मग/भोजकों के इतिहास एवं परंपरा के स्रोत
डॉ. रवीन्द्र कुमार
पाठक
मग
एवं भोजक इन दो नामों से शाकद्वीपीय ब्राह्मण जाने जाते हैं पुराणों के वर्णनों के
अनुसार कुछ लोग अन्य नामों की भी संभावना व्यक्त करते हैं किन्तु लोक व्यवहार में
ये दो नाम ही मुख्यतः प्रचलित हैं । लोगों को शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के इतिहास के
विषय में जिज्ञासा होती है किन्तु इतिहास के मूल स्त्रोतों के विषय में जानकारी न
होने से आधी-अधूरी सूचनाओं या परम्परागत विश्वास पर ही संतोष करना पड़ता है ।
संक्षेप में:- इतिहास या पूर्व परम्परा को जानने की दो पद्धतियाँ हैं –
(क)
सूचना-प्रधान, भावना-निरपेक्ष इतिहास की दृष्टि, जिसमें अनूकूल प्रतिकूल सभी सामग्री स्वीकृत
होती है ।
(ख)
भावना एवं श्रद्धा-प्रधान-पुराण-दृष्टि, जिसमें उपयोगी सामग्री को सुन्दर ढंग से श्रद्धापूर्वक
संजोया जाता है।‘पुरा नवं भवतीति पुराणं’।
जिस
धारा में पुरानी बातें नई हो जाएं उसे पुराण कहते हैं। ’इतिहास-पुराणाभ्याम् वेदं समुपबंृहयेत्’ यह हमारी समन्वय- प्रधान भारतीय दृष्टि है फिर
भी ऐतिहासिक अध्ययनों एवं पौराणिक विश्वासों में कई बार अंतर पाया जाता है । पुराण
सप्रयोजन लोकसापेक्ष एवं भविष्योन्मुखी होता है। इसी कारण उसे श्रद्धेय एवं
अनुकरणीय माना गया है । ऐतिहासिक तथ्य हमारे विवेक में वृद्धि करते हैं। अतः दोनों
दृष्टियों का अपना महत्त्व है ।
ऐतिहासिक
तथ्य कभी-कभी हमारी जड़ता पर चोट करते हैं, नकारात्मक सूचनाएँ पीड़ा पहुँचाती हैं फिर भी उन्हे साहस के
साथ स्वीकार करना चाहिए क्योंकि सत्य का कोई विकल्प नहीं होता । सावधानी- दोनों
दृष्टियों की अपनी अध्ययन पद्धति होती है । दोनों को एक साथ मिलाने से भ्रम एवं
अज्ञान फैलता है। अतः दोनांे निष्कर्षाें को एक साथ मिलाना नहीं चाहिए ।
इतिहास-दृष्टि एवं उसके स्रोत:-
भारतीय
समाज में अनेक प्रजातियों का सम्मिश्रण हुआ है और वर्णाश्रम व्यवस्था में सभी गलपच
गये हैं। इतिहास की खोज करनेवाले विविध सूचनाओं के आधार पर पूर्वस्थिति की आधी या
पूरी कल्पना करते हैं। ग्रंथ, शिलालेख, स्तम्भलेख, अवशेष, यात्रावृत्तांत आदि स्रोतों से सूचनाएँ संकलित की जाती हैं
। मंदिरों के शिल्प से, राजाओं के दान से प्रमाणिक सूचनाएँ मिलती हैं ।
मग-भोजकों के बारे में भी विविध सूर्यमंदिरों, मूर्तियों के शिल्पविधान, शिलालेख एवं स्तम्भलेखों से प्रामाणिक जानकारी मिलती है ।
पहले प्रकाशित ग्रंथों को देखना चाहिए फिर अन्य सामग्रियों का अध्ययन किया जाना
चाहिए । उदाहरण के लिए कुछ सूचनाएँ दी जा रही हैं- सभी सूर्यमंदिर खासतौर पर देव
वरूणार्क (भोजपुर, बिहार), देव एवं उमगा (औरंगाबाद, बिहार)के मंदिर । वरूणार्क मंदिर के साथ जुड़े स्तंभलेख एंव
शिलालेख। सूर्य की उदीच्य एवं प्रतीच्य (भारतीय एवं यूनानी प्रभाववाली) शैली की
प्रतिमाएँ। सूर्य-प्रतिमा में घोड़ों की संख्या का क्रमिक विकास । मगध एवं काशी
क्षेत्र में द्वादशादित्य । मगों के मूल ग्राम, उनके द्वारा लिखित ग्रंथ एवं वर्तमान तक की कडियाँ, क्रांतिकारी, शहीद आदि । ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं । मगों के विषय में
उनके शक, मंगोल, मध्य एशियाई, यूनानी, इरानी आदि होने की संभावना पर आधारित पुस्तकें भी मिलेंगी ।
इन सबों का सावधानी से अध्ययन करना चाहिए ।
पुराण-दृष्टि
भारतीय
संस्कृति अत्यंत प्राचीन संस्कृति है । इस संस्कृति को समझने के लिए गंगा की उपमा
दी जाती है। जैसे गंगा नदी में अनेकों नदियाँ आकर मिल जाती हैं और गंगा के जल को
