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सोमवार, 29 अप्रैल 2013

सौर तंत्र


सौर तंत्र
            महत्वपूर्ण यह है कि जजमान को ठगते-ठगते हम स्वयं धोखे का शिकार होते गए। तंत्र को ज्ञान आधारित, वस्तुनिष्ठ नहीं बता कर उसे मानना, कल्पना एवं भावना आधारित बताया जाने लगा।
            शार्टकट की हद तो यह है कि हर भौतिक या अभौतिक समस्या का समाधान किसी न किसी पंचोपचार या षोडषोपचार पूजा से चाहते हैं। दरअसल सौर तंत्र सीधा-साधा है। संज्ञा पक्ष में पंच महाभूतों के विज्ञान (सूक्ष्म तन्मात्रा स्तर पर पहचानने की विधि में दक्षता) के बल पर मौसम से लेकर भविष्य कथन तक किए जाते हैं। समस्या यह है कि सायंस की जगह विज्ञानशब्द का प्रयोग होने से भारतीय विज्ञानकी समझ ही समाप्त हो गई है। पढ़ें मेरा आलेख विज्ञान की चोरी
            सौर तंत्र जिसका पूरा विस्तृत विवरण प्रकाशित और उपलब्ध है, उसकी जगह केवल मूर्ति प्रतिष्ठा, मंदिरों की पूजा-अर्चना तक हम अपने को सीमित रखना चाहते हैं। इससे तो कुछ रुपयों की कमाई के अतिरिक्त केाई लाभ नहीं होने वाला। कमाई तो सच्चे ज्ञान से भी होती, मनोकायिक एवं कई मानसिक रोगों का उपचार तो योग एवं तंत्र से ही हो सकता है लेकिन यहाँ तो बात पीछे केवल चमत्कार का दावा करने की मानसिकता है।
            किसी विषय को जानकर उसे मानने में वास्तविक ज्ञान एवं भक्ति दोनों की जरूरत होती है। सूर्य की कार्य प्रणाली को जान समझकर ऊर्जा के मूल स्रोत के प्रति श्रद्धा रखने की विधि अलग होगी। उसके लिए सूर्योदय के पूर्व जागना होगा, सूर्य नमस्कार करना होगा। सूर्य बिंब पर बाह्य त्राटक अंतर्त्राटक, सूर्यमंडल की अंदरूनी समझ, ऋतुचक्र तथा सौर परिवार रूपी इसी सौर मंडल की चाल-ढ़ाल अर्थात् ऋतु संक्रांति आदि आधारित जीवन के अनुरूप जीवन जीना होगा।
            छाया पक्ष की दृष्टि से छाया मापन, उसके लिए मंदिर, साथ छोटी-छोटी बेधशालाएँ, सौर घड़ी आदि हर घर में न सही प्रत्येक गांव-शहर में बनाना तथा छात्रों को परंपरागत खगोल एवं गणित पढ़ाना होगा।
            यह सब कौन करना चाहता है? फटाफट बाजार से मूर्ति खरीदी। कही पर यज्ञ आदि का आयोजन कर झूठी प्राण-प्रतिष्ठा कर दी, तो इससे चढ़ावा जल्दी चढ़ने लगेगा। नौ ग्रहों का नाम मालूम हो या न हो खनदानी ज्योतिषी और तांत्रिक तुरंत हो गए। भविष्य कथन सही हुआ तो ज्योतिषी के चमत्कार से नहीं, अगर हुआ तो????? बहाने अनेक हैं।
            सौर तंत्र के साथ खिलवाड़ करते-करते शैव, शाक्त, पांचरात्र, गाणपत्य आदि को भी हमने नहीं छोड़ा। जातीय समाज के जिन मनीषियों ने विद्यार्जन, संसाधना का तप किया उन्हें प्रथमा पास (सातवीं पास) पंडितों ने खूब छकाया, अपमानित किया। वे बेचारे वास्तविक पंडित दुबके रहे। बात पीछे चमत्कार कैसे करें?
            पहले इन्हीं लोगों ने और अब तो सभी धारा के लोग चाहे उन्होंने शास्त्रीय या साधनात्मक किसी भी दिशा में श्रम कर दक्षता पाई हो या नहीं स्वयं को तो चमत्कारी सिद्ध करेंगे किंतु जैसे ही किसी वास्तविक प्रसंग की चर्चा छेडें, तो कुछेक बातों को नहीं सारी बातों को हीं गोपनीयता के दायरे में लाने लगेंगे।
            सूर्य सिद्धांत एक प्रचलित, प्रकाशित ग्रंथ है। उसे जरा उलट-पुलट कर देखिए तो सही कि छोटी-छोटी छाया मापन विधियों का वर्णन है कि नहीं?
            काशी से आदित्य पंचांग भी सरयुपारी मित्र निकालते हैं। मेरे श्रद्धेय और कुछ दिवंगत लोगों को पंचांग निकालने की हिमत नहीं ही हुई। रोजबरोज चमत्कार एवं गोपनीयता के अतिवादी बहानों से निकलने के बाद हीं परंपरा को बचाया जा सकता है।
            सूर्य का शिव एवं शिव का सूर्य में, सूर्य का आदित्य एवं विष्णु में, विष्णु का सूर्य में समावेश करने का नाटक पुराना है। एक ग्रंथ है - सौर पुराण। नाम सुनकर लगेगा कि सौर तंत्र का ग्रंथ है। कई नकली लोग इसकी खूब महिमा भी बताऐगे लेकिन आप जब पढ़ें तो पता चलेगा कि यह तो शैव परंपरा का ग्रंथ है। इसमें 2-4 पृष्ठों के बाद सूर्य को शिव में तिरोहित कर दिया गया, हो गया खेल खत्म। समाज भी कम धूर्त और कृतध्न नहीं है। उसने क्या किया? समाज ने संपूर्ण सौर तंत्र को कर्मकांड में सम्मिलित कर उसे ज्योतिष ओर मुहूर्त का विषय बना लिया। बडे़ निर्णय आज भी सौर वर्ष, सौर माह, एवं तिथि पर आधारित हेाते हैं। खेती, करवसूली, विवाह आदि सभी काम अभी भी (कर वसूली छोड़कर) सौर पंचाग से होते हैं परंतु सिक्का चला हुआ है चान्द्र मास और चान्द्रगणना का।
            संज्ञा पक्ष में आएँ तो स्वर शास्त्र (आंतरिक नाड़ी विद्या एवं फलादेश) है तो सौर परंपरा का  लेकिन अब वह शिव स्वरोदय नाम से जाना जाता है।
            आज के समय में या तो जानकार लोग एकजुट हो कर युग की चुनौतियों का सामना करें। तथ्यात्मक उत्तर दें अन्यथा अपने ही घर का लड़का जनेऊ पहनने को तैयार नहीं है। प्रश्न है- जनेऊ पहनने की सार्थकता क्या है ? ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना और ढ़ूंढना वरिष्ठ पीढ़ी का दायित्व है। केाई यह टिप्पणी कर सकता है कि आपने पूरे लेख में बताया ही नहीं कि सौर तंत्र है क्या ? मित्रों यह कोई छोटे उत्तर वाला प्रश्न नहीं है न मैं प्रश्न की महत्ता को कम करना चाहता हूँ। इसीलिए पुस्तकों का नाम बताया, मूलभूत सिंद्धांत ओर सबसे बड़ी बात कि परंपरा के रहस्य को सामने रखा कि संज्ञा और छाया का मतलब क्या है ? कुछ परिश्रम आप भी तो करें। सांब पुराण के अध्यायों के विषयों को संक्षिप्त विवरण मैंने अपने ब्लाग पर लिखा है। वहाँ आप कई बाते पढ़ सकते हैं।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

