शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

मगों का ब्राह्मणत्व

मगों का ब्राह्मणत्व
मगों ने ब्राह्मणोचित सभी जीविकाएँ पकड़ी। यज्ञ, अध्ययन अध्यापन, पौरोहित्य, गुरुपद, ज्येातिष, तंत्र, दान लेना एवं देना, इसके साथ आर्युवेद। सूर्य मंदिर में पूजा से सुविधापूर्ण जीवन का आकर्षण आज के दक्षिण बिहार में पहले भी कम नहीं था। पूरा भोजपुर रोहतास जिला मंदिरों के राज में था फिर भी राजस्थान की तरह अपने को केवल मंदिरों की पूजा तक नहीं समेटा बल्कि अन्य ब्राह्मणों की तरह समाज में स्वीकृत ब्राह्मणों की आजीविका को असुविधापूण्र होने पर भी स्वीकार किया।
बौद्धों से विद्या तो स्वीकार की, तारा की उपासना को अपनाया, वैरोचन बुद्ध को स्वीकार किया, बुद्ध को 12 वां अवतार भी बनाया लेकिन इसके विपरीत जब नालंदा विश्वविद्यालय के भिक्षुओं ने अत्याचार किया तब सूर्य पूजक ब्राह्मण भड़क गए। सूर्यपूजक ब्राह्मणों ने ही पहली बार बिना राज्याश्रय के नालंदा विश्वविद्यालय के एक खंड और उसके ग्रंथागार केा जला डाला, मतलब पराक्रम भी दिखाया।
भोजक गण धीरे-धीरे मंदिरों के पुजारी पद तक सीमित होते गए। वैदिक गोंत्र व्यवस्था भी नहीं मानी, खाप परंपरा को अपनाया न कि ग्राम व्यवस्था को, जैसा कि जाट, दुसाध, पासी, गुर्जर आदि अपनाते हैं। राजस्थान की कठोर स्थिति में किसी समय ओसवाल जजमानों के साथ जैन धर्म भी स्वीकार कर लिया और अंत में मंदिरों के आगे दान की याचना करने वाले ‘याचक’ बन गए।
इसके बावजूद राजस्थान में 19वीं 20वीं शदी में जबर्दस्त पुनरूत्थान आंदोलन चला। इस सच्चाई को स्वीकार कर उन समझदार महानंभावों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये न कि इस तथ्य को ही छुपाने का प्रयास। संस्कृत तथा आधुनिक उच्च शिक्षा के बल पर समाज के हर क्षेत्र में अंग्रेजी राज में भी स्थान पाने का तप किया। आज धन, विद्या, व्यवसाय, शिक्षा, पद, संगठन एंव प्रतिस्पर्धी कलह (न कि दूसरों की टंाग खिंचाई) सबमें भोजक आगे हैं। मग पिछड़ रहे हैं, निजी व्यवसाय केे क्षेत्र में तो मग अभी भी भोजकों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
विवाह करना न करना निजी मामला है। केसे पहल करें ? मूल बात यह है। भोजकों को भी वैदिक गोत्र व्यवस्था या मगों की तरह ग्राम व्यवस्था जैसे रीति अपनाने पर सोचना चाहिए। वैदिक पहचान के बिना ब्राह्मण होने का दावा!, वह भी भारतीय समाज में आखिर कैसे चलेगा?

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