सोमवार, 11 मार्च 2013

सांब पुराण परिचय
संपूर्ण
भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणों का स्थान श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए अनेक लोग ब्राह्मण होने के लिए लालायित रहते हैं। कुछ लोग जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं, वे कभी-कभी ब्राह्मणों के प्रति ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं। इसके विपरीत कुछ ब्राह्मण अपने जाति के अहंकार में ग्रस्त होकर अपने मूल दायित्वों से विचलित हो जाते हैं और अन्य वर्णों के प्रति हीन भावना रखते हैं। ब्राह्मणों में प्रचलित जाति श्रेष्ठता का भाव तब चरम पहुँच जाता है जब वे ब्राह्मणों के बीच भी छुआछूत और आत्म-गौरव के अहंकारी रूप में व्यवहार करते हैं।
उपपुराण प्रायः किसी एक देवता के प्रति ही समर्पित होते हैं। मुद्गल पुराण श्री गणेश की पूजा के प्रति समर्पित है। ठीक उसी प्रकार से सांब पुराण में भगवान भाष्कर, जो आदित्य हैं, उनके बारह रूपों में अर्थात् द्वादश आदित्य के रूप में उनकी पूजा की विधि एवं पूजकों का वर्णन है। कोई भी देवता तब तक पूर्णतः स्वीकृत नहीं हो पाते हैं, जबतक आम आदमी उसे स्वीकार न कर ले। आम आदमी को देवता की मदद केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही नहीं चाहिए उसे लोक एवं परलोक दोनों ही स्थानों पर सुख चाहिए। जो देवता लौकिक एवं पारलौकिक दोनों वेशों में सफलता दिला सकें, आम आदमी उन्हें ही पूरी तरह स्वीकार करता है। रोग निवारण एक प्रबल लौकिक आकांक्षा है, उसके बाद संतानोत्पत्ति और सम्पत्ति का स्थान आता है।
इतना ही नहीं जब वे सारी भोग सामग्रियां उपलब्ध हो जाती हैं, तब शत्रुओं से उनकी रक्षा का संकट भी आता है। सांसारिक जीवन में ऐसी कई समस्याएँ आती ही रहती हैं। इन्हीं समस्याओं के निराकरण हेतु तंत्रशास्त्र में मारण, मोहन, स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन और विद्वेषण जैसे छह अभिचारों की परंपरा लंबे दौर तक चलती रही। जब सूर्य पूजा अपने चरम पर थी उस समय द्वादशादित्यों के माध्यम से भी अभिचार कर्म किया जाना स्वाभाविक था। सांब पुराण में भी इन सभी अभिचार कर्मों की विधियाँ लिखी हुई हैं।
    बहुत दिनों से सांब पुराण उपलब्ध नहीं था, ऐसा कहना तो ठीक नहीं होगा लेकिन मैं इसे अपना दुर्भाग्य ही समझता हूँ कि पिछले पच्चीस वर्षों के विद्वत्जनों के साथ सत्संग में मुझे एक भी पारंपरिक आचार्य ऐसे नहीं मिले, जिन्होंने सांब पुराण को अपनी नजरों से देखा हों और उसका पारायण किया हो। प्रायः सभी लोग सांब पुराण के नाम से परिचित रहे हैं और कुछ लोगों ने इसके उद्वरणों को यत्र-तत्र पढ़ा है। पता नहीं प्रकाशित होने के बावजूद इस ग्रंथ के नाम जपने में तो लोगों की रुचि रही लेकिन अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने भी इसे पढ़ना जरूरी नहीं समझा। इसके कारण भ्रांतियाँ बनी रहीं और लोग मनमानी बातें करते रहे।
    मुझे सौभाग्य से अपने ही घर के पुस्तकालय में सुन्दर मुद्रण में सांब पुराण की प्रति उपलब्ध हो गयी। यह श्री वेंकटेश मुद्रणालय, मुम्बई द्वारा प्रकाशित है। इसी संस्करण को आधार मान कर मैंने यहाँ यह संक्षिप्त विवरणी तैयार की है, ताकि सामान्य संस्कृत ज्ञान वाले लोगों को भी ग्रंथारंभ के पूर्व यह जानकारी मिल सके कि सांब पुराण की मूल सामग्री क्या है और सांब पुराण के पारायण में लोगों की रुचि बन सके।
संपूर्ण बिहार और विशेषकर मध्य बिहार द्वादशादित्यों के मंदिर राज्यों का क्षेत्र रहा है। ऐसे में द्वारशादित्यों की पूजा की, प्रामाणिक विधि का ज्ञान आदित्य भक्तों को होना बेहद जरूरी है। सांब पुराण की भाषा अत्यंत सरल है और इसे समझना सामान्य संस्कृत ज्ञान वाले लोगों के लिए सुविधाजनक है। इसी कारण से मैंने ग्रंथ की काया को बढ़ाने वाले अनुवाद कराने एवं अनुवाद के साथ प्रकाशित करने का विचार नहीं किया। इसमें प्रायः बीज मंत्र हैं और उनकी आनुष्ठानिक विधियाँ हैं। अब बीज मंत्रों का भला क्या अनुवाद होगा और जो इस स्तर का संस्कृत समझ नहीं सकते हैं, उच्चारण नहीं कर सकते हैं वे अनुष्ठान क्या करेगें ? वैसे लोगों क लिए तो यह परिचय ही काफी रहेगा।
वैसे अब चौखंबा प्रकाशन, वाराणसी से हिंदी अनुवाद सहित सांब पुराण प्रकाशित हो गया है।
सांब पुराण की सामग्री - सांब पुराण बहुत ही व्यवस्थित ग्रंथ है। सांब पुराण का पहला अध्याय स्वयं अनुक्रमणिका अध्याय है। इसमें सांब पुराण में वर्णित विषयों की सूची दी गयी है। यहाँ निम्न रूप से उनका उल्लेख किया जा रहा है - प्रत्येक वेदों का अर्थ, स्मृतियों का सार, वर्ण, धर्म एवं उनके आश्रय भूत, भव्य, भविष्य, मंत्रवाद, उत्पत्ति, प्रलय, पूजा की विधि, सामारोंह की विधि एवं पूजा का, पूजा की विधि का सांगोपांग वर्णन, वशीकरण, विद्वेषण, स्तंभन, उच्चाटन आदि अभिचार कर्म प्रतिमा का लक्षण उसकी स्थापना एवं पूजा की विधि, मंडल, अनेक मंडल, क्रिया योग, सिद्धयोग एवं उनका साधन, महामंडल याग एवं उसमें सूर्य की स्थापना। भूमिका, वातोसन एवं इष्ट हेतु पुष्प, धूप आदि की विधियाँ। स्पतमी व्रत का तरीका एवं उपवास की विधि। तदनंतर परोक्षण की विधि और दान का फल। उसके लिए बेला एवं काल का विधान और धर्म विधि। धूप कर्म की विधि एवं जप की विधि, इप्सित अनिप्सित स्वप्न का वर्णन।
    स्वप्नों का वर्णन प्रायश्चित का विधान तथा आचार्य का लक्षण। मंत्र का निर्णय करके सभी शिष्यों की दीक्षा। संक्षेप में विभिन्न प्रकार के स्रोत। जिनके आधार पर अन्य अनेक अनुष्ठान होंगें। यह संक्षिप्त सूची है जो प्रथम अध्याय के रूप में अनुक्रमणिका के रूप में सांब पुराण में वर्णित है। इस सूची से अनेक बातें स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं फिर भी यदि कुछ विषयों पर संक्षिप्त प्रकाश डाल दिया जाय तो सांब पुराण के पाठकों को एक पूर्वानुमान सरलता पूर्वक हो जायेगा।
किश्त 2
    द्वितीय अध्याय - सांब पुराण के द्वितीय अध्याय में मूलतः आदित्य के माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इसी क्रम में कुछ सूचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। किसी भी देवता की विशिष्टता एवं सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने के लिए अन्य देवताओं, ऋषियों एवं साधनापद्धतियों के साथ प्रांसंगिकता सिद्ध करनी पड़ती है। इसी क्रम में सूर्य की विशिष्टता के बारे में बताया गया है कि आदित्य से ही इस जगत की सृष्टि हुई है और यह संसार अंततः सूर्य में ही विलीन हो जाता है। इसीलिए सूर्य सविता है। सूर्य पथ एवं चंद्र पथ की चर्चा योग शास्त्र में प्रसिद्ध है। सूर्य पथ से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं। उनका पुर्नजन्म नहीं होता। जनकादि अनेक राजर्षियों को सूर्य मंडल में प्रवेश के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हुई है। द्वितीय अध्याय में इसी प्रकार की बातों का वर्णन किया गया है और सांब पुराण की कथा को सूर्यवंश के आदि गुरु वशिष्ठ के साथ जोड़ा गया है। वशिष्ठ वृहद्वल संवाद के रूप में भी सांब पुराण का प्रकाश हुआ है। यह जानकारी द्वितीय अध्याय से मिलती है।
