गुरुवार, 29 नवंबर 2012

बिरादरी संगठन: दशा एवं दिशा

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के जातीय संगठनों के बनने बिगड़ने का इतिहास भी काफी लंबा है और आजादी के पहले से शुरू होता है फिर भी मुख्य गतिविधियाँ आजादी के बाद होती हैं। मुझे वैसे बहुत अधिक जानकारी नहीं है फिर भी पुष्ट/अपुष्ट स्रोतों के अनुसार निम्नलिखित संगठनों-संस्थाओं की जानकारी मिलती है।
नाम                                           समय लगभग                             मुख्य स्थान-कार्यक्षेत्र
शाकद्वीपीय ब्राह्मण बंधु ट्रस्ट                   1925- अभी तक                   राजस्थान, पश्चिमी भारत
सार्वभौम शाकद्वीपीय ब्राह्मण महासभा    1970-1988                         उत्तर प्रदेश, बिहार
निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ      1920 के पूर्व का दावा
                                                           अभी तक सक्रिय        मूलतः राजस्थान फुटकर रूप से पूरी हिंदीपट्टी
अखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा             पता नहीं                     पता नहीं
अरूणोदय                                              पता नहीं            बिहार झारखंड के कुछ स्थान
संज्ञा समिति                1975                 मगध क्षेत्र, बिहार
राजस्थान शाकद्वीपीय ब्राह्मण सभा
इनके अतिरिक्त स्थानीय स्तर के भी अनेक संगठन होंगे ही जिनका नाम मुझे मालूम न होने से यहाँ नहीं हैं। उनकी गतिविधियों की जानकारी मिलती रही है। कई स्थानों पर भास्कर समिति, भास्कर समाज आदि नाम से संगठन बने, चले, सुस्त पड़ गए। उपर्युक्त संगठनों में तीन-चार तरह के प्रयास हुए हैं।
1.    जमींदार एवं अंगरेज परस्त लोगों के नेतृत्व में शुरू किया गया अभियान
अंगरेजों ने 1923 के बाद जमींदारों को ऐसे संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि मुख्य धारा के कांग्रेसी, साम्यवादी या समाजवादी विचार के लोगों को उनकी हीं जाति में समर्थन न मिले और जातीय नेतृत्व अंग्रेज भक्त जमींदारों पास रहे। ऐसे लोगों ने अनेक सम्मेलन किए और आजादी के बाद भी कुछ दिनों तक सक्रिय रहे। शाकद्वीपियों में भी कई बडे़ जमींदार बिहार एवं उतर प्रदेश में थे। उन्होंने ऐसे सम्मेलन गया, अयोध्या एवं बनारस में बुलाए। राजस्थान की मुझे जानकारी नहीं है।
इनके मन में न तो जातीय कल्याण की भावना थी, न इनका कोई उल्लेखनीय योगदान रहा। कुछ तो सजातीय गरीब लोगों के साथ-खाना पीना भी पसंद नहीं करते थे। लोगों को गुलाम एवं प्रजा की तरह देखते थे।
2.    भारतीय संविधान, सुधारवादी आंदोलनों एवं जातीय ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में उपजा आंदोलन
भारतीय समाज के पिछड़ने के लिए अनेक लोगों ने सनातन धर्म, ब्राह्मण जाति एवं उनकी रोजी-रोटी से जुड़ी सभी विद्याओं को अंग्रेजो के बहकाने पर जिम्मेदार घोषित करना शुरू किया। सनातन समाज को आपस में लड़ाने के लिए एक ओर राजनीतिक धाराओं को धर्म विरोधी करार दिया गया ताकि कट्टर ब्राह्मण एवं सवर्ण समाज जमींदारों से सटे। आधुनिक     सुधारवादी संप्रदायों को पूरा समर्थन दिया गय जैसे- ब्रह्म समाज और कारपोरेट कल्चर तथा प्राइवेट बैंकिंग द्वारा धन संग्रह सिखाया गया। आर्य समाज को आर्य/अनार्य  आर्य-द्रविड की लड़ाई के लिए उकसाया गया ओर एंग्लो वैदिक संभ्यता की अवधारणा सामने आई, जिसके परिणाम स्वरूप डी.ए.वी. शिक्षण समूहों का जाल आज खड़ा है। हालाँकि अब कोई वैचाारिक मामला नहीं बचा है।