भय एवं उसके निवारण का तंत्र


भय एवं उसके निवारण का तंत्र
            मैं किसी खाश परंपरा में ब्रांडेड तंत्र की जगह उसके मूल सिद्धांतों तथा समाज में प्रगट पक्षों के पीछे के सिद्धांतों की बात करता हूँ। मेरा प्रयास विषय को सरल करने का है, उसे बेमतलब रहस्यमय बनाने का नहीं। सुलभता से असली जिज्ञासु को सुविधा होगी। अपात्र की सच्ची बातों में रुचि ही नहीं होती। वह इसका लाभ क्या उठायेगा? भय खतरे की आशंका से होता है।
            मुकाबला, पलायन और समर्पण ये 3 मुख्य व्यवहार भय के उत्पन्न होने पर होते हैं। भयानक घटनाएँ मन पर अपनी छाप स्मृतियों के रूप में छोड़ती हैं। वे स्मृतियाँ प्रायः अरुचिकर होती हैं इसलिए भीतर ही भीतर जीव जगत को प्रेरित तो करती हैं पर जरूरी नहीं कि पूरी घटना एवं उसकी छाप स्मरण में आए।
            तंत्र शास्त्र ऐसे भय एवं उसके दुष्परिणामों को दूर करने का उपाय बताता है। उपाय करने के समय भी मुख्यतः निन्म सिद्धांतों का सहारा लिया जाता है -  शक्ति का अहसास, यथास्थिति को स्पष्ट करना, सहायक, मित्र या किसी पराक्रमी का संरक्षण, संसाधनों की समझ, जैसे- हथियार, पैंतरेबाजी, मार्शल आर्ट,  संगठन का बल, समस्या को झेलनं का अभ्यास - तितीक्षा, विस्मृति, स्मृति का रूपांतरण, भ्रम-निवारण एवं स्मृतियों की टूटी कड़ी को व्यवस्थित कर देना। इन सिद्धांतों के अनुसार मूल अनुष्ठानों की रचना कर फिर सहायक सामग्री को संयोजित किया जाता है। मुख्य सहायक सामग्रियाँ हैं - अनुष्ठान के अनुरूप स्थान, समय, परिवेश, ध्वनि, उतार-चढाव, कविता एवं उसके अर्थ, रंग स्वाद, तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाले दृश्य - नशीले तथा नशा उतारने वाले पदार्थ, मित्र एवं शत्रुक्त लगने वाले जीव या मानसिक व्यक्तित्व, प्रायश्चित्त, उत्सव जैसे सामूहिक अभ्यास।
            मैं यह संक्षिप्त विवरण दो कारणों से दे रहा हूँ। एक यह कि हर बात को Super natural कहने एवं भागने की जगह उसे समझने का भी प्रयास करना चाहिए। बिना समझे पुत्र, पत्नी, माता-पिता, गुरु या मित्र किसी का भी आप भला नहीं कर सकते। दूसरा यह कि बहुत लोग यह बकबक करते रहते हैं कि सब कुछ गुप्त या गोपनीय है तो फिर फेशबुक पर विभिन्न लोग कुछ न कुछ लिख कैसे देते हैं, चाहे वे बी0एन0 मिश्र हों, शशिरंजन मिश्र हो, नीलकंठ मिश्र हों, चन्द्रशेखर कश्यप हों जो मर्यादित ही सही टिप्पणी तो करते ही हैं या कोई अन्य जो पता नहीं कुछ समझ कर लिखते हैं या मन की मौज में।
            आज मानव बम बनाया जा रहा है। यह सम्मोहन के रहस्य को समझने का दुरूपयोग है। किसी को सम्मोहित करने का उपाय न बताएं अच्छी बात है पर सम्मोहन विद्या के अस्तित्व, सदुपयोग, दुरुपयोग की चर्चा के बगैर इस जाति की समस्या की चर्चा हीं संभव नहीं है। हम सम्मोहित लोगों को स्वस्थ सजग बनाने की सेवा तो कर ही सकते हैं। मैं यह काम सेवा भाव से करता रहता हूं। इससे किसी को हानि नहीं होती। पैसा न कमाने की शर्त रख लीजिये आत्मानुशासन स्वयं आ जायेगा।
            यह विद्या आज भी अपनी बिरादरी में अनेक लोगों की अप्रतिष्ठा एवं पतन का कारण है तो यह सावधानी तो बरतनी ही होगी कि पतन एवं उलझन से कैसे बचा जाय? अभी यज्ञ व्यवसाय का समय है। ऐसी कई मंडलियाँ हैं जो भीड़ इकट्ठा करना जानती हैं। उनके पास न बड़ा मठ है, न बड़ी पूँजी। खेल फिर भी चल रहा है। बिना मठ, महंत के रोज जगतगुरु पैदा किये जाते हैं, मिटाए जाते हैं। 25-50 लाख का खेल होता है। सर्कस की तरह तमाशा खत्म और अगले पड़ाव पर मिलते नहीं, यहां तो सारे कलाकार ऐसे गुम या सामान्य कि लगे कि अरे यह तो नाटक था, कि नहीं था, इसी दुविधा में दर्शक भक्त बने रहें।
            यह विद्या अब दूसरे लोगों ने भी सीख ली है। एक M.B.A. को भेजकर जरा किसी यज्ञ आयोजन का अर्थशास्त्र समझवा तो लीजिए पता चल जायेगा कि कितने बड़े दिमाग वाले आयोजक लोग हैं।
            मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि लोगों को तंत्र विद्या के गूढ़ पक्षों को समझ कर समझदार तो हो ही जाना चाहिए। कम से कम दूसरे बाबाओं के समेहन में तो नहीं पड़ेंगे। ईमानदार बनना न बनना उनकी बात है और गलत कार्य का दुष्परिणाम जानने पर उनके मन में भयवश, संगठनवश और अंततः ज्ञानवश भी कुछ अंकुश तो लगेगा ही।