तृतीय अध्याय - तीसरे अध्याय में कथा का प्रारंभ श्री सांब द्वारा स्थापित उस नगरी से होता है जिसका नाम ही सांब रखा गया है। यह नगरी चंद्रभागा नदी के किनारे बसी हुई थी। सांब की कुष्ठ रोगग्रस्त होने की कथा और भगवान भाष्कर की पूजा से उनके स्वस्थ होने का वृतांत अत्यंत प्रचलित है। सांब की सुंदरता पर कृष्ण की अनेक पत्नियों के मुग्ध होने के बाद भगवान कृष्ण के द्वारा उन्हें शाप दिया जाना और शाप के कारण कुष्ठ रोग का प्रकोप होना यह तीसरे अध्याय की कथावस्तु है।
चौथा अध्याय - सांब के शापग्रस्त होने के बाद यह मामला प्रकाश में आता है कि यदि श्री सांब स्वयं भगवान भास्कर की प्रतिमा स्थापित करें और उसकी विधिवत पूजा अर्चना करें तो उनका रोग दूर हो सकता है। इसी क्रम में आदित्य के बारह रूपों को बताया गया है।
पाँचवा अध्याय - भारतीय संस्कृति में यह जब कभी भी किसी देवता विशेष की पूजा का वर्चस्व काल आया है तब उस पूजा को अखिल भारतीय रूप में दिया गया है। इसी शैली में विष्णु, शिव एवं शक्ति तीनों की अनेक तीर्थ धाम, पीठ ज्योतिर्लिंग आदि स्थापित हुए हैं। इसी शैली में द्वादश आदित्यों का स्थान भी भारत भूमि पर स्थापित हुआ है। पाँचवे अध्याय की कथावस्तु यही हैं।
छठवाँ अध्याय - छठे अध्याय में सांब श्रीकृष्ण की स्तुति करके अपने रोग के निवारण का उपाय पूछते हैं और श्रीकृष्ण निर्देश देते हैं कि तुम नारद जी की प्रार्थना करो और नारद जी ही तुम्हारी शाप मुक्ति का उपाय बतायेंगे। इसी क्रम में भगवान भास्कर के माहात्म्य का संक्षिप्त उल्लेख नारद जी करते हैं और सूर्य लोक का एक संक्षिप्त वर्णन करते हैं।
सातवाँ अध्याय - सातवें अध्याय में पूर्व की भाँति सूर्य के माहात्म्य एवं वैभव तथा भारतीय संस्कृति में उनके विन्यास की चर्चा नारद जी करते हैं।
आठवाँ अध्याय - सातवें अध्याय में सूर्य के सर्वव्यापित्व की चर्चा करके पुनः उसका विस्तार नारद जी करते हैं। आठवें अध्याय में भी धातु एवं सौर किरणों की कार्य प्रणाली के अनुसार सूर्य के व्यापकत्व का वर्णन किया गया है। बारहों मासों में बारह मासों के साथ बारह आदित्यों का संबंध और उसके शाब्दिक लक्षण आठवें अध्याय में बताये गये हैं।
नवाँ अध्याय - सांब पुराण सूर्य के सभी रूपों का चतुर्दिक संगति के लिए जी जान से तत्पर है। बारह आदित्यों के नाम के साथ उन नामों का व्याकरण संगत व्युत्पत्ति भी नवें अध्याय में बतायी गयी है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि नवें अध्याय में द्वादश आदित्यों के नामों के साथ सूर्य के आचार विचार, क्रिया कलापों के साथ उन नामों की निष्पत्ति सिद्ध की गयी है। कहने का अभिप्राय कि किस प्रकार सूर्य का कौन सा नाम सार्थक है। केवल नाम ही नहीं बल्कि नामों के अनुरूप भगवान भास्कर का स्वभाव एवं व्यवहार भी है।
दशम अध्याय - जिस प्रकार अन्य देवताओं का संबंध उनकी उत्पत्ति, वंश परंपरा, धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है। उसी प्रकार सांब पुराण के दसवें अध्याय में आदित्य को अदिति का संतान माना है। और अदिति के अन्य पारिवारिक विन्यासों ने सूर्य एवं उनके बाद के देवी-देवताओं के संबध भी बताये गये हैं। इसी क्रम में प्रह्लाद, बृहस्पति, विरोचन का उल्लेख हुआ है। सूर्य का संज्ञा से संबंध लेकिन पति के रूप में संज्ञा के द्वारा सूर्य के तेज से घबरा कर पितृ कुल में वापस जाना, छाया रूपी पृथ्वी का निर्माण आदि बातों का उल्लेख हुआ है। पुनः सुर-असुर परंपरा में सूर्य के पारिवारिक संबंध की भी चर्चा हुई है। सूर्य एवं सूर्य की पत्नी संज्ञा भी सुख-दुःख से मुक्त नहीं है। विशेषकर संज्ञा की पीड़ा का वर्णन मार्मिक रूप से किया गया है। मानवीकरण होगा तो सुख-दुःख से मुक्ति की जगह प्रेम भावना आदि की बात आयेगी। खराद की पीड़ा से पीड़ित सूर्य के शरीर पर रक्त चंदन के लेप की सार्थकता का आप जो अर्थ निकालें।
किश्त 3
अध्याय ग्याहर - ग्यारहवें अध्याय में भी मार्तण्ड की वंश परंपरा को आगे बढ़ाया गया है। और बताया गया है कि संज्ञा की छायापत्नी पृथ्वी और पुनः बडवा (घोड़ी) रूप धारणी संज्ञा के गर्भ से कैसे-कैसे किन-किन देवों एवं नक्षत्रों की सृष्टि हुई। विवश्वान मनु, कालिंदी यम, यमी रूपी युगल और आगे चलकर फिर श्रुतश्रवा मनु, शनिश्चर ग्रह आदि की सृष्टि हुई। कैसे बडवा रूप धारणी छाया के साथ अश्वरूपी मार्तण्ड का शारीरिक संपर्क हुआ एवं अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार यमुना एवं ताप्ती नाम की दो नदियाँ सूर्य के वंश परंपरा में उत्पन्न र्हुइं और किस प्रकार इक्ष्वाकु वंश अस्तित्त्व में आया। यहाँ तक की कथा सूर्य के अमिट तेज की कथा है, जिसे कोई सहन नहीं कर पा रहा है और सूर्य परिवार में केाई न कोई समस्या विकट रूप से बनी रह रही है। इसके बाद बारहवंे अध्याय से सूर्य के प्रचंड रूप के सरलीकरण की कथा शुरू होती है।
बारहवाँ अध्याय -संज्ञा की पीड़ा को देखकर विश्वकर्मा व्यथित हो जाते हैं और निर्णय करते हैं कि सूर्य की स्तुति करके उन्हें मनाया जाय और अपनी प्रचण्डता को कम करने में श्री सूर्य की मदद ली जाय। सूर्य का स्वरूप अग्नि का गोला पिण्ड है और इसके ताप से संपूर्ण सृष्टि परेशान हो रही है। इसी ताप से रक्षा के लिए अनेक देवता, ऋषि, गंधर्व, अप्सरा एवं देव जातियाँ सूर्य की प्रार्थना करती हैं। और विश्वकर्मा भी धीरे-धीरे सूर्य के प्रचण्ड स्वरूप को सुन्दर एवं सह्य रूप देने का प्रयास करती है। आगे भी स्तुति जारी रहती है। यहाँ से मूर्त्ति निर्माण की आधार भूमि गढ़ी जाती है।
तेरहवां अध्याय - तेरहवें अध्याय में विश्कर्मा द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की जाती है।
चौदहवाँ अध्याय - चौदहवें अध्याय में पुनः ऋषियों द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति की गयी है। इसे अध्याय की पुस्पिका में ब्रह्म भाषित स्तुति कहा गया है।
