सोमवार, 19 अगस्त 2013

शाकद्वीपी समाज में शाकाहार और मांसाहार

शाकद्वीपी समाज में शाकाहार और मांसाहार      :   फेसबुक पर उठाये गये प्रश्न के आलोक में
शाकाहार और मांसाहार के मामले में जब सच्चाई ज्ञात हो तो फिर सवाल क्या? बलि तो खाद्य पदार्थ की दी ही जाती है। इसमें कौन सी नई बात है? शाकाहारी शाकाहारी खाद्य पदार्थ की बलि देता है मांसाहारी मांसाहारी खाद्य पदार्थ की। बलि वैश्वदेव की यही प्रक्रिया है। विवाह हो या श्राद्ध काक बलि एवं दहि-उड़द की बलि मांस का समतुल्य मान कर देते ही हैं। बलि का अर्थ केवल जानवर की हत्या थोड़े ही है। जिनकी जैसी कुल देवी या देवता, उनका वैसा भोजन। 
रही वर्जना की बात तो कब हुई वर्जना, अनेक गांवों में पहले से ही मांसाहार स्वीकृत है। शाक्त और भगवती के विभिन्न रौद्र रूपों के उपासक, जो ऐसे मंदिरों के पुरोहित हैं, आज भी मांसाहारी हैं और खुलेआम बलि दिलाते हैं। शाकाहारी तथा मांसाहारी परिवारों के बीच बहुत पहले से आज तक रक्त संबंध हो रहे हैं। तब यह सामाजिक वर्जना कब हो गई कि इस काल्पनिक प्रश्न का उत्तर दिया जाय। कई लोग अपने मूल गांव जैसे भलुनियार भलुनी में खुले आम मांसाहारी हैं। उरवारों का बड़ा गांव पचरुखिया पंरपरा से मांसाहारी है। कई पुर वालांे के यहां जिनके कुल देवता सूर्य के ही कोई न कोई रूप हैं आज आंटे के भेड़ की बलि पड़ती है। हो सकता है कभी पशु भेड़ की बलि पड़ती हो। परंपरागत सूर्य मंदिर वाले गांवों में भी मांसाहार तो है ही। 
किसी काल खंड में चैतन्य, जयदेव या किसी अन्य के प्रभाव में किसी परिवार ने खाना छोड़ दिया यह भी संभव है और शैव, शाक्त परंपरा में जाने के कारण अगर किसी ने मांसाहार अपनाया हो यह भी संभव है। अब अगर कुछ लोग मांसाहार न करते हों तो उनकी व्यक्तिगत या पारिवारिक रुचि एवं उनके घर के अभिभावक का यह निर्णय हो सकता है, शाकद्वीपी समाज की वर्जना थोड़े ही है। समाज की वर्जना होती तो पुराने जमाने में जब समाज दंड एवं बहिष्कार की चलन थी आपस में खाना पीना एवं विवाह ही नहीं होता।
जब शाकाहार एवं मांसाहार दोनो ही चलन में हो तो यह एकतरफा पक्ष या विपक्ष में निर्णय जिसे करना हो करे मेरी समझ से यह कोई अज्ञात विषय नहीं है। हमारा समाज पुराने बिहार तथा मध्य प्रदेश में मिश्रित हाज में है। किसी की निजी रुचि एवं आदर्श को समाज क्यों अपनी परंपरा या वर्जना मानेगा? वह तो सामाजिक वर्जना को ही मानेगा कि एक पुर में विवाह नहीं होता, यह समाजिक वर्जना का उदाहरण है। रही बात कुक्कुट वाली तो यह बात नये लोगों को भले ही ज्ञात न हो क्योंकि उनमें से कुछ लोग परंपरा को अपने मन से या आज की स्थिति की सुविधा से समझना चाहते हैं, पुराने मांसाहारी भी ग्राम कुक्कुट अर्थात् मुर्गा नहीं खाते थे जंगली चीतल बगेरी वगैरह खाते थे तभी तो इन्हीं उदाहरणों के माध्यम से करणीय अकरणीय का फर्क यज्ञविधि की पुस्तक में समझाते हैं। न ही उनके मांसाहारी भोजन में लहसुन प्याज पड़ता था भले ही लहसुन-प्याज शाकाहारी हो। इतना ही नहीं वाम मार्गी पंच मकार के अंतर्गत भी मांस और मछली की गिनती है, मुर्गे की नहीं। यही सामाजिक चलन है। 
हां, अगर प्रश्न यह हो कि ऐसा ही क्यों है या यह कहां तक उचित है तो कुछ लोग जरूर उत्तर देना पसंद करेंगे। यह मेरी रुचि और निष्ठा का प्रश्न है कि मांसाहारी से मैं घृणा करूं न करूं? मेरे मांसाहारी या शाकाहारी होने मात्र से किसी समाज या देश का कोई न तो बड़ा अनिष्ट होने वाला है न लाभ? खैरियत है कि मेरी टिप्पणी विद्वत्तापूर्ण लगी किसी को यह नितांत मूर्खता पूर्ण भी लग सकती है। मुझसे अधिक ज्ञानी अनंत हैं।
मैं जब राजस्थान के बारे में इस मामले में नहीं जानता तो क्यों न प्रश्न पूछूं? फिर यह ग्रुप क्यों? केवल सर्वज्ञ ही प्रश्न नहीं करते? वे ही हर बात का अकेले निर्णय कर लेते हैं। मेरी जानकारी इतनी ही है। इससे अधिक जो जानें वे बतायें। 

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