम जिंदगी भर क कबूतर का ही पढते हैं जैसे आचार्य और शोध तो कुछ ही केर पते है ज्यादा तार मिडिल या हाई स्कूल में पढाई छोड़ देते हैऔर जीविका का साधन आपना लेते है प्राइमरी स्कूल की भरमार हो गई है कालेज है ही नहीं या पढ़ने वाले नहीं इसी तरह मूर्तिपूजा भी आगे चल केर छुट जाती है ईस्ट का चुनाव और साधना भी अपने आप में गुरु द्वारा रूचि और विवेक से दी जाती थी परम्पराओ का निर्वहन एवं जीविका का चुनाव रूचि परिस्थिति पर निर्भर करता था परिवार समाज छोटा होने के कारन मगसंस्कृति का लोप होता गया किन्तु जीवित रखने वालो का भी बाल कम नहीं था उन्होंने दूसरी संस्कृति का वरन तो किया किन्तु अपना नहीं छोडा