पंद्रहवा अध्याय - पंद्रहवें अध्याय में सुन्दर गेय पदों के द्वारा पुनः भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है।
सोलहवां अध्याय - अब तक सूर्य को अदिति की वंश परंपरा के साथ जोड़कर उनकी गौरव गाथा का व्याख्यान किया गया लेकिन जैसा कि हम प्रथम अध्याय की स्थापना में देख चुके हैं आदित्य ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र इन त्रिदेवों के रूप में हैं। सोलहवें अध्याय में सूर्य के रुद्रात्मक  स्वभाव का वर्णन हुआ है। पहले सूर्य के आसपास रहनेवाले देवताओं जैसे अश्विनी कुमार, कार्तिकेय, गरूड़, चित्रगुप्त आदि का वर्णन हुआ है उसके बाद विशेषकर चित्रगुप्त के माठर और जांटकार नामों का उल्लेख हुआ है। माठर शब्द की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। और तदनंतर इस बात का वर्णन हुआ है कि कुबेर, मनु आदि देवता सूर्य के सहचर हैं। सूर्य का एक नाम डिंडी भी है। डिंडी शब्द का अर्थ हेाता है नग्न। इसी क्रम में डिंडी की रहस्मय कथा का वर्णन हुआ है कि किस प्रकार मुनियों की स्त्री का मन कैसे विचलित हेा गया। उन्हें शापग्रस्त होना पड़ा और पुनः सूर्य के द्वारा उनके शाप का उद्धार हुआ।
सत्रहवां अध्याय - सत्रहवें अध्याय में भी दिवाकर की स्तुति की गयी है। पूरा अध्याय ही स्तोत्रात्मक है। एक दंडी के द्वारा यह स्तवन किया गया है। जैसा कि हम जानते हैं दंडी संप्रदाय, शैव संप्रदाय के अंतर्गत आता है। शायद इसीलिए सत्रहवें अध्याय के स्तोत्रांे को माहेश्वर स्तोत्र कहा गया है।
अठारहवाँ अध्याय - अठारहवें अध्याय का नाम देवताख्यापन अध्याय है। इस अध्याय में यह प्रदर्शित किया गया हे कि सूर्य के आस-पास बनी इस सृष्टि में किस प्रकार सौर मंडल की गतिविधियाँ चलती हैं और द्वादशाहित्य एकादश रुद्र, राहु आदि देव उनके विरोधी नक्षत्र तथा अन्य असुर योनियाँ किस प्रकार स्थित हैं। सात लोक भी सूर्य मंडल के अंतर्गत ही हैं। सूर्य ही काल का आधार है। इसलिए विभिन्न मन्वतरों में सूर्य के अंतर से ही मनु आते हैं और अपना शासन स्थापित करते हैं।
उन्नीसवां अध्याय - उन्नीसवें अध्याय का नाम व्युमोत्पत्ति अध्याय है। इस अध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य रूप से वर्णन किया गया है और इस प्रकार विभिन्न देवताओं एवं सात लोक मेरू आदि पर्वत के उल्लेख के साथ व्योम मंडल का वर्णन हुआ है।
बीसवाँ अध्याय - बीसवें अध्याय में भगवान सूर्य नारायण की गति एवं उसका दिक तथा काल से संबंध का निरूपण संक्षेप में करने के बाद उनके विभिन्न रूपों का विभिन्न त्थानों से क्या संबंध हैं। इसका संकेत किया गया है। इसी क्रम में पुष्कर आदि तीर्थों कीभी चचा्र हुई है।
इक्कीसवाँ अध्याय - इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के रथ का सुंदर एवं सांगोपांग वर्णन मिलता है। सूर्य के तेजस एवं रश्मिमय वैभव का एक रथ के रूप में जो कल्पना की गयी है वह अत्यंत मनोरम है ओैर साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आदित्य रथ के साधारणीकृत रूप का भौतिक अर्थ क्या है। इस अध्याय का नाम आदित्य रथ वर्णन अध्याय है।
बाइसवाँ अध्याय - बाइसवें अध्याय में चंद्रमा की कला एवं सृष्टि ब्रह्मांड के अन्य ग्रह, नक्षत्रों के साथ उसका वर्णन किया गया है। यह अध्याय अत्यंत ही रोचक है। जिस प्रकार इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के सूक्ष्म भौतिक विस्तार एवं मानवीकृत/साधारणीकृत देवयोनि आदि की चर्चा की गयी है। उसी प्रकार इस अध्याय में चंद्रमा काल के संचालक उपग्रह के रूप में किस प्रकार व्यवहार करते हैं, देवता, ऋषि आदि के रूप में भौतिक शक्तियों को मानवीय रूप दिया गया है। चंद्रमा की शक्ति से जीवन में केसे अनुप्राणित होता है किन-किन तिथियों पर देवगण सोम कला का पान करते हैं। इन सब विषयों का रोचक वर्णन किया गया है।
तेइसवाँ अध्याय - तेइसवें अध्याय में सांब की पीड़ा कथा का भाग बनती है। नारद मुनि के द्वारा सूर्य, चन्द्रलोक के वर्णन के बाद सांब आश्चर्य चकित और चमत्कृत हेाते हैं लेकिन उन्हें यह प्रश्न आंदोलित करता है कि आखिर सूर्य और चन्द्र भी पीड़ित होते ही हैं। नारद जी बताते हैं हिक राहु वस्तुतः सूर्य एवं चंद्र को ग्रहण नहीं कर सकता। ये तो अज्ञानी मनुष्यों की मांस चक्षु का भ्रम है। ग्रहण की अवस्था वास्तविक नहीं है यह तो सम्मोहन द्वारा लोगों को भ्रम में डालने का राहु का प्रयास है। इस अध्याय में सूर्य, चंद्र, ग्रहण की अत्यंत युक्तिसंगत चर्चा की गयी है।
चौबीसवाँ अध्याय - चौबीसवें अध्याय में सांब के द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है। एक दिव्य स्रोत के द्वारा सांब सूर्य की आराधना करते हैं। सूर्य प्रसन्न होकर वरदान देते हैं कि जिस नगरी में रहकर तुमने मेरी प्रार्थना की है उस का नाम सांब नगरी होगी और मैं तुम्हें हमेशा स्वप्न में दर्शन देता रहूँगा। उस स्तुति और प्रशंसा के साथ सांब का कुष्ठ रोग ठीक हेा जाता है।
पच्चीसवाँ अध्याय - पच्चीसवें अध्याय में पुनः एक सूर्य के स्तोत्र का अवतरण हुआ है। यह स्तोत्र स्वयं भास्कर के मुख से सांब को सुनाया गया है।
छब्बीसवाँ अध्याय - छब्बीसवें अध्याय में रोग से मुक्त सांब चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं। स्नान करने के बाद उन्हें सूर्य की एक अदभुत प्रतिमा पानी में चैरते हुए नजर आती है। वे उसे श्रद्धापूर्यक अपने आश्रम में लाते हैं। सांब और सूर्य प्रतिमा के बीच में वार्तालाप होता है। सांब पूछते हैं कि ऐसी अद्भुत प्रतिमा का निर्माण किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप कल्पवृक्ष के द्वारा शाकद्वीप में निर्मित हुआ है। मेरी पूजा परिचर्या की विधियों का जानकार जम्बूद्वीप में केाई नहीं है। इसके जानकार शाकद्वीप में ही हैं। इसी क्रम में शाकद्वीप, उसमें रहने वाले चार वर्ण, उनकी श्रद्धा, ब्राह्मणों के महत्त्व की संक्षिप्त चर्चा होती है। सांब को गरुड़ के माध्यम से भगवान भास्कर की प्रतिमा की पूजा के लिए मगों को बुलाने का निर्देश प्राप्त हेाता है।
किश्त 4
सताइसवाँ अध्याय - सताइसवें अध्याय में सांब मग ब्राह्मणों को चंद्रभागा नदी के किनारे बुला लाते हैं। उन ब्राह्मणों के कौन कौन से दिव्य गुण हैं, इसका विस्तार से वर्णन सताइसवें अध्याय में किया गया है।
अट्ठाइसवाँ अध्याय - भारतीय परंपरा में रोग निवारण ही सबसे बड़ी बात नहीं है। सांसारिक सुख प्राप्ति के साथ चित्त की शुद्धि पूर्वक मुक्तिलाभ करना भारतीय भक्तों का अभिष्ट हेाता है। अट्ठाइसवें अध्याय में मोक्ष एवं उसकी उपलब्धि के उपायों का संक्षेप में वर्णन किया गया है।
