शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

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मग संस्कृति की दुविधाएँ/उलझनें

डॉ॰ रवीन्द्र कुमार पाठक
सूर्यवंशी और सूर्यपूजक होने के बावजूद मग संस्कृति को समझना आज की तारीख में कठिन है। यह कई उलझनों, दुविधाओं एवं सामाजिक उतार-चढ़ाव के बीच विकसित हुआ है। अतः सीधे-सरल रूप में मग संस्कृति की ऐतिहासिक एवं वर्तमान संस्कृति को नहीं समझा सकता है। इसे समझने के लिए जरूरी है कि आज से आरंभ कर क्रमशः इतिहास एवं परंपरा की पिछली परतों का अवलोकन किया जाय। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि पूजा-पाठ, अनुष्ठान, संस्कार के प्रायोगिक पक्षों को भी समझा जाय और उसकी समीक्षा तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक संदर्भो में की जाय। आगे कुछ बिंदु रखे जा रहे हैं, जिससे मुख्य उलझनों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट होगा -
1. जंबूद्वीप में बसने के बाद भी शाकद्वीप की याद समेटे रखना। भारत में अनेक आर्य-अनार्य जातियाँ आई किंतु सबों ने जंबूद्वीपीय भारतीय पहचान को स्वीकार कर अपनी पुरानी पहचान समाप्त कर ली। शाकद्वीपीय ब्राह्यण अभी भी दोनो पहचान रखने की उलझन में हैं।
2. उपासना की अनेकविध शैलियाँ - सूर्य के साक्षात् वंशज मानने पर भी मग, भोजक, सेवग आदि ने अपनी कुल-देवी, कुल-देवता के रूप में सूर्य के विविध रूपों के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं को स्थान दिया और इस कारण इनका सूर्य-वंशज एवं सूर्य-पूजक होने का दावा भी उलझन में पड़ गया। शिव एवं शक्ति के विविध रूपों के अतिरिक्त इन्होनें विभिन्न यक्षों एवं याक्षीणियों की न केवल उपासना शुरू की बल्कि उन्हें अपनी कुल देवी-देवता के रूप में स्वीकार कर लिया।
सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी, तारा, चँवरी, भल्लिनी, अन्धारी आदि देवियों एवं यक्षिणियों की उपासना आज भी हो रही है। उलझन तब और बढ़ जाती है जब सूर्य आदि मंदिरों के पुजारी दूसरों को तो पूजा एवं उसके अनेक शुभ फलों का उपदेश देते हैं परंतु अपनी कुल पंरपरा में उन देवी-देवताओं की उपासना नही करते। ऐसा करना इनके लिये संभव भी नहीं है क्योंकि जब जिस देवता की आराधना की सामाजिक चलन बढ़ी इन ब्राह्मणों ने कहीं मुख्य विग्रह के साथ तो कहीं मुख्य विग्रह को हटाकर नए देवता या देवी की पूजा शुरू कर दी। ऐसा आचरण अनेक मंदिरों में मिलता है। इस अनुचित व्यवहार की न तो शास्त्रीय संगति हो सकती है न इसका गौरव गाया जा सकता है। अतः लोगों ने भक्तों एवं यजमानों को धोखा देने के उद्देश्य से अनेक झूठी कथाएं प्रचारित कीं। किसी भी मंदिर का अपना स्थापत्य एवं विग्रह ही नहीं होता उसके साथ जुड़ी पूरी साधना पद्धति होती है। मंदिर का स्थापत्य बदले बिना वह साधना पद्धति भी वस्तुतः संभव नहीं होती। बच जाता है केवल दर्शन, चढावा एवं साधना विहीन भक्ति।
भक्तिकाल में लाचारी वश केवल भक्ति से काम चलाया गया लेकिन सौर तंत्र हो या शैव-शाक्त, उसे एवं उसकी संस्कृति के साथ समाज व्यवस्था को समझे बिना परिवर्तन को भी नहीं समझा जा सकता। एक नए सामाजिक आंदोलन की उलझन से इसे समझा सकता है। तारा बौद्ध परंपरा एवं सनातनी परंपरा दोनों में ही मुख्यतः वामाचार से चक्रपूजा आदि अनुष्ठानों से पूजी जानेवाली देवी हैं। मगध के मग, कोइरी और भूमिहार जातियां परंपरा से इनके भक्त हैं। भूमिहारों में रामानुज वैष्णव संप्रदाय का जोरदार आंदोलन/प्रचलन हाल के दिनों में बढ़ा है। केसपा, टेकारी, गया के तारा मंदिर पर उन्होंने कब्जा तो जमा लिया पर तारा तो शव पर ही आरूढ़ रहेंगी तो पैर कपड़े से एक दिये, इतने से काम नहीं चला तो ऊर्ध्चपुंड रामानुज वैष्णव संप्रदाय वाला तिलक लगा लिया। आज के भूमिहार तो इस बात को जानते हैं परंतु पर कल इसकी कैसी व्याख्या होगी? यह तो स्वामी सहजानंद एवं अन्य के द्वारा प्रवर्तित भूमिहार आंदोलन के कारण ही हुआ है। इस बात को ध्यन में रखने पर सारी बातें समझ में आ जायेंगी। चाहे मजबूरी हो या लालच, इसी प्रकार का काम मग लोगों ने भी अतीत काल में खूब किया जिसे समझने के लिये तटस्थ होना जरूरी है।
