शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

परंपरागत परिचय है क्या?

परंपरागत परिचय है क्या?

आज अनेक लोग परंपरागत परिचय के संदर्भों को ही नहीं समझ पाते। स्थान परिवर्तन, किसी तथ्य को सामाजिक/पारिवारिक कारण से छुपाने, विस्मृति या किसी उद्देश्य से बदल देने के कारण परिचय में जो अंतर आए हैं, वे उसे क्या समझेंगे?
अतः इस बार परिचय के संदर्भों पर ही यथासंभव प्रकाश डाला जा रहा है। इस आलेख में उन बातों को नहीं शामिल किया गया है, जो पूर्ववर्ती दो आलेखों (संदेशों) में ब्लाग पर उपलब्ध हैं। अतः दोनों को मिलाकर पढ़ें।
ऋषि एवं गोत्र
गोत्र पर लिखा जा चुका है। राजस्थान में मूलग्राम (जिसकी पहचान वह समूह स्मृति में रखे हुए है) को ही लोग गोत्र मानने लगे हैं। विवाह आदि में उसी आधार पर निर्णय करते हैं। बिहार उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ में पुर एवं गोत्र दोनों की स्मृति है और पूछा भी जाता है। राजस्थान की अलग व्यवस्था है। श्री नंदकिशोर शर्मा जी ने इा पर विस्तार से लिखा है। उनके आलेख टंकित हो रहे हैं। उनकी सहमति संशोधन के बाद यथाशीघ्र उपलब्ध कराये जायेंगे।
ऋषि - किसी भी साधना एवं उसके लिए आवश्यक मंत्र एवं विधियों के आदि प्रवर्तक को ऋषि कहा जाता है। साधना एवं मंत्र की अनेकता के कारण ऋषियों की अनेकता है। कुछ ऋषि केवल वैदिक मंत्रों के ऋषि होते हैं, कुछ वैदिक, तांत्रिक दोनों मंत्रों एवं साधना विधियों के। बाद में बीज मंत्रों एवं वर्णमाला रूपी मंत्रों के भी ऋषियों की मान्यता आई है। उन्हें उस वर्णसंबंधी साधना का आदि प्रवर्तक तो माना जा सकता है वर्ण का नहीं क्योंकि वर्ण और अक्षर अनादि हैं।
वशिष्ठ ऋषि वैदिक, तांत्रिक, वामाचार-दक्षिणाचार सभी प्रकार की विधियों एवं साधना परंपराओं में स्वीकृत हैं। तारा जैसी देवी को सनातनी परंपरा में लाने का श्रेय वशिष्ठ को दिया या है। सामान्य कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर यह बात अटपटी लगेगी, किंतु भारतीय काल दृष्टि ही भिन्न है। यहाँ वर्तमान, भूत भविष्य तीनों कालों में साधना के द्वारा हस्तक्षेप की संभावना मानी जाती है। इस विषय पर काल दृष्टि वाले आगामी आलेख में पढ़ने को मिलेगा।
रेखीय दृष्टि से अर्थात् अतीत-वर्तमान-और भविष्य, जिसकी पुनरावृत्ति संभव नहीं है (जैसा ईशाई और मुसलमान मानते हैं) वशिष्ठ, व्यास एवं अन्य ऋषि-मुनियों के नाम पर कुल परंपरा चलती है और नई विधियांे/गं्रथों को उनके नाम पर ही समर्पित कर स्वीकार किया जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में समझें कि आपके कुल गोत्र की साधना परंपरा मुख्यतः किस ऋषि की परंपरा में हैं।
प्रवर - ऋषियों के आपसी संगठन, निकटता एवं भाईचारे के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। पहले कुछ भारतीय ब्राह्मण एक प्रवर के भीतर भी विवाह नहीं करते थे।
आस्पद/उपाधि मिश्र, पाठक, पाण्डेय आदि कई बातों पर आधारित हैं, जैसे - साधना, अध्ययन की परंपरा, उसकी शैली राजा द्वारा दी गई उपाधि आदि। ये बदलती रहती हैं।
मंत्र - साधना के लिए जपे जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समूह वाक्यांश या वाक्यों को मंत्र कहते हैं। मंत्र मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - वैदिक वाक्य रूपी एवं तांत्रिक-ध्वनि रूपी बीज मंत्र। बाद में पौराणिक श्लोकों, स्तोत्रों आदि का भी प्रयोग मंत्र रूप में होने लगा।
वेद - पहले तीन वेद होते थे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, एवं सामवेद, बाद में चौथा अथर्ववेद भी जुड़ा इस प्रकार चार वेद हुए। हर ब्राह्मण की जिम्मेवारी होती थी कि वह कम से कम किसी एक वेद के किसी एक भाग या शैली विशेष को कंठस्थ रखे।
शिखा - (शिर की चोटी)
वेद को कंटस्थ कर पाठ करने की अपनी शैली होती थी और उसके अनुरूप शिर के बाल की चोटी बनानी पड़ती थी। जैसे आज माथे पर संप्रदाय विशेष के अनुरूप तिलक लगाया जाता है उसी तरह पहले चोटी भी रखी जाती थी। इसी आधार पर बांई तरफ या दाहिनी तरफ की (झुकाव के अनुसार) चोटी बनानी पड़ती थी।