उन्नतीसवाँ अध्याय - उन्नतीसवें अध्याय में सूर्य की प्रतिमा का वर्णन किया गया है। पहले किस प्रकार सूर्य की मंडलाकृति की पूजा की जाती थी, बाद में किस प्रकार पुरुषाकृति आदित्य की पूजा की जाने लगी, इन के निर्देश के साथ मुख्य प्रतिमा एवं दिंडी आदि अन्य सहायक प्रतिमाओं की भी चर्चा की गयी है। इस अध्याय में मुख्य रूप से प्रतिमा स्थापना के योग्य स्थान का निर्देश किया गया है।
तीसवाँ अध्याय - तीसवें अध्याय में सूर्य की प्रतिमा के निर्माण की विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रतिमा मुख्य रूप से सात प्रकार की होती है। सामग्री की दृष्टि से सोना, चाँदी, तांबा, मिट्टी, पत्थर अथवा लकड़ी की प्रतिमा बनायी जा सकती है। सूर्य की प्रत्यक्ष मूर्ति तो सदैव उपलब्ध है ही इस अध्याय में आगे इन सामग्रियों के प्रकार एवं उचित-अनुचित रूप का निर्देश दिया गया है। पुनः मिट्टी एवं लकड़ी की परीक्षा की विधि बतायी गई है।
एकतीसवाँ अध्याय - इसअध्याय में मूलतः प्रतिमा के आकार एवं उसके विभिन्न अंगों के आनुपातिक नाप का वर्णन किया गया है और बताया गया कि इसके क्या शुभाशुभ फल हैं।
बत्तीसवाँ अध्याय - बत्तीसवें अध्याय का नाम प्रतिमा कल्पना अध्याय है। इसमें प्रतिमा निर्माण एवं उसकी प्रारंभिक पूजा का विस्तृत एवं सविध वर्णन उपलब्ध है।
तेतीसवाँ अध्याय - तेतीसवें अध्याय में सूर्य के ध्वज के लक्ष्ण, चिन्ह, आकृति, रंग आदि का वर्णन करते हुए ध्वज की स्थापना की विधि का निर्देश उपलब्ध है।
चौतीसवाँ अध्याय - चौतीसवें अध्याय में सूर्य की वार्षिक पूजा का विस्तार से वर्णन किया गया है। उसके लिए सामग्री, मंत्र इत्यादि के उल्लेख के साथ सूर्य के परिवार एवं अनुचरों की प्रिय सामग्री का उल्लेख किया गया है। इतना ही नहीं जैसे पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा होती है उसी प्रकार सूर्य की रथ यात्रा का भी उल्लेख प्राप्त होता है और रथ यात्रा के क्रम में होने वाले शुभ अशुभ शकुनों के फलाफल का भी निर्देश मिलता है।
पैंतीसवाँ अध्याय - पैतिसवें अध्याय में रथ यात्रा की विधि का वर्णन किया गया है। इस क्रम में रथ यात्रा की अनुकूल तिथियों का भी उल्लेख मिलता हैै।
छत्तीसवाँ अध्याय - छत्तीसवें अध्याय में सूर्य की पूजा की सामग्री के साथ विधि का वर्णन किया गया है। इसके लिए षोड्शोपचार के मंत्रों का वर्णन मिलता है। इन मंत्रों में कुछ तो वैदिक मंत्र हैं और कुछ पौराणिक मंत्र हैं।
सैंतीववाँ अध्याय - सैतीसवें अध्याय में सूर्य पूजा के बाद हवन के लिए कुंड एवं अग्नि के विधान का वर्णन है। हवन के लिए इंधन की लकड़ी ओर हवन सामग्री का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
अड़तीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में सूर्य पूजा के समग्र लाभ के साथ पूजा के अनेक चरणों से होने वाले लाभ का वर्णन किया गया है।
उनचालीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में सूर्य के द्वारा सांब की सौर दीक्षा के वर्णन के साथ-साथ अन्य लोगों को भी दीक्षा देने की चर्चा की गयी है। इस दीक्षा के क्रम मंे दीक्षा के योग्य व्यक्ति एवं दीक्षा की विधि का मंत्र एवं सामग्री के साथ प्रक्रिया का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। दीक्षा की चर्चा के साथ ही पौराणिक मंत्रों के साथ आगम परंपरा में प्रचलित बीजाक्षरों का समावेश शुरू हो जाता है।
चालीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में यज्ञ स्थान एवं न्यास के लिए उपयोगी बीजमंत्रों का वर्णन है।
इकतालीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में विभिन्न दिक्पालों, दिग्योगियों, भुवनाधिपों के नाम एवं उनके क्रम का वर्णन है। दिक्पाल की पूजा के साथ ही दीक्षा की विधि पूरी होती है। पूर्व दो अध्यायों में जिस याग एवं दिग्पालों की पूजा का वर्णन है, वह दीक्षा संबंधी है।
बयालिसवाँ अध्याय - इस अध्याय में शुभारंभ सूर्य के आवाहन की विधि के साथ होता है। भगवान भास्कर सांब पर प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर उसको वर देते हैं। सांब की प्रार्थना है कि आप प्रजा के कल्याण के लिए कल्प तक पृथ्वी पर रहें और उनकी प्रार्थना एवमस्तु के साथ स्वीकृत होती है। इसी क्रम में अनेक कल्पों एवं कल्प के प्रारंभ में धर्म के प्रवर्तक मनुओं की सूची दी गई है। इसे मन्वंतर कहा जाता है।
तैतालिसवाँ अध्याय - इस अध्याय में सागर तट पर भगवान भास्कर की प्रतिमा के उत्पन्न होने की कथा आती है। और उस प्रतिमा को सागर देवायतन में अवतरण हो जाता है। आगे चलकर भगवान भास्कर की प्रतिमा पूजा की परंपरा की के विकास की कथा के साथ साथ नदियों एवं तीर्थों के साथ संबंधों को जोड़ते हुए एक यात्रा विवरण जैसा उपलब्ध होता है। आदित्य पहले हिमालय के पृष्ठ भागों में कल्पतरु वृक्षों में स्थित थे। वहां से उनका प्रतिमारूप में अवतरण सर्वप्रथम चंद्रभागा से विपासा, विपाशा से शतद्रु, शतद्रु से यमुना, यमुना से जान्हवी, जान्हवी से भागीरथी, भागीरथी से मोदगंगा तक सूर्य की यात्रा हुई और अंत में सूर्य की प्रतिमा मोदगंगा से खारें समुद्र में अंर्तध्यान हो गयी। यह अद्भुत कथा है।
इसी क्रम में वैवस्व मनु द्वारा मुडेर नामक स्थान में उदीयमान सूर्य की प्रतिमा के साथ एक देवालय की स्थापना का उल्लेख मिलता है। इस स्थान के माहात्म्य का वर्णन भी उपलब्ध हेाता है।
चौवालीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में सांब ने आचार्य के बारे में प्रश्न किया है और उत्तर देने के क्रम में स्मार्त सनातनी परंपरा में वर्णित दैनिक सदाचारों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। पुराण परंपरा के लोग सदाचार के ऐसे नियमों से लगभग परिचित होंगे, इस आशा के साथ यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया जा रहा है। हाँ, एक दो बातों की ओर इंगित कर देना उपयोगी समझता हूँ। जैसे स्थविरों को ब्राह्मणों के सामान पूज्य माना गया है। सामिष श्राद्ध भोजन के बाद संध्या न करने का निर्देश मिलता है जिससे पता चलता है कि उस समय लोग श्राद्ध में सामिष भोजन तो करते थे लेकिन संध्या करने की परम्परा के साथ इसका तालमेल नहीं था। इसी प्रकार से स्नान, दंतधावन, प्रणाम आदि अनेक छोटी-छोटी बातों से संबंधित सदाचार विधियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
पैतालीसवाँ अध्याय - इस अध्याय में पूजा पिंड की संरचना तथा सूर्य के विविध रूपों, विशेषकर द्वादश आदित्यों की पूजा विधि का समान्य वर्णन है।