अपने जल से न केवल परिमाण की दृष्टि से बढ़ाती हैं बल्कि अपने गुण धर्मो से भी उसे
भरती रहती हैं । अनेक प्रकार की नदियाँ मिलती हैं और अंत में जाकर सभी नदियाँ सागर
में विलीन हो जाती हैं । यदि गंगा के प्रारंभ पर ध्यान दिया जाय तो ऐसा लगेगा कि
नदी से उसकी सहायक नदियाँ ही बड़ी हैं । फिर इसे गंगा ही क्यों माना जाए ? भारतीय संस्कृति इस बहस में नहीं पड़ती । गंगा
की जो पुण्य पताका है, जो श्रेष्ठता है, लोग उसका लाभ उठाना, तुलना करने से अधिक आवश्यक और उचित समझते हैं । गंगोत्री से
गंगा सागर तक सर्वत्र गंगा एक है । हाँ, उसके नाम जाह्नवी, भागीरथी आदि भी हैं और यदि कोई गंगा को कई नामों से पुकारता
है तो गंगा में स्नान करनेवालों को कोई आपत्ति नहीं है ।
चूँकि
सांस्कृतिक समन्वय में, उसके मौलिक अवयवों में, मूलभूत रूप में पहचान पाना अत्यंत कठिन होता है
इसलिए ज्ञानमार्गी या बुद्धिवादी विचारक कभी-कभी बेचैन हो जाते हैं। बुद्धिवादी
विचारकों को विशेषकर तब अधिक बेचैनी होती है जब समन्वयवादी संस्कृति में स्वीकृत
विस्मृति के सिद्धांत के कारण कुछ कड़ियाँ टूटी रहती हैं।
बहुत
लंबे समय से इसीलिए पुराणों की प्रामाणिकता एवं अप्रामाणिकता का शास्त्रार्थ चल
रहा है। जो लोग धार्मिक हैं वे इस शास्त्रार्थ में नहीं पड़ते। आधुनिक भारतीय मन
विभिन्न दृष्टिकोणों के टकराव से व्यथित है और थककर मान लेता है कि ‘धर्मस्य तत्त्वं निहिंत गुहायां महाजनो येन गतः
स पंथा’ श्रेष्ठ लोगांे के जीवन को प्रमाण मानने के
विरूद्ध मैं भी नहीं हूँ किंतु यदि कुछ रास्ते उपलब्ध हैं तो सदैव अपने विवेक को
त्याग देना उचित नहीं है । यदि इस बात पर ध्यान दें कि किन-किन दृष्टियों से लोग न
केवल पुराणों को अपितु संपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक सामग्री को देख रहे हैं तो
हमारे अनेक प्रश्न स्वयं उत्तर से पूर्ण हो जाएंगे। मैं यहाँ पहले उन दृष्टियों की
चर्चा कर रहा हूँ।
आधुनिक भैातिकवादी दृष्टि-
इस
दृष्टि से पुराण अनेक उलटी पुलटी अंधविश्वासपूर्ण सूचनाओं के भंडार हैं। अतः
उन्हें पढ़ने या उनमंे से कुछ खोज निकालने का प्रयास मूर्खतापूर्ण है। इस दृष्टि के
लोग या तो विदेशी शासक रहे हैं या आधुनिक धर्मनिरपेक्षतावादी लोग । यह दृष्टि बिना
जाने विशेषज्ञ बनने की दृष्टि है, जो असत्य पर आधारित है और जिसका, प्रस्थानविंदु भी मूर्खतापूर्ण है। अतः इसे सही
दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता।
किवंदती प्रधान दृष्टि-
इस
दृष्टिकोण के लोग किंवदंतियों, श्रुति परंपरा से इधर उधर से कई सूचनाओं के आधार पर धर्म, संस्कृति या किसी भी ग्रंथ के बारे में अपनी
स्वयंभू धारणाएं विकसित कर लेेते हैं । इन स्वयंभू धारणाओं के पीछे वे इस तरह पागल
हो जाते हैं कि सत्य के लेशमात्र को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते यदि वह
सत्य उनकी धारणा के विपरीत हो । इस दृष्टि में बहुत ही धार्मिक संकीर्णता होती है, सर्वज्ञता का दंभ होता है । उपासना की भ्रष्ट
विधिविहीन, भावहीन पद्धतियाँ होती हैं और उससे भी अधिक
संकीर्णता तथा कलह की प्रवृत्ति होती है । असत्य एवं मूर्खता पर आधारित होने के
कारण इस दृष्टिकोण को भी स्वीकार करना उचित नहीं हैे ।
धर्मविरोधी दृष्टि-
मार्क्सवादी
या इनके समतुल्य अनेक लोगों को धर्म से ही घृणा र्है आैर उसका खंडन या
निंदा करना ही इन लोगों का लक्ष्य होता है । दुराग्रहपूर्ण एवं असत्य होने के कारण
इस दृष्टि को भी सही दृष्टि नहीं माना जा सकता है ।
