शुक्रवार, 8 मार्च 2013


किश्त 3
अध्याय ग्याहर - ग्यारहवें अध्याय में भी मार्तण्ड की वंश परंपरा को आगे बढ़ाया गया है। और बताया गया है कि संज्ञा की छायापत्नी पृथ्वी और पुनः बडवा (घोड़ी) रूप धारणी संज्ञा के गर्भ से कैसे-कैसे किन-किन देवों एवं नक्षत्रों की सृष्टि हुई। विवश्वान मनु, कालिंदी यम, यमी रूपी युगल और आगे चलकर फिर श्रुतश्रवा मनु, शनिश्चर ग्रह आदि की सृष्टि हुई। कैसे बडवा रूप धारणी छाया के साथ अश्वरूपी मार्तण्ड का शारीरिक संपर्क हुआ एवं अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार यमुना एवं ताप्ती नाम की दो नदियाँ सूर्य के वंश परंपरा में उत्पन्न र्हुइं और किस प्रकार इक्ष्वाकु वंश अस्तित्व में आया। यहाँ तक की कथा सूर्य के अमिट तेज की कथा है, जिसे कोई सहन नहीं कर पा रहा है और सूर्य परिवार में केाई न कोई समस्या विकट रूप से बनी रह रही है। इसके बाद बारहवंे अध्याय से सूर्य के प्रचंड रूप के सरलीकरण की कथा शुरू होती है।
बारहवाँ अध्याय -संज्ञा की पीड़ा को देखकर विश्वकर्मा व्यथित हो जाते हैं और निर्णय करते हैं कि सूर्य की स्तुति करके उन्हें मनाया जाय और अपनी प्रचण्डता को कम करने में श्री सूर्य की मदद ली जाय। सूर्य का स्वरूप अग्नि का गोला पिण्ड है और इसके ताप से संपूर्ण सृष्टि परेशान हो रही है। इसी ताप से रक्षा के लिए अनेक देवता, ऋषि, गंधर्व, अप्सरा एवं देव जातियाँ सूर्य की प्रार्थना करती हैं। और विश्वकर्मा भी धीरे-धीरे सूर्य के प्रचण्ड स्वरूप को सुन्दर एवं सह्य रूप देने का प्रयास करती है। आगे भी स्तुति जारी रहती है। यहाँ से मूर्त्ति निर्माण की आधार भूमि गढ़ी जाती है।
तेरहवां अध्याय - तेरहवें अध्याय में विश्कर्मा द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की जाती है।
चौदहवाँ अध्याय - चौदहवें अध्याय में पुनः ऋषियों द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति की गयी है। इसे अध्याय की पुस्पिका में ब्रह्म भाषित स्तुति कहा गया है।
पंद्रहवा अध्याय - पंद्रहवें अध्याय में सुन्दर गेय पदों के द्वारा पुनः भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है।
सोलहवां अध्याय - अब तक सूर्य को अदिति की वंश परंपरा के साथ जोड़कर उनकी गौरव गाथा का व्याख्यान किया गया लेकिन जैसा कि हम प्रथम अध्याय की स्थापना में देख चुके हैं आदित्य ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र इन त्रिदेवों के रूप में हैं। सोलहवें अध्याय में सूर्य के रुद्रात्मक  स्वभाव का वर्णन हुआ है। पहले सूर्य के आसपास रहनेवाले देवताओं जैसे अश्विनी कुमार, कार्तिकेय, गरूड़, चित्रगुप्त आदि का वर्णन हुआ है उसके बाद विशेषकर चित्रगुप्त के माठर और जांटकार नामों का उल्लेख हुआ है। माठर शब्द की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। और तदनंतर इस बात का वर्णन हुआ है कि कुबेर, मनु आदि देवता सूर्य के सहचर हैं। सूर्य का एक नाम डिंडी भी है। डिंडी शब्द का अर्थ हेाता है नग्न। इसी क्रम में डिंडी की रहस्मय कथा का वर्णन हुआ है कि किस प्रकार मुनियों की स्त्री का मन कैसे विचलित हेा गया। उन्हें शापग्रस्त होना पड़ा और पुनः सूर्य के द्वारा उनके शाप का उद्धार हुआ।
सत्रहवां अध्याय - सत्रहवें अध्याय में भी दिवाकर की स्तुति की गयी है। पूरा अध्याय ही स्तोत्रात्मक है। एक दंडी के द्वारा यह स्तवन किया गया है। जैसा कि हम जानते हैं दंडी संप्रदाय, शैव संप्रदाय के अंतर्गत आता है। शायद इसीलिए सत्रहवें अध्याय के स्तोत्रांे को माहेश्वर स्तोत्र कहा गया है।
अठारहवाँ अध्याय - अठारहवें अध्याय का नाम देवताख्यापन अध्याय है। इस अध्याय में यह प्रदर्शित किया गया हे कि सूर्य के आस-पास बनी इस सृष्टि में किस प्रकार सौर मंडल की गतिविधियाँ चलती हैं और द्वादशाहित्य एकादश रुद्र, राहु आदि देव उनके विरोधी नक्षत्र तथा अन्य असुर योनियाँ किस प्रकार स्थित हैं। सात लोक भी सूर्य मंडल के अंतर्गत ही हैं। सूर्य ही काल का आधार है। इसलिए विभिन्न मन्वतरों में सूर्य के अंतर से ही मनु आते हैं और अपना शासन स्थापित करते हैं।