शनिवार, 3 नवंबर 2012


तंत्र पर विस्तृत सामग्री मेरे दूसरे ब्लाग तंत्र परिचय पर मिलेगी । मग संस्कृति संबंधी सूचनाएं ही काफी हो जाती हैं। मगों की अपनी कोई विशेष बात होगी तो उसे इसी ब्लाग पर रखा जायेगा।

विस्तृत विवरण tantraparichaya.blogspot,com


तंत्र समझ में कैसे आए?

यह प्रश्न लोगों के मन में कई बार उठता है क्योंकि तंत्र शास्त्र को गोपनीय माना गया है और लिखा कहा गया है - ‘गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरित पार्वती’। हे पार्वती अपनी योनि की तरह इसे प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए। ऐसी गोपनीयता के बावजूद आज हजारों पुस्तकें/निबंध प्रकाशित हो रहे हैं जो न तो गोपनीयता की नीति अपनाते हैं न स्पष्टता की, उल्टे अलूलजलूल बातों को विस्मयकारी ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
विस्तृत विवरण tantraparichaya.blogspot,com

डायन और पीपल

साधना से अपना एवं दूसरों का भला करने की बात तो सबको स्वीकृत है लेकिन तंत्र विद्या का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि वह शीघ्रता से सूक्ष्म स्तरों तक पहुँचने का रास्ता बताती है। साथ ही, प्राकृतिक शब्दों पर नियंत्रण करने की कला भी तंत्र शास्त्र में सिखाई जाती है। बाहर से देखने पर तंत्र के भेद-प्रभेद वैदिक, बौद्ध, शैव, शाक्त आदि जो भी हों लेकिन मूलतः इनके भीतर समानता पाई जाती है और इस अर्थ में सारा तंत्र शास्त्र एक है।
तंत्र विद्या का एक नकारात्मक पक्ष यह है कि तंत्र साधना में छः प्रकार के कर्म निषिद्ध कर्म माने गए हैं क्योंकि वे दूसरों को हानि पहुंचाते हैं। 1 मारण - मंत्र बल से किसी की हत्या करना, 2 मोहन/वशीकरण - किसी को अपने बस में कर लेना, किसी को भ्रमित करना, 3 स्तम्भन - ठिठकाना, उसी अवस्था में रोक देना 4 उच्चाटन - किसी काम से, किसी के मन को पूरी तरह हटा देना, 5 विद्वेषण - झगड़ा कराना, 6 शांति- विविध उपद्रवों की शांति।
उपर्युक्त कामों की निंदा करने के बाद भी अच्छे तांत्रिक का मतलब ही समझा जाता है कि वह व्यक्ति उपर्युक्त कामों में भी निपुण है। शांति कर्म को तो समाज में बिलकुल बुरा नहीं माना जाता। इन निषिद्ध कामों में भी मारण सबसे जघन्य आपराधिक कार्य है। औरतों में जो भी इस विद्या की जानकार हों लोग इन्हें आम तौर पर डायन कहते हैं लेकिन यह अधूरी बात है। पूरी जानकारी के अभाव में बहुत सारी उटपटांग बातें समाज में फैल गई है।
डायन के बारे में एक प्रचलित धारणा यह है कि यह पूर्णिमा एवं अमावस्या की रात को पीपल के पेड़ पर चढ़कर उसे जड़ सहित उखाड़ कर गंगा स्नान करने जाती है, और गंगा स्नान कर वापस लौटने पर इस पीपल के पेड़ को पुराने स्थान पर स्थापित कर देती है। इस धारणा से मैं सहमत तो हूँ लेकिन मैं केवल साधनापरक, रूपक की व्याख्या वाले अर्थ से ही सहमत हूं।
वस्तुतः यह तो एक रूपक है, ध्यान ही असली साधना है, जिसके बल पर कोई छोटे छोटे चमत्कार दिखा सकता है, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। पीपलवाली आम धारणा रूपक को यर्थाथ मानने के कारण है।
विस्तृत विवरण tantraparichaya.blogspot,com


मगों की तांत्रिक संस्कृति को समझने के पूर्व

मग संस्कृति को समझने के पूर्व आपके दिलोदिमाग में निम्न रूप से लचीलापन का होना जरूरी है -
मग संस्कृति तांत्रिक परंपरा की वाहिका रही है। अतः जैसे तंत्र के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण दोनों रहता है वैसे ही मगों के प्रति भी आकर्षण (तंत्र का लाभ उठाने के लिए) और विकर्षण (अति रहस्यवाद एवं पाखंड में धोखा खाने एवं रहस्यविद्या के अल्पज्ञान के कारण) भी प्रबल रहा है। बंगाल, मिथिला एवं अन्य तंत्र परंपरा वाले ब्राह्मण मगों के प्रति ईर्ष्यालु रहे किंतु उड़ीसा के साथ मैत्री संबंध रहा। आज उड़ीसा में भी विरोध हो गया है।
शाकद्वीपी/मग नाम सुनते ही ज्योतिष एंव तंत्र की बात करनेवाला गैर मग व्यक्ति डर जाता है कि यह तो गूढ रहस्य वाले कुल का है क्योंकि अधिकांश अन्य लोग वास्तविक तंत्र साधना न पहले जानते थे न आज जानते हैं। जानकार लोगों के बीच मगों के प्रति आज भी प्रेम एवं आदर दोनों उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से रहस्यविद् होने की जगह तंत्र की दुकान चलाने वाले अनेक लोग आडंबर एवं यजमान फँसाने में विश्वास करने लगे हैं। यजमान शीघ्र लाभ की लालच एवं मजबूरी में फँसते हैं। इन्हें फँसाने एवं स्वयं फँसने के लिए निम्न प्रचार किए जाते हैं, जिनका तंत्र साधना या अनुष्ठान से कोई सीधा संबंध नहीं हैं, इनका संबंध बबूल के नीचे संयोग से आम मिलने तक सीमित है, उदाहरणार्थ -
विवाह, मुकदमे की सफलता, सम्मोहन, वशीकरण, नौकरी, गुप्त धन पाना, चुनाव में जीत आदि लाभ नितांत अनिश्चित प्रकार के हैं। इन सब लाभों की स्थिति बच्चों को स्कूल ड्रेस देने, मिठाई खिलाने जैसा है। इसका शिक्षा या विद्या से कोई सीधा संबंध नहीं है। बिना टॉफी, डेªस एवं भारी बस्ते के भी शिक्षा संभव है। वह तो शिक्षक एवं छात्र पर निर्भर है।
तंत्र से सीधा संबंध रखनेवाली बातेें हैं - मनुष्य के शरीर, मन एवं चेतना की कार्यप्रणाली का ज्ञान, भौतिक शक्तियों सूर्य, नक्षत्र एवं अन्य का मानव जीवन से संबंध एवं प्रभाव, ज्यामितीय आकृतियों एवं ध्वनि के उतार-चढ़ाव, विभिन्न सुगंधित-दुर्गन्धित द्रब्यों का प्रभाव, स्वयं आत्मज्ञान, परस्वभाव एवं संरचनाओं का ज्ञान, तदनुसार संभव/असंभव का अनुमान, रंग, ध्वनि, ध्वनि का स्वभाव, रसायन, ताल, सुर, मंदिर, संकल्प, कवच, अनुष्ठान का मानव जीवन से संबंध, पंचकोशात्मक मानव शरीर की कार्यप्रणाली, भोजन, औषधि, वनस्पति से मानव कल्याण हेतु इनका प्रसंगानुसार उपयोग आदि न कि सवा रूपए के प्रसाद का निवेश कर सवा लाख की लाटरी की प्राप्ति।
तंत्र ज्ञान, प्रयोग, भोग एवं मुक्ति सब में सामंजस्य एवं सफलता की विद्या है। यह मूलतः एक होने पर भी कुल, परंपरा एवं पात्र भेद से विविध होती है।
तंत्र की मौलिक बातें एवं विविधता -
मानव चेतना, शरीर, मन, बुद्धि, शरीरस्थ नाड़ियों, चक्रों की कार्यप्रणाली का ध्यान, एकाग्रता जप आदि आंतरिक एवं मुद्रा, आसन, भोजन, रसायन, पान, नृत्य, गीत आदि अन्य बाहरी उपायों से ज्ञान प्राप्त करना। उन्हें यथासंभव इच्छित दिशा में उपर्युक्त सामग्रियों एवं उपायों की सहायता से सक्रिय करना या रोक देना। ये बातें basic science की तरह हैं, जिन पर अनेक technologies विकसित र्हुइं और विविध परंपराओं में उनकी Branding भी हुई।
Copyright की अवधारणा उस समय नहीं थी अतः गोपनीयता एवं कृतज्ञता की शर्त जोड़ी गई। अपनी कुल परंपरा या गुरु परंपरा की विद्या को अपनी कुल परंपरा या गुरुपरंपरा के भीतर समाविष्ट/सीमित रखने की चलन बढ़ी क्योंकि प्रयोग के हानिकारक पक्ष को बिना झेले दूसरे लोग केवल लाभ उठा लेते थे। साथ ही प्रयोगकर्ताओं की विफलता पर कुछ न करने वाले खूब मजाक उड़ाते थे।
मन एवं प्रकृति के रहस्यों को जानकर काम करना मूर्ख के लिए चमत्कार है, जानकार के लिए तो वास्तविकता है और ईमानदार को उस प्रयास या प्रयोग की सीमा का भी ज्ञान रहता है।
मगों ने एक संगठित प्रयोग किया कि हम मूल विद्या को (जो basic science की तरह है) आपस में बाँटते रहेंगे और मूल विद्या की साधना करने वाले पुर के लोगों को पर्याप्त आदर देंगे। Branded technology वाले किसी एक देवी देवता आधारित साधना विधि की दक्षता प्राप्त करेंगे, उससे आजीविका चलाएंगे। ज्योतिष, आयुर्वेद के क्षेत्र में भी वही बातें लागू की र्गइं। रक्त संबंध दूसरे पुर वालांे के यहाँ करेंगे तो समाज का बंधन भी बना रहेगा। यहाँ तक की साधना के मूल उपकरण (जनेऊ) का अदला-बदली करेंगे। जो वस्तुतः भावनात्मक है न कि ऐसे जनेऊ का उपयोग किया जा सकता है। स्त्रियाँ भी अपनी साधनाविधियों की अदला-बदली प्रतीक एवं संकेत चित्रों से करेंगी और दूसरे पक्ष की प्रायोगिक परीक्षा भी करेंगी। कोई किसी के जजमान/चेलों में अपना प्रभाव नहीं जमाएगा। पहले जजमान पुरोहित को साथ ले जाकर बसते थे और गुरु का कभी-कभी आना जाना होता था।
बाद में यह एकजुटता टूट गई। हुआ कुछ इस तरह कि सभी अपनी दुकान basic science वालों ने लाचारी एवं उदासी में खेती एवं अध्यापन अपना कर कुछ दिनों तक विद्या बचा कर रखी। बाद में उनमें से भी अनेक विद्या की दृष्टि से कंगाल हो गए। ब्रांडेड वाले औंधे मुँह गिरे, उनके पास तो तकनीकी के विविध घटकों की समझ ही नहीं थी।
सितोपलादि या त्रिफला चूर्ण बनाना, उसका स्वास्थ्य रक्षा करना प्रयोगवि़द्या है, इसे technology कह सकते हैं। सितोपलादि की पाँच सामग्रियों एवं त्रिफला की तीन सामग्रियों के मूल स्वभाव, विपाक, मात्राभेद का रहस्य तो निघंटु एवं मैषज्य कल्पना के ग्रंथों से मिलेगा। मगों में त्रिफला विशेषज्ञ तो अनेक बने पर मूल ग्रंथो को पढ़ने की प्रवृत्ति कम होती गई। वे समझ ही नहीं सके कि ब्यक्ति भेद से भी सितोपलादि या त्रिफला बनाकर दी जाती थी।
इसी तरह विभिन्न देवी-देवता के मंत्र तो जपने की सलाह अनेक देते हैं पर उनसे पूछे कि वैदिक, पौराणिक एवं बीज मंत्रों का मूल अंतर क्या है? और आप कैसे तय करते हैं कि किस व्यक्ति को किस उद्देश्य से कैसा बीज मंत्र चुनना चाहिए? इसका शास्त्रीय प्रमाण क्या है? तो सलाहकार महोदय तुनक जाएंगे या बताएंगे कि यह मेरे पुरखों या गुरु द्वारा प्रदत्त सिद्ध मंत्र है। यह सब अनुचित आचरण है। एवं अपने branded product को सर्वश्रेष्ठ घेाषित करने लगे। सच यह है कि मंत्रों का जब सांदर्भिक प्रयोग होता है तो वे अवश्य फल देते हैं।
किताबों के अध्ययन की दुर्दशा कुछ इस तरह हुई। नकल एवं प्रश्नपत्र लीक होने की बीमारी ने जैसे स्योर सक्सेस और गेसपेपर को उपयोगी एवं गरिमामय बनाया, उस तरह पतंजलि के योग सूत्र, वशिष्ठ के योगवाशिष्ठ विज्ञान मैरव तंत्र, शारदा तिलक, शिवस्वरोदय, कुलार्णव आदि पढ़ने एवं सामर्थ्य के अनुरूप साधना करने की जगह मारण, मोहन, उच्चाटन के प्रयोगों को बताने वाली पुस्तकों की बाढ़ आ गई। इन्हें पढ़कर समझा ही क्या जा सकता है जबकि वे उल्टी भाषा में लिखी गई हों। Coded books को decoded करना पहले सीखना पड़ता है। इसे मंत्रोद्धार, यंत्रोद्धार, शापोद्धार, उत्कीलन आदि पारिभाषिक शब्दों एवं प्रक्रियाओं द्वारा हरेक तंत्र अपनी अंदरूनी बातों को स्पष्ट करता है। बौद्ध तंत्र के ग्रंथ तुलनात्मक रूप से कम दुरूह होते हैं। सनातनी स्मार्त परंपरावाले अत्यंत जटिल होते हैं। ये decoded होते ही सरल हो जाते हैं।
सिद्ध वे हैं जो प्रायोगिक रूप से पारंगत हैं। उनकी देवी सिद्धश्वरी हुईं। अर्थात् सिद्धेश्वरी के उपासक की श्रद्धा सभी सिद्धों (वैदिक, बौद्ध, जैन, या स्वयं) के प्रति होनी चाहिए और सभी से सीखना चाहिए। ऐसा समूह किसी एक ही साधना पद्धति या brand के प्रति न कृतज्ञ होता है न उससे सम्मोहित। उसे सम्मोहन का विमोचन आना चाहिए।
मगों में जब तक मूल बातों को ठीक से समझने की जिज्ञासा और ज्ञानी के प्रति आदर भावना रही इनकी सर्वत्र स्वीकृत रही। वे जब चाहते नया प्रयोग कर नया ब्रांड बना देते। ये नित्य चमत्कार करने वाले संगठित समुदाय के लोग थे जिन्होंने काशी के शैव गढ़ में द्वादशादित्य मंदिरों की समानांतर स्थापना कर सौर तंत्र के प्रभाव को दिखाया। लोलार्क मंदिर भदैनी घाट एवं वरुणादित्य वरुणा के संगम पर आज भी अच्छी स्थिति में हैं। बस, सौर तंत्र की मूल विद्या समाप्त हो गई।