ब्राह्मणों के पास आध्यात्मिक विद्या के साथ कुछ भौतिक विद्याएं भी थीं जो लोकोपयोगी एवं अर्थकरी, पैसा देने वाली थीं। पौरोहित्य विद्या, श्रेष्ठता तथा गौरव प्रदान करती थी। अर्थकरी विद्याओं में - आर्युवेद, ज्योतिष (बिहार, उत्तर प्रदेश से पंजाब तक) वास्तु, शिल्प, भूमि सुधार, जल प्रबंधन,(कोहली एवं पालीवाल) शास्त्रीय संगीत, नाट्य (उत्तरी भारत में गौड़ एवं सारस्वतों के पास) दक्षिण में व्यापक रूप से, तंत्र (सभी के पास, फिर भी मूल विद्या मग, सारस्वत एवं तैलंगों के पास, शेष के पास तकनीकी ज्ञान थे।)
इन सभी विद्याओं में से ज्योतिष एवं तंत्र  को एक ओर निषिद्ध एवं पाखंडयुक्त बताया गया और ब्राह्मणेतर जातियों ने उनका ज्ञान प्राप्त कर अपने को बराबर फिर श्रेष्ठ बताना शुरू किया। सबने अपनी-अपनी दुकानें खोल लीं। आयुर्वेद को    विधिवत ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराने एवं अपने सांगठनिक कार्यकर्ताओं के आय का श्रोत बनाने का उपाय किया गया। अति उत्साही, उदारवादी हिन्दी एवं बंगला भाषी ब्राह्मण इस चंगुल में फँसकर आयुर्वेद को नष्ट करने पर तुल गए।
आर्य समाजी एवं ब्रह्मसमाजी शाकद्विपियों तथा दासगुप्ता परिवारों ने पहले तो आधुनिकता समझी फिर हाथ डाल दिया। गुरुकुल कांगड़ी औषधालय के नेतृत्व में आयुर्वेद के आधुनिकीकरण एवं बाजारवाद का दौर शुरू हुआ तो बंगाली कविराज महोदय ने संस्कृत में मार्डन एनाटोमी की किताब लिखी ........। बंगाल एवं बिहार से ही से जी.ए.एम.एस. और फिर बी.ए.एम.एस. बनने शुरू हुए। ये आज एक कानूनी क्वैक की हालत में हैं, जिनमें से अनेक को आयुर्वेद की कोई समझ नहीं होती। दवा बनाना कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया और रोजगार उठ कर आर्य समाज और उसके बाद अनेक बाबाओं की कंपनियों के पास चला गया। इसका नेतृत्व मुस्तफाबाद के शर्मा परिवार ने की पीढ़ियांे तक किया।
आयुर्वेद के गुरुकुल की तरह बिहार में दो परिवार थे - मुस्तफाबाद का शर्मा (पुराने संभवतः मिश्र) एवं मुजफ्फरपुर का ओझा परिवार। ओझा परिवार पारंपरिक रहा, शर्मा परिवार आर्य समाजी हो गया। हालांकि रक्त संबंध का बंधन तोड़ने की हिम्मत नहीं हुई। हमलोगों की भी रिश्तेदारी रही और मैं ने तो प्रियव्रत शर्मा जी जो रिश्ते में मेरे मौसा थे से काफी सत्संग किया। बाद में जमींदारों के समानांतर शर्मा परिवार ने विद्या-प्रधान ब्राह्मणों का संगठन भी बनाया तथा राजस्थान के लोगों के साथ एकता का प्रयास भी शुरू किया। इनके आंदोलन को बिहार के जीतीय समाज में आजतक स्वीकृति नहीं मिली।
1984 के बाद पारंपरिक आयुर्वेदिक शिक्षा बिहार में प्रतिबंधित हो गई। वैद्यों के नेतृत्व में किए गए जातीय संगठनात्मक प्रयासों में निजी फॉर्मेसियों की दवा की बिक्री आंतरिक कलह का कारण होती थी, जिसका केन्द्र वाराणसी रहता था। मैं ने अपनी पुस्तक आयुर्वेद के ज्वलंत प्रश्न, प्रकाशक प््रकाशन विभाग सूचना ओर प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार में इन बातों का पूरा विवरण दिया है।
