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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

बिना समस्या जाने समाधान कैसे?


बहुत सारे लोग जातीय समाज के बारे में मुझसे अधिक जानकारी रखते हैं। मैं उन्हें खोज-खोज कर उनसे और विभिन्न मंचों पर प्रश्न रख कर जानना समझना चाहता हूं।
किसी भी जाति या समाज के बारे में अपने से समाधान बना लेने और उनके बारे में जानने में बहुत फर्क आ जाता है। इसलिये अचानक मैं न सहमत हो पाता हूं न असहमत। बिहार से ले कर राजस्थान तक अपनी यात्राओं में मुझे  दोनो प्रकार के लोगों से भेंट हुई- एक वे जो सच छुपाते हैं, बेईज्जती के डर से और दूसरे जो खुल कर समस्याएं और कुछ समाधान भी बताते हैं।
मैं ने एक बार समस्याओं की सूची बनाई और अनेक सामाजिक रूप से सक्रिय लोगों तक पहुचाने का प्रयास किया। इसे नये शिरे से सुधारना है। सामान्य लोगों ने तो बहुत पसंद किया लेकिन कुछ ही लोगों ने इसे स्वीकार किया। प्रायः संस्था-संगठन चलाने वाले लोगों ने इसे पसंद नहीं किया।
सबके पास अपनी पसंद के कार्यक्रम एवं मुद्दे हैं। वे उसी अनुसार समाज को निर्देशित करना चाहते हैं। समाज तो रहस्यमय सत्ता है। उसे मौन, असहमति और झूठे आश्वासन जैसे खेल भी आते हैं। वख्त ही बताता है कि किसने किसे बेवकूफ बनाया। क्या खोया क्या पाया?
मुझे कई बार अनुभव हुआ कि जिस बात को ले कर मैं गंभीर प्रयास कर रहा हूं, उसे तो कोई समस्या नहीं मानता तो तब फिर  रुचि हो क्यों?

सोमवार, 26 जनवरी 2015

ताकि हौसला बना रहे

ताकि हौसला बना रहे
1 शाकद्वीपीय ब्राह्मण समाज के लोगों से मेरा सादर निवेदन है कि सभी लोगों को खुले दिल और दिमाग से समाज की समस्या और उसके समाधान पर सोचना चाहिये साथ ही समाज के लिये जब कोई भी संस्था या कुछ लोगों की मंडली कुछ करती है, उसकी सच्ची समीक्षा होनी चाहिये तथा उन्हें पूरा सहयोग दिया जाना चाहिये ताकि हौसला बना रहे।
2 बिरादरी के हित में काम करने वाले लोग अक्सर कुछ दिनों बाद थक, उदास हो कर बैठ जाते हैं और समाज की शिकायत करते रहते हैं। इसी तरह शाकद्वीपीय ब्राह्मण समाज के लोग भी कई बार हर काम में केवल नुक्श निकालते हैं और यह शिकायत करते हैं कि बस इतना ही? यह भी कोई काम है? इससे क्या होने वाला है? इन दोनो अतिवाद से बचना जरूरी है ताकि समाज और समाज के लिये छौटा या बड़ा कोई भी काम करने वालों का हौसला बना रहे।
3 जो लोग कोई भी संस्था या कुछ लोगों की मंडली बना कर समाज के काम के मैदान में उतरते हैं, वे भी प्रायः अति उत्साह के कारण भ्रम में रहते हैं और सारे कामों को अकेले ही करने का बीड़ा उठाने लगते हैं। समाज के चतुर और असंवेदनशील लोग उनकी अतिरंजित प्रशंसा कर उन्हें भ्रम में डाल देते हैं। सच यही है कि अपनी रोजी रोटी के बाद समाज के काम के लिये समय निकालना बड़े त्याग का काम है और इसकी एक सीमा है। किसी से भी अधिक अपेक्षा करना उसे बरबाद करने जैसा है। अतः दोनों पक्षों, समाज तथा इसके लिये काम करने वालों को सावधान रहने की जरूरत है, ताकि हौसला बना रहे।
4 अक्सर देखा जाता है कि संस्थाएं और संगठन फैलने की जगह सिमटते-सिमटते कुछ चुनींदा लोगो की मंडली बन कर रह जाते हैं। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिये। नये नये लोगों को सेवा के काम में समय देना चाहिये और पहले से चल रही मंडली को उन्हें प्रेम पूर्वक स्वीकार करना चाहिये ताकि हौसला बना रहे।
5 सभी कामों में सबकी न रुचि होती है, न क्षमता। पहले से चल रहे किसी संस्था-संगठन को यदि किसी दूसरे की बात पसंद न हो तो वे विरोध करने लगते हैं और अपमान महसूस करते हैं। उसे समाज विरोधी काम तक कहने लगते हैं। यह संकीर्ण दृष्टि है कि न करेंगे, न करने देंगे। मेरे/हमारे अतिरिक्त किसी को कुछ करने नहीं देना है। मेरा/हमारा वर्चस्व ही रहना चाहिए। इसे अपने एवं समाज के हित में शीध्र त्याग कर उत्साही लोगों को सुनना एवं अपने मंतब्य तथा सुधार के सुझाव के साथ यथा शक्ति सहयोग करना चाहिये ताकि हौसला बना रहे।
6 समाज के लिये किये जाने वाले काम अनेक हैं, कुछ तो तुरत आपत्कालीन मदद वाले हैं, उसके लिये किसी संस्था या संगठन की अनिवर्यता नहीं है न उसके लिये किसी का संकट काल टल सकता है। जो जहां हों, वहीं मदद करें ताकि अन्य को भी प्रेरणा मिले और भले लोगों का हौसला बना रहे।
7 सूर्य सप्तमी पूजा, परिवार मिलन, प्रतिभा खोज एवं उनका सम्मान, आपात सहायता, वैवाहिक सूचना, आपसी कलह में समझौता, संस्कृत- संस्क्ृति प्रशिक्षण, रोजगार परक प्रशिक्षण आदि करने लायक अनेक काम हैं। इन्हें इस आधार पर रोका नहीं जा सकता कि एक मंडली, जो काम कर रही है वही सारे काम करे। मुझे इस बात में कोई बुराई नहीं लगती कि अलग अलग कामों के लिये अलग अलग मंडिलियां सक्रिय रहें और सभी दूसरे को सहयोग दें। कोई न थक कर बैठ जाए, न ही कोई खड़ा ही न हो सके। वास्तविकता को स्वीकार करना जरूरी है ताकि हौसला बना रहे।
8 अघोषित रूप से किसी आयोजक द्वारा उसके अच्छे आयोजन के बीच ही किसी राजनैतिक दल, व्यापारी संस्थान या अन्य जातीय संस्था या संप्रदाय के लोगों को लाभान्वित बनाने के खेल के कारण लोग भीतर ही भीतर भड़क जाते हैं। ऐसा करना उचित नहीं ताकि पारदर्शिता और विश्वास के साथ सही लोगों का हौसला बना रहे।
9 धीरे-धीरे आयोजनों को स्वावलंबी और सरल बनाने का प्रयास करना चाहिये ताकि लोग समाज के काम के सपने को साकार करने के लिये नये नये लोग आगे आयें और हौसला बना रहे।
मैं भी लंबे समय से कई सामाजिक कामों में लगा रहा हूं। मैं ने भी अनेक प्रकार के सफलता-विफलता के अनुभव पाये हैं। अपनी समझ, अनुभव तथा आगे की संभावना को देखते हुए अपना विचार आप लोगों के सामने रख रहा हूं। आशा है, आप सभी इस पर ध्यान देंगे और मुझे भी सलाह देंगे।
रवीन्द्र कुमार पाठक, मो- 9431476562

