सौर मगों
में शैव-शाक्त तंत्र की स्वीकृति क्यों?
बचपन से ही
मैं विद्वानों एवं बुजुर्गों से सुनता रहा कि मग सूर्यवंशी हैं, सूर्य पूजक
हैं और ज्योतिष के ज्ञाता हैं । साथ ही यह भी कि मग सभी प्रकार के तंत्र विद्याओं
में दक्ष लोग हैं। बाद में पता चला कि आर्युवेद भी तो तंत्र के अन्तर्गत आता है।
उदाहरणों
में सुनता था फलाँ, फलाँ मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, विद्वेषण, स्तंमन आदि
कर्मा में प्रवीण हैं। कुछ लोग इनका काट
जानते हैं और लोगों की रक्षा करते हैं। विष चिकित्सा के मामले मग कम चर्चित हैं।
तपस्या, योग बल, वेद ज्ञान, न्यायादि
शास्त्रों में दक्षता आदि की चर्चा थी पर बहुत कम। मेरे प्रपितामह ने सांख्य, वेदांत एवं
साहित्य में तीर्थ (एम.ए) किया लेकिन फिर रोजी-रोटी के लिए आयुर्वेद पढ़ा और वैद्य
रूप में ही बिना डिग्री प्रतिष्ठा पाई। मेरे मन में सवाल उठता रहा कि आखिर सूर्य
पूजकों की ज्योतिष में रुचि ओैर दक्षता तो समझ में आती है किंतु इनकी बड़ी संख्या
शाक्त-शैव तंत्र का वाहक कैसे बनी? ये आयुर्वेद में
कैसे घुसे? कुछ लोग अमीर मैदानी भागवाले सूर्यमंदिरों से जुड़े हुए, कुछ गाँवों
के पुरोहित, गुरु वगैरह ऐसा क्यों? काली-दुर्गा आदि को
छोड़िए, प्रायः यक्ष-यक्षिणियों के भी ये पुजारी हैं। केवल दक्षिण
मार्गी ही नहीं वामाचारी, वाममार्गी, कौलाचारी, सुदूर घने
जंगलों में बसे लोग और सभी प्रायः वाममार्गी शाक्त। ये क्र क्या रहे थे?
आधे से
अधिक ही नहीं लगभग 2 तिहाई पुरों के कुलदेवी-देवता शाक्त परंपरा
की देवियाँ सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी, तारा आदि, कुछ सूर्य
के विग्रह, अपवाद स्वरूप नृसिंह, वराह आदि।
ये शैव या
शाक्त साधना में भी किसी संप्रदाय के अनुयायी न होकर पूरी विविधता को अपनाए हुए
हैं। एवं संप्रदाय प्रवर्तित मंदिरों या सिद्ध पीठों पर इनका अधिकार नहीं है फिर
भी राज्याश्रय वाले या निजी मंदिरों की ही इतनी प्रतिष्ठा है कि आम आदमी सिद्ध पीठ
की भाँति दौड़ा जाता है।
इस भेद को
जानने के लिए सौर तंत्र एवं शैव-शाक्त तंत्र के भेद को जानना होगा। सौर तंत्र में
संपूर्ण ब्रह्मांड की गतिविधियों का ज्ञान अर्जित किया जाता है। सौर तंत्र पर
विस्तार में बाद में लिखा जाएगा, अभी मूल अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास किया
जा रहा है। इसके लिए बाह्य आचार में दो काम किए जाते हैं- खगोल का अध्ययन एवं अन्य
जीवों की कार्य प्रणाली से सूर्य के संबंधों की अनुभूति परक व्याख्या।
आभ्यंतर
आचार में - प्राणायाम, पंचाग्नि साधना एवं इड़ा नाड़ी की दीप्ति के
साथ सूर्य मंडल की साधना। गणित तथा ध्यान विधि द्वारा सूर्य मंडल की अनुभूति परक
समझ तथा उसका लोक कल्याण में उपयोग। यह साधना अत्यंत कठोर होने पर भी चित्त के
सूक्ष्म संस्कारों को न तो भेदने वाली होती थी न जन्म जन्मांतर के रहस्यों को आनंद
पूर्वक खोलने वाली। इसमें मध्यमा या सुषुम्ना नामक नाड़ी की प्रधानता नहीं थी।
शैव-शाक्त
साधना जो कुंडलिनी साधना है या जिसे बौद्ध मत में चित्तुत्पाद कहा जाता है या अन्य
नाम दिए जाते हैं उसमें चेतना एवं मन की विभिन्न अवस्थाओं एवं स्वरूपों पर
एकाग्रता कर साक्षात्कार किया जाता है। इस साधना में मंत्र, औषधि, रसायन तथा
भोग के अन्य साधन भी नियमपूर्वक ही सही स्वीकृत तो हैं ही। इस प्रकार कुछ मामलों
में तुरंत लाभकारी और सूक्ष्म स्तर पर चेतना की अनंत गहराइयों में ले जाने वाली
होती है। ऐसी साधना विधि के प्रकाश में आते
ही जब पूरे समाज में इसकी चलन शुरू हुई तो मगों ने भी इस विधि को बढ़-चढ़कर
अपनाया साथ ही सूर्यपूजा को भी जारी रखा और ज्योतिष को भी। इतना ही नहीं दैव या
भाग्य रूपी सफलता-विफलता के कारक के पूर्वानुमान एवं विभिन्न अनुष्ठानों के लिए
शुभाशुभ मुर्हूत के भी सिद्धांत प्रतिपादित किए।
समयाचार
अर्थात सामाजिक रूप से स्वीकृत कर्मकांड में तंत्र तथा ज्योतिष की अनेक बाते
समन्वित कर ली गई हैं। इसीलिये सांब पुराण तो सूर्यप्रधान है परंतु सौर पुराण में
सूर्य का भी अंतर्भाव शिव में कर दिया गया है। मगध में अनेक विष्णु मंदिरों की
प्रतिमा को तोड़ कर या हटा कर वहां शिवलिंग या सूर्य की प्रतिमा स्थापित कर दी गई
है, जिसकी पहचान मंदिर की मूल वास्त संरचना से हो जाती है। कोंच, देव पड़सर, देव एवं
उमगा जिला - औरंगाबाद सभी जगहों का हाल एक है।