इक्यावनवाँ अध्याय - इस अध्याय में सूर्य की पूजा का विशद विवेचन है। पूर्व में जितने अध्याय हैं उन सभी अध्यायों से यह बड़ा है। पूजा विधि के क्रम में जितनी भी सूचनाएँ अनिवार्य हैं मोटे तौर पर उन सबों को सजाकर एक लंबी चौड़ी अनुष्ठान विधि वर्णित की गयी है।
बावनवाँ अध्याय - पूजा के उपरान्त हवन से यज्ञ की पूर्णता होती है। हवन करने के पहले विधिवत अग्निकुंड स्थापित करने की परंपरा है। अग्नि कुंड के चारो तरफ विभिन्न देवी-देवताओं को स्थापित किया जाता है। इस विन्यास एवं व्यवस्था को आगम परंपरा में मंडल कहा जाता है। इस अध्याय में सूर्य के निमित अग्नि स्थापन तथा तत्संबंधी मंडल निर्माण की चर्चा की गयी है।
तिरपनवाँ अध्याय - इस अध्याय में पुनः पूजा विधि का वर्णन किया गया है। कई बातों की केवल पुनरावृत्ति की गयी है। कुछ सूचनाएँ नयी हैं। इस अध्याय का नाम पूजा विधि अध्याय है।
चौवनवाँ अध्याय - इस अध्याय में हवन के क्रम में अष्ट पुस्तिका का उल्लेख हुआ था। अष्ट पुस्तिका के बारे में इस अध्याय में जिज्ञासा की गयी है और इसी जिज्ञाशा का समाधान इस अध्याय का वर्ण्य विषय है।
पचपनवाँ अध्याय - सूर्य के अनेक रूप हैं। सृष्टि का मूल होने के कारण न केवल द्वादशादित्य अपितु देवी-देवताओं के रूप में सूर्य की पूजा होती है। इसके साथ ही साथ सूर्य के परिवार या अनुचर के रूप में भी कई देवी देवताओं की पूजा सूर्य के साथ साथ होती है। किसी भी प्राकृतिक शक्ति के मानवीकृत रूपों के साथ अंतरिक्ष, काल एवं सम्वतसर के रूप में काल के विन्यास की दृष्टि से भी सूर्य एवं उनके रथ का वर्णन पहले किया जा चुका है। इस अध्याय में उसी सम्वतसराख्य मंडल के लेखन, उसमें देवताओं का ध्यान का निर्धारण, वर्ण, रेखा आदि के अर्थ, देवताओं के बीज मंत्रों का सूर्य मंडल से संबंध, बीज मंत्रों से सूर्य की उर्जा एवं सृष्टि का संबंध आदि विषयों की चर्चा इस अध्याय में है। अनेक संप्रदायों में बीज मंत्रों को वर्गीकृत करने की अनेक पद्धतियाँ हैं। यहाँ पच्चीस वर्णों की परंपरा बतायी गयी है और उनका अपनी तरह से वगीकरण भी किया गया है।
छप्पनवाँ अध्याय - इस अध्याय में वर्ण, तत्त्व, बीजतत्त्व योनि तत्त्व, हृदय, पंजिका, कारणिका आदि तंत्र के गूढ़ विषयों का उल्लेख इस अध्याय में हुआ है। जो लोग सौर तंत्र में रुचि रखते हैं, उनके लिए यह अध्याय अवश्यमेव पठनीय है।
संत्तावनवाँ अध्याय - इस अध्याय में बीज मंत्र, उनके उच्चारण स्थान एवं बीज मंत्रों के प्रभावकारी रहस्यों का वर्णन किया गया है।
अट्ठावनवाँ अध्याय - इस अध्याय में बीज मंत्र उनके प्रसव स्थान अर्थात् उनके उच्चारण स्थान और बिन्दु विसर्ग आदि से उनके संबंध का वर्णन किया गया है और बताया गया है कि अक्षरों की योनियाँ चालीस हेाती हैं।
उनसठवाँ अध्याय - इस अध्याय में पुनः पच्चीस प्रकार के जिन वर्णों का पहले वर्णन हुआ है उनके सात प्रकार के विभाग का उल्लेख मिलता है। प्रणव आदि बीज तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार की चर्चा से यह अध्याय पूर्ण है।
साठवाँ अध्याय - इस अध्याय में बताया गया है कि बीज मंत्रों में आत्मारूपी परम शक्ति निवास करती है। बीजमंत्रों में कई ध्वनियों का समावेश है। उदाहरण देकर भी बीजमंत्रों के संकलन एवं उनके मंत्रों को साठवे अध्याय में बतलाया गया है। इसी क्रम में आगे उल्लेख मिलता है कि कैसे शरीर के भीतर नाभी के गर्भ में बीज मंत्रों की योनि है। इतना ही नहीं संसार में काल मापन के जो प्रचलित पैमाने हैं। जैसे - कला, मुहुर्त, दंड, निमिष इन सबों का बीजमंत्रों से क्या संबंध है? इस विषय को गोमसूत्र कहा गया है।
एकसठवाँ अध्याय -विभिन्न बीज मंत्रों के संपुटीकरण का अपना महत्त्व होता है। उच्चारण के अंतर से भी अंतर आता है और उसका अपना महत्त्व है। बीज मंत्रों के प्रयोग के समय दिशाओं एवं महाभूतों का ध्यान रखना जरूरी हेाता है। इन सभी विषयों के संक्षेप में समझाते हुए इनके व्यापक संदर्भों की विस्तृत चर्चा इस अध्याय में होती है। इस अध्याय के पढ़ने के बाद यह जानना सुगम हो जायेगा कि पूर्व में विभिन्न देवताओं के लिए जिन बीजमंत्रों का उल्लेेख हुआ है उनकी संरचना का रहस्य क्या है। इतना ही नहीं यहाँ यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि शरीर  के विभिन्न स्थानों से बीजमंत्रों के क्या संबंध है औेर संकल्प पूर्वक शरीर में उनका साधन कैसे किया जाना चाहिए? वारुणीवृत में ही ध्यान प्राणायाम के अन्य माध्यम से शरीर के एकादश प्रकार के रोगों का नाश, चाहे वे रोग दिव्य हो, भौम हों या शरीरज हों बताया गया है।
बासठवाँ अध्याय - केवल बीजमंत्रों के जप के बल पर ही साधना पूरी नहीं होती उसके लिए ध्यान के साथ प्राणायाम के संयोजन की भी आवश्यकता होती है। यही इस अध्याय का निरूपणीय विषय है। शिवा एवं परमानाम की यानियाँ हृदय एवं नाभि स्थान, इनसे जुड़ा प्राणायाम, वायुअसिन तत्त्व तथा प्राणायम से योग सिद्ध रोगनाश का उपाय वर्णित है।
तिरसठवाँ अध्याय -ध्यान एवं साधना के क्रम में अनेक व्याधियां आती हैं। साधना में जब त्रुटि हेा जाती है तो पहला विध्न रोग है। भयानक जटिल रोगों के नाश हेतु तीन प्रकार की पोटलियों का निर्माण, तत्संबंधी तांत्रिक क्रियाएँ, होम विधियाँ आदि इस अध्याय में वर्णित हैं। यह विधि वामाचार या अधोरपंथ के समान है। इसमें रूधिर विष एवं तेल के हवन का उल्लेख हुआ है। यहाँ यह भी उल्लेख हुआ कि विपत्ति काल में शत्रुधात अनुचित नहीं है।
चौसठवाँ अध्याय - इस अध्याय में अभिचार कर्म का प्रारंभ होता है। मारण मोहन, उच्चाटन आदि विषयों का प्रारंभ इस अध्याय से शुरू होता है। सबसे पहले मारण अभिचार की चर्चा की गयी है। दस प्रकार के मारण अभिचार होते हैं। शत्रु का देश से परित्याग, व्याधि, धन नाश, पागलपन, दृष्टिहीनता अंगधात, वघ, बंधन, राजा का क्रोध, अचानक धन का नाश होना या जंगल में चले जाना इन सभी दस प्रकार के अभिचार विधियेाँ वाले क्रुर मारण पयोगी की विधि का सामग्री सहित वर्णन किया गया है। इस क्रम में उल्लिखित हुआ है कि स्त्री लोलुप केा सिद्धि नहीं प्राप्त होती है।
पैंसठवाँ अध्याय - जिस प्रकार मारण कर्म होते हैं उसी प्रकार उनका निवारण भी किया जा सकता है। अच्छे ढंग से इस अध्याय में मारण चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में भी रोग चिकित्सा के साथ अन्य उपद्रवों की शांति के लिए राजा तथा अन्य लोगों के हित के लिए विधियाँ बतायी गयी हैं।