आजादी के बाद न केवल चुनाव जातीय आधार पर लड़े गए बल्कि सरकारी नौकरी आदि के अवसर पर भी भ्रष्टाचार पूर्वक खूब भेद-भाव हुआ। नए सुधार वादी लोगों ने ज्योतिष, कर्मकांड, आयुर्वेद के परंपरागत व्यवसाय पर भी अधिकार जमाना शुरू किया तो उपेक्षा एवं रोजगार का संकट भी आने लगा। जन्मना श्रेष्ठता के अहंकार को तो सीधा एवं तगड़ा झटका लगा। इन सबों की पतिक्रिया में भी संगठन बने। इन संगठनों का नेतृत्व नव धनाठ्य पर मध्य वर्ग के लोगों ने किया। कुछ प्रयासों के बाद भी बिहार उत्तर-प्रदेश में यह आपसी कहल के घाट बेमौत मर गया।
3.    संज्ञा समिति
जमींदारी उन्मूलन के बाद बिहार में सरकारी अफसरों ने छद्म रूप से जातीय धु्रवीकरण की राजनीति शुरू की। प्रज्ञा समिति (कान्यकुब्ज) चेतना (मैथिल$भूमिहार) की तर्ज पर संज्ञा समिति (शाकद्वीपीय) का गठन हुआ। संज्ञा समिति आज भी एक चैरिटेबुल समिति है, जो 1860 के अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत है। यह समिति भी अब कुछेक लोगों के निजी मनोरंजन तक सीमित हो गई है।
4.    राजस्थान के लोग एवं मगध के लोगों की पीड़ा में आसमान जमीन अंतर रहा है। मग मगध में परंपरा से सर्वमान्य ब्राह्मण रहे हैं आज भी परंपरागत समस्या नहीं है। पहले शिक्षा तथा संपत्ति से भी भरपूर थे। राजस्थान का नेतृत्व वहाँ के मध्यवर्ग लोगों के हाथ रहा और आपसी भेदभाव तथा झगड़ों के साथ रचनात्मक प्रतिस्पर्धा भी खूब रही और आज भी कायम है।
5.    एकीकरण के प्रयास:
पश्चिम एवं पूर्वी भारत के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए भी काफी प्रयास हुए। कलकत्ता मुबंई एवं अन्य स्थानों पर सम्मेलन भी हुए। निखिल शाकद्वीपीय ब्राह्मण महा संघ नाम से एक संगठन भी बना, जो आज रचनात्मक प्रतिस्पर्धा की जगह गुटबाजी का शिकार है। दो पत्रिकाएं ऐसा समाचार छापती रहती हैं।
पुराने बिहार, उत्तरप्रदेश एवं मध्य प्रदेश के लोग जो अपने मूल ग्राम की पहचान पुर के रूप में करते हैं परंपरा से आपस में विवाह करते हैं। उड़ीसा के लोग भी इनकी शाखा है। जगन्नाथ मंदिर समिति की विधिवत जांच की और इसी आधार पर यज्ञ में भाग लेने के लिये अधिकृत किया। इस विषय पर एक पुस्तक भी मुझे उपलब्ध हुई थी जो कहीं गुम हो गई है। बंगाल में पहचान बदल गई है और विवाह बंद हो गया है। वहां शाकद्वीपी संभवतः गणक नाम से वैश्य वर्ग में माने जाते हैं।
राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात की लगभग एक पहचान है और वे आपस में विवाह करते हैं। इनकी व्यवस्था अलग प्रकार की है। और उपाधियाँ भी अलग है। आपस में रक्त संबंध बनाने का आग्रह होने पर भी परंपरा तोड़नेवाले बहुत कम हैं। मैं सबको असली मान रहा हूँ। मैं कौन होता हूँ किसी को असली या नकली कहने वाला।
रचनात्मक प्रतिस्पर्धी संगठन - राजस्थान के लोग धर्मशाला बनवाने, सामूहिक रूप से यज्ञोपवीत, मुंडन, विवाह आदि कराने में अग्रणी हैं और आधुनिक युगानुरूप अपने निकटस्थ सेठों से विद्या सीख कर व्यवसाय तथा सरकारी नौकरी दोनों में तीव्र विकास कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार के लोगों के बीच उस तरह की संगठन भावना नहीं है और एक बड़ा तबका निकम्मेपन ,ऋणग्रस्तता, आलस्य और इनसे उत्पन्न संकटों को झेल रहा है। पारंपरिक आजीविका समाप्त प्रायः है। जो मुख्य धारा में आगे बढ़ रहे हैं वे खुशहाल है।
6.    वोट बैंक की राजनीति - इधर जैसे-जैसे जाति की पहचान वोट बैंक रूप में होने लगी वैसे राजनेता बनाने की कोशिश शुरू हुई, जो किसी राजनीतिक दल से सौदेबाजी कर सके। ऐसे प्रयास पूर्णतः विफल रहे क्योंकि न तो इस जाति के पास सघन एवं निर्णायक मतसंख्या है, न संगठन, न भरोसे मंद नेता और दल। कुछेक लोग संयोगवश जनप्रतिनिधि बने भी तो अपनी प्रतिभा या दल के समर्थन से और लगभग जाति से कतराते रहे। उनकी मजबूरी भी सहज है।
