मैं उरवार पर कुछ अधिक लिख देता हूं । ऐसा इसलिये नहीं कि मैं उरवार हूं। संयोग से उरवार पर नई नई सामग्री मिल जाती है।
कुछ ही दिनों पहले मिली जानकारी के अनुसार मैं आपका ध्यान पश्चिम एशिया के उन विवरणों की ओर ले जाना चाहता हँू, जिनका संबंध ऊर, ऊरू से बनता प्रतीत होता है।
जीवंत इतिहास की दृष्टि से तो गया जिले के उर गांव से काम चल जाता है परंतु सवाल बचा रह जाता है कि ये उरवार या ऊरवार जो भी कहें किस स्मृति को ढोये जा रहे हैं। संस्कृत एवं वैदिक धारा के अनुसार सोचें तो तो 3 शब्द करीबी हैं-
उर अर्थात् हृदय छाती सीना
उरु अर्थात् विस्तृत उन्नत स्थान
ऊरु शब्द का अर्थ होता है घ्ुाटने से जंधा तक का भाग
पालि भाषा एवं बौद्ध परंपरा के अनुसार भी उरु अर्थात् विस्तृत उन्नत स्थान
पालि साहित्य में उरुबिल्व क्षेत्र उरुबेला की खूब चर्चा आती है। वर्तमान समझ के अनुसार यह बोधगया के पास का धर्मारण्य है। सिद्धनाथ मंदिर के आसपास के क्षेत्र में ओर एवं बेला गांव हैं परंतु स्मृति परंारा के अनुसार ओर को नहीं टेकारी के ऊर गांव को लोग उरवार लोगों का मूल ग्राम मानते हैं। यह गांव बड़ा उन्नत या श्रेष्ठ था या नहीं कहना मुश्किल है क्योंकि यह तो उजड़ चुका अब उर-बिसुनपुर नाम से नया बसा है।
भोजक लोगों के लिये यह जानना भले ही बेमतलब का हो कि इस उर गांव के पीछे क्यों पड़ें परंतु मगों का तो आरंभ ही उरवार से होगा।
प्राचीन इतिहास एवं पश्चिम एशिया के पुराने संदर्भों को खोजनेवाले भारतीय विद्वानों में भगवत शरण उपाघ्याय प्रसिद्ध हैं।
उनके अनुसार ‘‘उरुक एक नगर है, जिसे एरिख कहते हैं, आजकल वही वर्का कहलाता है।’’ ..............
श्री उपाघ्याय के अनुसार मग ब्राह्मण वहीं के रहने वाले हैं। कुछ भी हो, मामला विचारणीय है। संभव है कि मग ब्राह्मण उसी ऊर की याद समेटे आज तक जी रहे हों।
विस्तुत जानकारी के लिये पढें - भारतीय जन जीवन: चिंतन के दर्पण में, लेखक भगवत शरण उपाघ्याय । संक्षिप्त विवरण प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की पत्रिका आजकल अंक जुलाई 2011 में भी मिलेगा।
1 टिप्पणी:
pndit jee ye bhojak aur mag brahmin me kya antar hai plz explain
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