सांप्रदायिक दृष्टि -
इसे
संकीर्णता या कूपमंडूकता की दृष्टि भी कहा जा सकता है । भारतवर्ष में विभिन्न
स्थानों एवं काल खंडांे में अनेक देवी-देवताओं की उपासना तथा पूजा की
विधियाँ विकसित र्हुइं। अपने आराध्य एवं उनकी पूजाविधि के प्रति समर्पित
होना बहुत अच्छी बात है लेकिन इस अनन्त ब्रह्नमांड में केवल किसी एक देवता या उसकी
पूजा विधि को सर्वानुकरणीय स्थापित करना तथा अन्य देवताओं, उनके भक्तों, उनकी जीवन शैली आदि का विरोध अर्द्धसत्य पर आधारित
अल्पज्ञता वाली दृष्टि है । इसीलिए छोटे समूह में भले ही इस दृष्टि को जितना भी रिक्त
स्थान मिल गया हो भारतीय लोक संस्कृति ने अंततः ऐसी संकीर्णता को नकार दिया है ।
समन्वयवादी दृष्टि-
वह इस
ब्रह्मांड में अनेक देवताओं के होने की बात स्वीकारती है । इन्द्र, वरुण, अग्नि, रूद्र, जैसे प्राचीन देवी देवताओं के साथ संतोषी माता एवं अन्य
देवताओं की पूजा को भी यह स्वीकार लेती है । संक्ष्ेाप में, इसे सुविधा के लिए हम स्मार्तदृष्टि कह सकते
हैं । यही कारण है कि कभी कभी एक ही उत्सव विभिन्न लोंगों के लिए विभिन्न समयों पर
संम्पन्न होते हैं। पंचांग में वैष्णवानां और स्मार्तानां ऐसा उल्लेख करना पड़ता है
। इसी समन्यवादी दृष्टि का विकास पुराण परंपरा में हुआ है जिसकी आगे चर्चा की
जाएगी । प्राचीन भारतीय पंरपरा में भी पुराण की समन्वयात्मक प्रकृति के विरूद्ध
अनेक दार्शनिक एवं संप्रदायवादी आचार्य विभिन्न कालख्रडों में खडे हुए हैं ।
आधुनिक
इतिहास लेखन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि पंरपरागत इतिहास दृष्टि से भी यहाँ इतिहास
एवं पुराण शब्दों के साथ जुड़ी हुई धाराओं की चर्चा की जाएगी । इतिहास में घृणा
उत्पन्न करानेवाली सामग्री का वर्चस्व होता है। लोगों में झगड़ा करानेवाले
राजनीतिज्ञों के लिए ऐसी सूचनाएँ बहुत उपयोगी होती हैं लेकिन लोक कल्याण में इस
दृष्टि का कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं हुआ है । आप उपासना पद्धतियों की खोज में
या संस्कृति के सूत्रों को जोड़ने में लगे हों तो पुराणांे के अध्ययन से पता चलेगा
कि किस प्रकार भारत वर्ष में प्रत्यक्ष विग्रह वाले भगवान भास्कर की प्रतिमा के
निर्माण एवं उनकी पूजा की पंरपरा विकसित हुई । और यदि भक्तजन अपनी सूर्योपासना में
भविष्य , सांब पुराण आदि की मदद लेंगे तो उन्हें भगवान्
भास्कर की कृपा का प्रसाद भी अवश्य प्राप्त होगा ।
शाकद्वीपीय
ब्राह्मणों के इतिहास की मुख्य दुविधाएं/उलझनें
तथ्य नहीं मिल रहे, सूचनाएं अधूरी हैं। कथाएं प्रतीकात्मक हैं
या सच्ची? हमारा अतीत
गौरवशाली है या कलंकित? दूसरों को क्या
कहें? क्या अपनी अगली पीढ़ी को
पुरानी घटनाओं को उसी रूप में बताना जरूरी है? इससे बदनामी नहीं होगी? दूसरे लोग अपने ऊज्ज्वल पक्ष की ही चर्चा
करते हैं तो हमें अपने काले पक्ष को क्यों सामने लाना चाहिये आदि प्रश्न पिछले 40 सालों से मैं भी झेल रहा हूं। ये संक्षेप
में नीचे प्रस्तुत हैं-
दुविधाएं-
1. सच्चा इतिहास या
मनोनुकूल इतिहास? केवल पुराण
आधारित या अन्य पर भी?
2. राज्यसत्ता
समर्थक या लोकसत्ता समर्थक?
3. वैदिक या अवैदिक?
4. भारतीय या
विदेशी?
उलझनें-
1. शाकद्वीप की
भौगोलिक स्थिति - ईरान, वर्मा, इंडोनेशिया, कजाकिस्तान,
भारत
का ही कोई क्षेत्र? आखिर कहां?
2. पुराने ईरानी ‘मगी’ एवं भारतीय ‘मग’ एक ही या भिन्न?
3. आर्य या आर्येतर?
4. शाकद्वीपी क्या
शक हैं?
5. शाकद्वीपी, शाकिनी, शाकम्भरी,
शकसंवत्, शकसेन वंश, सक्सेना उपाधि के बीच क्या संबंध हैं?