उपवेद (रोजी-रोटी संबंधी अन्य उपयोगी विधाएं) चार वेदों के आधार पर विद्या कई शाखाएँ विकसित हुईं, उन्हें उपवेद कहा गया। मगों में प्रचलित उपवेद हैं - आयुर्वेद - ये ग्रंथ वैदिक संस्कृत भाषा में नहीं हैं। उसके बाद की सामान्य संस्कृत (लौकिक संस्कृत) में है। इसी तरह गंधर्वर्वेद - संगीत की विभिन्न विधाओं को कहा जाता है। धनुर्वेद - युद्ध कला संबंधी विधा है।
ये विधाएँ रोजी-रोटी के अन्य साधनों के रूप स्वीकृत हुईं, परंतु यज्ञ एवं वेद की शिक्षा तक सीमित ब्राह्मण इसे नीचा मानते थे। फिर भी राज्याश्रय के कारण उपर्युक्तों तीनों विधाओं के साथ वेदांग, ज्योतिष, लक्षण विद्या एवं वास्तु विद्या को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली।
छन्द - छन्द किसी पद्य/वाक्यांश को गाने के तौर-तरीके एवं उसकी सजावट को निर्धारित करता है। वर्णों की संख्या, स्वर की मात्रा, आरोह-अवरोह, यति, विराम, आदि बातों का समावेश छंद में होता हैं। मंत्रों के छन्द भी निर्धारित रहते हैं।
आम्नाय:- पुर के संदर्भ में यह मगों का आंतरिक वर्गीकरण बतानेवाला तकनीकी शब्द है। वार, आर और अर्क ये तीनों शब्दांश स्थानवाची पहले शब्द के साथ जुड़ते हैं, जैसे - ‘उरवार’। ‘उरवार‘ में उर-गाँव का नाम है, वार एक विशेष वर्गीकरण का द्योतक है। इसका अर्थ हुआ वार ग्रुप का सदस्य जो उर ग्राम का मूल वासी है। इसी प्रकार ‘आर’ प्रत्यय भी रहने वाला अर्थ को व्यक्त करता है। ‘अर्क’ का शाब्दिक अर्थ होता है- सूर्य। पुण्यार्क का मतलब हुआ सूर्य की एक विशेष प्रतिमा की पूजा करने वाला जिसका नाम पुण्यार्क है। साथ ही इसका अर्थ यह भी हुआ कि पुण्यार्क सूर्य के मंदिर के नाम पर बसे गाँव पुण्यार्क का रहने वाला। इसी अर्थ के कारण ‘अर्क’ आम्नाय वालों का पुर नाम के साथ सार्थकता है।
कुलदेवी देवता -
इस विषय पर विस्तार से मैं ने इसी ब्लॉग में लिखा हैं। संक्षेप में यह समझें कि मग ब्राह्मण कई बार विष्णु या सूर्य के किसी प्रसिद्ध मंदिर के पुजारी तो होते थे किंतु घरेलू साधना में शिव या शक्ति के किसी अन्य रूप की आराधना करते थे। कई बार मंदिर के देवता एवं कुल देवता एक होते थे।
पुरों की संख्या में वृद्धि -
आरंभ में 72 पुर माने गए। बाद में विभिन्न पुरों की मान्यता भी हुई। बाद वाले पुरों में कुछ के गाँव/स्थान का तो पता चलता है, कुछ का पता नहीं चलता। इनकी संख्या 105 के आसपाल हो गई। यह सब क कैसे हुआ, इस पर मैं अभी कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, संभावनाएँ अनेक हैं। अधिकांश गाँव तो दक्षिण बिहार (मगध क्षेत्र) में हैं किंतु कुछ पुरों का मूल स्थान उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में भी पाया जाता है। गाजीपुर, बलिया, सीवान में भी कुछ ऐसे पुर वाले मूल ग्रामों का उल्लेख पुरवाली सूचियों में हैं।
दुखद यह है कि मगध के लोगों ने ऐसी सूची बनाई ही नहीं। उन्हें लगता होगा कि हमलोग तो जानते ही हैं, सूची क्यों बनाएँ? पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं में प्रचलित सूचियाँ उत्तर प्रदेश की सूचियों की नकल हैं। कुछ लोगों ने स्रोत का जिक्र किया है। संज्ञा समिति जैसे स्थानीय संगठन ने जो सूची छापी है, वह भी बनारस से प्राप्त है।
पता नहीं उसे राजस्थान की परंपरा से कैसे जोड़ दिया है क्योंकि जैसलमेर के पंडित नंद किशोर शर्मा जैसे प्रख्यात विद्धान और शोधकर्ता ने जो तथ्य परक जानकारी अपने पुस्तकों में दी है, उसका इस सूची से कोई मेले नहीं है। यह सूची तो पुराना बिहार, उत्तर-प्रदेश एवं मध्यप्रदेश के लिए है।
ये सूचियाँ प्रायः स्मृति पंरपरा पर आधारित हैं। इसलिए गाँव के नाम कुछ बदले-बदले से लगते हैं। मैं उन्हें संभावित क्षेत्र में जा कर एवं वहाँ के लोगों से पूछ कर ठीक करने का प्रयास कर रहा हूँ। इसमें आप लोगों की मदद की जरूरत है। विभिन्न स्थानों की सूची में मिलान कर रहा हूँ। अगर आप इनके बारे में या किसी एकाध के बारे में भी जानते हों, तो सूचित करें। चित्र, वीडियो, आदि भेजें। इस सूचना को आपकी जिम्मेवारी पर आपके नाम के साथ प्रस्तुत किया जाएगा।
विश्वजित मिश्र ने सूचियों की तुलना कर उसे अद्यतन करने की जिम्मेवारी ली है। जिन मामलों में जानकारी पक्की हो जायेगी उसे प्रकाशित कर दिया जायेगा।

1 टिप्पणी:

अनुपमा पाठक ने कहा…

सुन्दर ब्लॉग है...
ऐसे ही जानकारियाँ और विचार संकलित होते रहें..!
शुभकामनायें!
सादर!