इतनी बड़ी भूमिका को लिखने का मतलब है कि मैं मगों से निवेदन करना चाहता हूँ, विशेष कर 25 से 45 वर्ष के लोगों से कि वे तंत्र की मूल विद्याओं को समझने के लिए आगे आएँ, तुरत सिद्धि-सफलता की लालच छोड़ें। अगर तंत्र से मारण आदि इतना सहज होता तो तंत्र के उत्कर्षकाल में पूरे विश्व में ख्रिस्तपंथ एवं इस्लाम के द्वारा इतने बड़े नरसंहार नहीं होते। तिब्बत से दलाई लामा भाग कर भारत नहीं आते।
इसका अर्थ यह नहीं कि विद्या है ही नहीं विद्या तो वास्तविक है, रंग, ध्वनि, आदि सामग्री, एवं जीवकी चेतना के संबंध को समझने की विद्या तो है ही। इसका साधारणीकरण या मानवीकरण कर किसी भी नई पुरानी देवी देवता का नाम दिया जा सकता है। इसे आप दस महाविद्या कह लें, द्वादशादित्य कह लें, या कुछ और ही सही। निराकार एवं साकार के रहस्य को समझने का असली अर्थ है सूक्ष्म शक्ति से स्थूल की उत्पत्ति की समझ।
एक बात और समझना जरूरी है। जैसे विज्ञान केवल सत्य सापेक्ष होता है, समाजव्यवस्था सापेक्ष नहीं। उसी प्रकार तंत्र प्रकृति सापेक्ष होता है, समाज व्यवस्था सापेक्ष नहीं। विज्ञान एवं वैज्ञानिक जैसे सबको प्रिय नहीं हो सकते वैसे ही असली तांत्रिक भी सबको प्रिय नहीं हो सकते क्योंकि वे किसी एक समाज के अनुरूप विधि तो बता सकते हैं, उस सीमा में बँाध नहीं सकते। प्रकृति विराट है, प्रभावी है, मनुष्य एवं उसके विभिन्न समाज तो छोटें हैं और उनकी नैतिकता अनैतिकता समयानुसार बदलती है। इसलिए तंत्र की दृष्टि में छूआछूत की सार्थकता सामाजिक है, प्राकृतिक नहीं। साधना भूमि में मानव मात्र (निजी क्षमताओं के अनुरूप भिन्न होने पर भी) एक है।
तांत्रिक आठ प्रकार के विवाह को क्यों नैतिक स्वीकृति दंे जहाँ खरीदी गई, अपहरण की गई स्त्री को भी पत्नी बनाने की स्वीकृति है। अनेक पत्नियों पर स्वामित्व से तंत्र को क्या मतलब? उसने माना कि आपसी सहमति ही मूल है। मगों ने बंगाल एवं मिथिला की तरह (पास होने पर भी) बहुपत्नी प्रथा (कुलीन प्रथा, जिसमें अंतिम कुलीन ब्राह्मण (19वीं शताब्दी तक) की 60 पत्नियाँ) को नहीं स्वीकार किया।
इसकी जगह सूर्य एवं विष्णु मंदिरों की जमींदारी में या पास में वेश्याओं के गाँव बसाए गए। शैव शाक्त प्रभाव वाले क्षेत्रों में नव कन्याओं या पंच कन्याओं की आवश्यकता के अनुसार आबादी बसाई गई। आज भी इसकी उपस्थिति पर्याप्त रूप से उपलब्ध है। लोकलज्जा भय से कोई उपस्थित पर खुल कर कह नहीं पाता। अगर कोई काम ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण पर सामाजिक प्रयोग करेगा तो ऐसा होना ही है। इसी समझ के साथ आगे के वर्णन होंगे। अगर आपको यह अप्रिय, झूठा या व्यर्थ लगे तो मेरे ब्लाग में आपके लिए कुछ भी नहीं है।
जो लोग मगों को उनके परिवेश के साथ समकालीन संदर्भ में समझने की उदारता रखते हैं वे विभिन्न पुरों की साधना पद्धति के रूप में ब्रांडेड पद्धतियों को समझ सकेंगे। इसके लिए आपको अपनी कुल परंपरा को भी श्रेष्ठ मानने का हक तो है साथ ही दूसरे की भी परंपरा को श्रेष्ठ मानना पड़ेगा अन्यथा आपके अनेक रक्त संबंधी हीन कुल वाले हो जाएंगे।
रही बात मूल बातों पर प्रकाश डालने की तो मरे पास जितनी भी जानकारी है वह मैं पात्र को देने को तैयार हूँ। शर्तें निम्र हैं -
सामान्य विषय:- बालोपयोगी
शर्त - वय कम से कम 8 साल का होना
तंत्र साधना दक्षिण मार्गीं
शर्त - बालिग होना। (अविवाहित भी जान सकते हैं)
तंत्र साधना मिश्र मार्गी या भैषज्य तंत्र
शर्त - बालिग एवं विवाहित होना
तंत्र साधना वामाचार या कौलमार्गी
शर्त सैद्धांतिक चर्चा हो सकती है। प्रयोग अपनी कुल परंपरा की सीमा में करें।
अन्य सामाजिक/प्राकृतिक पक्ष
शर्त - बालिग होना
तंत्र आपको घृणा, संवेग, कौतूहल, भय आदि के पार ले जाना चाहता है। अतः डरपोक, ईर्ष्यालु या कमजोर संरचनावाले, जडमति या अतिशंकालु या प्रचंड पूर्वाग्रही या अहंकारी को यह नहीं बताया जा सकता।
मुझसे अधिक अनुभवी एवं ज्ञानी लोग भरे पड़े हैं किंतु अनादर/तिरस्कार के भय से या अपने ब्रंाड के भाव के घटने के भय से चाहते हुए भी दूसरे के सामने खुलते नहीं है। दुकानदारी करने वालों की तो कोई कमी ही नहीं है, अपनी विरादरी में सभी तांत्रिक हैं।