छियासठवाँ अध्याय - इस अध्याय में पैसठवें अध्याय की अनुष्ठान विधि को पूरा किया गया है।
सड़सठवाँ अध्याय - इस अध्याय में वेद साधना की भूमिका निरूपित हुई है। यह वेद साधना तंत्र साधना की प्रवृत्ति वाली है लेकिन ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के साथ नारी शक्ति की साधना करने की बात बतायी गयी है। इसमें कुछ तत्त्व संवत्सर साधना के हैं और कुछ अन्य परंपरा के भी हैं। विचार शुभ न होने पर स्त्री शक्ति कृत्या का रूप धारण कर लेती है। यह शक्ति चतुरभुजा और त्रिभुजा होती है। इस साधना से अनेक विद्याएँ ंिसद्ध हेा जाती हैं। इसमें मांस, गुगुल आदि के होम की चर्चा की गयी है।
अड़सठवाँ अध्याय - इस अध्याय में पूर्व वर्णित वेद साधना की विधियों का विस्तार किया गया है। तंत्र परंपरा में स्वीकृत अन्य देवों के साथ सूर्य के रश्मियों के संबंध एवं मंत्रों का योग होने से एक समन्यवादी परंपरा दिखायी देती है। इसी विस्तार के क्रम में विविध मंत्र, उनका उद्देश्यानुसार न्यास एवं जप, विद्याधर पद की प्राप्ति एवं महेश्वर शिव के प्रति भक्ति, असावधानियाँ, उनके दुष्परिणाम आदि विषयों का वर्णन है। न केवल सौर दृष्टि बल्कि पांचरात्र परंपरा का भी समावेश कर दिया गया है। इस अध्याय में वर्णित अनुष्ठान विशेषकर राजाओं के लिए हैं लेकिन साधना करने पर सभी लाभान्वित हो सकते हैं।
उनहत्तरवाँ अध्याय - इस अध्याय में योगेश्वर शिव क ेबिना तंत्र परंपरा का अस्तित्त्व भी नहीं हो सकता है। इस अध्याय में महेश्वर एवं अम्बिका के स्वरूप तंत्र सम्वत् उनकी भक्ति उच्च भूमि की प्राप्ति के लिए साधना शिवलोक में प्रवेश का पथ उसके लिए साधक की पात्रता ओर सभी साधनो ंकी सरल विधि वर्णित हुई है। ध्यान देने योग्य है कि सूर्य त्रिदेवात्मक हैं। इसलिए उनका किसी से कोई विरोध नहीं है।
सत्तरवाँ अध्याय एवं इकहत्तरवाँ अध्याय - इन दोनों अध्याय में सांब पुराण अपनी दृष्टि से बीज मंत्रों का वर्गीकरण करता है। विभिन्न वर्गों में वर्णों की संख्या एवं उनके आंतरिक संबंधों पर प्रकाश डालता है। बीज मंत्रों को सजाने की अपनी शैली है, जिससे विभिन्न मंत्र बनते हैं। इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोग इस अध्याय से लाभान्वित होंगे।
बहत्तरवाँ अध्याय - इस अध्याय में एक विशिष्ट चक्षु का वर्णन करते हुए उसके भीतरी एवं बाहरी स्थानों, मंत्र उनका विन्यास तथा काल के साथ उसके संबंध को स्पष्ट किया गया है।
तिहत्तरवाँ अध्याय - परमेष्ठी शब्द के प्रति भारतीय समाज में बहुत आदर है। यह शब्द वैदिक एवं जैनी दोनों परंपराओं में प्रचलित है। वेदिक परंपरा में यह एक वचनात्मक है ओर जैन परंपरा में बहु वचनात्मक है। परमेष्ठी अर्थात् परमेश्वर। इस अध्याय में परमेष्ठी के यंत्र एवं बीज मंत्रों की चर्चा की गयी है।
चौहत्तरवाँ अध्याय - बीज मंत्र भी इस सृष्टि एवं मुख्य रूप से शरीर के किसी स्थान से उत्पन्न होते हैं। इसे बीजयोनि समझना चाहिए। इस अध्याय में अठ्ठारह प्रकार की योनि एवं उनसे निकलने वाले बीज मंत्रों के विन्यास का वर्णन है।
पचहत्तरवाँ अध्याय - साधना के लिए साधक की आवश्यकता होती है। उचित पात्र को ही दीक्षा दी जाती है। इस अध्याय में दीक्षा के योगय पात्र, उसकी दीक्षा, तांत्रिक कर्मों के लिए श्मशान में दीक्षा का भी विधान, विविध शक्तियों का आह्वान ये मूल निरूपणीय विषय हैं।
छिहत्तरवाँ अध्याय - इस अध्याय में साधकों का विकास क्रमिक रूप से होता है। प्रारंभिक आचार को समयाचार कहा जाता है और ऐसे आचार वाले साधक को समयी साधक कहते हैं और उसके नियम समय कहे जाते हैं। इस अध्याय में विविध प्रकार के दीक्षित साधक समयी, समयी के आचार के साथ शिष्य के अन्य पूर्व अशुभ संस्कारों के नाश हेतु प्रायश्चित एवं अनुष्ठान का वर्णन है। इसी क्रम में जातकर्म से लेकर विवाह संस्कार तक के अनुष्ठानों में मूल तांत्रिक दृष्टि क्या होनी चाहिए इसकी संक्षिप्त चर्चा है।
सतहत्तरवाँ अध्याय - इस अध्याय में जैसी चर्चा पहले हो चुकी है उससे स्पष्ट है कि सूर्योपासना के अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीनों देवों की उपासना की विधियाँ समन्वित हैं। इसी दृष्टि से इस अध्याय में उन संस्कारों एवं अनुष्ठानों का वर्णन किया गया है जो साधक को शिवत्व में स्थापित करते हैं। इसी क्रम में आठ प्रकार के बीज एवं उनकी योनियों की चर्चा हुई है।
अट्ठतरवाँ अध्याय - इस अध्याय में भारतीय धार्मिक परंपरा चार वर्णों एवं चार आश्रमों के सिद्धांत को स्वीकार करती है। अब तक तीन आश्रमों से संबंधित उपासना विधियों की चर्चा हुई। इस अध्याय में संन्यास लेने की विधि का वर्णन करते हुए तांत्रिक दृष्टि से सन्यास के क्रम मंे आंतरिक एवं बाह्य दोनों अनुष्ठानों का उल्लेख हुआ है।
उनहत्तरवाँ अध्याय - इस अध्याय में संन्यासी के निवास योग्य देश, संन्यासी का अंतर्याग एवं न्यास तदनंतर दीक्षा शक्ति की प्राप्ति के उपाय वर्णित हैं।
अस्सीवाँ अध्याय - यदि संशय तेजी से समाप्त हो जाय तो संसार में शरीरधारी बनकर रहने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे संन्यासी के शरीर त्यागकर सद्यः मुक्त हो जाना चाहिए। इस अध्याय में सद्यः मुक्ति एवं संन्यासी के शरीर त्याग की योगतंत्र परंपरा के अनुरूप विधि बतायी गयी है, जिसके अंतर्गत बाह्य एवं आंतरिक आचारों का वर्णन है।
इक्कासीवाँ अध्याय - इस अध्याय में तंत्र परंपरा में स्वीकृत सहायक साधना के स्वरूप एवं उनकी उपयोगिता का संक्षेप में उल्लेख हुआ है जैसे- छुरी, कैंची, मांस, पक्षियों के पंख, विविध वनस्पतियाँ, औषधियाँ, मंत्र, उनके उद्देश्य, आठ ग्रास, व्योम आदि तत्त्व उनकी शक्तियाँ एंव शरीर में उनका स्थान तथा संयोजन।
बयासी से चौरासीवां अध्याय - इन अध्यायों में छुरिका कर्तनी आदि मंत्रों के उपयोग की विधि के साथ अंतर्यजन की विधि भी बताई गई है। मंत्रों के न्यास के साथ प्रणायाम एवं धारणा के अभ्यास से होने वाले शुभ परिणामों के वर्णन के साथ स्वयं सदाशिव के समान साधक बन जा सकता है। इन बातों के साथ ‘श्रीसांबसदाशिवार्पणमस्तु’ के साथ ग्रंथ पूरा होता है।
इस प्रकार सूर्य की उपासना के विस्तृत वर्णन के बावजूद सांब पुराण के अंत में सांब को भी सदाशिव रूपी मानने या ‘सांब’ अंबया सह अर्थात माता पार्वती के साथ शिव को अर्पण इस अर्थ के साथ यह ग्रंथ पूरा होता है।

       

शुक्रवार, 8 मार्च 2013


किश्त 3