उन्नीसवां अध्याय - उन्नीसवें अध्याय का नाम व्युमोत्पत्ति अध्याय है। इस अध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य रूप से वर्णन किया गया है और इस प्रकार विभिन्न देवताओं एवं सात लोक मेरू आदि पर्वत के उल्लेख के साथ व्योम मंडल का वर्णन हुआ है।
बीसवाँ अध्याय - बीसवें अध्याय में भगवान सूर्य नारायण की गति एवं उसका दिक तथा काल से संबंध का निरूपण संक्षेप में करने के बाद उनके विभिन्न रूपों का विभिन्न त्थानों से क्या संबंध हैं। इसका संकेत किया गया है। इसी क्रम में पुष्कर आदि तीर्थों कीभी चचा्र हुई है।
इक्कीसवाँ अध्याय - इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के रथ का सुंदर एवं सांगोपांग वर्णन मिलता है। सूर्य के तेजस एवं रश्मिमय वैभव का एक रथ के रूप में जो कल्पना की गयी है वह अत्यंत मनोरम है ओैर साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि आदित्य रथ के साधारणीकृत रूप का भौतिक अर्थ क्या है। इस अध्याय का नाम आदित्य रथ वर्णन अध्याय है।
बाइसवाँ अध्याय - बाइसवें अध्याय में चंद्रमा की कला एवं सृष्टि ब्रह्मांड के अन्य ग्रह, नक्षत्रों के साथ उसका वर्णन किया गया है। यह अध्याय अत्यंत ही रोचक है। जिस प्रकार इक्कीसवें अध्याय में भगवान भास्कर के सूक्ष्म भौतिक विस्तार एवं मानवीकृत/साधारणीकृत देवयोनि आदि की चर्चा की गयी है। उसी प्रकार इस अध्याय में चंद्रमा काल के संचालक उपग्रह के रूप में किस प्रकार व्यवहार करते हैं, देवता, ऋषि आदि के रूप में भौतिक शक्तियों को मानवीय रूप दिया गया है। चंद्रमा की शक्ति से जीवन में केसे अनुप्राणित होता है किन-किन तिथियों पर देवगण सोम कला का पान करते हैं। इन सब विषयों का रोचक वर्णन किया गया है।
तेइसवाँ अध्याय - तेइसवें अध्याय में सांब की पीड़ा कथा का भाग बनती है। नारद मुनि के द्वारा सूर्य, चन्द्रलोक के वर्णन के बाद सांब आश्चर्य चकित और चमत्कृत हेाते हैं लेकिन उन्हें यह प्रश्न आंदोलित करता है कि आखिर सूर्य और चन्द्र भी पीड़ित होते ही हैं। नारद जी बताते हैं हिक राहु वस्तुतः सूर्य एवं चंद्र को ग्रहण नहीं कर सकता। ये तो अज्ञानी मनुष्यों की मांस चक्षु का भ्रम है। ग्रहण की अवस्था वास्तविक नहीं है यह तो सम्मोहन द्वारा लोगों को भ्रम में डालने का राहु का प्रयास है। इस अध्याय में सूर्य, चंद्र, ग्रहण की अत्यंत युक्तिसंगत चर्चा की गयी है।
चौबीसवाँ अध्याय - चौबीसवें अध्याय में सांब के द्वारा भगवान भास्कर की स्तुति की गयी है। एक दिव्य स्रोत के द्वारा सांब सूर्य की आराधना करते हैं। सूर्य प्रसन्न होकर वरदान देते हैं कि जिस नगरी में रहकर तुमने मेरी प्रार्थना की है उस का नाम सांब नगरी होगी और मैं तुम्हें हमेशा स्वप्न में दर्शन देता रहूँगा। उस स्तुति और प्रशंसा के साथ सांब का कुष्ठ रोग ठीक हेा जाता है।
पच्चीसवाँ अध्याय - पच्चीसवें अध्याय में पुनः एक सूर्य के स्तोत्र का अवतरण हुआ है। यह स्तोत्र स्वयं भास्कर के मुख से सांब को सुनाया गया है।
छब्बीसवाँ अध्याय - छब्बीसवें अध्याय में रोग से मुक्त सांब चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं। स्नान करने के बाद उन्हें सूर्य की एक अदभुत प्रतिमा पानी में चैरते हुए नजर आती है। वे उसे श्रद्धापूर्यक अपने आश्रम में लाते हैं। सांब और सूर्य प्रतिमा के बीच में वार्तालाप होता है। सांब पूछते हैं कि ऐसी अद्भुत प्रतिमा का निर्माण किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप किसने किया है? प्रतिमा से ही सांब को जानकारी मिलती है कि मेरा यह रूप कल्पवृक्ष के द्वारा शाकद्वीप में निर्मित हुआ है। मेरी पूजा परिचर्या की विधियों का जानकार जम्बूद्वीप में केाई नहीं है। इसके जानकार शाकद्वीप में ही हैं। इसी क्रम में शाकद्वीप, उसमें रहने वाले चार वर्ण, उनकी श्रद्धा, ब्राह्मणों के महत्व की संक्षिप्त चर्चा होती है। सांब को गरुड़ के माध्यम से भगवान भास्कर की प्रतिमा की पूजा के लिए मगों को बुलाने का निर्देश प्राप्त हेाता है।

कोई टिप्पणी नहीं: