सोमवार, 23 सितंबर 2013

मग ब्राह्मणों के कुल देवता 2


मग ब्राह्मणों के कुल देवता-कुलदेवियां एवं कुल पूजा: भूले-बिसरे संदर्भ 

हमारे तीन धार्मिक क्रियाकलाप हैं - 1. मंदिरों में पूजा, 2. पारिवारिक सामाजिक स्तर पर धार्मिक पहचान का निर्वाह, 3. व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर आध्यात्मिक साधना। पारिवारिक स्तर पर जिस देवी देवता की पूजा की जाती है, उन्हें कुल देवी-देवता कहते हैं। आम तौर पर किसी गांव में किसी एक ही देवी-देवता की पूजा की जाती थी। इसीलिये एक पुर वालों के एक ही देवी-देवता होते हैं। दूसरी जगह बसने तथा वहां संपत्ति पाने पर इसमें अंतर होने लगा। इन तीनों में समानता नहीं होने से और कई बार तीव्र विरोध होने से झूठ/कपट का सहारा लेना पड़ता है। सूर्य मंदिर में पूजा करने वाले कैसे कहें कि हम तो मांस खाते हैं, मदिरा भी पीते हैं। कुछ लोगों ने यह हिम्मत रखी, तो वे आराम से समाज में निकलते हैं। कुछ तो खून सना कपड़ा पहने हुए भी महिषमर्दिनी एवं सूर्य के मंदिर में समान भाव से विचरण करते हैं। ऐसा बहुत कम है, अधिकतर झूठ बोलते हैं।
अंतःशाक्ताः बहिः शैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः। नानाचाररताः कौलाः विचरन्ति मही तले।।
भीतर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा में वैष्णव तथा अनेक प्रकार के आचारों में लगे हुए कौल धरती पर विचरण करते हैं।यह बात मग ब्राह्मणों पर भी लागू होती है। पुराने गया जिले में तो पिछले 30 साल तक ऐसी साधना पद्धतियाँ पूरी तरह चल रही थीं।
आज भी कुछ लोग लगे हो सकते हैं पर अब दावा करने वाले नहीं मिल रहे हैं बाद में रहस्यवाद के क्षेत्र में प्रयोग परायण होने के कारण अनेक साधना विधियों, देवी, देवताओं की उपासना इस बिरादरी में स्वीकृत है। देव, असुर, नाग, यक्ष़्ा यक्षिणी भी पूजे जाते हैं। चामरी, मायूरी, मालिनी, अंधारी, रंकिनी आदि रूप भी स्वीकृत हैं। शक्ति के विविध रूप तो हैं ही। सूर्य विष्णु, शिव, गणेश के विविध रूपों की भी अराधना होती है।
मगों ने किसी काल खड में मूल ग्राम व्यवस्था एवं ऋषिगोत्र को ही अपना लिया। इस व्यवस्था के अनुरूप गोत्र, प्रवर, ऋषि छन्द एवं वैदिक देवताओं के प्रचलित उत्तर भारतीय पैमाने में अपने को बैठा लिया। ऐसी कई सूचियाँ थोड़े बहुत अंतर से समाज में प्रचलित हैं।
इसके बावजूद आज भी जब कुल देवता या कुल देवी की बात आती है तब लोगों का दिमाग सक्रिय होता है कि यह क्या है? - सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी तारा, वरुणार्क, नृसिंह आदि। घरों में अनेक प्रकार से पूजा की चलन भी है और तिथियां भी अलग-अलग हैं, जैसे - श्रावण पूर्णिमा, श्रावण शुक्ल सप्तमी, होली, वसंत पंचमी, आदि। दीवारों पर हाथ के छापे एवं आकृतियाँ या लकड़ी की पीठिका पर सिंदूर की लकीरे आम चलन में हैं। प्रायः इस पूजा पर औरतों का अधिकार है। मर्द सहायक भाव में रहते हैं।