अध्याय ग्याहर - ग्यारहवें अध्याय में भी मार्तण्ड की वंश परंपरा को आगे बढ़ाया गया है। और बताया गया है कि संज्ञा की छायापत्नी पृथ्वी और पुनः बडवा (घोड़ी) रूप धारणी संज्ञा के गर्भ से कैसे-कैसे किन-किन देवों एवं नक्षत्रों की सृष्टि हुई। विवश्वान मनु, कालिंदी यम, यमी रूपी युगल और आगे चलकर फिर श्रुतश्रवा मनु, शनिश्चर ग्रह आदि की सृष्टि हुई। कैसे बडवा रूप धारणी छाया के साथ अश्वरूपी मार्तण्ड का शारीरिक संपर्क हुआ एवं अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार यमुना एवं ताप्ती नाम की दो नदियाँ सूर्य के वंश परंपरा में उत्पन्न र्हुइं और किस प्रकार इक्ष्वाकु वंश अस्तित्व में आया। यहाँ तक की कथा सूर्य के अमिट तेज की कथा है, जिसे कोई सहन नहीं कर पा रहा है और सूर्य परिवार में केाई न कोई समस्या विकट रूप से बनी रह रही है। इसके बाद बारहवंे अध्याय से सूर्य के प्रचंड रूप के सरलीकरण की कथा शुरू होती है।
बारहवाँ अध्याय -संज्ञा की पीड़ा को देखकर विश्वकर्मा व्यथित हो जाते हैं और निर्णय करते हैं कि सूर्य की स्तुति करके उन्हें मनाया जाय और अपनी प्रचण्डता को कम करने में श्री सूर्य की मदद ली जाय। सूर्य का स्वरूप अग्नि का गोला पिण्ड है और इसके ताप से संपूर्ण सृष्टि परेशान हो रही है। इसी ताप से रक्षा के लिए अनेक देवता, ऋषि, गंधर्व, अप्सरा एवं देव जातियाँ सूर्य की प्रार्थना करती हैं। और विश्वकर्मा भी धीरे-धीरे सूर्य के प्रचण्ड स्वरूप को सुन्दर एवं सह्य रूप देने का प्रयास करती है। आगे भी स्तुति जारी रहती है। यहाँ से मूर्त्ति निर्माण की आधार भूमि गढ़ी जाती है।
तेरहवां अध्याय - तेरहवें अध्याय में विश्कर्मा द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की जाती है।
चौदहवाँ अध्याय - चौदहवें अध्याय में पुनः ऋषियों द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति की गयी है। इसे अध्याय की पुस्पिका में ब्रह्म भाषित स्तुति कहा गया है।
पंद्रहवा अध्याय - पंद्रहवें अध्याय में सुन्दर गेय पदों के द्वारा पुनः भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है।
सोलहवां अध्याय - अब तक सूर्य को अदिति की वंश परंपरा के साथ जोड़कर उनकी गौरव गाथा का व्याख्यान किया गया लेकिन जैसा कि हम प्रथम अध्याय की स्थापना में देख चुके हैं आदित्य ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र इन त्रिदेवों के रूप में हैं। सोलहवें अध्याय में सूर्य के रुद्रात्मक  स्वभाव का वर्णन हुआ है। पहले सूर्य के आसपास रहनेवाले देवताओं जैसे अश्विनी कुमार, कार्तिकेय, गरूड़, चित्रगुप्त आदि का वर्णन हुआ है उसके बाद विशेषकर चित्रगुप्त के माठर और जांटकार नामों का उल्लेख हुआ है। माठर शब्द की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। और तदनंतर इस बात का वर्णन हुआ है कि कुबेर, मनु आदि देवता सूर्य के सहचर हैं। सूर्य का एक नाम डिंडी भी है। डिंडी शब्द का अर्थ हेाता है नग्न। इसी क्रम में डिंडी की रहस्मय कथा का वर्णन हुआ है कि किस प्रकार मुनियों की स्त्री का मन कैसे विचलित हेा गया। उन्हें शापग्रस्त होना पड़ा और पुनः सूर्य के द्वारा उनके शाप का उद्धार हुआ।
सत्रहवां अध्याय - सत्रहवें अध्याय में भी दिवाकर की स्तुति की गयी है। पूरा अध्याय ही स्तोत्रात्मक है। एक दंडी के द्वारा यह स्तवन किया गया है। जैसा कि हम जानते हैं दंडी संप्रदाय, शैव संप्रदाय के अंतर्गत आता है। शायद इसीलिए सत्रहवें अध्याय के स्तोत्रांे को माहेश्वर स्तोत्र कहा गया है।
अठारहवाँ अध्याय - अठारहवें अध्याय का नाम देवताख्यापन अध्याय है। इस अध्याय में यह प्रदर्शित किया गया हे कि सूर्य के आस-पास बनी इस सृष्टि में किस प्रकार सौर मंडल की गतिविधियाँ चलती हैं और द्वादशाहित्य एकादश रुद्र, राहु आदि देव उनके विरोधी नक्षत्र तथा अन्य असुर योनियाँ किस प्रकार स्थित हैं। सात लोक भी सूर्य मंडल के अंतर्गत ही हैं। सूर्य ही काल का आधार है। इसलिए विभिन्न मन्वतरों में सूर्य के अंतर से ही मनु आते हैं और अपना शासन स्थापित करते हैं।
उन्नीसवां अध्याय - उन्नीसवें अध्याय का नाम व्युमोत्पत्ति अध्याय है। इस अध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य रूप से वर्णन किया गया है और इस प्रकार विभिन्न देवताओं एवं सात लोक मेरू आदि पर्वत के उल्लेख के साथ व्योम मंडल का वर्णन हुआ है।
बीसवाँ अध्याय - बीसवें अध्याय में भगवान सूर्य नारायण की गति एवं उसका दिक तथा काल से संबंध का निरूपण संक्षेप में करने के बाद उनके विभिन्न रूपों का विभिन्न त्थानों से क्या संबंध हैं। इसका संकेत किया गया है। इसी क्रम में पुष्कर आदि तीर्थों कीभी चचा्र हुई है।
इक्कीसवाँ अध्याय - इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के रथ का सुंदर एवं सांगोपांग वर्णन मिलता है। सूर्य के तेजस एवं रश्मिमय वैभव का एक रथ के रूप में जो कल्पना की गयी है वह अत्यंत मनोरम है ओैर साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आदित्य रथ के साधारणीकृत रूप का भौतिक अर्थ क्या है। इस अध्याय का नाम आदित्य रथ वर्णन अध्याय है।
बाइसवाँ अध्याय - बाइसवें अध्याय में चंद्रमा की कला एवं सृष्टि ब्रह्मांड के अन्य ग्रह, नक्षत्रों के साथ उसका वर्णन किया गया है। यह अध्याय अत्यंत ही रोचक है। जिस प्रकार इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के सूक्ष्म भौतिक विस्तार एवं मानवीकृत/साधारणीकृत देवयोनि आदि की चर्चा की गयी है। उसी प्रकार इस अध्याय में चंद्रमा काल के संचालक उपग्रह के रूप में किस प्रकार व्यवहार करते हैं, देवता, ऋषि आदि के रूप में भौतिक शक्तियों को मानवीय रूप दिया गया है। चंद्रमा की शक्ति से जीवन में केसे अनुप्राणित होता है किन-किन तिथियों पर देवगण सोम कला का पान करते हैं। इन सब विषयों का रोचक वर्णन किया गया है।
तेइसवाँ अध्याय - तेइसवें अध्याय में सांब की पीड़ा कथा का भाग बनती है। नारद मुनि के द्वारा सूर्य, चन्द्रलोक के वर्णन के बाद सांब आश्चर्य चकित और चमत्कृत हेाते हैं लेकिन उन्हें यह प्रश्न आंदोलित करता है कि आखिर सूर्य और चन्द्र भी पीड़ित होते ही हैं। नारद जी बताते हैं हिक राहु वस्तुतः सूर्य एवं चंद्र को ग्रहण नहीं कर सकता। ये तो अज्ञानी मनुष्यों की मांस चक्षु का भ्रम है। ग्रहण की अवस्था वास्तविक नहीं है यह तो सम्मोहन द्वारा लोगों को भ्रम में डालने का राहु का प्रयास है। इस अध्याय में सूर्य, चंद्र, ग्रहण की अत्यंत युक्तिसंगत चर्चा की गयी है।