मंदिर का पुजारी निुयक्त होने पर आराध्यदेव की आराधना में कंजूसी करने एवं स्वयं उनका भाग उपभोग में लाने के कारण भोजक एवं देवलक शब्द का प्रयोग ंिनंदात्मक अर्थों में होने लगा। आरंभ में भोजक शब्द प्रशंसात्मक था, जिसे लोगों ने स्वयं निंदात्मक बनाया। बिहार उत्तर प्रदेश में पहले मग एवं भोजक दोनों शब्दों का प्रयोग हेाता था। मग मंदिरों की सेवा से न जुड़कर स्वयं साधना एवं पौरोहित्य का काम करते थे। ज्योतिष एवं आयुर्वेद की साधना साथ-साथ थी। स्वाभाविक रूप से शास्त्र एवं साधना में प्रवीण होना इनकी सामाजिक स्वीकृति एवं संरक्षण के लिए अनिवार्य था क्योंकि मंदिरों की जागीर इनके पास नहीं थी। थोड़ी टीका-टिप्पणी के बावजूद आपस में रक्त संबंध होते थे क्योंकि रक्त संबंध तो मंदिर एवं जागीर के पहले से ही चल रहे थे। छोटे-छोटे रजवाड़ों एवं जंमीदारों की कलह में बिहार के मंदिरों के राज्य समाप्त हो गए और जंमीदारों ने उस संपति पर कब्जा कर लिया। राजस्थान में जैन मंदिरों के पुजारी होने के विपरीत बिहार में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जैन मंदिर में पुजारी का काम नही करते किंतु अन्य मंदिरों में पुजारी का काम करते हैं।
पुजारी का काम करने के साथ साधना, स्वाध्याय एवं तपस्या की सुविधा थी किंतु तप, साधना, स्वाध्याय को छोड़कर इन लोगों ने विलासिता, राजकीय भोग, अकर्मण्यता, शास्त्रों से विमुखता और अंत में अनेक प्रकार के अवगुणों के प्रति रुचि बढ़ाई।
किसी भी प्रभावशाली समाज में गुण एवं अवगुण दोनों ही होते हैं। अगर कुछ लोग मेधा से प्रखर एवं परिश्रमी होते हैं, तो कुछ लोग आरामतलब एवं दूसरों के श्रम पर निर्भर होने की कोशिश करते ही हैं। शाकद्वीपीय ब्राह्मण अपनी प्रखर मेधा, विद्वत्ता, रहस्य विद्याओं-तंत्र, ज्योतिष एवं आयुर्वेद के लिए विख्यात हैं तो दूसरी तरफ आलस्य पाखंड एवं कलह के लिए भी कुख्यात हैं। शाकद्वीपीय मग संस्कृति को ठीक से समझने के लिए इस बिरादरी के दोनों पक्षों का तटस्थ विवेचन जरूरी है। इसमें पक्षपात करने से आत्मक ल्याण या लोकोपकार की सामग्र्री नहीं प्राप्त हो सकती।
मैं ने लगभग 30 साल तक इस पंरपरा को वास्तविक स्तर पर समझने का प्रयास किया तो एक से एक अद्भुत जानकारियाँ मिलीं। मगधवासी मग (पुर - उरवार- गोत्र भारद्वाज) होने के कारण मेरी जानकारी मुख्यतः दक्षिण बिहार पर आधारित है। अन्य क्षेत्रों - झारखण्ड, उतर प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में लोग यहीं से जाकर बसे हैं और आज भी बिना हिचक रिश्तेदारियाँ हो रही हैं। राजस्थान तथा उड़ीसा के कुछ स्थानों की मैं ने यात्रा की है और वहाँ से प्रकाशित साहित्य पढ़ने तथा विद्वानों से चर्चा करने का प्रयास किया है। चूँकि राजस्थान एवं गुजरात से अलग अन्य प्रदेश के मग ब्राह्यणों की पहचान एवं आजीविका मंदिर के पुजारी से अधिक पुरोहित के रूप में रही है और शास्त्र पढ़ने की लंबी परंपरा रही है अतः यहाँ की संस्कृति से सीखने लायक पुरानी बातें निकल सकती हैं। अन्य प्रदेश के लोगों में संगठन भावना आधुनिक शिक्षा व्यवसाय में आने की वृृति प्रबल है अतः उनके ये गुण अनुकरणीय हैं। अवगुण की समझ ही काफी है, ताकि उनसे बचा जा सके, उनकी चर्चा से क्या लाभ ?