वास्तविक तंत्र साधना में भौतिक सामग्री, भक्ति और सामूहिक अभ्यास ये 3 बातें जरूरी मानी गईं। योग अकेला, तंत्र समूह में। भगवती आदि शक्ति तो सभी देवियों की मूल हैं लेकिन उनके विभिन्न रूप भी तो हैं। उन्हीं विभिन्न रूपों के अनुसार साधना विधियों बनीं। मंत्र, यंत्र, स्त्रोत्र, न्यास, कवच आदि के अनेक ब्रांड बने। औरतों को भी तंत्र विद्या का रहस्य समझाया गया और मूल्यवान विषयों को वैदिक व्यवस्था के समानांतर मंत्र निरपेक्ष ढंग से सिखाया गया। तंत्र अभ्यास में दूसरों को दिखाने के लिए मूर्ख बनाने के लिये संस्कृत पदावलियों वाले मंत्रों का महत्त्व बताया गया स्वयं बिना ब्रांड एवं मंत्र के भी साधना की गई। आजीविका तथा वर्चस्व कायम रखने के लिये समाज में प्रचलित ब्रांड मुक्त पद्धतियों को भी ब्रांडेड करने की ब्राह्मणों द्वारा खूब कोशिश हुई। दूसरे के उत्पाद को गलत एवं हीन कोटि का बताया गया। इससे गोपनीयता की आवश्यकता बढ़ी।
तंत्र साधना में वस्तुतः सहजता और समूह संरक्षण के कारण अधिक सुरक्षा होती है। भ्रम एवं भय इसलिये होता है कि योग एवं तंत्र मेंतुलना की जगह दोनों के पाखंड की तुलना की जाती है। संस्कृत में लिखी तंत्र साधना की पुस्तकें जितनी स्पष्ट और खुली हैं उनका हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद उतना खुला नहीं है। उस पर ढोंग हावी है। मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ बोल रहा हूं और लोगों को अपने-अपने कुलाचार के अनुरूप पा्रयोगिक बातें बताने-सिखाने को भी तैयार हूं, जिनके बारे में मुझे जानकारी है।
एक उदाहरण पर गौर करें- एक नवयुवक के शरीर पर युवती से वृद्धा तक, पूर्व परिचित से वृद्धा तक, सुंदरी से बदसूरत तक हास्य लास्य के गीतों तथा कामोत्तेजक हंसीमजाक के साथ उबहट लगा रही हैं। शरीर की सभी संधियों का स्पर्श किया जा रहा है। गाली-गलौज अश्लील हरकतें लड़के से छेड़ छाड़ सब खुलेआम हो रहा है। यह सबको पता है। कोई सयाना मर्द वहाँ नहीं जा सकता। केवल बाहर से सुन सुनकर हँसता है। युवक को संयम का अभ्यास करना है ताकि ससुराल में जब उसकी संयम की परीक्षा हो तो वहाँ उसके व्यवहार में कामुकता, क्रोध आदि विकार न उत्पन्न हों माता गुरु की भूमिका में है, युवक की गलतियों का दंड उसे भोगना है, उसे और अधिक गालियां सुननी पड़ेंगी यदि युवक उद्धत हुआ तो।
यह तो स्प्ष्ट, सुरक्षित, समाज स्वीकृत तंत्र साधना है। यह साधना समाज की मदद के बगैर कैसे सीखी जाय। वातावरण ही नहीं बनेगा। इसके साथ कुछ अन्य गुप्त बातें हैं जो होने वाले रक्त संबंधी को बताना है। उसके लिये कूट अक्षर, कूट आकृति, कूट मुद्रा का समाचार आंटे की मिठाई में अंकित कर देनी है।
हमारी तंत्र साधना की पद्धति जो हो जीवित नेतृत्व तो गृह-स्वामिनी की ही होगी और बड़ी बूढ़ी के हाथ यह विशेषाधिकार है कि वह अपने हाथ की छापे की जगह दूसरी पीढ़ी के हाथ के छापे को पूजनीय बनने दे या नहीं। असली विग्रह तो उसके हाथ की छाप ही है।
शाकाहार-मांसाहार, योग की अकेली साधना, तंत्र की सामूहिक साधना, सौर-वैष्णव बनाम शैव शाक्त, परंपरावादी बनाम प्रयोगवादी, पुरातनवादी बनाम आधुनिकतावादी द्वन्दों के बीच रक्त संबंध होते रहे और पितृ सत्रात्मक पहचान के साथ स्त्री नेतृत्व एवं सहभागिता वाली कुल साधना भी चलती रही। लेकिन बाह्य आलोचना तथा आलस्य के दबाव में साधना छूट गई।
अब साधनाहीन पूजा आखिर कितने दिन टिके, वह तो औपचारिकता मात्र है। वह भी समझ के आभाव में स्त्री कर्त्तव्यमूलक परम उपोक्षित पूजा हो गई आज के टीचर डे, फादर डे, मदर डे की तरह। यह तो विशेष पूजा है, जिसमे लिप्यंकन, मुद्रांकन एवं पूजा अधिकार का हस्तांतरण आदि किए जाते रहे हैं।