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

जातीय संगठन कैसा हो?
जीव जगत में हाथी जैसे विशाल एवं चींटी जैसे छोटे जीवों को भी संगठन एवं समाज (नियम, परंपरा, समाज) की आवश्यकता पड़ती है। मानव शिशु तो बिना समाज के विकसित ही नहीं हो पायेगा। संगठनों का का महत्त्व इसीलिए सभी समझते हैं। जीव जगत में पारदर्शिता है। पैंतरेबाजी, छल केवल दुश्मनों के साथ ही स्वीकृत है, अपनों के बीच नहीं। अपनों के बीच केवल कभी-कभी बल प्रयोग हो सकता है, खासकर जब किसी दो या अधिक के बीच भोजन या यौन सुख संबंधी वर्चस्व का मामला आ जाए।
मानव के व्यवहार में दूरगामी पैंतरेबाजी एंव छल के विभिन्न रूप एवं स्तर स्वीकृत हैं। इसीलिए मानवीय समाज और उसका संगठन जटिल है। संगठनों का प्रगट एवं छिपे हुए दोनों रूप हो सकते हैं।
संगठनों का सहज आधार जाति एवं भाषा होती है, उसके बाद क्षेत्र। बाद में अन्य     आधार जुड़ते गए हैं, जैसे - धर्म, राजनीति या अन्य केाई भी आदर्श अथवा लक्ष्य। ये अन्य आधार जाति जैसे सहज आधार को तोड़ने की कोशिश करते हैं। परिणाम विचित्र हेाता है, बौद्ध, ईशाई, मुसलमानों के भीतर भी जातीय, भाषाई एवं क्षेत्रीय भेद हैं। धर्म की एकता कभी भाषा पर हावी होती है, जैसे भारत में मुसलमानों की मानसिकता है कि वे ऊर्दू को धर्म से जोड़ते हैं भले ही खुद को ऊर्दू नहीं आती हो तो इसके विपरीत बंगलादेश एवं मालदीव में उर्दू-फारसी को अभी भी थोपा नहीं जा सका। ईशाई हिन्दी में खुलकर प्रार्थना करने लगे हैं और वे क्षेत्रीय (भारत की हिन्दी पट्टी) प्रभाव से हिन्दी नाम के साथ या अंग्रेजी नाम के साथ शास्त्री, आचार्य जैसे उपाधि भी लिखते हैं। बनारस में ख्रिस्तपंथी आश्रम है और ईशाई धर्म का यह संप्रदाय हल्के गेरू रंग का वस्त्र पहनता है। प्रयाग जमुना पुल के सटे ईशाइयों का कृषिविज्ञान का विश्वविद्यालय है। वहां आपको कई ईशाई शास्त्री, आचार्य मिल जा सकते हैं। आप कह सकते हैं कि यह तो भगवाकरण हो गया। मेरी समझ तो अलग है।
जो लोग केवल जातीय संगठन के पक्षधर हैं न कि जातीय संस्कृति, गौरव एवं भविष्य के वे जो सोचें, मुझे तो लगता है कि आगे वर्णित विंदुओं पर जातीय ग्रुपों के लोगों को विचार आमंत्रित करना चाहिए -
1. जातीय पहचान का आधार, क्या हो? इतिहास, नाम, रक्त संबंध या कुछ अन्य
2. अंतर्जातीय विवाहों वाले मामले में समाधान का आधार क्या हो? बहिष्कार, मुक्त स्वीकृति, पितृसत्तात्मक स्वीकृति जैसा कि पितृ सत्तात्मक समाज में प्रचलित है, बेटी लेगें, बेटी देगें नहीं या बेटी देंगे, लेगें नहीं, उससे तो नस्ल बिगड़ जाती है या फिर झूठ बोलकर घटना को विस्मृति के गर्त में डालना या फिर कोई अन्य।
3. जब बड़ी संख्या में लोग ब्राह्मणों के लिए निर्धारित एवं प्रचलित आजीविका छोड़कर नौकरी/दास वृत्ति अपना रहे हों तो किन गुणों के कारण समाज उन्हें ब्राह्मणोचित सम्मान दे?
4. हम आपसी परंपरा से व्यावहारिक एवं वास्तविक रूप से क्या सीख सकते हैं, जो वर्तमान एवं भावी समाज के लिए उपयोगी है?
5. योग, मंत्र, तंत्र जानने के लिए खतरा तो मोल लेना ही पड़ता है। अपने समाज के लोग भी अनेक गुरुओं, सम्प्रदायों के यहाँ चेला बनते ही हैं फिर अपनी परंपरा की प्रगति कैसे हो?
6. जजमानी, पुरोहिती, ज्योतिषी, तंत्र-मंत्र का रोजगार बढ़ाने में क्या मानदंड हो, जैसे - जजमान एवं चेले को ठगना, सच्ची बात बताना या कोई अन्य।
7. परस्पर एक दूसरे की मदद का तौर तरीका क्या हो ?
8. एकता एवं विवाद के विंदुओं की खोज ?
9. एक अच्छी वैवाहिकी कैसे चले?
10. आज की जरूरत के अनुसार कर्मकांड में संशोधन क्या, क्यों ओर कैसे हो ?
11. क्या दूसरे ब्राह्मणों में विलय के प्रस्ताव का औचित्य है और क्यों ? यदि हाँ, तो किसके साथ - मैथिल, भूमिहार (ये दो पुराने प्रस्ताव हैं) सान्नाढ्य, गौड़, पुष्करणा या अन्य।
12. मग-भोजक के बीच विवाह हो या न हो ? उसका आधार क्या हो ?
13. विवादस्पद, विषयों पर चर्चा कर जातीय बंधुओं का विचार जानना चाहिए या नहीं या फिर केवल सुमधुर निर्विवाद बातों को ही दुहराना चाहिये ?
14. वर्तमान में स्त्री शिक्षा के बढते स्तर के साथ उनकी सहभागिता का स्वरूप क्या हो?
15. क्या यह उचित है कि फैशन में अति आधुनिक और सामाजिक व्यवहार में रूढि़वादी बने रहें ? मैनें तो प्रस्ताव लिख दिए, आपलोग भी जरा गौर कर देख लें ?