डाकिनी एवं नाड़ी विद्या

मगों का आयुर्वेदज्ञ होना और तांत्रिक होना दोनो बातें प्रख्यात हैं। इसी तरह यह भी माना जाता है कि नाडी विद्या आयुर्वेद में मगों का मूल योगदान है। डाकिनी और डायन तो अपने ही बदनाम है। जरा सच तो जानिए कि दुकानदारी, मूर्खता और कमजोर औरतों को सताने के लिये भारत में क्या क्या उपाय किये गये। ऐसा वातावरण बनाया गया कि डर के मारे कोई अपने को योग्य व्यक्ति घोषित ही नहीं कर सके, चाहे वह औरत हो या मर्द।
सुनने में ये दोनों शब्द रहस्यात्मक लगते हैं। डाकिनी शब्द तो रहस्यात्मक है ही नाड़ी शब्द भी कम रहस्यात्मक नहीं है। योग, तंत्र आयुर्वेद सभी जगह नाड़ी शब्द का प्रयोग होता है। वहाँ भी इनका अर्थ पूर्ण स्पष्ट नहीं है। योग एवं तंत्र में सुषुम्ना आदि अति सूक्ष्म एवं केवल अनुभवात्मक हैं तो आयुर्वेद में नाड़ी की गतियों का वर्णन रूपकात्मक है। इड़ा, पिंगला श्वास को कहते हैं। सुषुम्ना जैसी तीसरी स्थिति नाक में प्रकट नहीं है। इसी तरह आयुर्वेद में धमनियाँ एवं अन्य तंतु रूपी गृध्रशी आदि भी नाड़ियाँ हैं। नाड़ी की साधना और समझ तो और ही अधिक रहस्यावृत है।
ऐसी रहस्यात्मकता एवं गोपनीयता क्यों रखी गई है और डाकिनी तथा नाड़ी शब्द के अर्थ क्या हैं? उनमें आपसी संबंध क्या हैं? इन बातों को खोलकर बताने की दृष्टि से यह प्रयास किया जा रहा है। इन बातों को समझने के पूर्व तंत्र एवं आयुर्वेद की ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को भी संक्षेप में समझना जरूरी है। अतः यहां पहले पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने के बाद फिर विषय वस्तु पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
डाकिनी एंव नाड़ी ये दोनों ही शब्द अत्यंत विवादास्पद हैं। डाकिनी शब्द सुनते ही हमारे मन में एक भयानक एवं क्रूर औरत की तस्वीर उभरती है। डाकिनियों को अत्यंत ताकतवर भी माना गया है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में इनका विस्तृत वर्णन है। अँगरेजी औपनिवेशिक, भारतीय संस्कृति की निंदा करने वाली पूर्वाग्रही दृष्टि से हटकर यदि शास्त्रीय दृष्टि स विचार करेंगे तो कुछ दूसरा ही चित्र सामने उभरेगा। डाकिनी शब्द का अपना शाब्दिक अर्थ होता है - तेज गति से चलने वाली। आज भी तेज गति से चलने को डाँकना, तीव्र धावक को डाक, तेजी से पत्र ले जाने वाली व्यवस्था को डाक व्यवस्था एवं बाबा बैजनाथ पर बिना रुके जल ले जाकर चढ़ाने वाले को डाक बम कहते हैं। आश्चर्य है कि कैसे डाक शब्द का स्त्रीलिंग डाकिनी शब्द, भय, घृणा, क्रूरता, निषेध एवं क्रूर प्रतिहिंसा जैसी भावनाओं के साथ जुड़ गया है। इसी तरह वज्र शब्द कठोरता के साथ तीव्र गति का भी द्योतक है। बौद्ध वज्रयान की साधना में तीव्र गति से सीखने की विधियां विकसित की गईं साथ में यह भी कहा गया कि जो इस अनुभव को धारण करने में समर्थ हैं केवल उन्हें ही ऐसी साधना करनी जाहिये। भारतीय समाज ें बौद्धों और विशेष कर वज्रयानियों की निंदा उनके वाममार्ग के प्रति अकर्षण के कारण हुई ऐसा कुछ विद्वान मानते हैं फिर भी वेद के समर्थक बन कर वामाचार करने को तो व्यापक रूप से स्वीकुति मिल ही गई।
तंत्र शास्त्र कोई एक शास्त्र न हो कर अनेक शास्त्रों का मिला-जुला रूप है। तंत्र का अर्थ ही है विस्तृत शास्त्र। तंत्र एक दृष्टिकोण भी है। यह सत्य-सापेक्ष या प्रकृति-सापेक्ष अधिक है। राजनीति, धर्मनीति या लोकनीति किसी के भी प्रति तंत्र की प्रतिबद्धता नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति मनुष्य से भी बड़ी है और सम्यताएँ तथा राज्य व्यवस्थाएँ तो स्वयं सापेक्ष एवं सीमित हैं। परिणामतः जैसे आधुनिक विज्ञान एवं लोकतंत्र के विरोध में अनेक राज्य सत्ताएँ तथा धर्म सत्ताएँ रही हैं उसी तरह तंत्र का भी जमकर विरोध हुआ है। उसकी खूब निंदा की गई है। यूरोपीय आधुनिक विज्ञान के आविष्कारकों ने धर्म की सत्ता से सीधा मुकाबला किया किंतु तंत्र के ज्ञाताओं ने लाचारी में लोक विरोध के भय से अपने गं्रथों की भाषा को द्वयार्थक, कूट पदों वाली एवं अपने संगठन को गुप्त बना दिया। इसी प्रकार आयुर्वेद कहकर चिकित्सा की तांत्रिक परंपरा मंे रक्षा की जिसमें मैं समझता हूँ कि अब इन बातों को गोपनीयता के आवरण से बाहर निकालकर स्वतंत्र भारत के लोगों को साफ-साफ समझाना चाहिए। इसी दृष्टि से यह एक छोटा प्रयास है।
तंत्र स्त्री एवं पुरुष दोनों को एक दूसरे का पूरक मानता है। इतना ही नहीं शारीरिक बनावट की दृष्टि से स्त्री एवं पुरुष में केवल अंगों के उभार का ही अंतर है। एक का प्रगट एवं एक का गुप्त, बस इनता ही तो फर्क है। स्त्री की साधना स्त्री के अनुरूप होगी ही। वह भी तीव्र गति से साधना कर सफल हो सकती है। अतः डाक या डाकिनी दोनो बराबर हैं। सिद्धो में कुक्कुरिपा वज्र डाक हैं। आज भी अनेक लोग डाक हो सकते हैं। ऐसे अनेक डाक स्थान मिलेगे। बिहार में गया नवादा रोड में रघुनी डाक का स्थान है जो बिलकुल नया है।