6. सूर्यपूजक से
वैष्णव एवं शैव-शाक्त तांत्रिक बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया एवं
कारण
7. दो प्रमुख
शाकद्वीपीय ब्राह्मण समूहों की पहचान की भिन्नता एवं आपसी रक्त संबंध का न होना।
यही हाल कुछ अन्य छोटे समूहों का है जो अब अपनी पहचान भी बदल
चुके हैं। मगों के द्वारा अपने निजी उपयोग, रक्त संबंध के लिये अन्य भारतीय जातियों में प्रचलित मूलग्राम
व्यवस्था के अनुसार पुर (गांव) आधारित पहचान तथा बाहरी तौर पर पूजा पाठ आदि के
लिये वैदिक ऋषि गोत्र को अपनाया जाना और भोजकों द्वारा खाप व्यवस्था के आधार
पर सगोत्रता का निश्चय।
8. प्रत्यक्ष
सूर्यपूजा के विवरण से मगों की खोज। यह तो सर्वप्रचलित है। मगों का इतिहास तो
सूर्यप्रतिमा एवं मंदिर के निर्माण से शुरू होता है। सूर्य प्रतिमा की दो प्रमुख
शैलियों मानवीय, कमलासन वाला, जूता कोट धारी रूप और रथस्थ सप्ताश्व रूप
का ऐतिहासिक कारण एवं आधार।
9. सौर तंत्र एवं
चिकित्सा से ज्योतिष तथा आयुर्वेद तक की यात्रा क्रम। भारत में बसने के बाद जीविका
में आये बदलाव के समय एवं कारण। आयुर्वेद या ज्योतिष के प्रणेता किसी भी ऋषि का
शाकद्वीपियों के भारत आने के पहले के पूर्ववृत्त में वर्णित न होना। ऐसी किसी भी
पारंपरिक कथा का अभाव।प्रश्न खड़ा होने पर झूठी एवं नई कथा कह देने से वह इतिहास
नहीं बन जाती।
10.
इतिहास एवं पुराण की दृष्टि की उलझन
11.
पौराणिक कथा या घ्वनि साम्य के आधार पर या मनमाने ढंग से अब तक उपलब्ध
सूचनाओं, संदर्भों को
बिना मिलाये जो लोग इतिहास ढूंढने की बात करते हैं उन्हें पता नहीं कि वे क्या
समस्या पैदा कर रहे हैं। यह तो बस वैचारिक हुड़दंग है।
इतिहास ढूंढ़ने
का तरीका
इतिहास को आदि से आज और
आज से आदि दोनों प्रकारों से खोजा जा सकता है। कडि़यां इतनी टूटी हैं कि आरंभ में
सभी संभावनाओं को एक़त्र कर तब मिलान करने का प्रयास करना चाहिये। सामग्री संकलन
की जगह झटपट निष्कर्ष अनेक विसंगतियां पैदा करेगा जिसकी पीड़ा पूरे समाज को झेलनी
पड़ेगी। किसी भी भारतीय जाति का इतिहास पूर्णतः तर्क आधारित या सदैव गौरव शाली
वाला नहीं है तो हम डर कर उलटा-पुलटा काम क्यों करें?
उपलब्घ सामग्री
क आदि से आज- महाभारत काल
से आज तक
ख आज से महाभारत काल तक
क महाभारत काल
से आज तक की ओर के इतिहास की स्रोत/सामग्री-
भविष्य पुराण एवं अन्य
सभी पुराण, सांब, सूर्य एवं सौर पुराण, अवेस्ता के मगी वाले संदर्भ, बायबिल का मगी वाला संदर्भ, धर्मशास्त्रीय ग्रंथों उल्लेख, नालंदा का इतिहास, विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरण, कहीं पक्ष कहीं विपक्ष आदि।
ख आज से महाभारत काल तक की
ओर के इतिहास की स्रोत/सामग्री-
पुरों, गोत्रों के चार्ट, वंशावलियां, डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के रिपोर्ट,शिलालेख, स्तम्भ लेख आदि।
अनुपूरक सामग्री
/ सेकेंडरी सोर्सेज Secondary
Sources
विभिन्न लेखकों के निजी
विचारों वाली पुस्तकें लेख वगैरह-
1 मगोपाख्यान कई, पहला पं बृहस्प्ति पाठक बाद में अन्य
लेखकों के संस्करण
2 मग तिलक एवं समान नामवाली पुस्तकें पं
सभानाथ पाठक एवं अन्य
3 डॉ. मंजु गीता राय की पुस्तक
4 प्रो. बी.एन.सरस्वती की पुस्तक
5 उड़ीसा के संघर्ष वाली पुस्तक
6 स्वजातीय संगठनों एवं संस्थाओं द्वारा
प्रकाशित स्माारिकाएं/पत्रिकाएं
7 वीकीपीडिया के मनमौजी लेख
8 अन्य वेबसाइटों पर डाली गई सामग्रियां
कुछ लोग सामग्री संकलन
की जगह झटपट निष्कर्ष के मूड में रहते हैं। इस तरह तो हम अपनी ही आंखों में धूल
झोंकते हैं। प्रयास करने पर क्या पता कितनी उलझनें सुलझ जायं। समाधान मिल जायं।
मेरे पास न तो कोई बना बनाया गौरवशाली निष्कर्ष है, न कोई दावा।
इतिहास की जानकारी और
समझ जितना जरूरी है, उससे अधिक जरूरी है उसका प्रामाणिक होना।
गौरवशाली इतिहास के आकर्षण में अपनी अगली या वर्तमान पीढ़ी को भ्रामक जानकारी देना