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

बिरादरी संगठन: दशा एवं दिशा

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के जातीय संगठनों के बनने बिगड़ने का इतिहास भी काफी लंबा है और आजादी के पहले से शुरू होता है फिर भी मुख्य गतिविधियाँ आजादी के बाद होती हैं। मुझे वैसे बहुत अधिक जानकारी नहीं है फिर भी पुष्ट/अपुष्ट स्रोतों के अनुसार निम्नलिखित संगठनों-संस्थाओं की जानकारी मिलती है।
नाम                                           समय लगभग                             मुख्य स्थान-कार्यक्षेत्र
शाकद्वीपीय ब्राह्मण बंधु ट्रस्ट                   1925- अभी तक                   राजस्थान, पश्चिमी भारत
सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासभा    1970-1988                         उत्तर प्रदेश, बिहार
निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ      1920 के पूर्व का दावा
                                                           अभी तक सक्रिय        मूलतः राजस्थान फुटकर रूप से पूरी हिंदीपट्टी
अखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा             पता नहीं                     पता नहीं
अरूणोदय                                              पता नहीं            बिहार झारखंड के कुछ स्थान
संज्ञा समिति                1975                 मगध क्षेत्र, बिहार
राजस्थान शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा
इनके अतिरिक्त स्थानीय स्तर के भी अनेक संगठन होंगे ही जिनका नाम मुझे मालूम न होने से यहाँ नहीं हैं। उनकी गतिविधियों की जानकारी मिलती रही है। कई स्थानों पर भास्कर समिति, भास्कर समाज आदि नाम से संगठन बने, चले, सुस्त पड़ गए। उपर्युक्त संगठनों में तीन-चार तरह के प्रयास हुए हैं।
1.    जमींदार एवं अंगरेज परस्त लोगों के नेतृत्व में शुरू किया गया अभियान
अंगरेजों ने 1923 के बाद जमींदारों को ऐसे संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि मुख्य धारा के कांग्रेसी, साम्यवादी या समाजवादी विचार के लोगों को उनकी हीं जाति में समर्थन न मिले और जातीय नेतृत्व अंग्रेज भक्त जमींदारों पास रहे। ऐसे लोगों ने अनेक सम्मेलन किए और आजादी के बाद भी कुछ दिनों तक सक्रिय रहे। शाकद्वीपियों में भी कई बडे़ जमींदार बिहार एवं उतर प्रदेश में थे। उन्होंने ऐसे सम्मेलन गया, अयोध्या एवं बनारस में बुलाए। राजस्थान की मुझे जानकारी नहीं है।
इनके मन में न तो जातीय कल्याण की भावना थी, न इनका कोई उल्लेखनीय योगदान रहा। कुछ तो सजातीय गरीब लोगों के साथ-खाना पीना भी पसंद नहीं करते थे। लोगों को गुलाम एवं प्रजा की तरह देखते थे।
2.    भारतीय संविधान, सुधारवादी आंदोलनों एवं जातीय ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में उपजा आंदोलन
भारतीय समाज के पिछड़ने के लिए अनेक लोगों ने सनातन धर्म, ब्राह्मण जाति एवं उनकी रोजी-रोटी से जुड़ी सभी विद्याओं को अंग्रेजो के बहकाने पर जिम्मेदार घोषित करना शुरू किया। सनातन समाज को आपस में लड़ाने के लिए एक ओर राजनीतिक धाराओं को धर्म विरोधी करार दिया गया ताकि कट्टर ब्राह्मण एवं सवर्ण समाज जमींदारों से सटे। आधुनिक     सुधारवादी संप्रदायों को पूरा समर्थन दिया गय जैसे- ब्रह्म समाज और कारपोरेट कल्चर तथा प्राइवेट बैंकिंग द्वारा धन संग्रह सिखाया गया। आर्य समाज को आर्य/अनार्य  आर्य-द्रविड की लड़ाई के लिए उकसाया गया ओर एंग्लो वैदिक संभ्यता की अवधारणा सामने आई, जिसके परिणाम स्वरूप डी.ए.वी. शिक्षण समूहों का जाल आज खड़ा है। हालाँकि अब कोई वैचाारिक मामला नहीं बचा है।
ब्राह्मणों के पास आध्यात्मिक विद्या के साथ कुछ भौतिक विद्याएं भी थीं जो लोकोपयोगी एवं अर्थकरी, पैसा देने वाली थीं। पौरोहित्य विद्या, श्रेष्ठता तथा गौरव प्रदान करती थी। अर्थकरी विद्याओं में - आर्युवेद, ज्योतिष (बिहार, उत्तर प्रदेश से पंजाब तक) वास्तु, शिल्प, भूमि सुधार, जल प्रबंधन,(कोहली एवं पालीवाल) शास्त्रीय संगीत, नाट्य (उत्तरी भारत में गौड़ एवं सारस्वतों के पास) दक्षिण में व्यापक रूप से, तंत्र (सभी के पास, फिर भी मूल विद्या मग, सारस्वत एवं तैलंगों के पास, शेष के पास तकनीकी ज्ञान थे।)
इन सभी विद्याओं में से ज्योतिष एवं तंत्र  को एक ओर निषिद्ध एवं पाखंडयुक्त बताया गया और ब्राह्मणेतर जातियों ने उनका ज्ञान प्राप्त कर अपने को बराबर फिर श्रेष्ठ बताना शुरू किया। सबने अपनी-अपनी दुकानें खोल लीं। आयुर्वेद को    विधिवत ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराने एवं अपने सांगठनिक कार्यकर्ताओं के आय का श्रोत बनाने का उपाय किया गया। अति उत्साही, उदारवादी हिन्दी एवं बंगला भाषी ब्राह्मण इस चंगुल में फँसकर आयुर्वेद को नष्ट करने पर तुल गए।