तंत्र साधिका स्त्री, अपनी शिक्षा, स्वावलंबन, यौन संबंध, स्नेह, प्रजनन, संतति सभी मामलों में स्व निर्णय में समर्थ एवं स्वतंत्र होती थी। इस प्रकार का तंत्र पुरुष के वर्चस्व को सीधी चुनौती है। किसी भी सत्ता की चूलें हिलाने वाला है। अतः षडयंत्रपूर्वक तीव्र वेग से साधना करने वाली स्त्री को उन्मुक्त, व्यमिचारिणी, क्रूर, हत्यारिणी आदि सिद्ध कर उनकी हत्या डायन कहकर करने की प्रवृति बढ़ी जिसमें पुरुष ओझाओं की मुख्य भूमिका होती है। आज दलित ओझा भी होते हैं किंतु शाब्दिक दृष्टि से ओझा शब्द उपाध्याय से ‘उबज्झा’ और फिर ‘ओझा’ रूप में विकसित हुआ है।
डाकिनी शब्द का प्रयोग वैदिक (वेद सहमत) एवं अवैदिक तंत्र की दोनों धाराओं में हुआ है। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है अतंरिक्षचराः धोराः डाकिन्यश्च महाबलाः। बौद्ध तंत्र परंपरा में डाकिनियों का स्थान अत्यंत सम्मान पूर्ण एवं प्रतिष्ठित है जैसे वैदिक धारा में साधिकाओं एवं भैरवियों का। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि डाकिनी का विरोध स्त्री एवं बौद्ध होना दोनों कारणों से हुआ।
डाकिनी शब्द का अर्थ केवल स्त्री साधिका नहीं है। मूल अर्थ है तीव्र गति से चलने वाली। डाकिनी शब्द का प्रयोग तीव्र गति से चलने वाली सभी चीजों के लिए हुआ है। मनुष्य के शरीर के भीतर एवं बाहर तीव्र वेग वाली डाकिनियाँ हैं। आशय यह कि मनुष्य शरीर में मस्तिष्क से लेकर रोम कूपों तक ज्ञानवाही तंतुओं की शाखाएँ फैली हुई हैं। इस रूप में शरीर के विभिन्न भागों में ज्ञानवाही कार्यप्रणाली काम करती है। ऐसी कई प्रणालियाँ हैं। इन प्रणालियों की शक्ति के लिए डाकिनी शब्द का प्रयोग बौद्ध तंत्र में होता रहा है। कई डाकिनियों के नाम फुषवाचक भी मिलते हैं।
अंतःस्रावी गं्रथियों की कार्यप्रणाली, वैद्युत एवं चुंबकीय तरंगों की गतियाँ इन सभी के लिए भी आयुर्वेद में नाड़ी शब्द का प्रयोग होता है और बौद्ध तंत्र में उनकी शक्तियों के लिए डाकिनी शब्द का। जैसे यह कहा जा सकता है कि मनुष्य शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल फैला हुआ है। उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य शरीर में डाकिनियों का जाल फैला हुआ है। बात थोड़ी घुमा दी जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि मानव शरीर डाकिनियांे के जाल में फँसा हुआ है। यहाँ तक की बात तो आसानी से समझ में आ गई होगी क्यांेकि आधुनिक विज्ञान के बल पर इतना हम आसानी से अपनी कल्पना एवं तर्क शक्ति के बल पर समझ लेते हैं।
आगे की बात पूर्णतः भारतीय शैली की है। डाकिनी के जाल में मनुष्य जब बँधा है तो बंधन से मुक्त भी होना चाहिए। उस बंधन के स्वरूप विन्यास, उसे समेटने एवं फैलाने की विद्या भी आनी चाहिए। इसे बौद्ध तंत्र में ‘डाकिनी जाल संवर तंत्र’ कहा गया। इस नाम की एक पुस्तक भी सारनाथ तिब्बती संस्थान से प्रकाशित है।
मनुष्य देह में स्थित ये डाकिनियाँ जब ठीक ढंग से काम करती हैं, प्रसन्न रहती हैं तो मनुष्य निरोग रहता है अन्यथा रोगी हो जाता है। इनकी कार्यप्रणाली को जान लेने पर भूख, प्यास, सुख, दुख, मानसिक संवेगों पर नियंत्रण, अनेक रक्षक विद्याएँ एवं चिकित्सा का कार्य करने की क्षमता होती है। जाल को फैलाने का मतलब इन नाडियों/तंतुओं के माध्यम से मस्तिष्क से रोमकूप तक आने-जाने वाली संवेदनाओं का अनुभव करना एवं समेटने का मतलब है उन संवेगों संवेदनाओं का केवल मस्तिष्क या जहाँ तक इच्छा हो रोक लेना। यह साधना विविध प्रकार की ध्यान विधियों से सिखाई जाती है। सभी मनुष्य अपनी आँत एंव पेट की मांसपेशियों को अपनी मर्जी से नहीं हिला सकते किंतु हठयोग के अभ्यासी ऐसा आसानी से कर लेते हैं। प्राणायाम से शरीर का बल कई गुना बढ़ता है।
चेतना को मस्तिष्क में केन्द्रित कर उसके निष्क्रिय सुप्त भाग को जगाया जाता है। अपने शरीर के अनुभव के आधार पर ऐसी साधना करने वाली स्त्री दूसरे के रोग को ठीक से समझ जाती है। शरीर के ये भाग संसार की मूल घटक सामग्री अर्थात चार या पाँच महाभूतों से बनी है। अतः इन सामग्रियों से बनी दवा, खाद्य सामग्री, जड़ी-बूटी आदि से भी ये नाड़ियाँ भी प्रभावित होती हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि डाकिनी विद्या वस्तुतः नाड़ी विद्या है। उसमें भी तीव्र गति से चलनेवाली ज्ञानवाही तंतुओं एवं मन-मस्तिष्क की कार्य प्रणाली को ठीक से समझने तथा उस पर नियंत्रण रखने वाली स्त्री को डाकिनी कहा जाता है। मैं समझता हूँ कि अब इस बात को समझने में सुविधा हो गयी होगी। विस्तृत जानकारी ‘बौद्ध तंत्र और नाड़ी विद्या’ में दी जाएगी।


यह प्रक्रिया लगातार जारी रहेगी। इसलिये इस पेज को नई जानकारी के लिये बारबार देखना होग।