एक प्रकार से अपराध है। पुराने समय का कोई भी आदमी कितना भी विख्यात क्यों न हो, केवल अंदाजेबयां
वाले तर्ज पर उसे अपना साबित करना ठीक नहीं है। मगध में पैदा होने या पुराना नाम
होने से कोई दावा सिद्ध नहीं होता। अभी तक जिन नामों का आकर्षण है, वे मुख्यतः निम्नांकित
हैं-
1 ऋषि च्यवन एवं मतंग। इनके नाम पर तीर्थ
क्षेत्र हैं।
2 ऋषि चरक, आयुर्वेद की
प्रसिद्ध पुस्तक चरक संहिता के रचयिता
3 बाणभट्ट एवं उनके रिश्तेदार मयूर भट्ट आदि
सभी प्रसिद्ध विद्वान, साहित्यकार
4 आर्यभट्ट, खगोलविद्
गणितज्ञ
5 भाष्कराचार्य, खगोलविद्
गणितज्ञ
6 वराह मिहिर, खगोलविद्
गणितज्ञ बृहत्संहिता जैसी विश्वकोशीय पुस्तक के रचनाकार
7 चाणक्य विष्णुगुप्त, चन्द्रगुप्त के
आचार्य एवं अर्थशास़्त्र के रचनाकार
8 विष्णु शर्मा, हितोपदेश तथा
पंचतंत्र के रचनाकार
उपर्युक्त के अतिरिक्त
भी पूरे भारत में अनेक महान एवं अनुकरणीय व्यक्तित्व पैदा हुए हैं, जिनके गौरव से
हम गौरवान्वित हो सकते हैं, भले ही उनके जीवन काल में अपनी ही बिरादरी
ने उन्हें सम्मान एवं गौरव न दिया हो क्योंकि वे मनुष्यता या ऐसे ही किसी व्यापक
पक्ष का समर्थन कर रहे थे। ऐसे लोगों का विवरण भी संकलित करना जरूरी है।
शाकद्वीपी ब्राह्मणों के प्रमुख ऐतिहासिक खंड
शाकद्वीपी ब्राह्मण प्रायः सामाजिक रूप से
संवेदनशील, समकालीन
परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना करने वाले लगते हैं। अपने बौद्धिक वर्चस्व तथा
अपने मूल स्थान को स्मरण किये होने के कारण ये ईर्ष्या के पात्र भी रहे हैं। इनके
इतिहास के बारे में जो भी जानकारी मिलती है, उसे निम्न कालखंडों में बांटा जा सकता है। चूंकि सिलसिलेवार पूरी
जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी है अतः ज्ञात भागों की प्रमुख सूचनाएं दी जा रही हैं।
जो संभावनाएं और उन पर बने सिद्धांत सीधे तौर पर इतिहास के किसी काल खंड से नहीं
जुड़ते केवल सनसनी फैलाने जैसा काम करते हैं, उन्हें विचारणीय/समीक्षाधीन शीर्षक के अंतर्गत रख कर उसकी समीक्षा की
जा सकती है। सीधे जुड़े संदर्भ वे हैं जहां शाकद्वीपी या समतुल्य शब्द के साथ
ब्राह्मण के रूप में, मग/भोजक/दिव्य
ब्राह्मण नाम से इतिहास मिलता है। शाकद्वीप की भौगोलिक पहचान, शक एवं मगी वाला संदर्भ एवं सिद्धांत
मौलिक रूप से विवादास्पद एवं परीक्षणीय हैं। हां, सूर्य प्रतिमा की दो प्रमुख शैलियां हैं- उदीच्य एवं प्रतीच्य
अर्थात पूर्वी एवं पश्चिमी। यह निर्विवाद एवं प्रत्यक्ष है। इसके उल्लेख अनेक मूल
ग्रंथों में पाये जाते हैं लेकिन प्रतीच्य का अर्थ ईरान कैसे हो गया मेरी समझ के
बाहर है। क्या भारत वर्ष में पूरब पश्चिम नहीं है?
प्रमुख काल खंड एवं उनसे जुड़ी सूचनाएं
वैदिक काल-
जातीय इतिहास की कोई सूचना नहीं। ऋषिगोत्र
बाद में अपनाये गये अन्यथा शाकद्वीप से आगमन एवं जंबूद्वीप में बसने संबधी विवरण
में ही इसका उल्लेख होता।
महाभारत काल-
सांब की कथा के साथ पुराणोक्त कथा शुरू
होती है। सूचनाओं का अंतर इतना जरूर है कि 18 कुल आये या 18 पुरुष जिनके
लिये भोज वंशीय कन्याओं की व्यवस्था हुई और उन्हीं से आगे की संतानें बनीं।
हर्ष पूर्व-
मूर्तियां एवं शिलालेख मिलते हैं।
हर्षकालीन-
मगध से कन्नौज एवं कन्नौज से मगध में काफी
संख्या में जा कर लोग बसे या बसाये गये। सभी जातियों के लोग गये इसलिये अभी भी सभी
जातियों में कन्नौजिया एवं मगहिया भेद पाया जाता है।
गुप्तकालीन/उत्तर गुप्तकालीन-
अनेक शिला लेख एवं दक्षिण बिहार में
भोजकों के मंदिर राज्यों की स्थापना। देव वरुणार्क एवं अन्य शिलालेख। सूर्य के
आदित्य नाम के गौरव की खूब चर्चा कर द्वादश 12 आदित्यों का वर्गीकरण तथा उसे नारायण और विष्णु रूप के अंतर्गत
समेटने का प्रयास। सौर तंत्र का प्रचार आरंभ तथा कर्मकांड में सूक्ष्म मुहूर्त
विचार का समावेश।
10 वीं से 14 वीं
सूर्य का शिव में अंतर्भाव की धारा का
