शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा

कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा: व्यक्तित्व, समाज और विडंबनाएं
पंडित जी का एक आश्रम है, उसका जीर्णोद्धार हुआ है। वहां पंडित जी की एक मूर्ति भी लगनी है। संयोग से यह इलाका 2008 से मेरा भी कार्यक्षेत्र है। वहां लगभग 65 गांवों की सिंचाई व्यवस्था में हमारा कमोबेश योगदान है। एक बड़ा संगठन भी बना जमुने-दसइन पइन गोआम समिति । 2, 3 छोटी कमिटियां भी हैं। दोनों समितियों के अघ्यक्ष हैं- श्री रामनंदन सिंह।
मगध जो कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा की जन्मभूमि और कर्म भूमि दोनों ही है, वहां के जातीय अर्थात शाकद्वीपीय समाज में इनकी चर्चा भी कम होती है, लोकप्रियता की बात क्या करें? कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा अपनी स्वतंत्र जीवन शैली तथा पीडि़त मावता के प्रति संवेदनशीलता से भरे पूरे लेकिन तिकड़म विद्या में कमजोर होने के कारण कई प्रकार के संकटों में फंसे।
सबसे बड़ी व्यथा मनुष्य को तब होती है, जब उसे वही समूह या समाज नकार दे, धोखा दे, जिसके  लिये उसने अपने को अर्पित कर दिया हो। शर्मा जी कोई विरक्त व्यक्ति तो थे नहीं, इसलिये शादी की, संतान भी हुआ और उसकी अगली पीढ़ी भी। एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से आने के कारण आजादी की लड़ाई और उसके बाद मध्य बिहार के सामंतों के अत्याचार के विरुद्ध किसान आंदोलन के अग्रणी नेता होने के कारण  उनका पूरा परिवार आर्थिक विपन्नता में संकट में फंस गया, एक तरह से बर्बाद हो गया। एक पौत्र है जो बिलकुल निराश्रित तथा पूर्णतः सर्वहारा हो कर रह गया है।
स्वजातीय लोगों ने तो उन्हें नहीं ही महत्त्व दिया। मगध में शर्मा उपाधि रखने, वामपंथी झुकाव तथा भूमिहार ब्राह्मणों के साथ आंदोलन करने के कारण पारंपरिक रूप से जनसंघी, भाजपाई मानसिकता वाले एवं ब्राह्मणविरोधी तेवर वाले सहजानंद सरस्वती के साथ मित्रता के कारण कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा जी को अनेक लोग अभी भी भूमिहार जाति का ही मानते हैं। इस प्रकार एक अवतार, एक भगवान की तरह किसी समय माने गये कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा शाकद्वीपीय ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हो कर भी इनके बीच बहुत लोकप्रिय नहीं हो सके।
उससे भी दर्दनाक वाकया तब हुआ जब भूमिहार जाति के लोगों ने इन्हें धोखा दे कर उल्लू बनाया।  पुराने गया जिले को कार्यक्षेत्र बनाये हुए श्री शर्मा जी का आश्रम नेहालपुर गांव में तब के गरीब रैयत भूमिहारों ने बनवाया था। नेहालपुर गांव गया पटना रोड पर गया से 18 किलोमीटर उत्तर में है। आश्रम आज भी है। पंडित जी को लोगों ने चुनाव लड़ने के लिये तब की वामपंथी किसान सभा अर्थात सीपीआई के प्रत्याशी के रूप में आजादी के बाद के समय इन्होंने चुनाव भी लड़ा। गरीबों का मसीहा हार गया और हराया भूमिहारों ने, वह भी राजनैतिक रूप से अत्यंत कमजोर प्रत्याशी के द्वारा। वर्ग संधर्ष पर जातीय भावना हावी हो गई। आजादी मिल गई तो स्वतंत्रता सेनानी की क्या सार्थकता? जंमीदारी अत्याचार मिटा तो कामरेड पं. यदुनंदन शर्मा की क्या सार्थकता? यहां से शिक्षा माफिया, संकीर्ण जातीयता और अपराध का गठजोड़ शुरू हुआ। यदुनंदन शर्मा ने कई स्कूल खुलवाये थे। विजयी उम्मीदवार की गौरव गाथा इस तरह गाई गई कि काबिल को मास्टर तो कोई भी बना सकता है, शत्रुघ्न बाबू तो गदहों को भी मास्टर बना देते हैं।
अयोग्य को सरकारी शिक्षक बनाने के केन्द्र बना गया और देवघर। शत्रुघ्न सिंह से यदुनंदन शर्मा हार गये, किसान आंदोलन बिखर ही नहीं समाप्त हो गया और सीपीआई कांग्रेस की पिछलग्गू बन कर रह गई।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

एक त्रुटि है - आश्रम नेयामतपुर के रैयतों ने बनवाया, नेयामतपुर की धरती पर। पता नहीं आपको किसने नेहालपुर की कहानी सुना दी है।