चौबीसवाँ अध्याय - चौबीसवें अध्याय में सांब के द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है। एक दिव्य स्रोत के द्वारा सांब सूर्य की आराधना करते हैं। सूर्य प्रसन्न होकर वरदान देते हैं कि जिस नगरी में रहकर तुमने मेरी प्रार्थना की है उस का नाम सांब नगरी होगी और मैं तुम्हें हमेशा स्वप्न में दर्शन देता रहूँगा। उस स्तुति और प्रशंसा के साथ सांब का कुष्ठ रोग ठीक हेा जाता है।
पच्चीसवाँ अध्याय - पच्चीसवें अध्याय में पुनः एक सूर्य के स्तोत्र का अवतरण हुआ है। यह स्तोत्र स्वयं भास्कर के मुख से सांब को सुनाया गया है।
छब्बीसवाँ अध्याय - छब्बीसवें अध्याय में रोग से मुक्त सांब चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं। स्नान करने के बाद उन्हें सूर्य की एक अदभुत प्रतिमा पानी में चैरते हुए नजर आती है। वे उसे श्रद्धापूर्यक अपने आश्रम में लाते हैं। सांब और सूर्य प्रतिमा के बीच में वार्तालाप होता है। सांब पूछते हैं कि ऐसी अद्भुत प्रतिमा का निर्माण किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप कल्पवृक्ष के द्वारा शाकद्वीप में निर्मित हुआ है। मेरी पूजा परिचर्या की विधियों का जानकार जम्बूद्वीप में केाई नहीं है। इसके जानकार शाकद्वीप में ही हैं। इसी क्रम में शाकद्वीप, उसमें रहने वाले चार वर्ण, उनकी श्रद्धा, ब्राह्मणों के महत्व की संक्षिप्त चर्चा होती है। सांब को गरुड़ के माध्यम से भगवान भास्कर की प्रतिमा की पूजा के लिए मगों को बुलाने का निर्देश प्राप्त हेाता है।

गुरुवार, 7 मार्च 2013

सांब पुराण किश्त 2

किश्त 2
    द्वितीय अध्याय - सांब पुराण के द्वितीय अध्याय में मूलतः आदित्य के माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इसी क्रम में कुछ सूचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। किसी भी देवता की विशिष्टता एवं सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने के लिए अन्य देवताओं, ऋषियों एवं साधनापद्धतियों के साथ प्रांसंगिकता सिद्ध करनी पड़ती है। इसी क्रम में सूर्य की विशिष्टता के बारे में बताया गया है कि आदित्य से ही इस जगत की सृष्टि हुई है और यह संसार अंततः सूर्य में ही विलीन हो जाता है। इसीलिए सूर्य सविता है। सूर्य पथ एवं चंद्र पथ की चर्चा योग शास्त्र में प्रसिद्ध है। सूर्य पथ से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं। उनका पुर्नजन्म नहीं होता। जनकादि अनेक राजर्षियों को सूर्य मंडल में प्रवेश के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हुई है। द्वितीय अध्याय में इसी प्रकार की बातों का वर्णन किया गया है और सांब पुराण की कथा को सूर्यवंश के आदि गुरु वशिष्ठ के साथ जोड़ा गया है। वशिष्ठ वृहद्वल संवाद के रूप में भी सांब पुराण का प्रकाश हुआ है। यह जानकारी द्वितीय अध्याय से मिलती है।
तृतीय अध्याय - तीसरे अध्याय में कथा का प्रारंभ श्री सांब द्वारा स्थापित उस नगरी से होता है जिसका नाम ही सांब रखा गया है। यह नगरी चंद्रभागा नदी के किनारे बसी हुई थी। सांब की कुष्ठ रोगग्रस्त होने की कथा और भगवान भाष्कर की पूजा से उनके स्वस्थ होने का वृतांत अत्यंत प्रचलित है। सांब की सुंदरता पर कृष्ण की अनेक पत्नियों के मुग्ध होने के बाद भगवान कृष्ण के द्वारा उन्हें शाप दिया जाना और शाप के कारण कुष्ठ रोग का प्रकोप होना यह तीसरे अध्याय की कथावस्तु है।
चौथा अध्याय - सांब के शापग्रस्त होने के बाद यह मामला प्रकाश में आता है कि यदि श्री सांब स्वयं भगवान भास्कर की प्रतिमा स्थापित करें और उसकी विधिवत पूजा अर्चना करें तो उनका रोग दूर हो सकता है। इसी क्रम में आदित्य के बारह रूपों को बताया गया है।
पाँचवा अध्याय - भारतीय संस्कृति में यह जब कभी भी किसी देवता विशेष की पूजा का वर्चस्व काल आया है तब उस पूजा को अखिल भारतीय रूप में दिया गया है। इसी शैली में विष्णु, शिव एवं शक्ति तीनों की अनेक तीर्थ धाम, पीठ ज्योतिर्लिंग आदि स्थापित हुए हैं। इसी शैली में द्वादश आदित्यों का स्थान भी भारत भूमि पर स्थापित हुआ है। पाँचवे अध्याय की कथावस्तु यही हैं।
छठवाँ अध्याय - छठे अध्याय में सांब श्रीकृष्ण की स्तुति करके अपने रोग के निवारण का उपाय पूछते हैं और श्रीकृष्ण निर्देश देते हैं कि तुम नारद जी की प्रार्थना करो और नारद जी ही तुम्हारी शाप मुक्ति का उपाय बतायेंगे। इसी क्रम में भगवान भास्कर के माहात्म्य का संक्षिप्त उल्लेख नारद जी करते हैं और सूर्य लोक का एक संक्षिप्त वर्णन करते हैं।
सातवाँ अध्याय - सातवें अध्याय में पूर्व की भाँति सूर्य के माहात्म्य एवं वैभव तथा भारतीय संस्कृति में उनके विन्यास की चर्चा नारद जी करते हैं।
आठवाँ अध्याय - सातवें अध्याय में सूर्य के सर्वव्यापित्व की चर्चा करके पुनः उसका विस्तार नारद जी करते हैं। आठवें अध्याय में भी धातु एवं सौर किरणों की कार्य प्रणाली के अनुसार सूर्य के व्यापकत्व का वर्णन किया गया है। बारहों मासों में बारह मासों के साथ बारह आदित्यों का संबंध और उसके शाब्दिक लक्षण आठवें अध्याय में बताये गये हैं।
नवाँ अध्याय - सांब पुराण सूर्य के सभी रूपों का चतुर्दिक संगति के लिए जी जान से तत्पर है। बारह आदित्यों के नाम के साथ उन नामों का व्याकरण संगत व्युत्पत्ति भी नवें अध्याय में बतायी गयी है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि नवें अध्याय में द्वादश आदित्यों के नामों के साथ सूर्य के आचार विचार, क्रिया कलापों के साथ उन नामों की निष्पत्ति सिद्ध की गयी है। कहने का अभिप्राय कि किस प्रकार सूर्य का कौन सा नाम सार्थक है। केवल नाम ही नहीं बल्कि नामों के अनुरूप भगवान भास्कर का स्वभाव एवं व्यवहार भी है।
दशम अध्याय - जिस प्रकार अन्य देवताओं का संबंध उनकी उत्पत्ति, वंश परंपरा, धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है। उसी प्रकार सांब पुराण के दसवें अध्याय में आदित्य को अदिति का संतान माना है। और अदिति के अन्य पारिवारिक विन्यासों ने सूर्य एवं उनके बाद के देवी-देवताओं के संबध भी बताये गये हैं। इसी क्रम में प्रह्लाद, बृहस्पति, विरोचन का उल्लेख हुआ है। सूर्य का संज्ञा से संबंध लेकिन पति के रूप में संज्ञा के द्वारा सूर्य के तेज से घबरा कर पितृ कुल में वापस जाना, छाया रूपी पृथ्वी का निर्माण आदि बातों का उल्लेख हुआ है। पुनः सुर-असुर परंपरा में सूर्य के पारिवारिक संबंध की भी चर्चा हुई है। सूर्य एवं सूर्य की पत्नी संज्ञा भी सुख-दुःख से मुक्त नहीं है। विशेषकर संज्ञा की पीड़ा का वर्णन मार्मिक रूप से किया गया है। मानवीकरण होगा तो सुख-दुःख से मुक्ति की जगह प्रेम भावना आदि की बात आयेगी। खराद की पीड़ा से पीड़ित सूर्य के शरीर पर रक्त चंदन के लेप की सार्थकता का आप जो अर्थ निकालें।