अभ्युदय। द्वादश आदित्य परंपरा की काशी में स्थापना एवं अस्सी संगम से लोलार्क कुड
से ले कर वरुणा के वरुणार्क मंदिर तक अनेक मंदिरों का निर्माण। कुछ तालाबों को
विशेष तिथियों में गंगा से भी पवित्र घोषित किया जाना। इसके परिणाम स्वरूप
प्रसिद्ध अघोरी सिद्ध कीनाराम के द्वारा क्रीं कुंड को गंगा से भी अधिक पवित्र
घोषित किया जाना।
मगध से उड़ीसा के समुद्र तट तक सूर्य
मंदिरों की स्थापना एवं जगन्नाथ मंदिरों को ही उसकी मूर्ति हटा कर सूर्य मंदिर
बनाना। इसी प्रकार अन्य विष्णु मंदिरों पर कब्जा जमा कर उसे शिव मंदिर बनाना।
तंत्र धारा का पूरा साम्राज्य एवं पालवंशीय राजाओं द्वारा समर्थित वामाचार में
बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना। दक्षिण बिहार के जंगलों में तो एक पूरे कौल क्षेत्र की
स्थापना।
मूहूर्त विचार की अनिवार्यता पूरे
कर्मकांड में लागू किया जाना। अनेक ब्राह्मणों द्वारा भारत के विभिन्न क्षेत्रों
में समर्थन तथा उसे अपनाने के कारण सौर तंत्र के छाया पक्ष अर्थात् छाया मापन के
यंत्रों द्वारा ज्ञान को सौर तंत्र की जगह ज्योतिष शास्त्र का रूप दिया जाना।
सूर्य मंदिर एवं वेधशाला से बाहर विकेन्द्रित रूप से ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन की
परिपाटी की चलन। सूर्य सिद्धांत आदि के रचनाकार में किसी के द्वारा स्वयं को मग, भोजक या किसी भी रूप में स्पष्ट तौर पर
शाकद्वीपी नहीं घोषित किया जाना। यह सब तो बाद के युग का संभावना आधारित प्रचार है
जिसकी पुष्टि जरूरी है।
14 वीं से 20 वीं
सभी समकालीन राजनैतिक सामाजिक आंदोलनों
में कुछ न कुछ लोगों की सहभागिता। परिणामस्वरूप खिचड़ी संस्कृति एवं भयानक गृह कलह
का आरंभ। तंत्र के नाम पर पूरा छलछद्म एवं परिवार में स्त्रियों पर अत्याचार
क्योंकि सभी धारा के सांस्कृतिक नेतृत्व के कारण मामले का पेचीदा होते जाना। जयदेव
की पूर्ण स्वीकृति, गीत गोविंद को
कुल गीत का दर्जा। मांसाहार एवं तंत्र साधना परंपरा जारी। सौर मगों की दुर्गति, उनके मंदिरों एवं साम्राज्य का मुस्लिम
आक्रांताओं द्वारा ध्वंस। कोणार्क का अंगरेजों द्वारा ध्वंस।
आर्य समाज जैसी ब्राह्मण विरोधी धारा को न
केवल समर्थन वरन पुरोहिती तथा चिकित्सा पेशे में गैर परंपरागत जातियों को स्थापित
करने में मुख्य भूमिका, खाश कर मूल
औैषधीय द्रव्यों के आढ़ती जातियों का आयुर्वेद व्यवसाय पर कब्जा, कंपनी संस्कृति का उदय।
विभिन्न राजनैतिक धाराओं का नेतृत्व, निम्न पसंदीदा क्रम में- पहली
प्राथमिकता-जनसंघ एवं अंगरेज, शाहाबाद तथा
मुगेर प्रमंडल को छोड. कर। यहां 1857 के प्रभाव के
कारण अंगरेज भक्ति अच्छी नहीं मानी जाती थी। इसी प्रभाव में अंगरेज परश्त बिरादरी
के जंमीदारों एवं आर्यसमाजियों द्वारा जातीय सम्मेलनों संगठनों की शुरुआत। मुख्य
बहुसंख्यकों के द्वारा किये गये प्रयासों की चर्चा मैं ने दूसरी जगह की है। दूसरी
प्राथमिकता- कांग्रेस, अनेक कांग्रेसी
स्वतंत्रता सेनानी, तीसरी-
साम्यवादी जो कई बार लेनिन ही नहीं माओ की भक्ति तक जाती है। चौथी- समाजवादी, बहुत कम, न के बराबर। आज भी भाजपाइयों की संख्या सबसे अधिक है।
राजस्थान में शाकद्वीपीय पुनरुत्थान
आंदोलन, याचक वृत्ति एवं मंदिरों
के पुजारी होने के साथ आधुनिक शिक्षा तथा व्यवसाय में आगे बढ़ने का प्रयास और काफी
सफलता। भोजक नेतृत्व द्वारा मगों के यहां रक्त संबंध का प्रस्ताव। उड़ीसा में पुनः
स्थानीय शाकद्वीपी ब्राह्मणों को यज्ञ में स्थान न दिये जाने के विरुद्ध जगन्नाथ
मंदिर कमिटी में मुकदमा। मगध से पुराने रक्त संबंध के आधार पर पक्ष में फैसला, प्रतिष्ठा प्राप्ति। अनेक प्रदेशों में
ब्राह्मण के स्प में स्वीकृति किंतु बंगाल में अभी तक राजा एवं समाज दानों के
द्वारा अस्वीकृति।
इसमें जो सूचनाएं गलत हों उनका आधार सहित
खंडन, सुधार करें। जो छूटी हुई
हैं, उन्हें खोज कर पूरा
करें। मेरा यह प्रस्ताव भर है।
मगों का ब्राह्मणत्व