आर्य समाजी एवं ब्रह्मसमाजी शाकद्विपियों तथा दासगुप्ता परिवारों ने पहले तो आधुनिकता समझी फिर हाथ डाल दिया। गुरुकुल कांगड़ी औषधालय के नेतृत्व में आयुर्वेद के आधुनिकीकरण एवं बाजारवाद का दौर शुरू हुआ तो बंगाली कविराज महोदय ने संस्कृत में मार्डन एनाटोमी की किताब लिखी ........। बंगाल एवं बिहार से ही से जी.ए.एम.एस. और फिर बी.ए.एम.एस. बनने शुरू हुए। ये आज एक कानूनी क्वैक की हालत में हैं, जिनमें से अनेक को आयुर्वेद की कोई समझ नहीं होती। दवा बनाना कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया और रोजगार उठ कर आर्य समाज और उसके बाद अनेक बाबाओं की कंपनियों के पास चला गया। इसका नेतृत्व मुस्तफाबाद के शर्मा परिवार ने की पीढ़ियांे तक किया।
आयुर्वेद के गुरुकुल की तरह बिहार में दो परिवार थे - मुस्तफाबाद का शर्मा (पुराने संभवतः मिश्र) एवं मुजफ्फरपुर का ओझा परिवार। ओझा परिवार पारंपरिक रहा, शर्मा परिवार आर्य समाजी हो गया। हालांकि रक्त संबंध का बंधन तोड़ने की हिम्मत नहीं हुई। हमलोगों की भी रिश्तेदारी रही और मैं ने तो प्रियव्रत शर्मा जी जो रिश्ते में मेरे मौसा थे से काफी सत्संग किया। बाद में जमींदारों के समानांतर शर्मा परिवार ने विद्या-प्रधान ब्राह्मणों का संगठन भी बनाया तथा राजस्थान के लोगों के साथ एकता का प्रयास भी शुरू किया। इनके आंदोलन को बिहार के जीतीय समाज में आजतक स्वीकृति नहीं मिली।
1984 के बाद पारंपरिक आयुर्वेदिक शिक्षा बिहार में प्रतिबंधित हो गई। वैद्यों के नेतृत्व में किए गए जातीय संगठनात्मक प्रयासों में निजी फॉर्मेसियों की दवा की बिक्री आंतरिक कलह का कारण होती थी, जिसका केन्द्र वाराणसी रहता था। मैं ने अपनी पुस्तक आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न, प्रकाशक प््रकाशन विभाग सूचना ओर प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार में इन बातों का पूरा विवरण दिया है।
आजादी के बाद न केवल चुनाव जातीय आधार पर लड़े गए बल्कि सरकारी नौकरी आदि के अवसर पर भी भ्रष्टाचार पूर्वक खूब भेद-भाव हुआ। नए सुधार वादी लोगों ने ज्योतिष, कर्मकांड, आयुर्वेद के परंपरागत व्यवसाय पर भी अधिकार जमाना शुरू किया तो उपेक्षा एवं रोजगार का संकट भी आने लगा। जन्मना श्रेष्ठता के अहंकार को तो सीधा एवं तगड़ा झटका लगा। इन सबों की पतिक्रिया में भी संगठन बने। इन संगठनों का नेतृत्व नव धनाठ्य पर मध्य वर्ग के लोगों ने किया। कुछ प्रयासों के बाद भी बिहार उत्तर-प्रदेश में यह आपसी कहल के घाट बेमौत मर गया।
3.    संज्ञा समिति
जमींदारी उन्मूलन के बाद बिहार में सरकारी अफसरों ने छद्म रूप से जातीय धु्रवीकरण की राजनीति शुरू की। प्रज्ञा समिति (कान्यकुब्ज) चेतना (मैथिल$भूमिहार) की तर्ज पर संज्ञा समिति (शाकद्वीपीय) का गठन हुआ। संज्ञा समिति आज भी एक चैरिटेबुल समिति है, जो 1860 के अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत है। यह समिति भी अब कुछेक लोगों के निजी मनोरंजन तक सीमित हो गई है।
4.    राजस्थान के लोग एवं मगध के लोगों की पीड़ा में आसमान जमीन अंतर रहा है। मग मगध में परंपरा से सर्वमान्य ब्राह्मण रहे हैं आज भी परंपरागत समस्या नहीं है। पहले शिक्षा तथा संपत्ति से भी भरपूर थे। राजस्थान का नेतृत्व वहाँ के मध्यवर्ग लोगों के हाथ रहा और आपसी भेदभाव तथा झगड़ों के साथ रचनात्मक प्रतिस्पर्धा भी खूब रही और आज भी कायम है।
5.    एकीकरण के प्रयास:
पश्चिम एवं पूर्वी भारत के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए भी काफी प्रयास हुए। कलकत्ता मुबंई एवं अन्य स्थानों पर सम्मेलन भी हुए। निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ नाम से एक संगठन भी बना, जो आज रचनात्मक प्रतिस्पर्धा की जगह गुटबाजी का शिकार है। दो पत्रिकाएं ऐसा समाचार छापती रहती हैं।
पुराने बिहार, उत्तरप्रदेश एवं मध्य प्रदेश के लोग जो अपने मूल ग्राम की पहचान पुर के रूप में करते हैं परंपरा से आपस में विवाह करते हैं। उड़ीसा के लोग भी इनकी शाखा है। जगन्नाथ मंदिर समिति की विधिवत जांच की और इसी आधार पर यज्ञ में भाग लेने के लिये अधिकृत किया। इस विषय पर एक पुस्तक भी मुझे उपलब्ध हुई थी जो कहीं गुम हो गई है। बंगाल में पहचान बदल गई है और विवाह बंद हो गया है। वहां शाकद्वीपी संभवतः गणक नाम से वैश्य वर्ग में माने जाते हैं।
राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात की लगभग एक पहचान है और वे आपस में विवाह करते हैं। इनकी व्यवस्था अलग प्रकार की है। और उपाधियाँ भी अलग है। आपस में रक्त संबंध बनाने का आग्रह होने पर भी परंपरा तोड़नेवाले बहुत कम हैं। मैं सबको असली मान रहा हूँ। मैं कौन होता हूँ किसी को असली या नकली कहने वाला।
रचनात्मक प्रतिस्पर्धी संगठन - राजस्थान के लोग धर्मशाला बनवाने, सामूहिक रूप से यज्ञोपवीत, मुंडन, विवाह आदि कराने में अग्रणी हैं और आधुनिक युगानुरूप अपने निकटस्थ सेठों से विद्या सीख कर व्यवसाय तथा सरकारी नौकरी दोनों में तीव्र विकास कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार के लोगों के बीच उस तरह की संगठन भावना नहीं है और एक बड़ा तबका निकम्मेपन ,ऋणग्रस्तता, आलस्य और इनसे उत्पन्न संकटों को झेल रहा है। पारंपरिक आजीविका समाप्त प्रायः है। जो मुख्य धारा में आगे बढ़ रहे हैं वे खुशहाल है।
6.    वोट बैंक की राजनीति - इधर जैसे-जैसे जाति की पहचान वोट बैंक रूप में होने लगी वैसे राजनेता बनाने की कोशिश शुरू हुई, जो किसी राजनीतिक दल से सौदेबाजी कर सके। ऐसे प्रयास पूर्णतः विफल रहे क्योंकि न तो इस जाति के पास सघन एवं निर्णायक मतसंख्या है, न संगठन, न भरोसे मंद नेता और दल। कुछेक लोग संयोगवश जनप्रतिनिधि बने भी तो अपनी प्रतिभा या दल के समर्थन से और लगभग जाति से कतराते रहे। उनकी मजबूरी भी सहज है।
दुखद पक्ष -   
असली पुरोहितों/आचार्यों/समाजसेवियों की अस्वीकृति
समाज में जातीय संगठनों की संकीर्ण गतिविधियों के कारण समाज के लिए प्रेमभाव पूर्वक एवं कई बार तो गुप्त रूप से मदद करने वाले वैसे लोगों को जातीय समाज ने आदर नहीं दिया, जिन्हें समकालीन समाज ने आदर दिया। इनमें से कुछ ही लोग अपवाद स्वरूप ऐसे थे, जिन्होंने अंतरजातीय विवाह किया था या किया है। इन्हें छोड़ भी दें, हालांकि जातीय संगठनों में अनेक अंतरजातीय विवाह वाले भी प्रमुख पदों पर आसीन रहे, बशर्ते कि वे धनी हों या समय देते हों। राजनीतिक-सामाजिक धारा के अग्रपुरूष पहले भी थे और आज भी हैं, जैसे- किसान नेता यदुनन्दन शर्मा, भवानी मिश्र, स्वामी विज्ञानानंद, गिरीन्द्र मोहन मिश्र, पं0 विंध्येश्वरी प्रसाद पाठक, श्री चक्रधर मिश्र उर्फ ‘राधा बाबा’, आदि। मुझे भी इनके नामों की पूरी जानकारी नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से बिरादरी के सामान्य लोगों की समझ जनसंघ की अनुवर्ति भाजपा की ओर है, फिर भी अनेक लोग कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और यहाँ तक कि नक्सली संगठनों के बड़े कमांडर हैं।
बिरादरी संगठनों के छुटभैया नेता इनके व्यक्तित्व से डरते हैं और ये बड़े महानुभव इनकी हरकतों से कि करें तो क्या करें? मुझे अनेक धाराओं के बीच गांवों जीने की मजबूरी के कारण उनसे हार्दिक संवाद का अवसर प्राप्त होता रहता है।
यहाँ तक कि संक्षिप्त चर्चा तो इतिहास एवं समय-सामयिक सांगठनिक प्रवृतियों की है।
पहचान की पीड़ा -
शाकद्वीपीय समाज पहचान की पीड़ा से कमोबेश ग्रस्त रहा है। इसका मुख्य कारण अपनी पुरानी पहचान के प्रति लगाव एवं नई पहचान बनाने का द्वन्द है। उदाहरण के लिए - शाकद्वीपीय भी हैं और जंबूद्वीपीय भी, आखिर कैसे ? मग भी हैं और भोजक, देवलक और सेवग याचक भी, तो कैसे ?
बाहरी हैं या क्षेत्रीय, चक्कर क्या है ?
धनी जमींदार है, या गरीब ब्राह्मण ?
शुद्ध शाकाहारी, वैष्णव या मांसाहारी शाक्त ?
इन दोनों में रहने पर सूर्योपासक सौर कैसे ?
मगध मूल स्थान है या राजस्थान ?
दोनो के गोत्र, एवं पुर की व्यवस्था अजीबोगरीब है ?
राजस्थानी लोगों की गोत्र व्यवस्था तो ऋषि आधारित है ही नहीं और मग लोगों की पुर व्यवस्था कर्मनाशा से किउल नदी के बीच में ही लगभग सीमित है ?
नई उलझनें, आगे क्या करें ?
1.    जाति, नाम, उपाधि छुपाएं नहीं छुपाएं, क्या करें ?
2.    मिश्र/पाण्डेय पाठक आदि की जगह क्यों न शर्मा बन जाएं ? शर्मा बनने पर भी राहत नहीं है, दूसरी जातियां भी  शर्मा दौड़ में हैं तो यह तो चौबे गए छब्बे बनने वाली बात हुई।
3.    नए रोजगार के बाद पुरोहित वाला पैर धुलाने का सुख कैसे मिले ?
4.    आयुर्वेद, ज्योतिष का दावा तो करें, पर सीखें कहाँ से ? सिखाने वाले कहाँ हैं ? हैं भी तो गरीब और मनस्वी लोग,         जिनका संपन्न निरादर करते रहे ? अब क्या करें?
5.    तप, साधना करने वालों को मूर्ख कहते रहे, अब उनके पास किस मुँह से जाएं? ठगविद्या वालों की यह पीड़ा है।
6.    नई पीढ़ी तंग आकर नए शिरे से सोचने लगी है लेकिन इन बेचारों को तो परंपरा की जानकारी ही नहीं है।
निबंध के अगले भाग अगली कड़ी में प्रस्तावित समाधान की चर्चा होगी।