कुल देवी देवता का परंपरागत स्थान रसोई होता है। परंपरानुसार शुद्धि एवं कुल देवता को भोजन करना ही पहली उपासना है। यह तो तीन अग्नियों में से एक गार्हपत्य अग्नि का स्थान है। मेरे बचपन तक स्वाजातीय अतिथि भी रसोई घर में ही खाते थे। रसोई घर मतलब पाकशाला, कुल देवता का स्थान एवं सामूहिक पारिवारिक भोजनालय इसलिए सोने के घर से बड़ा भोजनालय बनता था। बीच में बिना दरवाजे वाली कोठी (अनाज भंडार)। कौल मार्गियों एवं घने बसे सगोत्रों के बीच घर के भीतर से भी आदान प्रदान की व्यवस्था कहीं कहीें होती थी। 
जमींदार, धनी एवं अतिगरीब के घर में यह व्यवस्था नहीं हो सकती थी। विशेष अवसर पर  कुल देवता के अतिरिक्त अन्य का प्रसाद रसोई घर के बाहर बनता था।
आज जैसे तीर्थों में तप या अनुष्ठान की जगह पर्यटन एवं दर्शन मात्र हो रहा है। श्राद्धख् तर्पण तो बस लगता है कि गया की मजबूरी है। व्रत अनुष्ठान जो तीर्थ यात्रा का अनिवार्य भाग है वह दर्शन में सिमट गया। उसी तरह कुल के देवी-देवता वर्ष में एक बार स्मरणीय पूजनीय रह गए। तंत्र या पुराणोक्त आचार छूट गए। न साधना विधि का भेद न नाम स्मरण की अनिवार्यता बची। अनेक  देवी देवता सभी बस एक कुल देवी देवता हो गए।
जिन्हें यह बात नागवार, लगी अधिक से अधिक उन्हांने सिद्धेश्वरी, परमेश्वरी आदि नाम याद रखे। पिछली पीढ़ी के कुल पूज्य कोई ‘‘वीर’’ शैव संप्रदाय के साधक व्यक्ति बाबा एवं उनकी भैरवी हो गई। औरत चूंकि जाति के बाहर की थीं तो वे ‘वंदनीया’ से ‘वंदिनी’ और अंत में ‘बांदी’ माई तक हो गईं। आज जो परम वैष्णव बने हैं अपने कुल देवी देवता नाम कैसे लें? अगली पीढ़ी से सच छुपाने में परंपरा की कड़ी ही छूट गई।
स्वयं मेरे घर में जहाँ पिछली कई पीढ़ीयों से उच्च शिक्षा है। मैं तो कम पढ़ा लिखा हूँ उनकी तुलना में, वहाँ भी परंपरा का ज्ञान नहीं था। उरवार की खोज में मैं उर गाँव गया। वहाँ सफलता नहीं मिली लेकिन दूसरे सगोत्र सदस्य से पुस्तक मिल गई।
अब परंपरा की जानकारी के बाद भी क्या फायदा? साधना तो हो नहीं सकती। जातीय ढाँचा बिखर गया है। गोतिया से द्वेष का पहला हक   सहज हो गया है। आज भी यदि हम अपने सगोत्र लोगों के साथ कम से एक रूप की साधना करना शुरू करें तो तुरत लाभ मिलना ही मिलना है।
विभिन्न पुर के लोग अपने कुल देवी या देवता का नाम बताएँ। साधना विधि ग्रंथों से ढूंढ़ ली जायेगी। तंत्र शास्त्र पढ़ने वाले उसे ढूुढ़ना जानते हैं लेकिन एक आदमी दूसरे की परंपरा की देवी-देवता का निश्चय कैसे करेगा? अधिक से अधिक नजदीकी रिश्तेदारों का ही हो सकता है। इसी तरह से मैंने सिद्धेश्वरी, वरुणार्क तारा, भल्लिनी, कोणार्क, अंधार-आधारी, पुण्यार्क तक का पता किया। आप लोग भी कुछ प्रयास करें, नाम बताएँ रास्ता निकलेगा।
हमारी जाति के अनेक लोग स्वयं भी तंत्र साधना करते हुए मर्यादा न मानने या दूसरे अज्ञानी तांत्रिक के चक्कर में फँसे हुए हैं। मैं ऐसे लोगों के लिए विमोहन का कार्य करता हूँ। फिर शांत साफ सुथरे दिल दिमाग से जिसे जो सही लगे, उसकी साधना करे, गुरु ढूँढे़। शाकद्वीपी किसी भी पंरपरा में जा सकता है लेकिन सामर्थ्य तो चाहिए ही। छिपकली से डरनेवाला श्मशान में कैसे बैठेगा?

पुर परिचय , कुल साधना  परंपरा भी पढ़ें 

2 टिप्‍पणियां:

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