मगों ने ब्राह्मणोचित सभी जीविकाएँ पकड़ी।
यज्ञ, अध्ययन अध्यापन, पौरोहित्य, गुरुपद, ज्येातिष, तंत्र, दान लेना एवं देना,
इसके
साथ आर्युवेद। सूर्य मंदिर में पूजा से सुविधापूर्ण जीवन का आकर्षण आज के दक्षिण
बिहार में पहले भी कम नहीं था। पूरा भोजपुर-रोहतास जिला मंदिरों के
राज में था फिर भी राजस्थान की तरह अपने को केवल मंदिरों की पूजा तक नहीं समेटा
बल्कि अन्य ब्राह्मणों की तरह समाज में स्वीकृत ब्राह्मणों की आजीविका को
असुविधापूण्र होने पर भी स्वीकार किया।
बौद्धों से विद्या तो स्वीकार की, तारा की उपासना को अपनाया, वैरोचन बुद्ध को स्वीकार किया, बुद्ध को 12 वां अवतार भी बनाया लेकिन इसके विपरीत जब नालंदा
विश्वविद्यालय के भिक्षुओं ने अत्याचार किया तब सूर्य पूजक ब्राह्मण भड़क गए।
सूर्यपूजक ब्राह्मणों ने ही पहली बार बिना राज्याश्रय के नालंदा विश्वविद्यालय के
एक खंड और उसके ग्रंथागार को जला डाला, मतलब पराक्रम भी दिखाया।
भोजक गण धीरे-धीरे मंदिरों के पुजारी पद
तक सीमित होते गए। वैदिक गोंत्र व्यवस्था भी नहीं मानी, खाप परंपरा को अपनाया न कि ग्राम व्यवस्था
को, जैसा कि जाट, दुसाध, पासी, गुर्जर आदि
अपनाते हैं। राजस्थान की कठोर स्थिति में किसी समय ओसवाल जजमानों के साथ जैन धर्म
भी स्वीकार कर लिया और अंत में मंदिरों के आगे दान की याचना करने वाले ‘याचक’ बन गए।
इसके बावजूद राजस्थान में 19वीं 20वीं शदी में जबर्दस्त पुनरूत्थान आंदोलन चला। इस सच्चाई को स्वीकार
कर उन समझदार महानंभावों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये न कि इस तथ्य को ही
छुपाने का प्रयास। संस्कृत तथा आधुनिक उच्च शिक्षा के बल पर समाज के हर क्षेत्र
में अंग्रेजी राज में भी स्थान पाने का तप किया। आज धन, विद्या, व्यवसाय, शिक्षा, पद, संगठन एंव प्रतिस्पर्धी कलह (न कि दूसरों की टंाग खिंचाई) सबमें भोजक
आगे हैं। मग पिछड़ रहे हैं, निजी व्यवसाय के
क्षेत्र में तो मग अभी भी भोजकों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
विवाह करना न करना निजी मामला है। केसे
पहल करें? मूल बात यह है।
भोजकों को भी वैदिक गोत्र व्यवस्था या मगों की तरह ग्राम व्यवस्था जैसे रीति
अपनाने पर सोचना चाहिए। वैदिक पहचान के बिना ब्राह्मण होने का दावा!, वह भी भारतीय समाज में आखिर कैसे चलेगा?
मग-भोजक की फाँस -
एक जमाना था जब सूर्य पूजक ब्राह्मण होने
के नाते लोग अपने को सूर्य को भोजन करा कर खाने वाले, भोजक, ब्राह्मण कहलाना पसंद करते थे। स्वयं एवं अपने संरक्षक राजा के नाम
में आदित्य शब्द आगे-पीछे जुड़वाते थे। इस कारण मगध से राजस्थान, गुजरात तक - काशी, मथुरा, विदर्भ आदि बीच वाले क्षेत्रों सहित मंदिरों को मिले दान-पत्रों, शिलालेखों में गौरव के साथ ‘भोजक’ शब्द मिलता है। भविष्य पुराण के हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग वाले संस्करण के सांब द्वारा राजा
भोज के कुल की कन्याओं से विवाह के कारण ‘भोजक’ नामकरण हुआ। इस
संस्करण के लिये प्रयुक्त पांडुलिपि की परीक्षा करनी चाहिये साथ ही अन्य संस्करणों
से मिलान के बाद ही इस मत को प्रामाणिक मानना चाहिये तब तक के लिये इसे विचाराधीन
रखा जा सकता है।
‘मग’ शब्द भी मथुरा तथा अन्य क्षेत्रों में
प्राप्त शिलालेखों में मिलता है। सवाल यह आता है कि आखिर इनका अंतर क्या है ? संस्कार, परंपरा, विश्वास, कद-काठी या किस बात का इतना अंतर है? जो अंतर हैं वे भी क्यों ? क्या इसका कोई ज्ञात कारण है ? बहुत दिनों से दोनों समूहों के बीच रक्त
संबंध नहीं हो रहे। यह स्थिति बनी रहनी चाहिए या नहीं? भोजक लोग पिछले 100 वर्षों में मग ब्राह्मणों के यहाँ विवाह
करने एवं स्वयं को मग कहने में अभिरुचि रखते हैं, उतना ही मग भी क्यों नहीं ? नई पीढ़ी तो इतना ही समझ नहीं पा रही, फिर उड़ीसा, बंगाल के शाकद्वीपी ब्राह्मणों का क्या कहें? उनसे संबंध, रिश्तेदारी तक जाए या नहीं ?