शनिवार, 3 नवंबर 2012

संगठन एवं राजनीति

संगठन एवं राजनीति

संगठनों की हालात मग-भोजक लोगों के अनेक संगठन बनते बिगड़ते रहे हैं। इन संगठनों की अंदरूनी हालात चाहे जो भी हो उनके द्वारा व्यक्त विचारों से भी बहुत कुछ जाना जा सकता है। मैं ने उनसे पूछ कर उनके द्वारा प्रकाशित सामग्री बिना अपनी टिप्पणी के स्कैंड रूप में डालने का सिलसिला इस बार से शुरू किया है। साइज बड़ा करने के लिये स्कैंड पृष्ठ पर डबल क्लिक कर प

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ढ़ें-संगठन एवं राजनीतिहमारी चिट्ठीसेवा में, ........................................... ..........................................बिहार विविधताओं का प्रदेश है जहां जातियों और उपजातियों से जमात और फिर जमातों के मेल से समाज बना-बसा है। ब्राह्मणों का बिहार में अपना राजनैतिक-सामाजिक अतीत और योगदान रहा है। ब्राह्मणों में शाकद्वीपीय ब्राह्मण (बोलचाल में सकलदीपी ब्राह्मण) भी इस बिहार के सामाजिक-सांस्कृतिक अतीत में शामिल हैं, जो मुख्य रूप से ज्योतिष, आयुर्वेद, कर्मकांड (पुरोहिताई) और अन्य जीविकाओं के सहारे जीते-जागते रहे हैं। हमारा विशेष इतिहास सूर्योपासना से जुड़ा है, जो पौराणिक है। आज की तारीख में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जमीन और जोत के मामले में भूमिहीनों की श्रेणी में हैं और धनबल के मामले में निर्धनों, निर्बलों की श्रेणी में। सामाजिक जीवन स्तर गरीबी रेखा से नीचे होने के बावजूद हमारे नाम बी0पी0एल0 लिस्ट से गायब हैं। शैक्षणिक स्तर के मामले में तो हम कई तरह की परेशानियों के शिकार रहे हैं और रोजगार के क्षेत्र में निजी प्रतिभा और परिश्रम ही हमारा मूल आधार है। स्वतंत्रता आंदोलन, किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलनों में हमारी व्यापक सहभागिता होने पर भी कमजोर होने के कारण राजनैतिक भागीदारी और राजनैतिक स्वीकृति के मामले में हमारी हालत बिल्कुल चिंतनीय व संरक्षण योग्य है। सामाजिक उपेक्षा झेल रहे हमलोग चूॅकि राजनैतिक, सामाजिक तौर पर सवर्ण समाज में गिने जाते हैं इस कारण हमारी हालत माया मिली न राम वाली रही है। आज की तारीख में राज्य की नव निर्वाचित सरकार ने सवर्ण आयोग बनाने का निर्णय लिया है, जिसका हम पूर्ण स्वागत करते हैं और इस मौके पर सवर्ण आयोग के उद्देश्यों व अवधारणाओं के अनुरूप हम अपनी सामाजिक उन्नति की मांग भी कर रहे हैं। चूॅकि सवर्ण-समाज कीे ब्राह्मण उपजाति के रूप में शाकद्वीपीय ब्राह्मण सामाजिक संरक्षण प्राप्ति का हक रखते हैं इसलिए बिहार सरकार से हमारी मांगे हैं - 1. सवर्ण आरक्षण और संरक्षण के नियमों को शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की उन्नति हेतु सरकार शुरू एवं लागू करे।2. बिहार के शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति का सरकार त्वरित व सही सर्वेक्षण कराये, और सर्वेक्षण के अनुसार संरक्षण के नियमों की घोषणा कर उन्हें लागू करे। 3. राज्य सवर्ण आयोग के कार्यक्रमों में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाय।4. सवर्ण आयोग में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व, स्वीकृति एवं सम्मान मिले। 5. शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के साथ हर सामाजिक स्तर पर होनेवाले अधिकार हनन की घटनाओं पर सरकार कार्रवाई करे। सरकार से उक्त मांगों पर हमारा ध्यानाकर्षण कार्यक्रम तारीख 10 फरवरी 2011 माघ शुक्ल सप्तमी (सूर्य सप्तमी) को पटना में किया जाना तय है और अगर जरूरत पड़ी तो हमारी मांगंे सवर्ण आयोग के गठन से लेकर बाद में भी तबतक जोरदार तरीके से उठती रहेंगी जबतक बिहार के शाकद्वीपियों को उनका वाजिब हक नहीं मिल जाता। निवेदकशाकद्वीपीय ब्राह्मण समिति, बिहारसम्पर्क:- 9431476562सेवा में]माननीय मुख्यमंत्री]बिहार सरकार] पटनाविषयः उच्च जातियों के पिछड़े एवं गरीब लोगों के लिए गठित किये जाने वाले आयोग (सवर्ण आयोग)एवंराज्य सरकार से शाकद्वीपीय ब्राहमणों के संरक्षण हेतु मांगों की ओर आपका ध्यान आकर्षण।