इससे मग संस्कृति को समझने एवं कुछ रहस्यों को खोलने की स्थिति में मैं आ सका। अब हिम्मत कर तथ्य को सामने लाने का कार्य शेष रह गया है। हिम्मत कहने का मतलब है कि समाज में व्याप्त, पाखंड, अंधानुकरण एवं अन्य कुरीतियों के विरूद्ध बोलना साथ ही तथ्यपरक वास्तविक इतिहास, तंत्र साधना के रहस्य, लोकोपकारी प्राचीन विद्याओं को गोपनीयता के बाहर लाना क्योंकि अनावश्यक गोपनीयता पाखंड को प्रश्रय देती है। इस शृंखला में मैं ने निम्न विषयों का चुनाव किया है-
’ सौर तंत्र एवं सनातनी स्मार्त परंपरा
’ सौर तंत्र का भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष
’ सौर तंत्र का शैव-शाक्त तंत्र में समावेश/संबंध
’ सूर्य मंदिर एवं उनसे जुड़ी सामाजिक व्यवस्था
’ शिलालेखीय इतिहास
’ आयुर्वेद का उत्थान एवं पतन
’ आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न (पुस्तक रूप में प्रकाशित)
’ मगों के द्वारा आत्मसात की गई तंत्रोक्त देवी-देवता एवं उनकी उपासना शैली।
’ वाममार्गी, चीनाचार एवं कौल परंपरा का अनुकरण
’ वाममार्गी साधना के शुभाशुभ प्रभाव
’ पाखंड एवं कृतघ्नता की विवशता या चालाकी?
’ क्रांतिकारी आंदोलनों में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की भागीदारी
’ विभिन्न पुरों के कुल देवी-देवताओं की सामाजिक साधना।
’ गोपनीयता के कारण एवं पाखंड की आवश्यकता।
’ ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को ठगते-ठगते अंधकार एवं तिरस्कार के नरक की यात्रा
’ उत्थान के समकालीन प्रयास एवं जातीय संगठन
’ विभिन्न पुर के लोगों की प्राचीन शास्त्रविहित साधना परंपरा एवं वर्तमान स्थिति।
’ मग एवं बौद्ध साधना परंपरा
’ मग-भोजक एवं जैन
’ उतर भारत के अन्य ब्राह्मण एवं मग-भोजकों का संबंध
’ ग्राम एवं गोत्र व्यवस्था
’ मग-भोजकों में व्याप्त हीन भावना एवं निराकरण
’ मग-भोजकों पर प्रमुख आक्षेप एवं उत्तर
’ भारतीय संस्कृति में विलय एवं वर्चस्व के स्वीकृत तरीके
’ ब्राह्मणों की मौखिक एवं लिखित शास्त्र की परंपरा
’ मगों के यहाँ पांडुलिपियों की प्रचुरता का कारण
’ हर्षवर्धन एवं गुप्तकालीन आव्रजन-प्रव्रजन
’ शाकद्वीप एवं जंबुद्वीप की भौगोलिक स्थिति
’ महाश्वेता
’ समानांतर सूर्यवंश की स्थापना
’ मगध, कायस्थ, विश्वकर्मा, यम, यमांतक, यमांतक क्रोधराज की साधना
’ ब्रह्मा, मय एवं विश्वकर्मा
’ समाज को भ्रम में डालने के प्रयास
’ दिशाहीन एवं कुंठाग्रस्त संगठन

1 टिप्पणी:

Dinesh Kumar Bhojak ने कहा…
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