शनिवार, 22 मार्च 2014

दण्डी स्वामी श्री अद्वैतानंद सरस्वती


स्वामी जी लगभग 18 साल पहले शरीर छोड़े, ब्रह्मलीन हुए। वे अद्वैत भाव के साधक थे। उनका संबंध निरंजनी अखाड़े से है। वे कौल मार्ग के संन्यासी साधक हुए। यह प्रश्न न पूछें कि संन्यासी और कौलाचारी? शैव संन्यासी के लिये तंत्र साधना पथ चाहे दक्षिण मार्गी हो या वाम मार्गी या कौल मार्गी या कापालिक कोई भी निषिद्ध नहीं है। लोक निंदा के भय से भारत के पश्चिमी भाग के कुछ क्षेत्रों में संन्यासी अपने को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं करते, शेष क्षेत्रों में यह सर्वजन स्वीकृत है।
उनके कई शिष्य हुए और उन्होंने, काशी, देवबंद आदि स्थानों में साघना पीठ बनाया। आजकल टी.वी पर विराजमान, स्वामी दीपांकर इस परंपरा की तीसरी पीढ़ी हैं जो स्वामी ब्रह्मानंद जी देवबंद के शिष्य हैं। कौल परंपरा में गृहस्थ साधक और संन्यासी का मान साधना के स्तर पर बराबर रहता है फिर भी गृहस्थ साधक संन्यासी का स्वयं आदर करते हैं। सामूहिक उपासना के समय मान बराबर रहता है, कोई भी किसी का मार्गदर्शन कर सकता है। इस कोटि के परम सिद्ध वरिष्ठ गृहस्थ साधक थे - गया के श्री चन्द्रचूड़ भट्ट। अतः स्वामी अद्वैतानंद सरस्वती के समान ही उनका भी आदर है। समाधि स्थल पर दोनों के चित्र लगे हैं।
शेष विवरण जो आघ्यात्मिक एवं साधना संबंधी है, उसके बारे में जनश्रुति के आधार पर कहना कठिन है। मूल बात यह कि ऐसे अद्भुत साधक हाल फिल हाल तक जीवित थे।

1 टिप्पणी:

idalesseabercrombie ने कहा…

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