महाशय]श्रीमान् ने सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़ी उच्च जातियों के लोगों के हितों के भी संरक्षण एवं इस उद्ेश्य की पूर्ति के लिए आयोग गठित करने की घोषणा की है, हम इसका स्वागत करते हैं और आपका अभिनन्दन करते हैं।श्रीमान् का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए हमने आज आर.ब्लॉक चौराहे पर एक शंातिपूर्ण धरने का आयोजन कर इस स्मार पत्र के माध्यम से अपने विषेश सरंक्षण की मांग करते हैं क्योंकि हम बिहार के अन्य ब्राह्मणों की तुलना में गरीब, कमजोर एवं संख्या की दृष्टि से भी बहुत कम है।जैसा कि समाचार माध्यमों से विदित हुआ है कि राज्य की नव निर्वाचित सरकार ने सवर्ण आयोग बनाने का निर्णय लिया है, जिसका हम पूर्ण स्वागत करते हैं और इस मौके पर सवर्ण आयोग के उद्देश्यों व अवधारणाओं के अनुरूप हम अपनी सामाजिक - आर्थिक उन्नति हेतु विशेष संरक्षण की मांग कर रहे हैं। हमारी सामाजिक - आर्थिक स्थिति का संक्षिप्त स्वरूप निम्न हैः-हमारी स्थितिः-आबादी की दृष्टि से मुख्यतः हम दक्षिण बिहार के विभिन्न गांवों में बसे हुए हैं और कुछेक गॉंवों में हमारी जनसंख्या 1000 से अधिक है अन्यथा विभिन्न गॉंवों में पॉंच-दस परिवार के हिसाब से फुटकर रूप से बसे हुए हैं। इसी इलाके से रोजी-रोटी के लिए उŸारी बिहार एवं अन्य क्षेत्रों में विस्थापित होते रहे हैं और मजबूरी में विस्थापित होने का सिलसिला जारी है।हमारी सामाजिक आर्थिक स्थिति का संक्षिप्त स्वरूप निम्न है जिससे स्पष्ट होता है कि हम सामाजिक/आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं और सरकारी नीतियों द्वारा संरक्षण के हकदार हैं -संक्षिप्त आकड़ा अनुमानितआबादी लगभग एक लाख पुरूष साक्षरता - 90 प्रतिशतस्त्री साक्षरता - 60 प्रतिशतबासगित जमीनधारी - 70 प्रतिशतखेती योग्य जमीनधारी - 5 प्रतिशतगरीबी रेखा से नीचे - 90 प्रतिशतपूर्णतः भूमिहीन - 30 प्रतिशतहदबंदी से अधिक स्वामित्ववाले किसान - 0-15 प्रतिशतआपराधिक मुकदमों के अभियुक्त - 0.1 प्रतिशतआई.ए.एस. - शून्यआई.पी.एस. - 2 मंत्री - शून्यविधायिका के सदस्य - एकसांसद - शून्यआयोग एवं निगमों पदाधिकारी - शून्यउद्योगपति - शून्यवर्Ÿामान मुख्य पेशा - पुरोहिती (पूजा पाठ कराना)पुराना पेशा - आयुर्वेद चिकित्सा, ज्योतिष, पुरोहितीगरीबी एवं पिछड़ेपन का मुख्य कारणऽ 1979 से आयुर्वेद की पारंपरिक शिक्षा पर सरकारी प्रतिबंध, जमीन के अभाव में नैसर्गिक जड़ी-बूटियों की उपलब्धता में कमी एवं औषध निर्माण सामग्री की लागत का कई गुना बढ़ जाना।ऽ विकेन्द्रित औषध निर्माण पर बड़ी कंपनियों का कब्जा।ऽ नये आयुर्वेद्कि कॉलेजों में शिक्षा पाने में आर्थिक असमर्थता।ऽ पूॅंजी एवं भूमि के आभाव में अन्य गतिविधियों में भी पिछड़ना।इतिहास एवं योगदानब्राह्मणों का बिहार में अपना राजनैतिक-सामाजिक अतीत और योगदान रहा है। ब्राह्मणों में शाकद्वीपीय ब्राह्मण (बोलचाल में सकलदीपी ब्राह्मण) भी इस बिहार के सामाजिक-सांस्कृतिक अतीत में शामिल है, जो मुख्य रूप से ज्योतिष, आयुर्वेद, कर्मकांड (पुरोहिताई) और अन्य जीविकाओं के सहारे जीते-जागते रहे हैं। हमारा विशेष इतिहास सूर्योपासना से जुड़ा है, जो पौराणिक है। आज की तारीख में शाकद्वीपीय ब्राह्मण जमीन और जोत के मामले में भूमिहीनों की श्रेणी में है और धनबल के मामले में निर्धनों, निर्बलों की श्रेणी में। स्वतंत्रता आंदोलन, किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलनों में हमारी व्यापक सहभागिता होने पर भी कमजोर होने के कारण राजनैतिक भागीदारी और राजनैतिक स्वीकृति के मामले में हमारी हालत बिल्कुल चिंतनीय व संरक्षण योग्य है। सरकार से हमारी मुख्य मॅागे:ऽ शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को अत्यन्त कमजोर मानकर संरक्ष्रण दिया जाय।ऽ बिहार के शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति का सरकार त्वरित व सही सर्वेक्षण कराये और सर्वेक्षण के अनुसार संरक्षण के नियमों की घोषणा कर उन्हें लागू करे।