एक तरफ यह दुविधा है तो दूसरी ओर आधुनिक
रूप से शिक्षित परिवारों में अंतरजातीय विवाह की भी चलन बढ़ रही है। अंतरजातीय
विवाह प्रायः मजबूरी में ही सही लेकिन स्वीकृत तो हो ही रहे हैं। आश्चर्य यह है कि
ऐसे परिवारों के लोग भी उदार बनने की जगह और अधिक कट्टर जातिवादी बनते नजर आते
हैं।
आज की तारीख में
मग-मोजकों में सरलता पूर्वक विवाह न होने का मुख्य कारण है - दोनों का समाज में
समावेश का तौर-तरीका गोत्र एवं ग्राम व्यवस्था में अंतर।
ब्राह्मणों का वर्गीकरण कई बार हुआ। इनमें मेरी जानकारी में
निम्न प्रमुख हैं -
1- वैदिक सूत्रों
वाला - जैसे वाजसनेयी, आंगिरस आदि
2- स्मृतियों वाला
- मनु, पराशर, गोभिल, मौद्गल आदि।
3- उत्तर भारत में
राजा हर्षवर्द्धन वाला - त्रिपाठी, चतुर्वेदी, द्विवेदी आदि
4- शंकराचार्य
वाला- पंच गौड़, पंच द्रविड़
वाला कान्यकुब्ज, वंग, कलिंग, सारस्वत आदि।
5- अंग्रेजों की
रायशुमारी वाला- विस्तृत एवं अनेक विवादों की जड़।
बंगाल, उड़ीसा एवं
दक्षिण के वर्गीकरण की पूरी सटीक जानकारी मुझे नहीं है।
बिरादरी की पहचान एवं परंपरा की उलझनें: कुछ
फुटकर प्रश्न
सांब ने
मूलस्थान में चन्द्रभागा नदी के किनारे सूर्य की स्थापना की। इस पौराणिक सूचना का
अर्थ लगाने एवं ईरान से संबंध स्थापित करने में क्या क्या कल्पना करनी पड़ती है, जरा गौर करें।
पहले तो चन्द्रभागा नाम की नदी कहीं मिल नहीं पाती। इसे संगत बताने के लिये चिनाब
को चन्द्रभागा मानना पड़ता है। मूलस्थान को मुल्तान मानना तो समझ में आता है।
लेकिन स्वप्न, समुद्र, काष्ठ की प्रतिमा बनवाना, वह भी खराद या किसी
यंत्र पर चढ़ा कर बनाना, रक्त चंदन का लेप आदि से इस परंपरा के मूलस्थान/मुलतान में
होने की बात बैठती नहीं है। विष्णु भी तो क्षीर सागर वासी हैं।
एक दूसरी
परिस्थिति दिखाई दे रही है। उड़ीसा में काष्ठ प्रतिमा चलन में है। यह सूर्य की
काष्ठ प्रतिमा वाली बात कुछ मिलती जुलती है। कोणार्क भी तो चन्द्रभागा नदी के
किनारे है। भविष्य पुराण की कथाओं में यहां तक कि सत्यनारायण व्रत कथा में आता है-
‘‘चन्द्रभागा नदी
तीरे सत्यस्य व्रतमाचरत’’। कुछ लोग क्षीर समुद्र को भारत के पूरब में बर्मा एवं उससे
आगे का भाग मान रहे हैं। यहां कुछ संबंध सा लगता है। कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं को
कहीं न कहीं स्मृति परंपरा एवं पौराणिक परंपरा में छुपाया गया है, जिसके कारण
बातें स्पष्ट नहीं हो पा रही हैं।
सूर्य को आदित्य
(12 आदित्य) समूह
में मानना, वसु समूह में मानना फिर अर्क नाम के विविधि रूपों में वर्गीकृत करना
ये सारी बातें विभिन्न परिवर्तनों की ओर इंगित करती हैं। कुछ के भौतिक उदाहरण भी
मिलते हैं, जैसे - वाराणसी में 12 आदित्यों की स्थापना।
अन्य स्थानों पर सूर्य मंदिर हैं फिर भी उनमें संगति नहीं बैठ पाती।
स्वजातीय
सामाजिक पहचान तथा व्यवहार में जो स्थिति है वह और समझ में नहीं आती। कुछ पुरों के
नाम हैं- पुण्यार्क, वरुणार्क, गुण्यार्क आदि। इनमें केवल वरुणार्क पुराणोक्त वर्गीकरण के
अंदर आता है, बाकी के आधार के बारे में जानकारी नहीं मिलती। पुरों के वर्गीकरण के
संबंध में अर्क, आदित्य तथा रश्मि वाली बात का मतलब क्या है? हमारे जीवन, व्यवहार, साधना आदि से
इसका क्या संबंध है?
ये सूचनाएं एवं वर्गीकरण केवल आपकी सुविधा
के लिये हैं। अगर कोई आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति/संगठन बिखरी हुई सामग्री को
एकत्र संकलित कर उसे प्रकाशित करने का बोझ उठाते तो समाज के लिये बड़ा योगदान
होता। चूंकि सारी सामग्री इंटरनेट पर उपलब्घ नहीं है। इस लिये क्षेत्र भ्रमण आदि
की आवश्यकता है। अतः लाख उत्साही होने पर भी यह काम एक दो लोगों के वश का नहीं है।
इसमें कुछ लाख रुपयों की आवश्यकता तथा समय देने की भी जरूरत है। मैं भी अपने स्तर
से यथा संभव प्रयास कर रहा हूं।
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