दुखद पक्ष -   
असली पुरोहितों/आचार्यों/समाजसेवियों की अस्वीकृति
समाज में जातीय संगठनों की संकीर्ण गतिविधियों के कारण समाज के लिए प्रेमभाव पूर्वक एवं कई बार तो गुप्त रूप से मदद करने वाले वैसे लोगों को जातीय समाज ने आदर नहीं दिया, जिन्हें समकालीन समाज ने आदर दिया। इनमें से कुछ ही लोग अपवाद स्वरूप ऐसे थे, जिन्होंने अंतरजातीय विवाह किया था या किया है। इन्हें छोड़ भी दें, हालांकि जातीय संगठनों में अनेक अंतरजातीय विवाह वाले भी प्रमुख पदों पर आसीन रहे, बशर्ते कि वे धनी हों या समय देते हों। राजनीतिक-सामाजिक धारा के अग्रपुरूष पहले भी थे और आज भी हैं, जैसे- किसान नेता यदुनन्दन शर्मा, भवानी मिश्र, स्वामी विज्ञानानंद, गिरीन्द्र मोहन मिश्र, पं0 विंध्येश्वरी प्रसाद पाठक, श्री चक्रधर मिश्र उर्फ ‘राधा बाबा’, आदि। मुझे भी इनके नामों की पूरी जानकारी नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से बिरादरी के सामान्य लोगों की समझ जनसंघ की अनुवर्ति भाजपा की ओर है, फिर भी अनेक लोग कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और यहाँ तक कि नक्सली संगठनों के बड़े कमांडर हैं।
बिरादरी संगठनों के छुटभैया नेता इनके व्यक्तित्व से डरते हैं और ये बड़े महानुभव इनकी हरकतों से कि करें तो क्या करें? मुझे अनेक धाराओं के बीच गांवों जीने की मजबूरी के कारण उनसे हार्दिक संवाद का अवसर प्राप्त होता रहता है।
यहाँ तक कि संक्षिप्त चर्चा तो इतिहास एवं समय-सामयिक सांगठनिक प्रवृतियों की है।
पहचान की पीड़ा -
शाकद्वीपीय समाज पहचान की पीड़ा से कमोबेश ग्रस्त रहा है। इसका मुख्य कारण अपनी पुरानी पहचान के प्रति लगाव एवं नई पहचान बनाने का द्वन्द है। उदाहरण के लिए - शाकद्वीपीय भी हैं और जंबूद्वीपीय भी, आखिर कैसे ? मग भी हैं और भोजक, देवलक और सेवग याचक भी, तो कैसे ?
बाहरी हैं या क्षेत्रीय, चक्कर क्या है ?
धनी जमींदार है, या गरीब ब्राह्मण ?
शुद्ध शाकाहारी, वैष्णव या मांसाहारी शाक्त ?
इन दोनों में रहने पर सूर्योपासक सौर कैसे ?
मगध मूल स्थान है या राजस्थान ?
दोनो के गोत्र, एवं पुर की व्यवस्था अजीबोगरीब है ?
राजस्थानी लोगों की गोत्र व्यवस्था तो ऋषि आधारित है ही नहीं और मग लोगों की पुर व्यवस्था कर्मनाशा से किउल नदी के बीच में ही लगभग सीमित है ?
नई उलझनें, आगे क्या करें ?
1.    जाति, नाम, उपाधि छुपाएं नहीं छुपाएं, क्या करें ?
2.    मिश्र/पाण्डेय पाठक आदि की जगह क्यों न शर्मा बन जाएं ? शर्मा बनने पर भी राहत नहीं है, दूसरी जातियां भी  शर्मा दौड़ में हैं तो यह तो चौबे गए छब्बे बनने वाली बात हुई।
3.    नए रोजगार के बाद पुरोहित वाला पैर धुलाने का सुख कैसे मिले ?
4.    आयुर्वेद, ज्योतिष का दावा तो करें, पर सीखें कहाँ से ? सिखाने वाले कहाँ हैं ? हैं भी तो गरीब और मनस्वी लोग,         जिनका संपन्न निरादर करते रहे ? अब क्या करें?
5.    तप, साधना करने वालों को मूर्ख कहते रहे, अब उनके पास किस मुँह से जाएं? ठगविद्या वालों की यह पीड़ा है।
6.    नई पीढ़ी तंग आकर नए शिरे से सोचने लगी है लेकिन इन बेचारों को तो परंपरा की जानकारी ही नहीं है।
निबंध के अगले भाग अगली कड़ी में प्रस्तावित समाधान की चर्चा होगी।

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