ऽ सवर्ण आयोग में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व, स्वीकृति एवं सम्मान मिले।ऽ शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के साथ हर सामाजिक स्तर पर होनेवाले अधिकार हनन की घटनाओं पर सरकार कार्रवाई करें।ऽ औषधीय जड़ी-बूटी उगाने के लिए ग्राम स्तर पर सरकारी जमीन भूमिहीन परिवारों को दी जाय।ऽ संरक्षण देनेवाले विŸा निगमों के माध्यम से अविलंब आर्थिक सहायता/ऋण दिलाया जाय।ऽ गॉंवों के गरीब घरों में बरबाद हो रही उपयोगी एवं दुर्लभ पांडुलिपियों का प्रकाशन लोकहित में कराया जाय।ऽ खगौल एवं तारेगना में बेधशाला की स्थापना की जाय एवं सस्ती बेधशाला बनाने का हमें अवसर दिया जाय।ऽ कमजोर होने के कारण बी.पी.एल. सूची में पूर्वाग्रह वश हमारे लोगों के नाम काटनेवालों पर कानूनी कारवाई की जाय।आशा है श्रीमान् हमारी मॉंगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर हमारी मॉंगों के पक्ष में आयोग एवं संबद्ध सरकारी विभागों, नीति नियामक संवैधानिक संस्थाओं को निर्देशित करने की कृपा करेगें।सादर, सधन्यवाद!निवेदकशाकद्वीपीय ब्राह्मण समितिबिहारसंयोजक - रवीन्द्र कुमार पाठकमोबाईल नं. 9431476562हमारी चिट्ठी-2 आदरणीय बंधु,हमारी पहली चिट्ठी को कम समय में भी आप लोगों ने गंभीरता से लिया और सहयोग समर्थन भी दिया। सर्वण आयोग (ऊँची जातियों के गरीब लोगों के लिए आयोग का गठन भी हो गया। अब अवसर है सवर्ण आयोग के समक्ष अपनी बातों को समुचित ढंग से प्रस्तुत करने का। इस संबंध में आपके समक्ष कुछ स्पष्टीकरणों के साथ मूल लक्ष्य की ओर पुनः आपकी तत्परता की इच्छा रखता हूँ।सम सामयिक राजनैतिक पहल की दृष्टि से कुछ लोगों की पहल पर दिनांक 10 फरवरी 2011 को एक दिवसीय धरने का सफल आयोजन किया गया और माननीय मुख्य मंत्री, बिहार को ज्ञापन दिया गया।इसी निमित्त शाकद्वीपीय ब्राह्मण समिति नाम से एक तात्कालिक मंच का गठन किया गया। वस्तुतः न तो यह कोई संगठन है और न ही किसी नए समानांतर संगठन की दृष्टि से इसका आरंभ किया गया है। शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की कई संस्थाएँ एवं संगठन कई स्थानों पर कार्यरत हैं, जैसे-संज्ञा समिति, अरूण प्रभा, अरूणोदय, निखिल, अखिल सार्वभौम आदि। ये संक्षिप्त नाम हैं, अन्य नामों वाले संगठन भी हो सकते हैं। हमारी समझ से नया समानांतर संगठन बनाने की जगह लोगों का आपस में एकजुट होना और अपनी आवाज बुलंद करना जरूरी है। जहाँ कोई संगठन नहीं है, वहाँ स्थानीय लोगों की अपनी रुचि एवं सुविधा से किसी भी संगठन की शाखा खुल सकती है या नया संगठन बन सकता है।आपस की एकजुटता पर विचार-विमर्श हेतु एक-दो महीने के अंदर पटना में एक दिवसीय बैठक का आयोजन किया जाने वाला है। उस बैठक के निर्णय के अनुसार आगे की कार्यवाही निश्चित की जाएगी और उसी समय सभी संगठनों/व्यक्तियों का साथ लेकर चलने की कार्ययोजना भी बनेगी। आप से आग्रह है कि इस आति महत्त्वपूर्ण बैठक में आप अवश्य भाग लें और संयोजन-नेतृत्व के लिए भी तैयार रहें। मैं व्यक्तिगत रूप से सदैव संयोजक का पद छोड़ने को तैयार हूँ। यह प्रयास पूर्णतः एक सूत्री एवं तात्कालिक है। इसीलिए जाति-सेवा के अन्य मुद्दों का इस अवसर पर समावेश नहीं किया गया है।आशा है, इस स्पष्टीकरण के बाद आप सबों के सहयोग, एकजुटता एवं बुद्धिमता से हमलोग सवर्ण आयोग का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने एवं अपने लिए विशेष कोटा निर्धारित कराने में सफल होंगे।सवर्ण आयोग के समक्ष उपस्थ्तिि के पूर्व हमें अपना आंकड़ा विधिवत् प्रस्तुत करना चाहिए। अगर आपने जातीय स्थ्तिि का सर्वेक्षण किया हो तो हमें भी बताएँ और अगर नहीं किया हो तो अभी से शुरू कर दें। सुविधा हेतु सर्वेक्षण फार्म का नमूना हम भेज भी सकते हैं। इसे कोई भी समझदार आदमी स्वविवेक से बना सकता है। सादर, सधन्यवाद,आपकारवीन्द्र कुमार पाठकसंयोजक, शाकद्वीपीय ब्राह्मण समिति, बिहार